बुधवार, 2 अप्रैल 2025

भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की जद्दोजहद

बसंत कुमार

आजकल देश को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की आवाज सनातनी धर्म के स्वयंभू समर्थकों और कुछ हिंदू संगठनों द्वारा की जा रही है जबकि देश में राष्ट्रवाद का समर्थन करने वाली पार्टी भाजपा की पिछले 10 वर्षों की सरकार है और इस कार्यकाल में जम्मू कश्मीर से संबंधित आर्टिकल 370 समाप्त हो चुका है, ट्रिपल तलाक़ समाप्त हो गया है वक्फ बोर्ड पर बिल आने वाला है लेकिन इन सकरात्मक कदमों के साथ-साथ तेज त्योहारों पर दुकानदारों को अपने नाम के प्लेट लगाना अनिवार्य करना और नवरात्रों के दौरान मीट की दुकानों को बंद करवाना कुछ ऐसे कदम हैं जो को कुछ लोगों द्वारा हिंदू राष्ट्र बनाने का अनावश्यक प्रयास है। यद्यपि पिछले 11 वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीजी के नेतृत्व में आर्थिक क्षेत्र में, मूलभूत सुविधाएं घर-घर शौचालय, सड़क निर्माण में अपेक्षित विकास हुआ और भारत विश्व की 5वीं अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित हो चुका है पर कुछ दिनों से देश में कुछ संगठनों द्वारा हिंदू राष्ट्र स्थापित करने की घोषणाएं की जा रहे है और कुछ सिरफिरे ऐसे हैं जो जाति विशेष के सम्मेलनों का आयोजन करके देश में संविधान के स्थान पर मनुस्मृति के विधान के अनुसार देश चलाना चाहते हैं। क्या यह देश कभी हिंदू राष्ट्र कहा गया या कभी इस देश में 800 साल तक शासन करने वाले मुस्लिम शासकों ने इसे मुस्लिम राष्ट्र घोषित करने की चेष्टा की! इतिहास के जानकार कहते है कि अंग्रेजों ने देश हिंदू-मुसलमान के रूप में बांटने के मकसद से देश में जनगणना की योजना बनाई। इससे पूर्व इस भूभाग में रहने वाले लोगों को हिंदू कहा जाता था। पर 1891 की जनगणना में पहली बार हिंदू, मुसलमान, ईसाई शब्द आया, प्रश्न जो देश हजारो वर्षों से हिंदुस्तान कहा जाता रहा है और जिसमे रहने वालों को हिंदू कहा जाता रहा है हिंदू राष्ट्र घोषित करने की आवश्यकता क्यों पड़ रही है।

दरअसल पूरे समाज के लिए प्रयोग किए जाने वाले शब्द हिंदू शब्द को एक वर्ग विशेष तक सीमित करने के लिए एक कुटिल चाल चली। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विफलता के बाद जब ब्रिटिश इंडिया की स्थापना हुई तो अंग्रेज एक ओर देश सुधार का दिखावा कर रहे थे वहीं दूसरी ओर भारतीय समाज को बांटने की संस्थात्मक व्यवस्था कर रहे थे। अंग्रेजों ने अंग्रेजी शिक्षित वर्ग की सोच बदलने के लिए आर्य शब्द का खुला उपयोग किया। ब्रिटिश इंडिया के कानून मंत्री एवं कलकत्ता यूनिवर्सिटी के कुलपति सर हेनरी मेन ने अपने एक भाषण में एक सिद्धांत प्रस्तुंत किया कि "भारत में जो सवर्ण है उनका मूल आर्य जाति से है और अंग्रेज भी आर्य जाति से हैं पर भारतीय आर्य विकास के क्षेत्र में पिछड़ गए और अंग्रेज आगे निकल गए। विधाता ने हमें भारत भेजा इसलिए है कि हम आपको सभ्यता के रास्ते पर आगे बढ़ाएं"। अंग्रेजों ने अपनी चाल को कामयाब करने के लिए भारतीयों के लिए एक दर्पण तैयार किया कि हम अपने आप को कैसे देखें। इसके लिए उन्होंने बहुत जानकारी इकट्ठी की, गजेटियर बनाए, जनगणना रिपोर्ट बनाई, पूरे भारत को क्षेत्रों में बांटकर एथोलॉजिकल सर्वे कराया। लिंगविस्टिक सर्वे कराया। इन सबके पीछे उनकी सम्राज्य वादी सोच थी जिसमे उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि भारत एक बिखरा हुआ समाज है और भारत (हिंदुस्तान) के विकल्प के रूप में इंडिया नाम दिया।

