रविवार, 31 जनवरी 2021

नई पीढ़ी-नई सोच संस्था ने 170 बच्चों को पोलियो की दवा पिलाई

 

संवाददाता

नई दिल्ली । नई पीढ़ी-नई सोच संस्था की ओर से 170 बच्चों को पोलियो की दवा पिलाई गई। संस्था की ओर से हर बार की तरह इस बार भी पल्स पोलियो टीकाकरण कैम्प लगाया गया जिसमें 170 बच्चों ने पोलियो की दवा पी। 
यह कैम्प संस्था के कोषाध्यक्ष डॉ. आर. अंसारी की जनता क्लीनिक बुलंद मस्जिद, शास्त्री पार्क में लगाया गया। कैम्प में बच्चों को पोलियो की ड्राप्स सुबह 9 बजे से ही पिलाई जाने लगी थी और शाम 4 बजे तक 170 बच्चों को पोलियो की ड्राप्स पिलाई गई।
संस्था के पदाधिकारियों और सदस्यों ने घर-घर जाकर लोगों को पोलियो ड्राप्स पिलाने के लिए प्राोरित किया और पोलियो की ड्राप्स न पिलाने के नुकसान बताए।
संस्था के संस्थापक व अध्यक्ष साबिर हुसैन ने कहा कि संस्था हमेशा हर तरह के राष्ट्रीय प्रोग्राम में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती है और बीच-बीच में जनता को भी इन प्रोग्रामों के प्रति जागरूक करती है। संस्था के सदस्यों ने आज पूरी दिन लोगों के घर-घर जाकर बच्चों को पोलियो केंद्र पर 0-5 वर्ष के बच्चों को पोलियो की ड्राप्स पिलाने के लिए कहा।
संस्था के उपाध्यक्ष मो. रियाज ने कहा कि सरकार द्वारा चलाई जा रही मुहिम को हम जनता तक पहुंचा रहे हैं। आज पोलियो जड़ से खात्मे की ओर जा चुका है दूसरी बीमारियों पर भी सरकार जल्द कामयाबी हासिल कर लेगी और कुछ बीमारियों पर कामयाबी हासिल कर चुकी है।
संस्था के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष डॉ. आर. अंसारी ने कहा कि हमारी पूरी कोशिश रहती है कि हम लोगों की मदद करते रहें क्योंकि दूसरों की मदद करने में जो सुकून मिलता है वह और किसी दूसरे काम में नहीं मिलता। 
समाजसेवी अब्दुल खालिक ने कहा कि लोगों को अपने बच्चों को हमेशा सरकार के कार्यक्रमों में भाग लेना चाहिए चाहे वह कोई भी हो और यह तो बच्चों के जीवन से जुड़ा है। उन्होंने आगे कहा कि लोग आज भी बच्चों को पोलियो की दवा नहीं पिलाते हैं जो कि गलत है।
इस अवसर पर संस्था के संस्थापक व अध्यक्ष साबिर हुसैन, संस्था के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मौ. रियाज, राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष डॉ. आर. अंसारी, सदरे आलम, आजाद, मौ. सज्जाद, शान बाबू, इरफान आलम, यामीन, मो. मुन्ना अंसारी, अब्दुल रज्जाक, मो. सलीम आदि मौजूद थे।










डेसू मजदूर संघ का डिवीजन पहाड़ गंज ने किया स्वागत, कई को दी गई जिम्मेदारी

मो. रियाज़

नई दिल्ली। डेसू मजदूर संघ ने गत दिनों बीएसईएस यमुना पावर में आऊटसोर्स के कर्मचारियों को पद देकर उन्हें पदाधिकारी घोषित किया है। यह सभी पदाधिकारी आउटसोर्सिंग स्टाफ की परेशानी को दूर करने में मदद करेंगे। उसी कड़ी में डिवीजन जीटीआर कंप्लेंट सेंटर न्यू जाफराबाद में एक स्वागत समारोह का आयोजन किया गया जिसमें डेसू मजदूर संघ के अध्यक्ष किशन यादव व आऊटसोर्स के ईस्ट दिल्ली के ज्वाइंट सेक्रेट्री अब्दुल रज्जाक का डिवीजन जीटीआर कंप्लेंट सेंटर न्यू जाफराबाद की पूरी टीम के साथ ऋषि पाल, दिनेश, सैन्तुल त्यागी, अशोक कुमार आदि ने जोरदार स्वागत किया गया।

डेसू मजदूर संघ की इकाई डिवीजन पहाड़ गंज में भव्य स्वागत समारोह का आयोजन किया गया। इस भव्य स्वागत समारोह के मुख्य अतिथि थे डेसू मजदूर संघ के अध्यक्ष किशन यादव। इस अवसर पर डिवीजन पहाड़ गंज की ओर से डेसू मजदूर संघ की मुख्य टीम का फूल मालाओं से जोरदार स्वागत किया गया।

भव्य स्वागत समारोह में अध्यक्ष किशन यादव ने डिवीजन पहाड़ गंज एएमसी में कुछ लोगों को नई जिम्मेदारी दी। इसमें शास्त्री यादव को बीजी रोड शिकायत केंद्र का जोनल अध्यक्ष, पप्पू झा को राम नगर शिकायत केंद्र का जोनल अध्यक्ष, बिस्मबर झा को पी पी क्वाटर शिकायत केंद्र का जोनल अध्यक्ष, दुबेश शर्मा को आराम बाग का जोनल अध्यक्ष बनाया गया। इन चारों को डिवीजन पहाड़ गंज में काम करने वाले कर्मचारियों की समस्या का निवारण करने की जिम्मेदारी दी गई है।

