रविवार, 4 अगस्त 2024

बड़े षड्यंत्र का हिस्सा प्रतीत होती ‘जातिगत जनगणना’ की माँग

डॉ. विपिन कुमार (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

 इन दिनों पूरे देश में जातिगत जनगणना को लेकर राजनीतिक सरगर्मीं काफी बढ़ी हुई है। एक ओर, बीते दिनों देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अनुसूचित जाति और जनजाति में क्रीमी लेयर मानदंड लागू करने के निर्णय सुनाया, तो दूसरी ओर, हमें संसद में भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर और नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी और अखिलेश यादव के बीच तीखी बहस देखने के लिए मिली।

यदि आप राजनीतिक घटनाक्रमों पर गौर करें, तो पाएंगे कि चुनावी अभियानों के दौरान राहुल गांधी हों या अखिलेश यादव, इंडी के सभी नेता जाति को लेकर कार्यपालिका से लेकर मीडिया तक पर बारंबार बेहद आक्रामक अंदाज़ में सवाल उठाते दिखे थे और एक बार तो उनके इस रवैये के कारण एक पत्रकार भीड़ के हत्थे चढ़ते-चढ़ते बचे।

अब जब अनुराग ठाकुर ने राहुल गांधी से उनकी जाति पूछ ली, तो इंडी वालों को बुरा क्यों लग गया? क्या जाति पूछने का विशेषाधिकार केवल इंडी के नेताओं के पास है? क्या सदन में जाति पूछना, सड़क पर पूछने से ज़्यादा असुरक्षित है? यह एक अज़ीब विडंबना है।

यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भारत बीते एक दशक में बेहद गति के साथ आगे बढ़ा है और वर्ष 2047 तक स्वयं को एक नई वैश्विक महाशक्ति के रूप में स्थापित करने का संकल्प हमारे सामने है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि हम जाति-धर्म की राजनीति से ऊपर उठें और राष्ट्र निर्माण में अपने योगदान को सुनिश्चित करें।

परन्तु, कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने हमेशा अपने विभाजनकारी मानसिकता का परिचय दिया है। वे लोगों को जाति, धर्म, क्षेत्र, आदि के आधार पर बाँटना चाहते हैं। जम्मू-कश्मीर से 370 हटाने का मुद्दा हो या राम मंदिर निर्माण का, उन्होंने अपने निजी स्वार्थ के लिए हमेशा राष्ट्रीय हितों को नुकसान पहुँचाने का कार्य किया है और अब जातिगत जनगणना के नाम पर वे फिर से इसी मानसिकता को दोहरा रहे हैं।

चूंकि, जातिगत जनगणना का मामला आरक्षण से जुड़ा हुआ है और इसे लेकर कांग्रेस के नेता चाहे जितनी बड़ी बातें कर रहे हों, असलियत यही है कि पूर्व में पंडित जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी भी आरक्षण का विरोध कर चुके हैं। यहाँ तक कि 2011 के जनगणना के दौरान भी कांग्रेस के कई शीर्ष नेताओं ने भी इसे अव्यवहारिक बताया था और जातिगत आँकड़े ज़ारी नहीं किये गये। आज जब राहुल गांधी इसके पैरोकार बने हुए हैं, तो लोगों को कुछ ज़मीनी वास्तविकताओं को समझना अनिवार्य है।

दरअसल, राहुल गांधी अपने दो दशकों के राजनीतिक जीवन में बेहद असफल रहे हैं और अब लोग उनकी नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाने लगे हैं। चूंकि, उनकी अगुवाई में कांग्रेस लगातार तीसरी बार तीन अंकों के आँकड़े तक नहीं पहुँच पाई और उन्हें अपने भविष्य को बचाने के लिए अखिलेश, तेजस्वी जैसे साथियों की सख़्त आवश्यकता है।

राहुल को ज्ञात है कि यदि उन्हें इंडी गठबंधन को बचाना है, तो उन्हें जातिगत जनगणना के नाम पर आक्रमता दिखानी होगी। इससे उन्हें दो लाभ हैं। पहला तो यह कि बिहार, झारखंड, दिल्ली जैसे कई राज्यों में विधानसभा चुनाव बेहद करीब हैं और इस रणनीति से केवल इंडी गठबंधन की आयु थोड़ी लंबी हो जाएगी, बल्कि व्यक्तिगत रूप से कांग्रेस को भी फायदा मिलेगा।

