मंगलवार, 25 अगस्त 2015

भारत ने जो स्पष्ट संदेश दिए वो भविष्य के लिए बातचीत एवं व्यवहार के मानक बन गए हैं

 

अवधेश कुमार

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की बातचीत रद्द होने से भारत में अगर अफसोस होगा तो पाकिस्तान परस्त हुर्रियत के चेहरों को, या फिर कश्मीर की उन पार्टियों के नेताओं को, जो सत्ता की राजनीति में होने के कारण बोलते कुछ हैं और उनकी सोच और व्यवहार कुछ और दिखाता है। इसके अलावा पूरे देश में इस बातचीत के रद्द होेने से एक नए किस्म का उत्साह एवं आशावाद का माहौल देखा जा रहा है। ऐसा नहीं है कि भारत और पाकिस्तान के बीच पहली बार बातचीत रद्द हुई है। ऐसा भी नहीं कि इस बार रद्द हो जाने के बाद आगे भी बातचीत नहीं होगी। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने स्वयं कहा कि कूटनीति में कभी पूर्ण विराम नहीं होता। आज बात नहीं होगी तो आगे हो सकती है। लेकिन जिन स्थितियों में बातचीत रद्द हुई उसका महत्व भारत के लिए ज्यादा है। पहली बार लग रहा है कि भारत ने अपने अपरिहार्य कठोर रुख वाली कूटनीति तथा देश के अंदर के फैसले व कदम से ऐसी स्थिति पैदा कर दी जिसमें पाकिस्तान बुरी तरह फंस गया एवं उसके पास बातचीत से भागने के अलावा कोई विकल्प बचा नहीं था। इसका अर्थ यह नहीं कि भारत उसे बातचीत से भागने के लिए मजबूर करना चाहता था। इसके विपरीत भारत अनावश्यक बातचीत की जगह सटीक मुद्दांें पर बात कर निर्णय करने की नीति पर अड़ा रहा।

पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सरताज अजीज भारत नहीं आए, लेकिन आते भी तो क्या होता? इसका उत्तर देने के पहले यह तथ्य समझना आवश्यक है कि भारत पाकिस्तान संबंधों में कूटनीतिक मिलाप की व्यावहारिक भूमिका में ऐसे नए दौर की शुरुआत हो गई है जिसका पाकिस्तान को पिछले कम से कम 15 वर्षों से अनुभव नहीं था या उसने इसकी कल्पना नहीं की थी। खासकर जम्मू कश्मीर के संदर्भ में उसका जो रुख है उस पर उसे बिल्कुल नई परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। उसके सामने एक साथ कई परिदृश्य स्पष्ट हुए हैं, जिनके बाद उसे अपने पूरे व्यवहार पर पुनर्विचार करना होगा। अब उसे तय करना होगा कि वह इस दिशा में कदम बढ़ाना चाहता है या नही। सरताज अजीज ने 22 अगस्त की डेढ़ बजे की अपनी पत्रकार वार्ता में यही संदेश दिया कि अभी वह उस दिशा में आगे बढ़ने की मनोस्थिति में नहीं। वह परंपरागत स्टीरियोटाइप कूटनीति का शिकार है। यह उसकी आंतरिक स्थिति की विवशता है। आखिर प्रधानमंत्री एवं सुरक्षा सलाहकार दोनों को सेना प्रमुख एवं आईएसआई के प्रमुख के साथ निर्णय के पहले लंबी बैठक क्यों करनी पड़ी? साफ है कि जो कुछ होना है उसमें सेना की हरि झंडी चाहिए थी। अजीज की पत्रकार वार्ता अपनी ओर से सफाई देने तक, भारत को कठघरे मंें खड़ा कर दुनिया के सामने पाकिस्तान की छवि बचाने तक सीमित थी। भारत के तैयार डोजिएर के जवाब में उनने रॉ की पाकिस्तान में आतंकवाद अलगाववाद के बढ़ाने में तथाकथित भूमिका की तीन डोजिएर की चर्चा की और एक को कैमरे के सामने प्रदर्शित भी किया।

