बुधवार, 27 सितंबर 2023

स्त्री-चेतना: स्वानुभूति बनाम सहानुभूति

 मीना शर्मा

सत्य क्या है? चेतना क्या है? सत्य स्त्रीलिंग है अथवा पुलिंग या उभयलिंग? चेतना स्त्री की है? चेतना पुरुष की है? अथवा चेतना मनुष्य मात्र की (मानवीय) है? सत्य भक्ति का होता है? सत्य रचयिता का होता है? सत्य पाठक का होता है? सत्य सार्वभौम होता है अथवा सत्य विशिष्ट होता है? या सत्य इनमें से कोई भी नहीं होता है? या सत्य समन्वित निर्मिति है। ऐसे अनगिनत प्रश्नों की वर्षा होने लगती है जब हम सत्य को खंगालना शुरू करते हैं और सत्य को खंगालाना भी जरूरी है, क्योंकि इसी से जुड़ा है अनुभूति का सत्य। अपनी अनुभूति (स्वानुभूति) सत्य है अथवा अनुभूति - सामर्थ्य के सहारे दूसरे की अनुभूति तक पहुंचकर सत्य का साक्षात्कार करना यानी सह- अनुभूति, समान अनुभूति के सत्य को उपलब्ध करना सत्य है। दूसरे शब्दों में क्या सह अनुभूति (सहानुभूति) सत्य है? ये इतने सारे सवाल क्यों? तो उत्तर यह है कि सत्य की उपलब्धि का दावा सभी करते हैं और प्रत्येक दावा करने वाला अपने सत्य को परम सत्य और अन्तिम सत्य मानने लगता है, परम ब्रह्म की तरह और फिर इस परमब्रह्म का परमज्ञानी दूसरे के सत्य को अंतिम सत्य भी नहीं मानता तो फिर निर्णय कैसे हो? झगड़ा और विवाद की जड़ यही है कि मेरा सत्य और तेरा सत्य, मेरी अनुभूति और तेरी अनुभूति, स्वानुभूति और सहानुभूति, रचनाकार और भोक्ता का सत्य, स्त्री लेखक का सत्य और लेखक का सत्य।
इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि सत्य क्या है, वह महत्त्वपूर्ण नहीं है, सत्य को कौन देख रहा है यह महत्त्वपूर्ण है किस चश्मे से सत्य को देखा जा रहा है, वह चश्मा सत्य को निर्धारित करता है। आदमी की निगाह में औरत का सत्य बनाम औरत की निगाह में औरत का सत्य, दोनों सत्य में से किसका सत्य मान्य और किसका सत्य अमान्य हो, यह कौन तय करेगा, आदमी या औरत ? पुरुष लेखक होकर भी पहले पुरुष है तो वहीं स्त्री लेखक होकर भी पहले वह स्त्री है, तो क्या अपने-अपने पूर्वाग्रह के साथ इस सत्योपलब्धि की प्रक्रिया में अनायास अथवा सायास चले आते हैं और इस कारण सामने वाले के सत्य को लिंग भेद, स्थिति भेद, अनुभूति भेद, अनुभव भेद के आधार पर हम स्वीकार नहीं करते हैं अथवा महजीह नहीं देते हैं। दोनों एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने लगते हैं, एक दूसरे के सत्य को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने के तर्क रखते हैं, उसका लॉजिकल फार्मूला स्त्री के अलग प्रजाति होने के आधार पर देते है-
'हर स्त्री मनुष्य है-
किन्तु हर मनुष्य स्त्री नहीं।'
इस तर्क को थोड़ा और बारीक करते हैं कि हर मनुष्य तो क्या, कोई भी स्त्री मनुष्य नहीं होती। अगर स्त्री मनुष्य होती तो उसकी मानव सत्ता अक्षुण्ण रहती, उसकी जैविक सत्ता के साथ-साथ। किन्तु स्त्री की मानव सत्ता की सर्वस्वीकार्यता कारिता होती तो फिर उसे उपनिवेश की श्रेणी में क्यों रखतो उसे परजीवी क्यों मानते, उसका दोयम दर्जा क्यों मानते? उसे वस्तु 'अन्या' आदि की श्रेणी में क्यों रखते? निम्नलिखित कथन को पढ़कर तो इसी तथ्य की पुष्टि होती है- "दरअसल भारतीय समाज में औरत और दलित दोनों ही परजीवी हैं। दोनों अपने