वहीं, दूसरा लाभ यह है कि इससे उन्हें हिन्दू समाज को जात-पात में बाँटने में सुविधा हो जाएगी। संभव है कि 2029 तक वे निजी कंपनियों में भी जातिगत आरक्षण की माँग करें, जैसा कर्नाटक में हो भी चुका है।

राहुल गांधी यह रणनीति बेहद खतरनाक है। वह साम्यवाद और जातिवाद के जिस मॉडल के साथ आगे बढ़ रहे हैं, वह देश को गृहयुद्ध की आग में धकेल सकता है। निवेशकों और उद्यमियों को द्वंद की स्थिति में डाल सकता है। इसलिए उन्हें अपने क्षणिक लाभ के लिए देश को ताक पर रखने का कोई अधिकार नहीं है और इसके लिए देश के सभी प्रबुद्धजनों को एकजुट होना होगा। हमें उनकी हर एक गतिविधि पर कड़ी नज़र रखनी होगी, क्योंकि उनकी कड़ियां वैसी शक्तियों के साथ जुड़ी हैं, जो पूरी दुनिया में अस्थिरता पैदा करने के लिए कुख्यात हैं। इस बार हमने सदन में भी देखा कि भाजपा द्वारा भारत विरोधी शक्तियों के साथ गठजोड़ के सवाल पर वे चुप रहे। उनकी यह चुप्पी वास्तव में सबकुछ जगजाहिर कर देती है।

बहरहाल, जहाँ तक जातिगत जनगणना का प्रश्न है, तो हमें समझना होगा कि हम आज़ादी के दशकों बाद तक जात-पात में उलझे रहे और इससे देश में जाति व्यवस्था और अधिक सबल होगी। हमारा संविधान देश की पूरी जनसंख्या को मानता है, कि जाति या धर्म को। ऐसे में, यदि हमें गति के साथ विकसित भारत के संकल्पों को पूर्ण करना है, तो देशवासियों को जातिगत पहचान के आधार पर वर्गीकृत करने के बजाय उन्हें व्यक्तिगत अधिकार और समान अवसरों के लिए प्रेरित करना श्रेष्ठ होगा।

हमारे समाज में अनगिनत जातियां और उपजातियां हैं। यदि हमें उन्हें परिभाषित करने में छोटी-सी भी गलती करते हैं, तो भ्रम, विवाद और विभाजन की एक ऐसी स्थिति बनेगी, जिसे संभालना कठिन हो जाएगा। आज जब हमारे संकल्प स्पष्ट हैं, तो हम यह जोखिम कतई नहीं ले सकते। यही कारण है कि वर्ष 2021 में लोकसभा में स्पष्ट कर दिया था कि नीतिगत तौर पर जनगणना में अनुसूचित जाति और जनजाति को छोड़कर जाति-वार गणना नहीं किया जाएगा।

जहाँ तक सवाल इंडी गठबंधन के वैसे आरोपों का है कि मोदी सरकार ने जनजातीय, आदिवासी और पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए कोई प्रयास नहीं किया है, तो वे अपने तथ्यों का जाँच ठीक से करें। क्योंकि, बीते 10 वर्षों में समाज के अंतिम पायदान पर खड़े लोगों को आगे बढ़ाने के लिए अनगिनत नीतिगत प्रयास हुए हैं, जो अभूतपूर्व है।

उदाहरण के तौर पर, बीते 10 वर्षों में ओबीसी कमीशन को संवैधानिक मान्यता दी गई तो, केन्द्रीय विद्यालय से लेकर नीट परीक्षा तक में पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई। जनजातीय कार्य मंत्रालय का बजट तीन गुना बढ़ाया गया, तो अनुसूचित जनजातियों के विकास निधि में 5.5 गुना की वृद्धि हुई।

निःसंदेह, मोदी सरकार जन-कल्याणकारी प्रयासों से देश के सभी हिस्सों में उप-राष्ट्रवादी शक्तियां बेहद कमज़ोर हो चुकी हैं और वे मुख्यधारा में शामिल होकर एक बेहद सम्मानजनक और गरिमापूर्ण जीवन जीने में विश्वास कर रहे हैं। देश में जातीय संघर्ष का अंत हो रहा है। हमें इस लय को बनाने रखने की आवश्यकता है। हमें समझना होगा कि हम आजीवन जातिगत सुविधाओं का लाभ लेकर जातिवाद का सामना नहीं कर सकते हैं।

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