गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

कैसे देखें वर्ष 2015 को

 

अवधेश कुमार

दुनिया ईसा संवत 2015 को विदा कर रहा है। हालांकि हमारे यहां भौगोलिक और प्राकृतिक दृष्टि से मान्य संवत हैं जिनके आधार पर वर्ष की उपलब्धियांें-विफलताओं आदि का मूल्यांकन किया जा सकता है। किंतु ग्रिगोनियन कैलेंडर को विश्व भर में मान्यता मिली हुई तो वैश्विक धारा के अनुकूल हम वर्ष का लेखा-जोखा इसी अनुसार करते हैं। 2015 का मूल्यांकन करते समय हमें यह ध्यान रखना होगा कि 2014 ने भारत में उम्मीद और आशावाद तथा विश्व क्षितिज पर भारत के नए सिरे प्रभावी राष्ट्र की नींव डाली थी। कोई भी वर्ष अपने पिछले वर्ष की यात्रा से ही आगे बढ़ता है। अगर तिथियां और वर्ष नहीं बनाए गए हों तो हमारे आपके लिए वर्ष परिवर्तन महसूस भी नहीं हो। तो हम यह देखें कि क्या 2014 ने जो आधार देश एवं विदेश के स्तर पर भारत को दिए उसे हमने कितना आगे बढ़ाया, सशक्त किया, कमजोर किया, जो धारायें उस समय दिख रहीं थीं वो उसी अनुरुप आगे बढ़ीं या उनमें अलग परिलक्षित होने वाले मोड़ आए.......?

हम चाहे जितने निराशावादी हों, यह तो स्वीकारना होगा कि 2015 का अंत राजनीतिक तनावों और संसदीय कार्यवाही में बाधा डालने जैसे एकाध पहलुओं को छोड़ दंें तो कम से कम निराशा और नाउम्मीदी में नहीं हो रहा है। यह हर भारतवासी के लिए संतोष का विषय होना चाहिए। हमारी आर्थिक गति अगर कुलांचे नहीं मार रहीं हैं तो मंदी का शिकार भी नहीं है। दुनिया की एजेंसियां भारत को एक बेहतर विकास और निवेश के स्थल के रुप में चिन्हित कर रहीं हैं। सबसे तेज विकास दर पाने वाले देश के रुप में भारत का नाम है। आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर देखें तो जम्मू कश्मीर के बाहर गुरुदासपुर में जेहादी आतंकवाद के विस्तार ने हमें अवश्य भयभीत किया, मणिपुर में असम रायफल्स पर खूनी हमला भी सुरक्षा पर करारा आघात के रुप में आया, पर इसके अलावा पूरा वर्ष बड़े आतंकवादी हमलों से बचा रहा। मुंबई हमले के बाद पहली बार जम्मू कश्मीर में तीन जिन्दा पाकिस्तानी आतंकवादी पकड़े गए। हमारे सुरक्षा बलांें ने म्यान्मार के मौन समर्थन से सीमा पार जाकर जो सफल कार्रवाई की, नगा आतंकवादियों को हताहत किया, उनकी कमर तोड़ी वह इसके पहले अकल्पनीय था। अपने स्वभाव के अनुरुप कुछ लोगों ने इस पर प्रश्न उठाए किंतु कार्रवाई हुई असफ रायफल के हमलावरांें से बदला ही नहीं लिया गया, उनकी कमर तोड़ी गई। इससे देश में राष्ट्वाद के उत्साह का आलोड़न पैदा हुआ। इससे यह विश्वास पैदा हुआ कि भारत भी सीमा पार जाकर कार्रवाई कर सकता है। इसी ने पाकिस्तान को इतना आशंकित कर दिया कि उसकी ओर से बयान आने लगे कि उसे म्यान्मार न समझे भारत। माओवादी हमले पिछले वर्ष के मुकाबले लगभग आधा रहा। तो आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर स्थिति 2014 के मुकाबले बेहतर मानी जा सकती है।

विदेश नीति के स्तर पर भी हम 2015 की उपलब्धियों को नकार नहीं सकते। भारत की पहल पर चार देशों भारत, भूटान, नेपाल, बंगलादेश के बीच मोटरवाहन समझौता ऐतिहासिक है। इससे इन देशों के बीच मोटरवाहन से आवाजाही एवं कार्गो के सीधे पहुंचने का रास्ता साफ हुआ। इसे आगे और विस्तारित कर दक्षिण पूर्व एशिया के देशों तक विस्तारित करना है। पाकिस्तान जब इसके लिए तैयार नहीं हुआ तो उसे छोड़कर भारत ने इनके साथ समझौता किया और इस पर काम हो रहा है। सड़क मार्ग से जुड़ने के मायने यह हैं कि जैसे हम अपने देश में एक जगह से दूसरे जगह वाहन से जा सकते हैं वैसे ही इन देशों में भी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बंगलादेश यात्रा शत-प्रतिशत सफल रही। जो भूमि विवाद थे उनकी अदला- बदली से निपटारा हो गया। अगर तिस्ता जल विवाद सुलझ जाए तो बंगालदेश के साथ प्रत्यक्ष कोई विवाद का मुद्दा रहेगा ही नहीं। आतंकवाद से संघर्ष में भी वह हमारी मदद कर रहा है। उल्फा के संस्थापक अनूप चेतिया को सौंपा जाना इसका प्रमाण है। श्रीलंका में चुनाव के बाद आई श्रीसेना की सरकार के साथ भारत के संबंध उतने ही बेहतर हुए है जितने होने चाहिए। चीन के प्रति उसका झुकाव कम हुआ है और भारत के प्रति बढ़ा है। अगर मोदी ने श्रीलंका की यात्रा की तो राष्ट्रपति बनने के साथ श्रीसेना ने पहली यात्रा भारत की ही की। तमिल मामलों के समाधान की दिशा में भी भारत भूमिका निभा रहा है। दोनों देशों बीच पुल बनाने पर सहमति हो चुकी है। ऐसा हो जाता है तो यह संपर्कों के मामले मंें ऐतिहासिक बदलाव होगा। भूटान से संबंध अब सामान्य पटरी पर आ गए हैं। वहां से भी चीन का दखल लगभग खत्म हुआ है। हां, नेपाल के साथ संबंधों में अवश्य अल्पकालिक तनाव आया है। इसमें हमारे पास कोई चारा नहीं है। मधेसियों की अनदेखी कर जो संविधान बना उसका भारत समर्थन कर नहीं सकता और भारत के सुझाव को जिस ढंग से वहां के नेताआंें ने अंध राष्ट्रवाद का मुद्दा बनाया उस पर प्रतिक्रिया दिए बिना भारत अड़ा रहा है। उसके परिणाम अब आने लगे हैं। नेपाल को महसूस हो गया है कि चीन भारत का विकल्प नहीं हो सकता है। यह भविष्य के लिए नेपाल को सीख की तरह है।