जन्म के कारण ही भेदभावपूर्ण व्यवहार के शिकार होते हैं। दलितों के साथ जन्म-परक भेदभाव, एक वर्गीय व्यवस्था, ऊँची-नीच मालिक-गुलाम, विजेता-विजित आदि एक राजनीतिक साजिश का परिणाम है जो मनु की आचार संहिता पर आधारित सामन्ती/वर्ण-व्यवस्था के कारण घटित हुआ है। यह केवल भारत में ही है। औरत के साथ यह भेदभाव उसके स्त्री होने के कारण होता है, चाहे वह ऊंचे वर्ग की हो या निम्न- सर्वहारा वर्ग की, यानी गरीब हो या अमीर, गोरी या पीली अथवा काली या किसी भी रंग की हो, चपटी नाकवाली हो या चपटे माथे वाली या तीखी रोमन नाक वाली हिंदू हो या मुसलमान, ईसाई हो या यहूदी, पूरब की हो या पश्चिमी की स्त्री जाति में जन्म लेने वाली यानी स्त्री प्रजाति की होने के कारण ही उसे विश्व भर में दोयम दर्जा ही दिया जाता रहा है।

औरत, औरत होने के कारण यदि कमतर है तो एक बात है, ऊपर से यदि यह दलित जाति से ताल्लुक रखती है, उससे भी बड़ी बात, साथ ही यदि वह गरीब भी हो तो फिर तो वह उपनिवेश -द-उपनिवेश के चक्रव्यूह फंसी स्त्री हुई। यानी लिंग, जाति, वर्ग जैसी भिन्न स्थितियों में जाने वाली स्त्रियों को क्या पितृसत्ता एक ही प्रकार की प्रकटित करेगी? ऊपर से यदि वह स्त्री पिछड़ी जाति की निरक्षर, बेसहारा स्त्री हुई तब क्या होगा? शायद गांव का काई दबंग डायन, चुड़ैल बताकर निर्वस्त्र करके गांव में घुमाए अथवा बलात्कार आदि घटना को अंजाम देकर, काटकर नदी में बहा दे, तो क्या उस स्त्री की स्वानुभूति को उसी लिंग की कोई महानगरीय संभांत उच्च जाति की महिला 2000 किमी दूर वातानुकूलित कक्ष में बैठकर अपनी अनुभूति को उस पीड़ित महिला की अनुभूति के साथ समरूप कर सकती है? या फिर सिर्फ अपनी तरफ से सहानुभूति ही व्यक्त कर सकती है यानी एक महिला एक का ही सत्य (स्वानुभूति) दूसरी महिला का सत्य (सहानुभूति) नहीं बन पाता, तो ऐसी स्थिति मतें फिर कोई पुरुष उस पीड़ित महिला के दर्द की अनुभूति बयान करें तो वह अकेला 'हाऊटसाइडर कैसे? यह पुरुष भी तो उस पीड़ित महिला के साथ सहानुभूति ही तो व्यक्त करता है दूसरी स्त्री महिला लेखक के समान क्या सिर्फ लिंग एक होने से अनुभूति भी एक हो जाती है? सत्य भी एक हो जाता है? एक की स्वानुभूति दूसरे की स्वानुभूति हो पाती है क्यों?
अतएव जब स्त्री विमर्श की बात आती है तो पुरुष लेखक बाहरी कैसे? और स्त्री लेखक ही हमेशा हर स्थिति में अन्तरंग कैसे? फिर एक स्त्री भी पुरुष के चश्मे से स्त्री के सत्य को देख सकती/देखती है। यही बात दलित विमर्श के सन्दर्भ में भी उठता है स्वानुभूति और सहानुभूति का मसला वहां भी है, किन्तु दलितों में एलीट' वहां भी है, जो उससे अपनी वर्गीय हैसियत के कारण उतना ही दूसरी बनाकर रखता है जैसे वर्णव्यवस्था में एक सवर्ण व्यक्ति किसी अवर्ण व्यक्ति के साथ रखता था। वह 'एलीट उस गरीब के साथ खान-पान, उठ-बैठ, विवाह-रिश्ते, आना-जाना आदि मामलों में उसकी तरफ हिकारत भरी नजरों से देखता है। साथ ही दलितों के भीतर भी जाति-व्यवस्था उतनी ही कठोर (क्रूर नहीं क्योंकि यहाँ जान लेने वाला मसला नहीं है।) नियम का पालन कर अपनी विशिष्टता, पृथकता को बनाए रखना चाहता है। तो फिर क्या यह एलीट दलित व्यक्ति उस गरीब व्यक्ति के अन्तःकरण का साक्षात्कार उस स्वानुभूति की तीव्रता