अभिषेक गुप्ता
आजाद भारत में पहली बार नया आयकर कानून बनाया जा रहा हैं। जिसके लिए संसद में संयुक्त संसदीय समिति का गठन हुआ है। जिसके सभापति ओडिशा से वरिष्ठ भाजपा नेता सह केंद्रपाड़ा लोक सभा से निर्वाचित बैजयंत पंडा को बनाया गया हैं। इस कानून संशोधन पर भी व्यापक चर्चा होनी चाहिए। आपराधिक कानूनों पर विचार देने के लिए देश के सभी अधिवक्ता संघों और अन्य संस्थाओं को सुझाव देने के लिए आमंत्रित किया गया था। उसी तरह देश के सभी स्त्तर के चेंबर ऑफ कॉमर्स से सुझाव लिए बिना आयकर कानून में संशोधन करना जनहित में नही होगा। कर प्रबंधन से संबंधित शिक्षा देने वाली संस्थाओं की राय भी ली जानी चाहिए। अन्य व्यवसायिक संगठनों तथा कर दाताओं से सुझाव लिये जाने चाहिए। कर लगाने वाले की अपनी दृष्टि होती हैं। साधारणतः वे सभी को कर की चोरी करने वालें मानते हैं। कर दाता और संग्रह कर्त्ता दोनों की मानसिकता और जीवन यापन करने की प्रणाली और प्रक्रिया अलग होती हैं। एक आय पर कर देता हैं तो दूसरा मूल्यांकन करता हैं। मूल्यांकन करने वाला वर्ग किसी न किसी रूप में कुछ राशि आय कर मुक्त पाता हैं। एक हैं अपने पसीने, पुरुषार्थ और परिश्रम से आय करता हैं और राष्ट्र की पूँजी निर्माण में सहयोग करता हैं। दूसरा खपत करने वाला वर्ग होता हैं। उसमें अनुत्पादक काम में लगा रहता हैं और आय कर मुक्त सुविधा पाता हैं। संविधान का पहला शब्द हैं "समत्ता" क्या उसका पालन होता हैं? सभी नागरिक समान हैं। राष्ट्र की संचित निधि पर सभी का समान अधिकार होता हैं। कर निर्धारण करते समय इस पर गम्भीरता पूर्वक ध्यान दिया जाना चाहिए।
हर क्रय पर और उपभोक्ता सामग्री पर कर चुकता हैं तब फिर अप्रत्यक्ष कर का मूल्यांकन क्यों नही किया जाता हैं। अनेकों प्रकार के अप्रत्यक्ष कर चुकाने के बाद जो राशि बचती हैं फिर उस पर भी एक सीमा के बाद कर लगता हैं। इस पर चिंतन करना चाहिए। आवश्यक जीवनोपयोगी सामग्री और विलासिता वाली सामग्री पर जो खर्च होता हैं वह बराबर नही होना चाहिए। एक खर्च हैं जो जीवन रक्षा के लिए अनिवार्य होता हैं तो दूसरा आराम दायक और विलासिता की सामग्री पर खर्च किया जाता हैं। दोनों पर कर लगाते समय अंतर होना चाहिए। आज शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन पर खर्चा बढ़ा है। उदाहरण कोई मध्यम आय वर्ग का काफी परिश्रम के बाद जैसे तैसे दस बारह लाख की गाड़ी लेता हैं। डीजल वाली गाड़ी को दस वर्ष में और पेट्रोल वाली गाड़ी को पंद्रह वर्ष में स्क्रैप बना दिया जाता हैं। क्या उतनी अवधि में उसके पास गाड़ी खरीदने के लायक पैसे की बचत हो सकती हैं। वह बैंक का किस्त भी अदा नही कर पाता हैं तब तक गाड़ी स्क्रैप बना दी जाती हैं। क्या यह मानवीय दृष्टि कोण है?
बड़े बड़े लोग ट्रस्ट बनाकर परिवार के लोगों को सदस्य बना लेते हैं और उस पर आयकर की छूट पाते हैं। ट्रस्ट के प्रबंधन पर जो खर्च होता हैं अथवा ट्रस्ट के द्वारा जो सेवा कार्य किया जाता हैं उसका उनके परिवार वालों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लाभ मिलता हैं। परिवार भी तो प्राकृतिक ट्रस्ट होता हैं। ऐसे हजारों ट्रस्ट वाले उसका लाभ उठाते हैं। नाम कमाते हैं, परोपकार के बहाने अपनी कम्पनी का प्रचार करते है और कर में छूट पाते हैं। क्या यह भी वैधानिक कर की चोरी नही हैं?