वैसे आपको बता दें डेसू मजदूर संघ बीएसईएस यमुना पावर व राजधानी में काम करने वाले मजदूरों के हक के लिए काम करती है चाहे वह कर्मचारी आउटसोर्स पर ही काम क्यों नहीं करता हो।

इस अवसर पर डेसू मजदूर संघ के अध्यक्ष किशन यादव ने सभी को संबोधित करते हुए कहा कि हम सभी को एक दूसरे की मदद के लिए हमेशा खड़े रहना चाहिए ताकि किसी भी साथी को ऐसा न लगे कि वह अकेला है। हम सभी एक दूसरे की परेशानी में साथ हैं और जिन लोगों को आज जिम्मेदारी दी गई है वह भी अपनी जिम्मेदारी को पूरी ईमानदारी से निभाएंगे।

स्वागत समारोह में डेसू मजदूर संघ आउटसोर्स के अध्यक्ष अशोक, आउटसोर्स के उपाध्याय प्रमोद वर्मा, आउटसोर्स के महामंत्री ऋषि पाल, आउटसोर्स के सर्कल चेयरमैन दिनेश कुमार, आउटसोर्स के संगठन मंत्री सैन्तुल त्यागी, आउटसोर्स के जाॅइंट सेक्रेटरी नोर्थ ईस्ट अब्दुल रज्जाक खान, सहयोगी मेंबर्स संजय शर्मा, उमेश कुमार इत्यादि भी मौजूद थे।

