शुक्रवार, 31 मई 2024

क्या वनवासी-मुसहर मोदी सरकार में समाज की मुख्यधारा में आ सकते हैं

बसंत कुमार

पिछली दीपावली के अवसर पर मुझे अपने गृह जनपद जौनपुर से सोशल मीडिया पर एक पोस्ट देखने को मिली जिसमे वहां के वरिष्ठ भाजपा नेता व सामाजिक कार्यकर्ता राजेश सिंह पटाखों के साथ पास की मुसहर बस्ती में उनके बच्चों के साथ दीपावली का त्योहार मना रहे थे। उस पोस्ट में पटाखों की रोशनी तो दिखाई दे रही थी पर मुसहर बच्चों के चेहरे की उदासी और उनके तन पर मैले कुचैले फटे कपड़े उनकी बदहाली की दास्तां भी सुना रहे थे कि समाज में गरीबों के साथ खुशिया मनाने का दिखावा करने वाले लोग सही मायने में उनके साथ त्योहार मनाकर उनके साथ खुशिया बांटते हैं या समाज में दिखावा करके उनका मजाक उड़ाते हैं। यह शत प्रतिशत सही है कि श्री राजेश सिंह का मुसहर बस्ती के बच्चों के साथ दीपावली मनाने के पीछे उनकी मंसा अच्छी थी पर समाज के ठेकेदारों को इन मुसहर बस्तियों में रह रहे बच्चो की गरीबी, फटे कपड़े और बच्चों की अशिक्षा दिखाई नहीं देती।

इस विषय में वर्ष 2014 को एक वाक्या मुझे याद है उस समय आम चुनाव चल रहे थे और उत्तर प्रदेश की देवरिया लोकसभा सीट से भाजपा के संस्थापक सदस्यों में से एक श्री कलराज मिश्र चुनाव लड़ रहे थे और उनके चुनाव प्रचार की टीम में मैं भी शामिल था और वहां लोग मुझे कलराज जी का हनुमान कहते थे मैं चुनाव प्रचार करते हुए वहां की मुसहरी टोला नामक बस्ती में चला गया और नदी किनारे बसी बस्ती में न कोई स्कूल था, न कोई दुकान थी, न कोई चिकित्सक था बस जिस रास्ते मुसहर बस्ती में घुसा जा सकता था वहां एक देशी शराब की दुकान थी और अगल-बगल चखना (अंडा, नमकीन आदि) बेचने के ठेले थे, जिसका मुख्य उद्देश्य यह था कि शाम को 100 रुपए की दिहाड़ी कमा कर लौटने वाला मुसहर मजदूर उस ठेके पर घर पहुंचने से पहले 60 रु. ठेके पर खर्च कर दे बाकी 40 रु. में उसके घर का खर्च चले। अब आप समझ सकते है कि इन पैसों में उनके बच्चे और बूढ़े खाएंगे क्या और बच्चों को पढ़ायेंगे क्या, मैंने सोचा की अब मोदी जी प्रधानमंत्री बनेंगे और कलराज जी मंत्री बनेंगे तो शायद इस बस्ती के दिन बदलेंगे क्या, पर मोदी जी प्रधानमंत्री बने, कलराज जी मंत्री बने पर, उनकी स्थिति जस की तस रही क्योंकि वहां के चाटुकारों ने मंत्री जी को ऐसा घेरा कि मैं चुनाव के बाद कभी देवरिया जा ही नहीं पाया। अब ठीक दस वर्ष बाद आम चुनाव पुन: हो रहे हैं और उम्मीद है कि मोदी जी तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री बनेंगे फिर मेरे मन में प्रश्न उठ रहा है कि क्या बनवासी मुसहर समाज की मुख्य धारा में शामिल हो पाएंगे।

यह सिर्फ मुसहरी टोला बस्ती के मुसहरों का हाल नहीं है सदियों से गांव के एक कोने में रहने वाले मुसहर की हालत पूरे देश में ऐसी ही है। पहले के समय में गांव में शादी-विवाह में पत्तल और दोने बनाकर देते और शादी विवाह में बचा-खुचा ले जाते। इनके बच्चों को स्कूल जाने के विषय में सोचना भी दुस्कर था। बच्चे बड़े होते ही पेड़ों पर चढ़कर पत्तल बनाने के लिए पत्ता इकट्ठा करते या ईट के भट्ठे पर बोझाइ करते या जमींदार के यहां ठटवारी (बंधुआ मजदूरी) करते। यही जीवनपर्यंत पेशा रहता, पर जब से शादियों में पेपर प्लेट्स का चलन हो गया और खाना बनाने और खिलाने का काम कैटरर्स ने शुरू कर दिया तब से मुसहरों का दोना पत्तल बनाने का काम भी ठप्प हो गया और इनकी जिंदगी उन्ही अंधेरो में भटक रही है जहां सदियों पहले थी और आजादी के 7 दशक के बाद भी इनके जीवन में कोई फर्क नहीं पड़ा।

