शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

नाबालिग अपराधी को बालिग बनाने का अर्थ

 

अवधेश कुमार

जुवेनाइल यानी किशोरों या नाबालिगों के अपराध से संबंधित विधेयक के पारित होने के बाद इसका कानून बनना निश्चित है। अगर राज्य सभा में करीब 5 घंटे चली चर्चा को ही आधार बनाएं तो इस पर एक राय नहीं है। यही स्थिति समाज की भी है। विधयेक पारित होते समय वाम दलों ने बहिर्गमन किया। कुछ सांसदों ने यह प्रश्न भी उठाया कि आखिर जल्दी क्या है? इसे सेलेक्ट कमिटी को भेजने की भी मांग उठी। किंतु जो माहौल बन गया था उसमें ज्यादातर दलांे के बीच एकता कायम हो गई थी और यह पारित हो गया। इसके कानून बनाने के बाद बलात्कार, हत्या और एसिड अटैक जैसे जघन्य अपराध के मामले में 16 साल से कम उम्र के ही लोगों को नाबालिग माना जाएगा। 16 साल या उससे ज्यादा उम्र के अपराधी को बालिग माना जाएगा। जिस तरह 16 दिसंबर 2012 को निर्भया बर्बर दुष्कर्म कांड के बाद जन दबाव में महिलाआंे के विरुद्ध अपराध को लेकर कड़े कानून बना ठीक उसी तरह इस मामले में भी हुआ है। वैसे भी उस बर्बर दुष्कर्म कांड के एक मुख्य अपराधी को 18 वर्ष के न होने के कारण जिस ढंग से एक दिन भी जेल में न गुजारना पड़ा एवं वह बाल सुधार गृह में तीन साल पूरा करते ही रिहा हो गया उसके खिलाफ सामूहिक आक्रोश देश भर में देखा गया है।

इस आधार पर विचार करें तो कहना होगा कि यह कानून देश के सामूहिक आक्रोश का स्वाभाविक प्रतिफल है। हालांकि हम यह पक्ष न भूलें कि कोई घटना होने के बाद तात्कालिक भावावेश में आकर हम जो कानून बनाते है तो वह स्थायी हो जाता है। उसके दुरुपयोग और दुष्परिणाम की संभावना हमेशा रहती है। निर्भया बर्बर दुष्कर्म कांड के बाद न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा समिति ने जो सिफारिशें की थीं उनमें कानून के प्रावधानोें के साथ किशोर वा नाबालिगों के जघन्य अपराधों में शामिल होने के कानून में बदलाव की भी अनुशंसा की गई थी। इस अनुशंसा के अनुरुप लोकसभा में तो यह पारित हो गया था लेकिन राज्य सभा मेें रुक गया था जो अब पारित हुआ है। जुवेनाइल जस्टिस (केयर एंड प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन) एक्ट, 2000 के मुताबिक, 16 से 18 साल के दोषी किशोर को सजा के बाद केयर एंड प्रोटेक्शन यानी सुधारने के प्रयास तथा सुरक्षा दिया जाता है। इस कानून के मुताबिक, तीन साल तक की सजा हो सकती है। अब नए कानून के तहत गंभीर अपराधों में नाबालिग अपराधी (16 से 18 साल का) पर भी वयस्क अपराधी की तरह ही मुकदमा चलाया जाएगा। हालांकि इसके लिए देश के हर जिले में जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड (जेजेबी) और चाइल्ड वेलफेयर कमेटी (सीडब्ल्यूसी) बनाई जाएगी। जेजेबी शुरुआती जांच के बाद यह तय करेगा कि नाबालिग अपराधी को करेक्शन होम (सुधार गृह) में भेजा जाए या नहीं। जांच में नाबालिग की मानसिक और शारीरिक अवस्था का भी विश्लेषण किया जाएगा। उसके बाद न्यायालय तय करेगा कि उस पर वयस्क की तरह केस चलाया जाए या नहीं।

यह बात पहली नजर में सही लगता है कि अगर 16 वर्ष से 18 वर्ष तक का कोई किशोर ठीक उसी प्रकार अपराध को अंजाम देता है जैसा वयस्क तो उसे बच्चा मानकर आप सजा से वंचित कैसे कर सकते हैं। इससे इस उम्र के लोगों में आपराधिक मनोवृत्ति वाले का दुस्साहस बढ़ता है और वे बड़े अपराध कर सकते हैं। ऐसे कड़े कानून के समर्थकों का मानना है कि अगर सजा होने लगे तो वे अपराध करने से पहले सौ बार सोचेंगे। वैसे भी आपराधिक समूह इस उम्र के युवाओं से अपराध कराने में दिलचस्पी लेते हैं। निर्भया बर्बर दुष्कर्म कांड में कुल छह लोग दोषी पाए गए थे। इनमें से एक ने तिहाड़ जेल में खुदकुशी कर ली थी। बाकी दोषी जेल में हैं। आरोपियों में से जो एक घटना के वक्त नाबालिग था अब बालिग हो चुका है उसे तीन साल सुधार गृह में रखने के बाद रिहा कर दिया गया। केवल 170 दिन कम होने के कारण ही इसे सजा नहीं मिली। दिल्ली उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय भी उसकी रिहाई रोक न सका। न्यायालय कानून के अनुसार ही सजा देगा और वह चाहे तो कानून में बदलाव की टिप्पणी कर सकता है। दोनों न्यायालयों ने बदलाव के लिए कोई टिप्पणी नहीं की। 18 वर्ष के नीचे के अभियुक्तों के बारे में सुधार गृह की कल्पना इसीलिए की गई थी कि इस उम्र में अच्छे-बुरे, गलत-सही की परिपक्व सोच विकसित नहीं होती, इसलिए अपराध करने पर भी उसे सुधरने का मौका दिया जाए ताकि आगे वह एक बेहतर नागरिक के रुप में शेष जीवन जी सके। यह भी सही सोच थी और है। जिसके साथ या जिसके परिजन के विरुद्ध ऐसे लोग अपराध करते हैं उनका गुस्सा स्वाभाविक है, लेकिन ऐसी कुछ घटनाओं के आधार पर स्थायी कानून बना देना भी पूरी तरह विवेकसंगत निर्णय नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए राज्य सभा में तृणमूल कांग्रेस के सदस्य डेरेक ओ ब्रेन ने कहा कि मेरी बेटी के साथ ऐसा होता तो मैं गोली मार देता। संसद में इस प्रकार के शब्दों की इजाजत नहीं है, लेकिन इसे ही भावावेश कहते हैं। भावावेश के आधार पर कानून निर्माण की प्रक्रिया खतरनाक है।