व्यवसायिक घराने अपना प्रबन्ध मण्डल बनाते हैं। उसमें उनके परिवार के ही सदस्य होते हैं। एक दो उनके नामित होते हैं। उस कंपनी पर सरकार के बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों का कर्ज होता हैं। शेयर बाजार के द्वारा आम लोगों का पैसा लगा होता हैं। परंतु उसके प्रबन्धन और संचालन पर उनके परिवार का नियंत्रण होता हैं। प्रबंध मण्डल के सदस्यों को वेत्तन भत्ता और अन्य सुविधाओं पर निर्णय वे ही करते हैं। इस प्रकार जो सार्वजनिक क्षेत्रों तथा आम नागरिकों के शेयर वाली राशि से चलती है। उस कंपनी पर सरकार का नियंत्रण नही होता हैं। वे स्वयंभू होते हैं। उनके कंपनियों के समारोहों तथा पारिवारिक समारोहों पर जो खर्च होता हैं वह कहां से आता हैं? साधारण लोगों को तो पैसा पैसा का हिसाब देना पड़ता हैं। एक देश में दो नियम क्यों हैं?
किसानों को ज्यादा परेशान किया जा रहा हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग 80% किसान सीमांत और लघु किसान हैं। जिनकी जोत अलाभकारी हैं। बिहार में 98% हैं। नए नए नगर निगम, महानगर पालिका और नगर पंचायत बनाए जाते रहते हैं। नगर निगम और महानगर पालिका की सीमा से आठ किलोमीटर तक की जमीन को व्यवसायिक माना गया हैं। जमीन पंचायत के अंदर हैं परंतु व्यवसायिक हैं। खेती होती हैं, एक फसल वाली होती हैं। उसमें व्यवसाय का पता नही है फिर व्यवसायिक बना कर कर लिया जाता हैं। ऐसा कभी नही हुआ था और न हो रहा होगा। उस जमीन का सर्किल रेट काफी होता हैं। उतना पर बिकती भी नही हैं। ऊपर से यह नियम कि उस जमीन के बेचने से जो पैसा आयेगा उससे उस व्यक्ति को अपने नाम से ही जायदाद खरीदना होगा। बेटी की शादी, बच्चों की पढ़ाई, बीमारी के इलाज पर खर्च नही कर सकते हैं। परिवार बढ़ने के कारण अपने बच्चों के लिए नया मकान भी नही बना सकता हैं। कानून हैं कि पिता माता की संपत्ति पर बच्चों का संवैधानिक अधिकार होता हैं। जमीन बेचने से जो पैसा आता हैं उसको वह अपनी मर्जी से खर्च कर सकता हैं। ऊपर से व्यवसायिक बना देने से उस पर तीस प्रतिशत तक टैक्स देना पड़ता हैं। जमीन कृषि वाली हैं परंतु उसको व्यवसायिक बना कर किसानों को लुटा जाता हैं। क्या यह उचित है?
सात लाख सीमा निर्धारित करने का क्या औचित्य है और उसके मूल्यांकन का आधार क्या है? आज कल बच्चों की पढ़ाई पर कितना खर्च आता हैं। परिवार में कई मोटर साइकिल हैं अथवा एक कार है क्या उस पर खर्च नही होता हैं। मकान किराया, बिजली पानी और यातायात पर खर्च नही होता हैं? दूसरी तरफ आवासीय वाहन, कार्यालय व्यय तथा बिजली पानी मुफ्त मिलता हैं। दैनिक भत्ता कर मुक्त होता हैं। एक भारत में दो भारत हैं। एक कर मुक्त सुविधा पाने वाला भारत और दूसरा रोटी, कपड़ा, मकान, पढ़ाई और दवाई पर खर्चा के लिए भी कर देने वाला भारत। अंग्रेजी राज की मानसिकता से स्वतंत्र भारत का कानून नही बनाया जाना चाहिए। एक है श्रम जीवी भारत तो दूसरा बुद्धिजीवी भारत। एक हैं शारीरिक श्रम करने वाला भारत तो दूसरा हैं बौद्धिक श्रम करने वाला भारत। कानून बनाते समय इस पर चिंतन करना चाहिए। देश के करोड़ों लोगों की भावना को केंद्र सरकार के सामने रख रहा हूँ। स्वतंत्र भारत में नया मन के साथ नया समाज बनाने के लिए नया कानून बनना चाहिए।
समिति के सभी सदस्य इस पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने की कृपा करें। इन विषयों को 50 से 60 के दशक में डॉ. राम मनोहर लोहिया के नेतृत्त्व में समाजवादी सार्वजनिक तौर पर उठाते रहते थे। भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद सर्वोच्च हैं। आयकर कानून संशोधन विधेयक को लोक हित में लाना होगा न कि मनवाने वालें भाव से पालन करवाना होगा।
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