बुधवार, 27 जनवरी 2021

इस हिंसा के असली दोषी

अवधेश कुमार
निस्संदेह, गणतंत्र दिवस के अवसर पर राजधानी दिल्ली में ट्रैक्टर परेड के नाम पर हुई हिंसा के कारण पूरे देश में क्षोभ का माहौल है। लेकिन अगर आप कृषि कानूनों के विरोध के नाम पर आंदोलन कर रहे नेताओं के बयान और तेवर देखिए तो आपका गुस्सा ज्यादा बढ़ जाएगा। इनमें से कोई भी इस हिंसा के लिए स्वयं को दोषी मानने को तैयार नहीं है। अभी भी दिल्ली पुलिस और सरकार को निशाना बनाया जा रहा है। ज्यादा से ज्यादा ये पंजाब के एक अभिनेता और एक दूसरे दूसरे नेता को इसके लिए दोषी ठहरा रहे हैं। वास्तव में यह सब अपनी जिम्मेदारी, अपने दोष से बचने की धूर्ततापूर्ण रणनीति है। पूरा देश जानता है कि गणतंत्र दिवस पर ट्रेक्टर परेड न निकालने के लिए सरकार ने अपील की, दिल्ली पुलिस ने भी कई कारणों के आधार पर कहा कि आप कृपया रैली ना निकालें, अनेक बुद्धिजीवियों- पत्रकारों ने अपने अपने अनुसार तर्कों से ट्रैक्टर परेड को अनुचित करार दिया...। बावजूद वे डटे रहे। इनका कहना था कि एक ओर अगर जवान परेड कर रहे होंगे तो दूसरी ओर किसान भी परेड करेंगे। उन्होंने कहा कि हमारा ट्रैक्टर मार्च निकलकर रहेगा और निकाला। तो फिर हिंसा के लिए ये स्वयं को क्यों नहीं जिम्मेवार मानते?
आंदोलनरत 37 संगठनों ने बाजाब्ता हस्ताक्षर करके पुलिस के सामने कुछ वायदे किए थे। उदाहरण के लिए ट्रैक्टरों के साथ ट्रौलियां नहीं होंगी, उन पर केवल 3 लोग सवार होंगे, केवल तिरंगा और किसान संगठन का झंडा होगा, कोई हथियार डंडा आदि नहीं होगा, आपत्तिजनक नारे नहीं लगाए जाएंगे, पुलिस के साथ तय मार्गों पर  अनुशासित तरीके से परेड निकाली जाएगी आदि आदि। आपने देखा ट्रैक्टरों के साथ ट्रौलियां भी थी जिनमें डंडे, रॉड और अन्य सामग्रियां भी भरी थी। ट्रैक्टरों पर काफी लोग बैठे थे। आपत्तिजनक नारे भी लग रहे थे। आखिर परेड में शामिल होने वाले लोग पुलिस के साथ किए गए वायदे का पालन करें इसे सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी किसकी थी? जाहिर है, इन नेताओं ने प्राथमिक स्तर पर भी इसे सुनिश्चित करने की कोशिश नहीं की। दूसरे, यह तय हो गया था कि गणतंत्र दिवस के परेड समाप्त होने यानी 12:00 बजे के बाद ही ट्रैक्टर परेड निकाली जाएगी। इसके विपरीत 8:30 बजे से ही ट्रैक्टर परेड निकालने की होड़ मच गई। जगह-जगह पुलिस को उनको रोकने के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ रही थी। तीन जगह से ट्रैक्टर परेड निकलना था- गाजीपुर, सिंधु और टिकरी। तीनों जगह यही स्थिति थी। क्या इन नेताओं का दायित्व नहीं था कि वे तय समय का पालन करते और करवाते? गणतंत्र परेड का सम्मान करना और करवाना इनका दायित्व था। परिणाम हुआ कि गाजीपुर से निकलने वाले परेड के लोगों ने अक्षरधाम, पांडव नगर पहुंचते-पहुंचते स्थिति इतनी बिगाड़ दी की पुलिस को आंसू गैस के गोले तक छोड़ने पड़े। उन्हें काफी समझाया गया कि अभी गणतंत्र दिवस परेड का समय है, आपका परेड 12:00 से निकलना है.. कृपया, जहां है वहीं रहें..। वे मानने को तैयार नहीं। इसमें पुलिस और सरकार कहां दोषी है?
विडंबना देखिए किसान नेता आरोप लगा रहे हैं कि दिल्ली पुलिस ने उन मार्गों पर भी बैरिकेट्स लगा दिए जो ट्रेक्टर परेड के लिए निर्धारित थे। राजधानी दिल्ली में गणतंत्र दिवस परेड संपन्न होने तक अनेक रास्तों को पुलिस बैरिकेड लगाकर हमेशा बंद रखती है। जब तक परेड अपने गंतव्य स्थान पर नहीं पहुंच जाता ये बैरिकेड नहीं हटाए जाते। गणतंत्र दिवस परेड करीब 11:45 बजे खत्म हुआ। उसके बाद ही किसानों का ट्रैक्टर परेड निकल सकता था। ये पहले ही घुस गए और जगह-जगह से निर्धारित मार्गों को नकार कर दूसरे मार्गों पर भागने लगे। आखिर आईटीओ पर जबरन लुटियंस दिल्ली में घुसने की जिद करने का क्या कारण था? आईटीओ पर उधम मचाया गया, ट्रैक्टरों से पुलिस को टक्कर मारने की कोशिश हुई, उनका रास्ता रोकने के लिए जो बसें लगाई गई उनको तीन-तीन चार-चार ट्रैक्टरों से मार-मार कर पलटने की कोशिश हुई, लाठी-डंडों रडों से उनके शीशे तोड़े गए। पुलिस आरम्भ में अनुनय विनय करती रही। पूरी दिल्ली में जगह-जगह ऐसा ही दृश्य था। ट्रैक्टर ऐसे चल रहे थे मानो वह कोई तेज रफ्तार से चलने वाली कारें हों। ट्रैक्टरों को तेज दौड़ा कर पुलिस को खदेड़ा जा रहा था। आम आदमियों को खदेड़ा जा रहा था। भयभीत किया जा रहा था। क्या यही अनुशासन का पालन है?
ये जानते थे कि लाल किला तीनों स्थलों के निर्धारित मार्गाे में कहीं नहीं आता था। भारी संख्या में लोग लालकिले तक पहुंचे। वहां अंदर घुस कर किस ढंग से खालसा पंथ का झंडा लगाया गया, किस तरह  पुलिसवाले घायल हुए, कैसे लोगों को मारा पीटा गया, तलवारें भांजी गई यह सब देश ने देखा। गणतंत्र झांकियों को भी नुकसान पहुंचाया गया। जहां से 15 अगस्त को प्रधानमंत्री झंडा फहराते हैं उस स्थल पर तोड़फोड़ की गयी। ये सारे कृत्य डरा रहे थे। खालसा पंथ का सम्मान संपूर्ण भारतवर्ष करता है, करेगा लेकिन लालकिले पर झंडा लगाकर वे देश और दुनिया को क्या संदेश देना चाहते थे? गणतंत्र दिवस के अवसर पर ऐसा करने का क्या औचित्य हो सकता था?
पूरा देश शर्मसार हुआ है। खालसा झंडा की जगह लाल किला नहीं हो सकता। इससे उसकी पवित्रता भी भंग हुई है। किंतु क्या इन सबकी आशंका पहले से नहीं थी? क्या पुलिस ने आगाह नहीं किया था? क्या मीडिया ने नहीं बताया था कि किसान आंदोलन के नाम पर अनेक खालिस्तानी समर्थक तत्व अपना एजेंडा चला रहे हैं? पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के सजायाफ्ता हत्यारे की तस्वीरें लगाकर लंगर चलाई जाती थी। इनका पूरा विवरण अखबारों में छपा था। शहीद ए खालिस्तान नामक पुस्तक का वितरण हुआ जिसमें भिंडरावाले को महिमामंडित किया गया था। और तो छोड़िए पंजाब में लुधियाना के कांग्रेसी सांसद ने बताया कि खालिस्तान के नाम पर जनमत संग्रह 2020 का समर्थन करने वाले  और अपराधी तत्व आंदोलन में शामिल हो गए हैं। कोई उनकी बात सुनने को तैयार नहीं था। किसान नेता उल्टे पूछते थे कि क्या हम खालिस्तानी समर्थक और देशद्रोही हैं? जो वास्तविक किसान संगठन, वास्तविक किसान नेता और वास्तविक किसान हैं उनको किसी ने खालिस्तानी या माओवादी या अराजक हिंसक नहीं कहा था। लेकिन ऐसे तत्व उसमें शामिल थे। तो जो लोग इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं क्या उनको यह सब दिखाई नहीं पड़ रहा था? अगर दिखाई पड़ रहा था तो. इनसे आंदोलन को अलग करने के लिए उन्होंने क्या कदम उठाए? ट्रैक्टर परेड शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न हो, अलगाववादी, हिंसक तत्व लाभ उठा कर गणतंत्र दिवस को गुंडा तंत्र दिवस में ना बदले इसके लिए इन्होंने क्या पूर्व उपाय किए?
देश इन सारे प्रश्नों का उत्तर चाहता है। आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं ने ऐसा कोई कदम उठाया ही नहीं तो बताएंगे क्या। वास्तव में निर्धारित समय और मार्गों का पालन न करने, बैरिकेडों को तोड़ने, पुलिस के साथ झड़प और अन्य गड़बड़ियों की शुरुआत सिंधु बॉर्डर से हुई लेकिन कुछ ही समय में टिकरी और गाजीपुर सीमा से भी ऐसी ही तस्वीरें सामने आने लगी। किसान नेता तीनों मार्गाे पर कहीं भी परेड में शामिल नहीं दिखे। कायदे से इन सबको अपने क्षेत्रों में परेड के साथ या उसके आगे चलना चाहिए था। जाहिर है, इन्होंने अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ा। वैसे भी अगर कोई आंदोलन इस ढंग से हिंसा और अलगाववाद को अंजाम देने लगे तो उसकी जिम्मेदारी केवल उनकी नहीं होती जो ऐसा करते हैं बल्कि मुख्य जिम्मेवारी नेतृत्वकर्ताओं की ही मानी जाती है। आंदोलन का नेतृत्व आप कर रहे हैं, पुलिस को आप वचन देते हैं, सरकार से आप बातचीत करते हैं, मीडिया में आप बयान देते हैं, अगर यह परेड अहिंसक तरीके से संपन्न हो जाता तो उसका श्रेय आप लेते तो फिर देश को शर्मसार करने का दोष भी आपके सिर जाएगा। कायदे से दिल्ली पुलिस को सबसे पहले इनके खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए थी। मुकदमे दर्ज हुए लेकिन अपराध की तुलना में हलेकी धाराएं लगीं हैं। इस आंदोलन का वास्तविक चरित्र और चेहरा सामने आ गया है। वैसे भी तीनों कृषि कानूनों का मामला इस समय उच्चतम न्यायालय में है। वहां की समिति इस पर बातचीत कर रही है। उच्चतम न्यायालय फैसला देगा। देश में कृषि कानूनों का जितना समर्थन है उसकी तुलना में यह विरोध अत्यंत छोटा है। अगर कानून में दोष हैं तो उसके लिए सरकार ने स्पष्टीकरण देने और संशोधन करने की बात कही है। यही लोकतंत्र में शालीन तरीका होता है। दोनों पक्ष बातचीत करके बीच का रास्ता निकालते हैं। लेकिन इस आंदोलन को उस सीमा तक ले जाया गया जहां से बीच का रास्ता निकलने की गुंजाइश खत्म हो गई।सारे बयान भाषण भड़काने वाले थे। आंदोलन में शामिल वांछित - अवांछित.. सभी प्रकार के लोगों के अंदर गुस्सा पैदा करने वाले थे। इस तरह की हठधर्मिता और झूठ का परिणाम ऐसा ही होता है। अच्छा होता किसान नेता देश से क्षमा मांगते तथा स्वयं ही अपने को कानून के हवाले कर देते। इन्होंने नहीं किया तो फिर .....।
अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कौम्प्लेक्स, दिल्ली - 110092, मोबाइल - 9811027208, 8178547992

