बुधवार, 15 अक्टूबर 2025

रसो वै स:, अर्धसत्य को पूर्ण समझने की अभिलाषा

शिव शंकर द्विवेदी

पूर्णसत्य के सम्बन्ध में किसी की अभिलाषा हो सकती है कि वह माधुर्य को परमसत्ता के साथ जोड़ कर समझे और परमसत्ता को रसो वै स: के रूप में स्वीकार करे,किन्तु ऐसी परिभाषा अथवा स: अर्थात् पूर्ण सत्ता के विषय में इस प्रकार का बोध निश्चित रूप से अर्धसत्य बोध की ही श्रेणी में है, हां अर्धसत्य होते हुए भी यह एक अच्छा सत्य अवश्य है,शुभ सत्य अवश्य है क्योंकि शान्ति के लिए वातावरण का मधुवत् होना ही चाहिए होता है। किन्तु दृश्यमान जगत् केवल मधुवत् नहीं है। यहां अशान्ति भी है और अशान्तिकारक परिस्थितियां भी हैं। हमें इन्हीं के मध्य रहना है। यही कारण था कि परम लोक व्यवस्थापक के रूप में श्रीकृष्ण की अपेक्षा थी कि लोग सुख-दु:खात्मक परिस्थितियों में समभाव से रहते हुए अपेक्षित कर्म करें। लोग सुख-दु:खात्मक परिस्थितियों के मध्य रहते हुए भी वह करें जो लोकहित में लोक व्यवस्थापक की अपेक्षा हो।

उक्त स्थिति में हमसे अपेक्षा भी होती है कि हम जब कभी अभिलाषा और अपेक्षा में द्वन्द्व का अनुभव करें तब अभिलाषा को त्याग कर के अपेक्षा के साथ होने का विनिश्चय करें,यही श्रीराम के जीवन चरित्र से शिक्षा मिलती है और भीष्म पितामह को युद्ध भूमि से हटाने के लिए श्रीकृष्ण ने युद्ध के मैदान में सुदर्शन चक्र को धारित करके यही संदेश दिया है कि प्रतिज्ञा जैसी अभिलाषा को लोकहित में त्याग कर आगे बढ़ा जा सकता है और बढ़ा जाना ही चाहिए।

रसो वै स: को पूर्ण सच मानते हुए जो लोग कर्मच्युत होते हैं वे किसी भी रुप में आदरणीय और आचरणीय नहीं रह जाते हैं। श्रीकृष्ण रसो वै स: को पूर्ण सच मानकर चलने वाले रासलीला में मस्त गोप-गोपियों को त्याग कर जब आगे बढ़े तो वह गोप-गोपियों की ओर पलट कर देखना भी उचित नहीं समझे जबकि वह अर्जुन के सारथी बने।

यहां कोई यह प्रश्न कर सकता है कि प्रतिज्ञा अभिलाषा कैसे हो सकती है?अभिलाषा में स्वहित रहता है जबकि प्रतिज्ञा अन्तरात्मा की आवाज से सम्बद्ध होती है।

उक्त के सम्बन्ध में स्थिति यह है कि प्रतिज्ञा के लिए किसी से कोई अपेक्षा नहीं करता है अपितु प्रतिज्ञा व्यक्ति स्वेच्छा से करता है और उसको पूरा करने लिए वह सब कुछ दांव पर लगा देता है जबकि अपेक्षा लोकहित में लोक व्यवस्थापक द्वारा निर्धारित की जाती है जिसके लिए व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है वह वही करे जो उससे अपेक्षित है। व्यक्ति अपेक्षा के अनुसार कार्य करने या न करने के लिए स्वतंत्र होता है जबकि प्रतिज्ञा में बाध्यता है। यदि कोई किसी काम को करने की प्रतिज्ञा करता है तो वह उसे करने के लिए बाध्य भी होता है। प्रतिज्ञा अभिलाषा की श्रेणी में इस आधार पर भी समझी जाती है क्योंकि प्रतिज्ञा के विषयों का निर्धारण व्यक्ति स्वयं करता है जबकि अपेक्षा के विषयों का निर्धारण लोकहित में लोक व्यवस्थापक द्वारा किया जाता है। अत एव अपेक्षा अभिलाषा नहीं है जबकि प्रतिज्ञा अभिलाषा हो जाती है।

उक्त पर यह कहा जा सकता है कि प्रतिज्ञा न तो अपेक्षा है,न ही अभिलाषा है अपितु भीष्म प्रतिज्ञा या उस जैसी प्रतिज्ञा कारक परिस्थितियों में प्रतिज्ञा विशुद्ध कर्तव्य हो जाती है। ऐसी परिस्थितियों में प्रतिज्ञाएं किसी बाह्य दबाव में नहीं होती हैं अपितु तत्कालीन परिस्थितियों में प्रतिज्ञाएं आत्मा की बुलंद आवाज हो जाती हैं।