भावावेश में ही निर्भया बर्बर दुष्कर्म कांड के बाद कठोरतम कानून बना और उसके सद्परिणाम कितने आए इसका भले प्रमाण नहीं हो, लेकिन दुष्परिणाम आ रहे हैं। न्यायालयांे की इन तीन सालों में न जाने कितनी टिप्पणियां आ चुकीं हैं कि उस कानून का दुरुपयोग हो रहा है। इस कानून का उद्देश्य था, महिलाआंे की रक्षा, महिलाओं के साथ दुराचार करने वाले अपराधियों की सजा को सुनिश्चित करना तथा भावी अपराधी भय से अपराध न करें ऐसा वातावरण बनाना। यानी कानून का भय। इसका कुछ असर हुआ होगा किंतु तथ्य यह भी हैं कि महिलाओं द्वारा ही कानून का नाजायज इस्तेमाल किया गया है। जघन्य अपराधों को अंजाम देने वाले नाबालिग को बालिग माने लेने का क्या परिणाम आता है यह भी हमें देखना होगा। किंतु कई सांसदों ने इसके प्रति आगाह भी किया। यह ठीक है कि नाबालिगों द्वारा किए जाने वाले अपराध में वृद्धि हुई है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के अनुसार 2003 से 2013 तक कुल अपराध में इनका अनुपात 1 प्रतिशत से बढ़कर 1.2 प्रतिशत हो गया है। 16 से 18 वर्ष की उम्र वालों द्वारा किए जाने वाले अपराध में 12 प्रतिशत की वृद्धि (54 से 66) हुई है। हालांकि विरोधी इस आंकड़ा को गलत बताते हैं, पर इसके आधार पर हम आप कुछ भी निष्कर्ष निकाल सकते हैं। इसमें कई पहलू अभी अप्रमाणित हैं। जैसे यह कहा जा रहा है कि सुधारगृह में सजा खत्म होने के बाद उसके दोबारा अपराध करने कि गुंजाइश है, पर इस मान्यता के पक्ष में न कोई शोध है न ठोस आंकड़े ही। वास्तव में एक बार अपराध करने के बाद कितने नाबालिग दोबारा अपराध करते हैं या उनमें सुधार हो जाता है, इस पर आज तक कोई ठोस शोध नहीं किया गया है।

अगर हम विदेशों का उदाहरण लें तो संयुक्त राज्य अमेरिका में किशोर या बाल अपराधियों के लिए अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग कानून हैं। अधिकांश राज्यों में 16, 17 और 18 साल की उम्र के बाद वाले अपराधियों को वयस्क अपराधी माना जाता है। न्यूयार्क और नॉर्थ कैरोलिना में 17 साल से कम उम्र के किशोर अपराधियों को सजा के तौर पर काउंसिलिंग और सुधारगृह भेजने की व्यवस्था है। फ्रांस के कानून में 13 से 18 वर्ष के किशोर अपराधियों को अपराध की गंभीरता के हिसाब से सजा देने का प्रावधान है। इस उम्र का कोई किशोर यदि जघन्य अपराध करता है तो उसे सजा के लिए वयस्क माना जाएगा जबकि हल्के अपराध करने पर सुधारगृह भेजने या काउंसलिंग कराने की व्यवस्था है। ब्रिटेन में भी 10 से 17 साल के अपराधयिों को गंभीर अपराध करने पर कुछ समय के लिए सुधारगृह भेजने या काउंसिलिंग कराने का प्रावधान है। जबकि 17 साल से अधिक उम्र के अपराधियों के लिए कोई रियायत नहीं है। चीन में 14 साल से 18 साल तक के किशोरों को नाबालिग अपराधी के तौर पर माना गया है लेकिन अत्यंत गंभीर अपराध करने पर नाबालिग अपराधी को भी आजीवन करावास की सजा का प्रावधान है। इस तरह देखें तो हमारे देश में संभवतः मान्य लोकतांत्रिक देशों में सबसे सख्त कानून बन गया है। किसी भी कानून में व्यक्ति के लिए प्रायश्चित और आत्मोद्धार का पहलू होना चाहिए। यह कानून इससे वंचित है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408,09811027208

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