शुक्रवार, 22 जनवरी 2021

जो बिडेन के काल में भारत अमेरिका संबंध

अवधेश कुमार

अमेरिका में सत्ता परिवर्तन के साथ भारत के साथ रिश्तो के वर्तमान एवं भविष्य को लेकर जिस तरह की बहस चल रही है वह बिल्कुल स्वभाविक है। डोनाल्ड ट्रंप के शासनकाल में भारत अमेरिका के रिश्ते इतने गहरे हुए कि एशिया प्रशांत क्षेत्र का नाम हिंद प्रशांत क्षेत्र हो गया। ट्रंप प्रशासन ने भारत को ऐसे सहयोगी का दर्जा दिया जो केवल नाटो देशों को ही प्राप्त था। कुछ ऐसे समझौते हुए जो अमेरिका अपने निकटतम देशों के साथ ही करता है। चीन के साथ हमारे तनाव के दौर में भी ट्रंप प्रशासन ने खुलकर भारत का पक्ष लिया। दक्षिण चीन सागर में भी चीन के खिलाफ जितना कड़ा तेवर ट्रंप ने अपनाया वैसा पूर्व के अमेरिकी राष्ट्रपतियों में नहीं देखा गया। एकाध अवसर को छोड़ दें तो ट्रंप भारत के आंतरिक मामलों पर कोई बयान देने से बचते थे। या ऐसा बयान नहीं देते थे जिससे हमारे लिए कोई परेशानी खड़ी हो जाए। जो बिडेन और उनके उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की मानवाधिकार, जम्मू कश्मीर, नागरिकता संशोधन कानून आदि मामलों पर अब तक प्रकट की गई भारत विरोधी भावनाएं हमारे सामने हैं। जो बिडेन कई मामलों पर ऐसे बयान दे चुके हैं जो भारत के लिए नागवार गुजरने वाला था। प्रश्न है कि उनके कार्यकाल में आगे संबंधों का भविष्य क्या होगा?

  चुनाव जीतने के बाद बिडेन ने अपनी विदेश नीति को लेकर कई मामलों पर ऐसे बयान दिए जिनसे भारत में चिंता पैदा हुई। उन्होंने चीन के साथ कुछ नरमी का संकेत दिया था।  साथ ही एशिया प्रशांत क्षेत्र नीति में भी बदलाव की बात की। लेकिन पिछले कुछ दिनों में उनके जो भी बयान आए हैं, उनकी ओर से जो संकेत दिए गए वे पूर्व के तेवर से थोड़े अलग हैं। प्रधानमंत्री प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनकी बातचीत के भी जो अंश सामने आए वे हमारे लिए काफी अनुकूल थे। तो इन सबको आधार बनाकर हम बिडेन काल में भारत अमेरिकी संबंधों का एक मोटा-मोटी सिंहावलोकन कर सकते हैं। बिडेन के भारत के प्रति व्यवहार की दो तस्वीरें हमारे सामने हैं। एक, 1992 में सीनेटर के रूप में उनकी भूमिका थी जिसमें उन्होंने रूस से क्रायोजेनिक इंजन खरीदने कि रास्ते में बाधा खड़ी की थी। इससे हमारा अंतरिक्ष कार्यक्रम पिछड़ गया था। दूसरे सीनेटर और उपराष्ट्रपति के रूप में उनका व्यवहार भारत के पक्षकार का भी रहा। 2006 में उन्होंने कहा था कि 2020 के मेरे सपने की दुनिया में अमेरिका और भारत सबसे नजदीकी देश है। 2008 में जब भारत अमेरिका नाभिकीय समझौते पर सीनेटर के रूप में बराक ओबामा को थोड़ी हिचक थी तब बिडेन ने केवल उनको ही नहीं समझाया, अनेक रिपब्लिकन और डेमोक्रेट के बीच इस संधि का पक्ष रखकर इससे सहमत कराया। उपराष्ट्रपति के काल में सामरिक क्षेत्र में भारत के साथ रिश्तो को मजबूत करने की उन्होंने वकालत की। ओबामा के कार्यकाल में भारत को बड़ा रक्षा साझेदार घोषित किया गया, रक्षा लॉजिस्टिक आदान-प्रदान और एक दूसरे के ठिकानों को उपयोग करने के समझौते हुए। राष्ट्रपति बनने के बाद बिडेन इन सबसे पीछे हटने की कोशिश करेंगे ऐसा मानने का कोई तार्किक कारण नजर नहीं आता। 