उक्त के सम्बन्ध में यही समझना उपयुक्त है कि भीष्म पितामह ने जो प्रतिज्ञा की थी उसके लिए किसी ने उनसे अपेक्षा नहीं की थी जबकि श्रीराम के वनवास के लिए राजा दशरथ की अपेक्षा थी। अत एव कोपभवन जब श्रीराम ने कैकेई के समक्ष प्रतिज्ञा की कि वह राजाज्ञा का पालन करेंगे तब श्रीराम ने कोई अभिलाषा नहीं व्यक्त की थी अपितु राजाज्ञा के पालन हेतु एक नागरिक के रूप में अपने प्रास्थिति का बोध कैकेई को कराया था। इसके विपरीत भीष्म पितामह ने स्वविवेक से सुनिश्चित किया था कि वह आजीवन विवाह नहीं करेंगे,सत्यवती के संततियों की रक्षा करेंगे,हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठने वाले की सुरक्षा करेंगे और इसके लिए वह प्रतिज्ञा बद्ध हुए। यह उनका स्वयं का निर्णय था न कि किसी की अपेक्षा थी कि वह उक्त प्रकार की प्रतिज्ञाएं करें। उन्होंने स्वयं सुनिश्चित किया कि इस प्रतिज्ञा से खुश होकर सत्यवती के पिता जी सत्यवती का विवाह महाराज शान्तनु से कर देंगे। इसके विपरीत श्रीराम एक नागरिक की हैंसियत से बाध्य थे कि वह कैकेई के समक्ष राजाज्ञा के पालन हेतु वचन बद्ध हों।इस प्रकार स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि श्रीराम ने वनगमन की जो प्रतिज्ञा की थी वह अपेक्षा थी जबकि भीष्म पितामह ने जो प्रतिज्ञाएं की थीं वे अभिलाषाएं थीं।

भीष्म पितामह की प्रतिज्ञाओं को अभिलाषा की श्रेणी से पृथक करने के प्रयास में यह समझाया जा सकता है कि भले ही किसी ने उनसे उक्त प्रतिज्ञाओं की अपेक्षा नहीं की थी किन्तु स्वयं उनकी अंतरात्मा ने अपेक्षा की थी वह उक्त प्रकार की प्रतिज्ञाएं करें। वैसे भीष्म की जगह आप होते तो क्या विकल्प चुनते?

उक्त पर यदि पूर्वाग्रह रहित होकर विचार करें तो यह समझने में कोई दिक्कत नहीं हो सकती है कि अभिलाषाएं भी अन्तरात्मा से ही सम्बन्धित होती हैं जबकि अपेक्षा का सम्बन्ध अन्तरात्मा से नहीं होता है। अपेक्षा के विषय किसी भी स्थिति में अन्तरात्मा से सुनिश्चित नहीं होते हैं। उनके अनुसार कार्य करने या न करने का निर्णय भी अन्तरात्मा के आवाज की अपेक्षा नहीं रखते हैं जबकि विवेक की अपेक्षा रखते हैं क्योंकि अपेक्षा के अनुसार कार्य करने या न करने की स्वतन्त्रता है जबकि अभिलाषा तो बाध्यता होती है और प्रतिज्ञाओं का पालन भी इसी कारण बाध्यता की श्रेणी में शामिल होता है क्योंकि प्रतिज्ञाएं अभिलाषा होती हैं न कि अपेक्षा।

यह समझना कि अभिलाषा में व्यक्तिगत स्वार्थ निहित होता है,अंतरात्मा की आवाज में अपना स्वार्थ अनुपस्थित होता है। अन्तरात्मा की आवाज से उद्भूत प्रतिज्ञाएं ईश्वरेच्छा को समर्पित होती हैं। उसकी राजी में रजा की स्थिति है,अंतरात्मा की आवाज सुनना और उसके अनुसार आचरण करना अभिलाषा नहीं प्रतिज्ञा है।

उक्त के सम्बन्ध में यही समझना उपयुक्त है कि अन्तरात्मा की आवाज के आधार पर प्रतिज्ञाएं करना सात्विक प्रवृत्ति का कार्य है किन्तु इस आधार पर इसे अपेक्षा की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। रावण ने भी जो आचरण किया था उसके लिए भी उसकी अन्तरात्मा ने ही प्रेरित किया होगा। मन की आवाज आवश्यक नहीं है कि सदैव सबके लिए शुभप्रद ही हो किन्तु अपेक्षा सदैव लोकहित में ही होती है। यही कारण रहा है कि श्रीकृष्ण ने अपेक्षा के अनुसार कार्य करने की ओर उन्मुख होने के पूर्व यह परखने का दायित्व उन्मुख होने वाले को ही सौंपा है कि वह सुनिश्चित करे कि उससे जो अपेक्षा की जा रही है वह लोकहित में है या नहीं। यदि भीष्म पितामह ने कौरवों की ओर से युद्ध में सेनापति बनने के निर्णय के पूर्व यह समझने का प्रयास किया होता कि कौरवों की ओर से युद्ध करना लोकहित में है या नहीं? तो संभव था कि वह कौरवों की ओर से युद्ध न करते क्योंकि कौरव तो राज्य के लिए युद्ध कर रहे थे जबकि एक योद्धा से अपेक्षा होती है कि वह व्यवस्था के लिए युद्ध करे। किन्तु भीष्म पितामह प्रतिज्ञाओं को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध थे ऐसे में उन्होंने इस विषय में सोचना भी उचित नहीं समझा।

जहां तक यह पूछना कि प्रतिज्ञाओं के प्रति मैं क्या करता ?तो इस सम्बन्ध में मेरा उत्तर यही है कि मेरे आदर्श श्रीकृष्ण होते न कि भीष्म पितामह। ऐसे में मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि यदि संभव हो तो वह शक्ति और प्रेरणा दें कि मैं अर्जुन बनने की ओर उन्मुख हो सकूं और अपेक्षाओं एवं अभिलाषाओं के द्वन्द्व से द्वन्द्वातीत होकर अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने के लिए प्रतिबद्ध हो सकूं जैसे श्रीराम अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करने के लिए प्रतिबद्ध हुए थे।
(लेखक संयुक्त सचिव (सेवानिवृत्त), उत्तर प्रदेश शासन, लखनऊ हैं।)

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