शुक्रवार, 6 अक्तूबर 2023

देश के सामने असली परीक्षा - गरीबी दूर हो या जातिवादी क्लेश

बसंत कुमार

पिछले दिनों राज्यसभा सांसद मनोज झा द्वारा साहित्यकार ओम प्रकाश बाल्मीकि की कविता "ठाकुर का कुआ" संसद में पढ़े जाने की प्रतिक्रिया स्वरूप बिहार के बहुबली नेता आनंद मोहन और उनके विधायक बेटे चेतन आनंद की तीखी टिप्पणी के कारण ठाकुर बनाम ब्राह्मण विवाद समाप्त ही नहीं हुआ था कि गांधी जयंती के दिन उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद में एक यादव व एक ब्राह्मण परिवार में झगड़े में 6 लोगों की हत्त्या हो गई। इन घटनाओं ने इस बहस को जन्म दे दिया है कि इस समय आर्थिक संकट से जूझ रहे विश्व में भारत की प्राथमिकता देश को आर्थिक मंदी, गरीबी और बेरोजगारी से निकालें या देश में चल रहे जातीय क्लेश को समाप्त करें। दरअसल मनोज झा ने राज्यसभा में महिला आरक्षण बिल पर बोलते हुए ओम प्रकाश बाल्मीकि की कविता पढ़ी और कहा कि हमें अपने अंदर के ठाकुर रूपी अहम को मारने की जरूरत है, यद्यपि उनके बोलने के बाद उनकी पार्टी की ओर से स्पष्टीकरण आ गया कि मनोज झा द्वारा किसी जाति विशेष को निशाना नहीं बनाया गया है। उन्होंने इस प्रवृत्ति की समाप्त करने की बात कही थी।

इसके बावजूद राजपूत नेता आनंद मोहन ने पूछ लिया कि मनोज झा अपने अंदर के ब्राह्मणत्व को मारने की बात क्यों नहीं करते और उनके बेटे चेतन आनंद ने मनोज झा से माफी मांगने की बात की। इस घटना के बाद आनंद मोहन चर्चा में आ गए। सन् 1990 में गोपाल गंज के तत्कालीन कलेक्टर कृष्णैया जी, जो दलित समुदाय के थे, की हत्त्या के मामले में उम्रकैद की सजा काट रहे आनंद मोहन के अच्छे चाल-चलन के बहाने समय से पहले उन्हें रिहा कर दिया गया है। बिहार सरकार पर आरोप लग रहे हैं कि आने वाले आम चुनाव के मद्देनजर राजपूत वोटरों को अपनी ओर आकर्षित करने हेतु उन्हें जेल से रिहा कराया गया है। गौरतलब है कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव जिस मण्डल आरक्षण नीति के आधार पर दशकों से राज कर रहे हैं उसी मण्डल कमिशन की रिपोर्ट लागू होने पर आनंद मोहन ने इसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया था, पर जाति पर राजनीति इतनी प्रभावी हो गई है कि नेता पुरानी घटनाओं को भूल जाते हैं।

इस विवाद के शुरू होते ही कुछ छुटभैये राजनेताओं ने सोशल मीडिया पर ऐसी आपत्तिजनक पोस्ट डाल दी जिससे पूरा समाज जाति द्वेष के जहर से जलने लगा, मानो भगवान राम सिर्फ इन्हीं के रहे हों और भारत गणराज्य में विलीन हुई 560 देशी रियासतें इनके बाप-दादा की रही हो जैसे लगता है कि देश के निर्माण में 3.5% राजपूतों के अलावा और किसी जाति या समुदाय का कोई योगदान ही न रहा हो, इन लोगों से कोई ये पूछे कि अपने जीवन में कितने गरीब राजपूतों की मदद की है तो इनकी बोलती बन्द हो जाएगी। यह किसी से छिपा नहीं है कि देश में राजपूतों की आबादी के बामुश्किल 10-15% लोग सम्पन्न हों और बाकी दाल-रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ऐसे में इन्हें आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के स्थान पर जातिवादी लड़ाई में झोंकना कहां तक उचित है।