एक सामान्य तर्क यह है कि शासन बदला है तो सब कुछ पहले की तरह नहीं होगा। दूसरी ओर बिल क्लिंटन से लेकर जॉर्ज बुश, बराक ओबामा तक सबने भारत के साथ बहुआयामी संबंधों को मजबूत करने की कोशिश की। जहां तक चीन का सवाल है तो बिडेन ने पिछले दिनों न्यूयॉर्क टाइम्स को एक साक्षात्कार में साफ किया कि चीन के साथ जो प्रारंभिक व्यापार सौदे हुए हैं उनको वे फिलहाल नहीं रद्द करने वाले। उन्होंने कहा कि वे अमेरिका के भू राजनीतिक प्रतिद्वंदी के साथ भविष्य की बातचीत में अपने लाभ को अधिकतम रखना चाहते हैं। उनका कहना था कि  मैं कोई तात्कालिक कदम नहीं उठाने जा रहा हूं। चीन का रवैया और उसका शक्ति विस्तार भारत के लिए हमेशा चिंता का कारण रहा है। कोरोना के काल में धोखेबाजी से लद्दाख में उसका सैन्य रवैया कितने बड़े तनाव और परेशानी का कारण है यह बताने की आवश्यकता नहीं। यह कल्पना कम लोगों को रही होगी कि वह हमारे जमीन को कब्जाने की घटिया सैन्य कार्रवाई कर सकता है। वह विफल हुआ, पर भारत उसके प्रति आश्वस्त नहीं हो सकता। इसमें अमेरिका जैसे देश का साथ और सहयोग पहले की तरह रहे यह चाहत हमारी होगी। वैसे इस बीच भारत अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ क्वाड संगठन में सक्रिय हुआ है। क्वाड इस समय तक अमेरिका की मुक्त एवं स्वतंत्र हिंद प्रशांत रणनीति के मूल में है। चारों देशों की नौसेनायें रक्षा अभ्यास में शामिल होती हैं।  

चीन के प्रति बिडेन की नीति को देखना होगा। अगर वह इस समय किसी तरह चीन के साथ तनाव कम करके सहयोग बढ़ाने की ओर अग्रसर होते हैं तो हमारे लिए अपनी सामरिक नीति पर पुनर्विचार की आवश्यकता पैदा हो जाएगी। अमेरिका की सीमा चीन के साथ नहीं लगती। इसलिए उसे कोई समस्या नहीं है। हमारी और कई देशों की स्थिति अलग है। यह सच है कि रिचर्ड निक्सन से लेकर बराक ओबामा तक सारे राष्ट्रपति चीन के इतने शक्तिशाली होने में सहयोग करने की भूमिका निभाते रहे। दक्षिण चीन सागर में भी चीन ने अपने कृत्रिम द्वीप का निर्माण कर उसका सैन्यकरण कर लिया, लेकिन अमेरिका ने उसके खिलाफ सख्ती नहीं बरती। बराक ओबामा ने तो यहां तक कहा कि हमें समृद्धि चीन के बजाय दुर्बल और आक्रामक चीन से अधिक खतरा होगा। डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में ही अमेरिका की चीन नीति पलटी गई। यह भारत के अनुकूल था। चीन जिस तरह पाकिस्तान का साथ देता है उसमें अमेरिका का रुख पहले की तरह सख्त नहीं रहा तो क्या होगा? भारत के लिए चीन और पाकिस्तान दोनों चिंता के विषय हैं। चीन-पाकिस्तान गठजोड़ के प्रति अमेरिका की किसी तरह की नरमी भारत के खिलाफ जाएगी। इससे भारत की सुरक्षा चुनौतियां बढ़ जाएगी। भारत के लिए एक और चिंता का कारण हिना प्रशांत क्षेत्र भी है। ट्रंप प्रशासन ने भारत के महत्व को रेखांकित करते हुए ही एशिया प्रशांत का नाम बदलकर हिंद प्रशांत क्षेत्र कर दिया। बिडेन मुक्त और स्वतंत्र हिंद प्रशांत की जगह सुरक्षित एवं समृद्ध हिंद प्रशांत की बात कही है। अगर मुक्त एवं स्वतंत्र हिंद प्रशांत नहीं रहेगा तो हमारी पूरी रणनीति में बदलाव करना पड़ेगा। भारत ने उस क्षेत्र के अनेक देशों के साथ रक्षा समझौते किए हैं, कुछ रक्षा जिम्मेदारियां ली हैं। उनके आलोक में हमें हमें अपनी सामरिक नीति और रणनीति को नए सिरे से गढ़ने की जरूरत पड़ सकती है। ये सब कुछ आशंकाएं हैं जिनको हम नजरअंदाज नहीं कर सकते।