ब्रिटिश इंडिया के समय में एक क्रिमिनल ट्राईबस एक्ट आया जिसके अंतर्गत जब कोई भी अपराध होता था तो पुलिस मुसहरों सहित अन्य आदिवासियों को संदेह के घेरे में ले लेती थी। आजाद भारत में ये एक्ट तो समाप्त हो गया पर उत्तर भारत में मुसहरों के साथ ऐसा ही सलूक किया जाता है। 70-80 के दशक में उत्तर प्रदेश में जब वी.पी. सिंह मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने डाकू उन्मूलन अभियान शुरू किया पर उस अभियान में डाकू तो मरे नहीं पर डाकू कहकर सैकड़ों मुसहरों को मौत के घाट उतार दिया गया।

आज भी जब किसी अपराध में गिरफ्तारी के लिए दबाव पड़ता है तो पुलिस द्वारा इन बेचारे मुसहरों को गिरफ्तारी दिखाकर जेल में डाल दिया जाता हैं आए भी उत्तर प्रदेश और बिहार की जेलों में सैकड़ों मुसहर जेल में बंद मिल जाएंगे, जिन्हें चोरी, गांजा चरस आदि नशीले पदार्थों के धंधे में लिप्त होने के आरोप में डाल दिया जाता है जबकि वास्तविकता यह है कि इन बेचारों का इन अपराधों से कोई वास्ता नहीं होता उन्हें तो असली गुनहगार को बचाने के उद्देश्य से बलि का बकरा बना दिया जाता है क्योंकि इनका इतनी हैसियत नहीं होती कि ये अपने को बेगुनाह साबित करने हेतु वकील कर सके। गावों में ग्राम प्रधानों के इनके प्रति पूर्वग्रहों के चलते इन्हे बीपीएल और सरकारी आवास की सुविधाएं नहीं मिल पाती है और ये आज भी समाज से दूर झोपड़ियों में बनवासी जंगली की तरह रहने को मजबूर है।

देश में वर्ष 2014 के चुनावों में जहां भारत की राजनीति में नरेंद्र मोदी नाम के सितारे का उदय हुआ और वहीं बिहार की राजनीति में मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने दलितों के लिए अपनी सहानुभूति दिखाने के लिए मुसहर परिवार में जन्मे जीतन राम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया और उन्होंने अपने 14 माह के कार्यकाल में दलितों पिछड़ों के कल्याण से संबंधित लिए और मुसहरों सहित अन्य वनवासियों के समाज की मुख्यधारा से जुड़ने की संभावना दिखने लग गई थी पर नीतीश जी को जीतन राम मांझी जी का फैसले लेने वाले मुख्यमंत्री का रूप पसंद नहीं था। उन्हें तो ऐसा दलित मुख्यमंत्री चाहिए था जो रिमोट से चले, इसी लिए उन्हें पूरा कार्यकाल देने के बजाय कुछ ही माह में गद्दी से उतार दिया गया और मुसहरों एवं अन्य वनवासियों को समाज की मुख्यधारा में लाने का स्वप्न अधूरा रह गया।

जैसा कि संभावना दिख रही है कि 4 जून की मतगणना के बाद के मोदी जी तीसरी बार देश की बागडोर सम्हालेंगे और मुसहर परिवार में जन्मे जीतन राम मांझी पहली बार ससद सदस्य के रूप में देश की राजनीति में प्रवेश करेंगे और यह देश के सभी मुसहरों के लिए गौरव का क्षण होगा। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी यह भली भांति जानते हैं कि जीतन राम मांझी की पार्टी हिंदुस्तान अवाम मोर्चा का एनडीए से गठबंधन होने के कारण पूरे उत्तर भारत में मुसहर समेत अन्य महादलितों ने भाजपा के समर्थन में वोट दिया है और जीतन राम मांझी के बिहार के मुख्यमंत्री और मंत्री के रूप में लिए गए निर्णयों और उनके अनुभव के कारण उनको मोदी सरकार में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिलना भी लगभग तय लगता है तो क्या यह मान लिया जाए कि सदियों से समाज की धारा से अलग थलग पड़े वनवासी मुसहरों का समाज की मुख्य धारा में शामिल होने का समय आ गया है।

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