जो लोग देशी रियासत पर अपना हक जमाते हुए अपनी सजातीय लोगों के लिए सरकार द्वारा विशेष सम्मान की बात करते हैं। उन्हें यह पता होना चाहिए इन रियासतों-जागीरों के मालिक उनके वंशज सत्ता में बड़े पदों पर आसीन हैं या विदेशों में रह रहे हैं और पश्चिमी सभ्यता में रम बस गए हैं। फिर जातीय स्वाभिमान का दंभ भरने वाले आम लोगों का इनके लिए सिर फुटैव्वल करने का क्या औचित्य है, जिस संदर्भ में मनोज झा ने ठाकुर का कुआ कविता पढ़ी वह किसी जाति बिरादरी के लिए नहीं है। देश के अनेक हिस्सों में लोग ठाकुर जी के नाम की पूजा करते हैं उनके नाम का दिया जलाते हैं तो क्या उनके ठाकुर जी किसी विशेष बिरादरी के हैं, वृंदावन में भगवान कृष्ण को गाय चराने वाले माखन चोर के रूप में पूजते हैं। वहीं द्वारका में उन्हें ठाकुर जी द्वारकाधीश के रूप में पूजते हैं, इसलिए ठाकुर का कुआ ठाकुर की बावली आदि संबोधनों को किसी जाति विशेष का पर्याय नहीं माना जाना चाहिए। आज के युग में जाति या गोत्र को अपने व्यक्तिगत मामलों शादी-ब्याह तक ही सीमित रखें और धर्म को पूजा पाठ व जीवन पद्धति तक सीमित रखें। इसके लिए देश में गृह युद्ध जैसी स्थिति पैदा करना अनुचित है।

कुछ नेतागण वोट और सत्ता प्राप्त करने के लिए अपनी जाति वालों का चक्कर लगाने में माहिर हैं, बिहार में नीतीश कुमार-लालू यादव, उत्तर प्रदेश में अनुप्रिया पटेल जाति पर आधारित जनगणना की रट लगा रहे हैं और कुछ नेता सनातन खतरे की रट लगा रहे हैं। इतिहास गवाह है कि देश में धर्म खतरे में नहीं रहा। अगर ऐसा होता तो महाराणा प्रताप का सेनापति मुसलमान और अकबर का सेनापति राजपूत न होता। असल में ये सारा खेल कुर्सी का है और कुछ वर्षों से जाति पर आधारित बहुत तेजी से बढ़ रही है, जातीय जनगणना की मांग बढ़ने के साथ-साथ "जिसकी जितनी है आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी की बात की जा रही है। पर कुछ जातियों के लोग झूठे स्वाभिमान के लिए देश में भय और आतंकवाद का माहौल फैला रहे हैं। ये लोग यह भूल जाते हैं कि इन्हीं के पूर्वज विदेश से आए हुए आक्रांताओं व उनके शासकों के सामने जी-हजूरी करने से नहीं चूकते थे और सारी रियासत और जागीर जिसकी बात की जाती है उसी जी-हजूरी का हिस्सा है। ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन काल में ये देसी राजा व नवाब जिस तरह से अंग्रेज बहादुर के सामने नतमस्तक हुआ करते थे वह किसी से छुपा नहीं है, फिर भी आज आजाद भारत में कभी किसी संदर्भ में किसी जाति का नाम ले लें तो उस जाति के कुछ स्वयंभू नेता बात का बखेड़ा बना देते हैं।

जातीय जनगणना जैसी चीज आज कोई नई नहीं आई है, इसकी चर्चा संविधान सभा में भी हुई थी पर संविधान निर्माताओं ने यह माना था कि जैसे-जैसे हमारा समाज उन्नत होगा शिक्षा का प्रसार होगा तो जातिगत भेदभाव कम होते जाएंगे पर ऐसा दिखाई नहीं देता है। आजादी के सात दशक बाद क्या गांव और क्या शहर सभी जातीय शिकंजे में जकड़े हुए हैं। यह प्रश्न सिर्फ सत्ता की भागीदारी का नहीं है अपितु यह हम लोगों के मन में व्याप्त झूठे जातीय स्वाभिमान का है। जो लोग आजाद भारत में 560 से अधिक देशी रियासतों के भारत में विलय पर ऐसा आभास देते हैं कि इनके लोगों ने रियासतों का विलय करके देश पर कोई उपकार किया है जिसके कारण उन्हें देश के आम नागरिक से श्रेष्ठ माना जाए। जो रियासते इन्हें राजशाही के दौरान मुगलिया सल्तनत और ईस्ट इंडिया कंपनी की अनुकंपा से मिली, वह भारत के गणराज्य बनते ही समाप्त हो गई और अब देश के सभी नागरिक समान हैं और ठाकुर का कुआं जैसी कविताएं पढ़ने पर उत्तेजित होने के बजाय देश के आर्थिक सशक्तिकरण और गरीब उन्मूलन जैसे विषयों पर काम करना चाहिए।

(लेखक भारत सरकार के पूर्व उप सचिव हैं।) M-9718335683
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