सत्ता आने के पहले दिए गए वक्तव्य और सत्ता में आने के बाद की नीतियों में कई बार फर्क होता है। भारत के लिए अमेरिका का महत्व है तो अमेरिका को भी भारत की महत्ता का आभास है। उम्मीद कर सकते हैं कि बिडेन और कमला दोनों भारत के महत्व को समझेंगे। वे चीन जैसे देश द्वारा विश्व के लिए पैदा की जा रहीं चुनौतियों और समस्याओं को देखते हुए अपने हितों का सही विश्लेषण करेंगे। सत्ता में आने के पूर्व क्लिंटन और ओबामा दोनों का व्यवहार याद करिए। सत्ता मिलने के बाद उन्होंने भारत को जितना महत्व दिया वह भी हमारे सामने है। ओबामा अमेरिका-भारत संबंधांे को 21वीं सदी की सबसे निर्णायक साझेदारी घोषित किया था। संभावना यही है कि बिडेन भी ऐसे ही करेंगे। वे उस व्यापार संधि को साकार कर सकते हैं जिसे ट्रंप करना चाहते थे लेकिन नहीं कर सके। क्लिंटन ने भारत यात्रा के बाद पाकिस्तान जाकर जिस तरह आतंकवाद पर उसे खरी-खोटी सुनाई थी उसे कोई भुला नहीं सकता। उसके पहले तो कल्पना तक नहीं थी कि कोई अमेरिकी राष्ट्रपति ऐसा करेगा। ठीक वैसी ही भूमिका ओबामा की विदेश मंत्री के रुप में हिलेरी क्लिंटन ने निभाई थी। इस तरह के कई वाकये हमारे सामने हैं जिनके आलोक में विचार करने पर हमारे लिए ज्यादा चिंता नहीं होनी चाहिए। वैसे भी भारत जैसे देश के साथ संबंध बिगाड़ने की सीमा तक बिडेन नहीं जा सकते। हमें बेहतरी की उम्मीद करते हुए सारी स्थितियों के लिए तैयार रहना चाहिए। 

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पाडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, मोबाइलः9811027208, 8178547992


गुरुवार, 21 जनवरी 2021

आम आदमी पार्टी की किरायेदार विंग ने कार्यकारिणी में किया विस्तार, किए कई पदाधिकारी नामित

मो. रियाज़

नई दिल्ली। आम आदमी पार्टी के केंद्रीय कार्यालय आईटीओ, नई दिल्ली में दिल्ली प्रदेश किरायेदार विंग की महत्वपूर्ण बैठक हुई जिसकी अध्यक्षता अजय गौड़ (प्रभारी किरायेदार विंग) ने की।

इस बैठक में किरायेदार विंग दिल्ली प्रदेश के कई पदाधिकारी शामिल हुए जिसमें दिल्ली प्रदेश के अध्यक्ष राजकुमार गुप्ता, अजीत सिंह, सरोज सहरावत, सपन कुमार मुख्य रूप से शामिल हुए। इस बैठक में किरायेदार विंग में विस्तार किया गया और कई जिलों व विधानसभाओं के पदाधिकारी नामित किए गए। नामित पदाधिकारियों में रईस अहमद अशरफी को उत्तर-पूर्वी दिल्ली का लोकसभा अध्यक्षअरुण गोस्वामी को शाहदरा जिला अध्यक्षगांधीनगर विधानसभा से श्रवि खेड़ा जी को विधानसभा अध्यक्षकमल नयन को करावल नगर से जिला उपाध्यक्ष, फैसल पठान को चांदनी चौक का जिला अध्यक्षमटिया महल से फिरदौस मंसूरी आदि थे।

इस मौके पर रईस अहमद अशरफी ने कहा कि मुझे पुनः उत्तर-पूर्वी दिल्ली का लोकसभा अध्यक्ष नियुक्त किया गया है इसके लिए मैं दिल की गहराइयों से श्री अरविंद केजरीवाल जी, श्री गोपाल राय जी, श्री अजय  गौड़ जी, श्री राज कुमार गुप्ता जी, श्री अजीत सिंह जी, श्रीमति सरोज सहरावत जी, श्री सपन कुमार जी का धन्यवाद करता हूँ। इन्होंने जो जिम्मेदारी मुझे दी है व विश्वास किया है उसे पूरा करने की हर सम्भव प्रयास करूँगा।

अरुण गोस्वामी ने कहा कि मुझ जैसे छोटे से कार्यकर्ता को पार्टी ने जो जिम्मेदारी दी गई है वह मैं पूरी ईमानदारी के साथ निभाउंगा व पार्टी के कामों तक जनता के बीच ले जाऊंगा। 

इस मौके पर गांधी नगर विधानसभा के संगठन मंत्री कमल अरोड़ा ने कहा कि आज हमारे साथी व मेरे छोटे भाई अरुण गोस्वामी को किरायेदार विंग का शाहदरा जिलाध्यक्ष व गांधीनगर विधानसभा के किरायेदार विंग का अध्यक्ष भाई खेड़ा जी को 

बनाए जाने पर मैं इनके साथ अन्य पदाधिकारियों को भी बधाई व शुभकामनाएं देता हूं और उम्मीद करता हूं कि यह पार्टी को आगे ले जाने में अपना योगदान देंगे।

 

गुरुवार, 14 जनवरी 2021

कृषि कानून विरोधी आंदोलन : उच्चतम न्यायालय को भी नकारने वाली ये शक्तियां आंदोलन खत्म होने देना नहीं चाहतीं