और गहराई के साथ कर पाएगा जैसा कि वह गरीब दलित व्यक्ति करता है। तो फिर यह एलीट व्यक्ति यदि लेखक बनकर उस पर लिखने की पात्रता रखने वाला इन 'साइडर' है अथवा 'आउट साइडर ? स्वानुभूति बनाम आत्मानुभूति का सवाल तो वहाँ भी उठना चाहिए। सिर्फ यह कहना कि सभी दलित एक हैं, दलित-दलित एक हैं. सभी दलित की स्थिति, सत्य, वेदना, अनुभूति एक है, स्वानुभूति एक है (?) कहकर इस सवाल से कन्नी नहीं काटा जा सकता । यानी जब भिन्न अभिव्यक्ति में पूर्ण सक्षम अथवा समरूप जीवनानुभव न रखने के कारण, सौ फीसदी उपयुक्त लेखकीय पात्र नहीं है, वह भी (एलीट) उसके (गरीब दलित) लिए उतना ही हाउट साइडर बाहरी व्यक्ति है, जितना कि सवर्ण लेखक उस गरीब दलित के लिए होगा। भिन्न स्थिति में रहने के कारण एवं जाति विशेष होने के कारण ही किसी भी सहानुभूति स्वानुभूति नहीं बन सकती। स्वानुभूति और सहानुभूति के झगड़े में सत्य से ज्यादा राजनीति ज्यादा काम करती है।
वास्तव में स्त्री विषय हो या दलित विषय, दोनों की विमर्श में जाति, पितृसत्ता, वर्ण-व्यवस्था के प्रश्नों से काटकर, उनकी भिन्न स्थिति, सन्दर्भ में विच्छिन्न कर देखना सत्य का औसतीकरण होगा क्योंकि "स्त्रीवाद की मुख्य चिता, आज की पितृसत्ता ही है। लेकिन क्या पितृसत्ता प्रत्येक देश और प्रत्येक काल में एक जैसी है ?... वह एक जैसी नहीं होती। एक ही समय और एक ही समाज में भी वह एक जैसी नहीं होती। उदाहरण के लिए हम आज के अपने भारतीय समाज में देखें, तो क्या उच्च या उच्च मध्यवर्गीय, शिक्षित और कामकाजी स्त्रियों की स्थिति निम्न या निम्न मध्यवर्गीय, अशिक्षित और घरेलू स्त्रियों से भिन्न नहीं है? शहरी और देहाती स्त्रियों की धनी और निर्धन परिवारों की, ऊँची जातियों और नीची जातियों की स्थिति भिन्न नहीं है? क्या ऐसी तमाम स्थिति भिन्न नहीं है? क्या ऐसी तमाम भिन्न स्थितियों में जीने वाली स्त्रियों को पितृसत्ता एक ही प्रकार से प्रभावित करती है? यदि वह सब स्त्रियों को एक ही प्रकार से प्रभावित नहीं करती, तो क्या आज के स्त्रीवाद के पितृसत्ता विरोधी संघर्ष तक ही सीमित रहना चाहिए? क्या उसे वर्ण और जाति के प्रश्नों से नहीं जोड़ना चाहिए?"
अतएव वर्ण और जाति की असमानताओं से सत्य निरपेक्ष नहीं है। स्त्री की चेतना इनके सापेक्ष में ही मूल्य अर्थ और दिशा पाती है। वर्ण-व्यवस्था भी असमानता का एक ढाँचा है किन्तु वह वर्ग और जाति के सत्य से मुक्त नहीं है। वर्ग और जाति की असमानता का एक ढाँचा है, किन्तु वह वर्ग और जाति के सत्य से मुक्त नहीं है। वर्ग और जाति की असमानताओं को भूलकर उनकी आंतरिक विसंगति को छोड़कर अगर हम यह सोचें कि केवल वर्ण-व्यवस्था का विरोध करके या उखाड़ फेंकने से हम सब तरह की असमानताओं से या दलितों के साथ होने वाले अत्याचार भेदभाव से हम मुक्त हो जाएंगी, या स्त्री वर्ग, जाति की असमानताओं को भूलकर पितृसत्तात्मक व्यवस्था को उखाड़ फेंगेगी, तो यह एक भ्रामक धारणा होगी। एक समतामूलक मानवीय समाज के निर्माण में सभी विघ्न-बाधाओं तत्वों की पहचान करके ही इस लड़ाई को निर्णायक मोड़ एवं दिशा दी जा सकती है। अन्यथा इतिहास गवाह है कि इन तथ्यों को भुलाकर आंतरिक विसंगतियों को भुलाकर जल्दबाजी मतें कई देशों में की गई क्रांतियां कालांतर में ऐसा अभिशाप बन जाती हैं कि उसे मिटाने के लिए एक और क्रांति करनी पड़ती है, फिर एक और, और यह क्रम निरंतर चलता रहता है। वहां के समाजों में आंतरिक अशांति, उपद्रव, गृह क्लेश, आपातकाल जैसी स्थितियाँ और घटनाएं अक्सर देखे जा सकते हैं। शायद इन्हीं आंतरिक विसंगतियों और अन्विति के अभाव में ही इतिहास को फिर से अपना इतिहास दोहराना पड़ता है इतिहास दोहराने का भी इतिहास रहा है।
