शिव शंकर द्विवेदी
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।2.16।।
अर्थ: असत् की स्थिति नहीं होती है अर्थात् असत् की सत्ता नहीं होती और सत् का अभाव नहीं होता है अर्थात् सत् की सत्ता या सत् का अस्तित्व होता है। तत्त्व दर्शियों द्वारा इस प्रकार असत् और सत् के विषय में मत स्थिर किया जाता है।
श्रीकृष्ण के द्वारा इस प्रकार संसार को देखने और समझने का मार्ग प्रशस्त किया गया है। इनके अनुसार परमात्मा सत् समझे गये हैं इस कारण उनकी सत्ता पर कोई संदेह नहीं है।वह अस्तित्ववान् हैं क्यों कि वह सत् के रूप में समझे गये हैं। अस्तित्ववान् न होते तो सत् के रूप में न समझे गये होते।
हम दृश्यमान जगत् का अनुभव करते हैं अर्थात् इसकी सत्ता का अनुभव करते हैं इसलिए अनुभव में आ रहा जगत् भी सत् है।
जब हम स्वप्न देख रहे होते हैं उस समय हमें जो कुछ भी अनुभव हो रहा होता है उनमें यह अनुभव नहीं हो रहा होता है कि यह अनुभव बदल जायेगा ।उस समय यह नहीं अनुभव हो रहा होता है यह सब नहीं रहने वाले हैं। जगने के उपरान्त ज्ञात होता है तत् समय अर्थात् स्वप्न अवस्था में जो था इस समय नहीं है।
स्पष्ट है कि स्वप्न और जाग्रत अवस्था में समय और स्थान का भेद हो जाता है।इसका अर्थ है कि हम कोई भी अनुभव समय और स्थान निरपेक्ष होकर नहीं प्राप्त कर सकते हैं।यही कारण है कि हम जो अनुभव करते हैं वह देश और काल के सापेक्ष होने के कारण असत् नहीं समझा जा सकता है। अर्थात् हम जिस काल और स्थान पर जो अनुभव करते हैं वह उस काल और स्थान पर सत् होता है क्योंकि हम सत् का ही अनुभव कर सकते हैं अस्तित्व सत् का ही होता है जिसका अस्तित्व नहीं होता है उसका अनुभव हम नहीं कर पाते हैं।जब इस दृश्यमान जगत् का अनुभव इस समय कर हैं तो यह इस समय सत् है अस्तित्व में है।यह तब तक सत् है जब तक यह हमारे लिए वर्तमान के रूप में अस्तित्व में है। हम इसके भूत को भी असत् नहीं कह सकते हैं क्योंकि भूतकाल में यह जिस रूप में था जिनके अनुभव में था उनके लिए यह तत्समय सत् था क्योंकि वे इसके अस्तित्व का अनुभव कर रहे थे।भले ही भविष्य में इसका स्वरूप बदल जाय। यदि स्वरूप बदलता है तो इसका अर्थ यह नहीं रह जाता है कि वर्तमान में जो अनुभव हो रहा है वह असत् है क्योंकि वर्तमान में जो अनुभव हो रहा है वह भविष्य में बदलेगा भी?यह वर्तमान में रहते हुए नहीं समझा जा सकता है केवल कल्पना ही की जा सकती है और इस कल्पना का आधार भी भूतकाल के अनुभव ही होंगे।
अत एव वर्तमान में जो अनुभव हो रहा है उसे इस आधार पर असत् नहीं समझा जा सकता है कि भविष्य में इसका स्वरूप बदल जायेगा। किसी भी वर्तमान अनुभव के बाधक अनुभव का अनुभव वर्तमान में नहीं होता है जैसे जब हम स्वप्न देख रहे होते हैं तब यह अनुभव नहीं हो रहा होता है कि एक समय ऐसा भी आयेगा जब यह अनुभव नहीं रह पायेगा।
अत एव भविष्य सत् की कल्पना में वर्तमान को असत् समझते हुए वर्तमान के दायित्वों से पलायन श्रीकृष्ण के विचारों से असहमति ही है। ऐसे में समझना चाहिए कि श्रीकृष्ण वर्तमान जीवन या प्रतीति को असत् या मिथ्या के रूप न समझ कर जीवन्त समझते थे।यही उनके चिन्तन की विशेषता है जो उन्हें प्राचीन भारतीय चिन्तकों से नितान्त भिन्न रूप में प्रस्तुत करती है।वह स्वतन्त्र विचारों के धनी थे केवल परम्पराओं को आंख मूंद कर ढोने वाले विचारकों में नहीं थे।ऐसे में दृश्यमान जगत् को असत् या मिथ्या समझते हुए श्रीकृष्ण और उनके उपदेशों को नहीं समझा जा सकता है।
(लेखक अ-मोक्ष साधना केंद्र राजनिकेतन वृन्दावन योजना लखनऊ है।)
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