अवधेश कुमार

उच्चतम न्यायालय सबसे बड़ी उम्मीद थी। हालांकि जिनने कृषि कानूनों के विरोध में जारी आंदोलन में प्रकट और परोक्ष रूप से सक्रिय शक्तियों को जांचा-परखा है उनका मानना रहा है इस आंदोलन को आसानी से ना स्थगित कराया जा सकता है न खत्म ही। वास्तव में उच्चतम न्यायालय भले कहे कि हमें लोगों की जान और माल की चिंता है, आंदोलन के कारण लोग मर रहे हैं, कोबिट का भी खतरा है और इन कारणों से हम समाधान चाहते हैं इन पर ऐसे संवेदनशील बातों का कोई असर नहीं है। ये उच्चतम न्यायालय पर भी प्रश्न उठा रहे हैं। पहले इनका स्टैंड था कि हम तो उच्चतम न्यायालय गए नहीं थे, हमें उच्चतम न्यायालय नहीं चाहिए... हम तो इन तीनों कानूनों को पूरी तरह खत्म करने की मांग कर रहे हैं और यह सरकार कर सकती है। जब उच्चतम न्यायालय ने कानूनों के लागू होने पर अगले आदेश तक रोक लगाते हुए चार सदस्य समिति गठित कर दी समिति गठित कर दी तो उन्होंने उनके सदस्यों पर ही प्रश्न उठाना शुरू कर दिया कर दिया। वैसे आंदोलनरत संगठनों के अनेक नेता बयान दे चुके थे कि हमको समिति नहीं चाहिए और हम समिति में जाएंगे नहीं। निश्चित रूप से उच्चतम न्यायालय के माननीय न्यायमूर्तियों के सामने भी ये सारे बयान रहे होंगे। बावजूद उसने एक पहल की है।

उच्चतम न्यायालय पर कोई टिप्पणी काफी सोच-विचारकर की जानी चाहिए। संविधान और कानूनों की समीक्षा की वह शीर्षतम संवैधानिक इकाई है। अगर हमने उच्चतम न्यायालय को ही प्रश्नों के घेरे में या कटघरे में खड़ा करना शुरू कर दिया तो फिर कौन सी संस्था देश में बचेगी? लेकिन आप देख लीजिए जो कांग्रेस 11 जनवरी को न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों की टिप्पणियों को उद्धृत करके सरकार की निंदा कर रही थी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जिद्दी और अधिनायक तक करार दे रही थी.... नसीहत दे रही थी कि अब तो सुधर जाओ कानून वापस कर लो, वही समिति पर प्रश्न खड़ा करने लगी। कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने चारों सदस्यों पर कृषि कानूनों के समर्थक होने का आरोप चस्पां कर दिया। आंदोलन से जुड़े नेता तो कर ही रहे थे। यह उच्चतम न्यायालय की अवमानना नहीं तो और क्या है?  अगर आंदोलन कृषि कानूनों को लेकर किसानों के मन में उठती आशंकाओं को दूर करने के लिए होता, उन आशंकाओं के आधार पर कानून में बदलाव या संशोधन कराने के लिए होता और कुल मिलाकर यह किसानों का आंदोलन होता तो 9 दिसंबर 2020 को सरकार की ओर से 20 पृष्ठों में जो 10 सूत्रीय प्रस्ताव दिया गया था उसके बाद समाप्त हो चुका होता। उन प्रस्तावों में न केवल इनके द्वारा उठाई गई आशंकाओं का समाधान था, बल्कि इनकी मांगों के अनुरूप कानूनों में संशोधन करने की भी बात स्वीकार की गई थी। 

वास्तव में अगर आप गहराई से इस आंदोलन की शुरुआत से लेकर अब तक की गतिविधियों पर नजर रखेंगे तो साफ हो जाएगा यह कृषि कानूनों के विरोध में आरंभ किया गया आंदोलन अवश्य दिखता है, इसमें किसानों और कृषि के मुद्दे उठाए जा रहे हैं लेकिन इसके पीछे सुनियोजित गहरी राजनीतिक रणनीतियां है। कृषि कानूनों के लागू होने के साथ ही पंजाब की कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार ने जिस तरह इसका विरोध शुरू किया, धीरे-धीरे अन्य कांग्रेसी और दूसरी विरोधी पार्टियों की सरकारों ने भी इसकी मुखालफत आरंभ की... जिस तरह दूसरी गैरदलीय शक्तियों, समूहों, एक्टिविस्टों, एनजीओवादियों, वामपंथी संगठनों-चेहरों ने इसके विरुद्ध गोलबंदी शुरू की.... उन सबसे साफ होता गया कि आने वाले समय में ये सब इसके बारे में गलतफहमी और भ्रम पैदा करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सीधा और उनकी सरकारके विरुद्ध घेरेबंदी और माहौल निर्मित करने की हरसंभव कोशिश करेंगे। सामान्य राजनीति में कोई समस्या नहीं किंतु यह तो किसानों को मोहरा बनाना है। उच्चतम न्यायालय ने अपनी कुछ सीमाओं का ध्यान रखते हुए इसमें व्याप्त राजनीति की अनदेखी कर किसी तरह गतिरोध खत्म करने और विश्वास का वातावरण बनाकर बातचीत के जरिए हल करने की कोशिश की है। मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति ए एस बोपन्ना और वी राम सुब्रमण्यम की पीठ ने आदेश देते हुए यह कहा कि दोनों पक्ष इसे सही भावना से लेंगे और समस्या का निष्पक्ष, न्यायसंगत व उचित हल निकालने का प्रयास करेंगे ऐसी उम्मीद हम करते हैं। न्यायालय के आदेश को किसी की पराजय या विजय के रूप में नहीं देखा जा सकता। सरकार की ओर से समिति बनाने का प्रस्ताव दिया गया था। ध्यान रखिए, न्यायालय द्वारा समिति गठित करने का महाधिवक्ता ने समर्थन किया। दूसरे, न्यायालय ने कानून के केवल अमल पर रोक लगाई है। उसे न खारिज किया है और ना उसकी संवैधानिकता पर कोई प्रश्न उठाया है। अगर किसान संगठन या किसानों के नाम पर खड़े किए गए संगठन सोचते हैं कि उनके अनुरूप ही न्यायालय भी कार्रवाई करें तो यह संभव नहीं। उनकी मांग तीनों कृषि कानून रद्द करने की है। न्यायालय इसके पक्ष में नहीं दिखता। समिति बनाने का उसका कदम इसी दिशा की ओर इशारा कर रहा है। संभवतः न्यायालय इसमें कुछ संशोधन परिवर्तन को तो वाजिब मानता है लेकिन पूरी तरह कानूनों को रद्द करने को नहीं। 