वास्तविकता यह यहै कि केवल पितृसत्ता के कारण ही स्त्रियों का दमन और उत्पीड़न नहीं होता बल्कि वर्ग ओर जाति के आधार पर भी स्त्रियाँ उसका शिकार होती हैं इस तरह की खबरें अक्सर देखने-सुनने को मिलती हैं। है एक दिलचस्प उदाहरण मार्क्सवाद का ही है जो समतामूलक मानवीय व्यवस्था के दर्शन के साथ संपूर्ण विश्व में निकला था, इस धारणा के साथ कि समाज में वर्ग-भेद एक बार मिटा तो जाति-भेद और स्त्री-पुरुष भेद स्वतः चला जाएगा। किन्तु तमाम क्रांतियों के बाद भी पूरे विश्व में पितृसत्ता बनी रही। जहाँ साम्यवादी शासन था वहाँ की स्त्रियाँ यह कहते हुए सुनी जा सकती थीं कि "मेरा पति, जो बाहर कॉमरेड है घर में मुझे क्यों पीटता है ?"
स्त्री चेतना को स्वानुभूति या सहानुभूति के सन्दर्भ में एक बार महिला का विषय की भी है यह यह कि जब टी.एस. इलियट (TS. Eliot) कहते हैं कि रचनाकार और भोक्ता में अन्तर होता है, जितना बड़ा अन्तर होगा, उतना बड़ा बदलाव होगा और इसका सीधा अर्थ यही होता है कि रचनागत सत्य / काव्यगत सत्य और व्यक्तिगत सत्य दो अलग सत्य हैं। रचना प्रक्रिया में जब तक रचने वाला निर्धेयक्ति नहीं हो पाता, तब तक वह कलाकार नहीं बन पाता। स्वानुभूति के आधार पर व्यक्तिगत या आत्मगत सत्य और तथ्य को सीधे एवं सपाट ढंग से प्रस्तुत करने पर साहित्य, साहित्य न रहकर रिपोर्टिंग रह जाएगा। साहित्य सूचना, तथ्य या समाचार बन जाएगा और सूचना अथवा समाचार साहित्य नहीं होता। इस कसौटी पर महान साहित्य का मूल्यांकन करना भी संभव नहीं होगा, मसलन स्वानुभूति के आधार पर कामायनी में जयशंकर प्रसाद का जीवन खोजना, रामायण में तुलसीदास अथवा वाल्मीकि का कहाँ है? या साकेत के अनदर मैथिली शरण गुप्त का स्वानुभूत सत्य या व्यक्तिगत सत्य कहाँ और कितना है? गोदान में प्रेमचन्द का जीवन कितना है, गोदान में होरी का सत्य क्या प्रेमचंद का सत्य है या प्रेमचंद का सत्य क्या होरी का सत्य है? दोनों में किसी स्वानुभूति और किसकी सहानुभूति है? पछाड़ खाकर गिरते होरी की त्रासदी सिर्फ होरी की त्रासदी है या भारत के आम किसान की त्रासदी है या प्रेमचंद की त्रासदी है?
अतएव स्वानुभूति और सहानुभूति की कसौटी पर साहित्य के मूल्यांकन में अत्यधिक सचेत होने की आवश्यकता है। फार्मूलाबद्ध तरीके से न तो साहित्य का सृजन हो सकता है, न मूल्यांकन और न ही पाठन सृजन-प्रक्रिया, आलोचना-प्रक्रिया और पाठकीय प्रक्रिया में अनुभूति कई स्तरों पर संक्रमित होती है, अनुभूति के पैटर्न में बदलाव दिखाई पड़ता है। यदि गोदान में पछाड़ खाकर गिरते होती की त्रासदी प्रेमचन्द का सहानुभूति-सत्य है, तब भी वह महान रचनागत सत्य है जो मानवीय संवेदना को झंकृत करता है। साहित्य की परकाया प्रवेश की भूमिका वहाँ देखी जा सकती है।
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