यह अजीबोगरीब था। एक अंदर से परेशान, विकल्पहीनता से ग्रस्त देश का रवैया था। भारत में डोजिएर की चर्चा अवश्य थी, पर सार्वजनिक रुप से और अधिकृत रुप से उस पर कोई वक्तव्य नहीं दिया गया। सरताज अजीज ने तो कह दिया कि अगर उनको भारत में इसे देने का मौका नहीं मिला तो वे सितंबर में नरेन्द्र मोदी से मुलाकात के दौरान न्यूयॉर्क में देंगे और इसे संयुक्त राष्ट्रसंघ महासचिव को भी प्रदान करेंगे। यह कूटनीति और रणनीति में घिर चुके तथा अपने देश के अंदर दबाव में आ चुके व्यक्ति की भूमिका थी। जब आपने पहले ही कह दिया कि हम संयुक्त राष्ट्र  महासचिव को भी इसे प्रदान करेंगे तो जाहिर है आप भारत पाक के बीच तीसरे पक्ष को लाना चाहते हैं। इसके पूर्व संयुक्त राष्ट्रसंघ में पाकिस्तान की स्थाई प्रतिनिधि मलीहा लोदी ने सुरक्षा परिषद में कह दिया कि कश्मीर समस्या के लिए भी संयुक्त राष्ट्र को काम करना चाहिए और उसमें और्गेनाजेशन औफ इस्लामिक कन्ट्रीज के 57 देश मदद करेंगे। यह शिमला समझौते एवं उफा सहमति दोनों का उल्लंन था। वास्तव में पाकिस्तान ने जानबूझकर उफा सहमति की विकृत व्याख्या की। 10 जुलाई को उफा में जो पांच विन्दू तय हुए थे उसमें न तो राजनीतिक स्तर की बातचीत थी, न कम्पोजिट या समग्र वार्ता की चर्चा थी और न कश्मीर की। सरताज अजीज उफा वार्ता की जो पंक्तियां पढ़ रहे थे वह प्रस्तावना थी, न कि क्या किया जाना है यानी ऑपरेशनल भाग। औपरेशनल भाग में तो आतंकवाद, सीमा पर शांति, मछुआरों को छोड़ना और धार्मिक यात्राओं को बढ़ावा देना भर था। तो शुरुआत राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की आतंकवाद पर बातचीत से होनी थी।

विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने पत्रकार वार्ता में यही कहा। स्वराज ने अपनी पत्रकार वार्ता में यह भी स्पष्ट कर दिया कि अगर उफा सहमति के आधार पर बात करते है तो स्वागत है, अन्यथा बातचीत नहीं होगी। वस्तुत पाकिस्तान ने बातचीत रद्द करते समय यह दलील दी कि भारत पूर्व शर्तें थोप रहा है, इसमें बातचीत मुमकिन नहीं। सच यह है कि भारत की ओर से शर्त थी ही नहीं। बातचीत दो पक्षों यानी भारत एवं पाकिस्तान के बीच होगी यह शिमला समझौते में तय है और एनएसए स्तर की बातचीत में हिंसा और शांति पर बात होगी यह उफा में तय हुआ था। तो उससे अलग जाने, कश्मीर को उसमें लाने फिर हुर्रियत को निमंत्रित करने का क्या तुक था? इस तरह शर्त तो वो लगा रहे थे, आतंकवाद के विस्तृत प्रमाणों वाले दस्तावेजों का जवाब उनके पास नहीं होता। जाहिर है, सरताज अजीज भले कहते रहे कि भारतीय मीडिया प्रचारित कर रहा है कि हम बातचीत से निकल भागने का रास्ता तलाश रहे हैं जो सच नहीं है, किंतु सच यही था। उफा वार्ता के बाद से ही पाकिस्तान में नवाज शरीफ की जैसी आलोचना हुई उसके बाद उनने पलटी मारी एवं कहा कि सभी मुद्दों का मतलब कश्मीर भी शामिल है। अरे भैया, शामिल है, किंतु वह आगे तब होगी जब समग्र वार्ता की परिस्थितियां बनेगी। एक ओर आतंकवादी गुरुदासपुर से उधमपुर आकर हमले करते हैं, नियंत्रण रेखा पर उफा के बाद 91 बार संघर्ष विराम का उल्लंघन होता है, लगातार होता है और उसमें आप कहें कि आइए कश्मीर पर बात करिए, हिंसा रोकने के लिए जिन कदमों पर उफा में सहमति हुई उसे पीछे धकेलिए यह कैसे संभव था। सीमा सुरक्षा बल एवं पाकिस्तान रेंजर्स के महानिदेशकों के बीच बातचीत की तिथि आपने आजतक तय नहीं की, दोनों के औपरेशन के महानिदेशकों की साप्ताहिक बातचीत की शुरुआत ही नहीं हुई तो फिर इसके आगे की बात कैसे हो सकती है?