हमारे देश में कोई ऐसा व्यक्ति  नहीं हो सकता जिसकी हर बात से हम सहमत हों। लेकिन न्यायालय की पहल पर कोई व्यक्ति समिति में शामिल होता है तो उसका सम्मान होना चाहिए। अपनी बात वहां रखी जानी चाहिए और  समिति क्या रिपोर्ट देती है इसकी प्रतीक्षा होनी चाहिए। समिति की रिपोर्ट की समीक्षा के लिए भी तो न्यायालय है ही। समिति के चारों सदस्य भूपिंदर सिंह मान, अशोक गुलाटी, डॉ प्रमोद कुमार जोशी और अनिल धनवट लंबे समय से कृषि और किसान केंद्रित कार्य करते रहे हैं। हम- आप  इनके कई विचारों से असहमत  हो सकते हैं और हुए भी हैं लेकिन इनमें एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसके बारे में कहा जाए कि उनको कृषि और किसानों की समस्या का अनुभव नहीं है। जिन अशोक गुलाटी का सबसे ज्यादा विरोध हुआ है उनसे ज्यादातर सरकारें  जिसमें सभी पार्टियां शामिल हैं कृषि को लेकर सलाह मशविरा करते रहे हैं। यह कहना कि चूंकि ये लोग कृषि कानूनों के समर्थक हैं इसलिए उनको समिति में नहीं होना चाहिए न्यायसंगत नहीं है। सच यही है कि कृषि पर काम करने वाले ज्यादातर लोग, विशेषज्ञ ही नहीं, समझ-बूझ वाले देशभर के किसान कृषि कानूनों के पक्ष में हैं। वे यह तो मानते हैं कि इसमें कुछ प्रावधान जोड़े जाने चाहिए, कुछ प्रावधानों में संशोधन होना चाहिए लेकिन इसे पूरी तरह खत्म करने का मतलब होगा किसानों को हर हाल में केवल सरकारी मंडियों पर निर्भर बनाए रखना।

शालीन व्यवहार में न्यायलय की संवेनशील पहल के बाद आंदोलन कम से कम स्थगित किया जाना चाहिए था। न्यायालय ने भले आंदोलन को खत्म करने का आदेश नहीं दिया लेकिन उसकी इन पंक्तियों को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए-‘ हम शांतिपूर्ण प्रदर्शन को दबाना नहीं चाहते लेकिन कृषि कानूनों के अमल पर रोक के इस असाधारण आदेश से प्रदर्शन का कथित उद्देश फिलहाल के लिए पूरा हो जाता है। अब प्रदर्शनकारियों को वापस चले जाना चाहिए। जब एक किसान संगठन की ओर से पेश वकील ने यह कहा कि किसान संगठन समिति के सामने नहीं आना चाहते तो न्यायालय ने कहा कि हम समाधान चाहते हैं।.. राजनीति और न्यायिक प्रक्रिया में अंतर को समझा जाना चाहिए।.. अगर आप अनिश्चितकाल तक धरना देना चाहते हैं तो आपको कोई रोक नहीं सकता। हमारा उद्देश्य विवाद का हल निकालना है। 

सभी निष्पक्ष लोग स्वीकार करेंगे कि लंबे समय से किसानों की फसलों को आवश्यक वस्तु अधिनियम से मुक्त किया जाने की मांग की जाती रही है। इसी तरह यह मांग भी लंबे समय से थी कि किसानों को सरकारी मंडियों के परे अपनी फसल बेचने तथा उनको वाजिब दाम मिल सके इसके लिए कानून और उसके साथ उपयुक्त ढांचों का निर्माण किया जाए। कृषि क्षेत्र को बेहतर करने, उसे सम्मानजनक कार्य बनाने और किसानों की आय वृद्धि के लिए निजी निवेश की मांग तो सभी पार्टियों और ज्यादातर संगठनों की रही है। तीनों कानून इन्हीं मांगों को पूरा करती हैं।  तो फिर इनके तीखे विरोध का कारण क्या हो सकता है? विरोधी दलों और गैर दलीय कुछ समूहों और व्यक्तियों की गलत राजनीति । ये सारी शक्तियां नागरिकता संशोधन विरोधी कानून में इकट्ठी हो गईं थीं।  इन्होंने ही कृषि कानूनों के विरोध में हो रहे आंदोलन को अपने शिकंजे में कस लिया है। वास्तविक किसान संगठनों में जो समझौते के पक्ष में थे वे भी कन्नी काट रहे हैं। क्यों? वस्तुतः ऐसा माहौल बना दिया गया है कि वास्तविक किसान संगठनों का कोई नेता अगर समझौते की बात करता है तो वह हाशिए पर फेंक दिया जाएगा। न्यायालय का काम राजनीति से निपटना नहीं है। 

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, मोबाइलः9811027208, 8178547792


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