दक्षिण एशिया में सबसे ज्यादा जटिलता पाकिस्तान के साथ संबंधों के मामले में रहता है। आरंभ तो तनाव से हुआ लेकिन अंत फिर एक उम्मीद और आशावाद से हुआ है। 29 नवंबर को पेरिस में नवाज शरीफ से प्रधानमंत्री मोदी की अनौचारिक मुलाकात के बाद गाड़ी इतनी तेजी से आगे बढ़ी है जिसकी कल्पना नहीं थी। स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का काबुल से लौटते हुए लाहौर जाना वर्ष के अंत की ऐसी घटना जिसकी व्यापक चर्चा हो चुकी है। देखते हैं 2015 का यह सुखद अंत 2016 में कहां ले जाता है। एक बड़ी सफलता इस क्षेत्र में अफगानिस्तान के साथ संबंधों में हुई। भारत ने कई महत्वपूर्ण परियोजनाओं को समय पर पूरा करके सौंपा है जिनमें संसद भवन भी है। अफगानिस्तान का झुकाव पाकिस्तान की ओर हुआ था लेकिन आतंकवाद में अपेक्षित मदद न मिलने से उसका मोहभंग हुआ और भारत की ओर वह पूरे विश्वास और उम्मीद से मुड़ा है। प्रधानमंत्री की यहां सिचिल्स से लेकर मौरिशस, चीन,दक्षिण कोरिया, जर्मनी, कनाडा, ब्रिटेन, फ्रांस,  अमेरिका, रुस सहित मध्य एशिया के दौरों की यहां विस्तार से चर्चा संभव नहीं। इतना ही कहना पर्याप्त है कि विदेश नीति के मामले में भारत को इच्छित सफलताएं मिली हैं, सम्मान और साख में वृद्धि हुई है। पेरिस जलवायु सम्मेलन में भारत गरीब व विकासशील देशों की आवाज बनकर उभरा।

घरेलू राजनीति की ओर लौटें तो 2014 यदि नरेन्द्र मोदी के लिए चुनावी सफलताओं का वर्ष था तो 2015 में दिल्ली और बिहार के चुनाव में पराजय ने यह संदेश दिया है कि उन्हें सरकार से लेकर पार्टी के चेहरे और चरित्र में काफी बदलाव करने की आवश्यकता है। कांग्रेस के लिए बिहार में गठबंधन के सहयोग से 27 सीटों पर मिली विजय प्राणवायु की तरह आया है। गुजरात के स्थानीय निकाय चुनाव में भी उसे सफलता मिली है। लालू यादव की पार्टी की सफलता को राजनीति में किस तरह लिया जाए यह अपने-अपने मत पर निर्भर करता है। हां, यह कहा जा सकता है कि मोदी के नेतृत्व में 2014 में राजनीति मंें जो पैराडाइम शिफ्ट की स्थिति पैदा हुई थी, युगान्तकारी मोड़ नजर आया था उसे 2015 ने आगे नहीं बढ़ाया। हालांकि 2014 में मोदी सरकार आने के बाद संसद की कार्यवाही जितने सुचारु रुप से चली, 2015 के बजट सत्र तक ऐसा लगा कि पिछले करीब चार लोकसभाओं और उसके काल की राज्य सभाओं के नकारात्मक दृश्य बदल जाएंगे। किंतु 2015 के अंत में हमारी संसद फिर वहीं खड़ी है। देश नेताओं से संसद में उनकी नीति निर्माण और बहस की अपेक्षा करता है लेकिन 2015 यह संकेत नहीं देता कि ये पूरी होंगी। तो 2014 ने संसद को लेकर जो उम्मीद पैदा की थी वह 2015 में कायम नहीं रही है। यह इस वर्ष का अत्यंत दुखद और चिंताजनक पक्ष है। इसकी जड़ राजनीतिक दलों की सतत गिरावट में निहित है जिसके विरुद्व 2014 के आम चुनाव मंे देश के बड़े भाग में विद्रोह हुआ था। क्या 2015 की यह स्थिति 2016 मंें फिर कुछ वैसी ही स्थिति पैदा करेगी?

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

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