इसके पूर्व तक भारत के पूरे समाज को व्यक्त करने के लिए जो शब्द प्रचिलित था वह था हिंदू। यहां तक की भारत के बाहर भी भारत में रहने वाले मुसलमानों को भी हिंदू कहा जाता था, जो लोग हिंदू कहे जाते थे उनका उपासना से कोई संबंध नहीं था। सर सैय्यद अहमद खान ने भी गुरुदासपुर में अपने भाषण में कहा था कि हम हिंदू नहीं हैं तो और क्या हैं, पर अंग्रेजों ने अपनी जनगणना नीति से हिंदू शब्द को भू-संस्कृतिक अर्थ से एक धार्मिक अर्थ में रूपांतरित कर दिया। उन्होंने जनगणना के लिए जो खाने बनाए इस्लाम, ईसाईयत के समकक्ष हिंदू को भी रख दिया तब यह तर्क दिया कि यह जनगणना के सीमित उद्देश्य के लिए रखा गया है, फिर हिंदू (सनातनी) सीमाओं को उन्होंने छोटा करना शुरू कर दिया। फिर जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग श्रेणी बनाई गई, फिर सिखों को अलग किया गया। इसके बाद में जैनियों को अलग करने की कोशिश की गई इसी प्रकार बौद्धों को अलग किया गया। सन् 1891 जनगणना के आयुक्त जे.ए. बेंस से पूछा गया कि हिंदू कौन हैं तो उन्होंने कहा कि सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, आदिवासी और छोटी जातियों को निकाल कर जो बचता है वह हिंदू हैं और हिंदू होने का वही स्वरूप दिख रहा है। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि हिंदू जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा जिन्हें हम दलित या अछूत कहते हैं वे मनुवादी मानसिकता वाले ब्राह्मणों के कारण सदियों से हिंदू समाज से बहिष्कृत कर दिए गए थे। उन्होंने आबादी से बाहर दक्षिण दिशा में बसाया जाता था जिससे इनकी हवा भी हिंदुओं तक न पहुंच सके।

हिंदू समाज का दायरा छोटा करने का जो सिलसिला 1892 में शुरू किया गया। उसे 1904 के भारतीय परिषद अधिनियम ने बढ़ाया। इससे प्रांतीय और केंद्रीय स्तर पर चुनाव की प्रक्रिया स्थापित की गई, इसे मार्ले मिंटो रिफॉर्म के नाम से जाना गया। इस अधिनियम से मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल बनाया गया और पाकिस्तान बनने की नींव इसी अधिनियम के बनने से पड़ी। स्थानीय स्तर पर इसे 1893 में ही लागू कर दिया था लेकिन अब उसे केंद्रीय स्तर पर लागू किया गया। इसका मूल कारण यह था कि मुस्लिम लीग सहित अन्य संगठनों ने इसकी मांग की थी और ऐसा करना अंग्रेजों की बांटों और राज करो की नीति के अनुरूप था, उसके बाद अंग्रेजों ने दलितों के लिए भी पृथक निर्वाचन मंडल का फैसला किया पर यह महात्मा और डॉ. आम्बेडकर के बीच हुए पूना पैक्ट के कारण दलितों को मुसलमानों की भांति हिंदू समाज से अलग करने की चाल कामयाब नहीं होने पाई पर दुर्भाग्य यह है कि आज भी दलितों को हिंदू नहीं माना जाता न उन्हें मन्दिर में प्रवेश करने दिया जाता और कहीं-कहीं बारात में घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया जाता।