वास्तव में आतंकवाद और हिंसा रोकने के लिए कदमों का निर्धारण उफा मंें हुआ ही इसलिए था कि आगे की बातचीत का माहौल बने। पाकिस्तान इसे किए बिना अपने अनुसार आगे की बातचीत की कल्पना करने लगा वह भी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर पर ही। यह बातचीत से भागने का रवैया ही था। लेकिन इस प्रकरण से भारत अपने रुख और संकल्पबद्धता के कारण लाभ की स्थिति में पहुंचा है। पाकिस्तान को पहली बार अहसास हुआ है कि अगर भारत के साथ बातचीत करनी है या द्विपक्षीय संबंधों को आगे बढ़ाना है तो फिर तय परिधियों को मानना होगा, एक-एक कदम आरंभ से चलना होगा। बातचीत में ऐसा घालमेल नहीं होगा कि एक ही साथ हम सारे मुद्दों पर वार्ता करें और परिणाम कुछ आए ही नहीं। परिणाम हर हाल में चाहिए और उसकी प्राथमिक सीढ़ी यही हो सकती है कि हिंसा रुके यानी सीमा पार से आतंकवाद पर विराम लगे और सीमा पर संघर्ष विराम समझौता का शत-प्रतिशत पालन हो। पाकिस्तान के सामने यह भी साफ हो गया है कि जम्मू कश्मीर के उसके पाले हुए भारत विरोधी अलगाववादियों यानी हुर्रियत का महत्व उसके लिए हो सकता है, भारत के लिए वो कुछ भी नहीं हैं। वो किसी तरह के स्टेकहोल्डर है ही नहीं। हुर्रियत के साथ पहले की तरह खासकर बातचीत के समय किसी तरह की स्वतंत्रता नहीं होगी। उनको बातचीत में राय देने या पाकिस्तान की नजरों में शामिल करने से रोकने के लिए भारत किसी सीमा तक जा सकता है। पहले जम्मू कश्मीर नजरबंदी एवं फिर शब्बीर शाह के दिल्ली पहुंचने पर पुलिस द्वारा स्वागत की सख्ती का पाकिस्तान को और अलगाववादियों को सख्त संदेश गया है। आगे पाकिस्तान बातचीत के लिए तैयार होता है तो उस समय भी अलगाववादियों से उसे नहीं मिलने दिया जाएगा यह ऐसे कदमों से बिल्कुल साफ हो गया है। अलगाववादियों के सामने भी भविष्य के दृश्य स्पष्ट हैं कि उनको केन्द्र सरकार की जहां तक सीमा है वहां कोई छूट नहीं मिलने वाली। और मुफ्ती मोहम्मद सरकार को भी अलगवावादियों के संदर्भ में लुका छिपी के खेल पर पुनर्विचार करना होगा। उसे तय करना होगा कि वह भारत की इस नीति के साथ है या नहीं कि हुर्रियत भारत पाकिस्तान वार्ता में कोई स्टेकहोल्डर नहीं है। इस प्रकार राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की बातचीत रद्द होने के बावजूद भारत ने वर्तमान और भविष्य के लिए उफा को आधार बनाकर एक स्पष्ट परिधि का सीमांकन कर दिया है जो आगे के लिए उसी प्रकार नजीर बना है जैसे शिमला।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

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