संविधान निर्माता डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर पूरे भारत के समाज को हिंदू ही मानते थे और विभिन्न पूजा पद्धतियों को मानने वाले समूहों को पन्थ मानते थे ये अलग बात है कि हिंदू पंथ में आ गई रुढ़िवादी कुरीतियों से कुपित होकर उन्होंने अपनी मृत्यु से कुछ माह पूर्व बुद्ध धर्म अपना लिया। वे चाहते तो अपने समर्थकों के साथ इस्लाम या ईसाई धर्म अपना लेते लेकिन उन्होंने बौद्ध धर्म इसलिए अपनाया क्योंकि वे जीवन पर्यंत् भारतीय ही रहना चाहते थे इसीलिए इस देश के बारे में उन्होंने कहा-

"हम भारतीय है सबसे पहले और अंत में, समय और परिस्थितियों को देखते हुए, सूरज के नीचे कुछ भी इस देश को, सुपर पॉवर बनने से नहीं रोकेगा"।

इसी कारण वे धर्म के आधार पर देश के बंटवारे के खिलाफ थे और वे इस मत के थे कि यदि देश का बंटवारा आवश्यक हो ही गया तो जनसंख्या का सम्पूर्ण स्थानांतरण हो अर्थात सारे मुसलमान पाकिस्तान चले जाएं और बाकी पंथों के मानने वाले जिन्हें सन् 1891 की जनगणना के पूर्व तक हिंदू शब्द से संबोधित किया जाता था भारत में रह जाएं।

डॉ. आंबेडकर की योजना यह थी कि जिस तरह से आटोमन सम्राज्य के पश्चात ग्रीक, टर्की और बुल्गारिया के बीच जनसंख्या का स्थानांतरण हुआ ठीक उसी प्रकार यह भारत में भी हो सकता था। उन्होंने अपनी योजना में संपत्ति, पेंशन आदि के अधिकारों की अदला-बदली की कार्य योजना सामने रखी जिसे कांग्रेस नेताओ ने असंभव कह कर ठुकरा दिया। क्योंकि कांग्रेस नेता हिंदू-मुस्लिम गठजोड़ की झूठी कल्पनाओ में भटक रहे थे। डॉ. आंबेडकर की कार्य योजना को अस्वीकार करने के बाद पाकिस्तान में बड़ी संख्या में हिंदू आबादी रूक गई जिससे कुछ समय बाद हिंदू-मुस्लिम गठजोड़ का असली चेहरा सामने आ गया और उन्हें जबरन मुसलमान बना दिया गया और भारत में रुके मुसलमान कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति के कारण अपने आप को हिंदू कहने से कट गए।

यह निर्विवाद सत्य है कि हिंदू का जो स्वरूप आज दिख रहा है वह अंग्रेजों द्वारा कराई गई 1891 की जनगणना का परिणाम है, जिसमें हर भारतवासी के लिए प्रचिलित शब्द हिंदू को सीमित कर दिया और हिंदू की यह परिभाषा गढ़ दी कि जो मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, आदिवासियों और छोटी जातियों को निकालने के बाद जो बचता है वह हिंदू है। परंतु यह बात भी स्वीकार करनी पड़ेगी कि देश की आबादी का बड़ा हिस्सा जिसे दलित या अछूत कहा जाता है उसे अंग्रेजों के भारत आने से पहले ही मनुवादियों ने हिंदू समाज से बहिस्कृत कर दिया था। अब जब तक इन्हें खुले मन से हिंदू समाज में स्वीकार नहीं कर लिया जाता तब तक भारत को हिंदू राष्ट्र नहीं कहा जा सकता। उसी प्रकार वे मुस्लिम जिन्ना की बात न मानकर हिंदुस्तान को अपना घर मानकर यही रह गए उन्हें भी हिंदू समाज का हिस्सा मानना होगा। इससे पहले कुछ कट्टरपंथियों द्वारा भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने का सपना नहीं पूरा होने वाला। क्योंकि 1891 की जनगणना से पूर्व का भारत जिसे अंग्रेजों और 1885 में बनी कांग्रेस की मिली भगत से कई पंथों वाले हिंदू समाज को कई धर्मों में बांट दिया गया।

(लेखक एक पहल एनजीओ के राष्ट्रीय महासचिव और भारत सरकार के पूर्व उपसचिव है।)

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