शनिवार, 22 सितंबर 2018

यही संघ का हिन्दुत्व व हिन्दू राष्ट्र है

 

अवधेश कुमार

संघ ने जितनी व्यापक तैयारी से तीन दिन का राष्ट्रीय समागम आयोजित कर अपने से जुड़े जितने विषय है, जिन-जिन मुद्दों पर आलोचना होती है सब पर विस्तार से बातें रखीं, उपस्थित मुद्दों पर भी मत रखा और अगर कुछ कमी रह गई तो उसे प्रश्नों के द्वारा पूरा किया उसके बाद दुराग्रहरहित व्यक्तियों का मन साफ हो जाना चाहिए। यह भारत में किसी संगठन द्वारा अपनी विचारधारा और मत को इतने व्यापक पैमाने पर और विस्तार से रखने वाला पहला कार्यक्रम था। संघ ने अपने विरोधी राजनीतिक दलों और कुछ बुद्धिजीवियों को भी निमंत्रण दिया था। संघ द्वारा विरोधियों के साथ संवाद करने की एक लोकतांत्रिक पहल थी जिसे ठुकराना किसी दृष्टि से उचित नहीं था। संवाद लोकतंत्र का प्राणतत्व है। यह अत्यंत ही गैर लोकतांत्रिक आचरण था। आप देश के सबसे बड़े संगठन परिवार के मातृसंगठन को अछूत बनाकर कब तक रख सकते हैं?

 प्रश्न उठता है कि संघ को आज इसकी आवश्यकता महसूस क्यों हुई? जिस ढंग से संघ पर अनेक आरोप लगाए जाते है, उसके विचारों की मनमानी व्याख्या होती है, हर बात में राजनीतिक दल तथा बुद्धिजीवियों का एक वर्ग संघ को घसीटता है, उसके सारे कार्यो को केवल सत्ता पाकर विचार लादने के लक्ष्य के रुप में वर्णित किया जाता है, बहुत सारे लोग संघ या उसके दूसरे संगठनों के साथ मिलकर काम करना चाहते हैं उनके मन में भी भ्रांतियां पैदा हो जातीं हैं....तो इन सब पर एक बार समागम करके विस्तार से अपना पक्ष रख दिया जाए। पिछले कुछ वर्षों में हिन्दुत्व के नाम पर जगह-जगह उच्छृंखल तत्व जिस तरह का व्यवहार कर रहे हैं, सोशल मीडिया पर हिन्दुत्व के नाम पर जैसी अनर्गल बातें की जा रहीं हैं....उनको भी संदेश देना जरुरी था कि संघ का हिन्दुत्व दर्शन क्या है। संघ परिवार के भीतर भी ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो अपनी विचारधारा के बारे में भ्रमित रहते हैं। इसीलिए संघ ने उसे सोशल मीडिया पर भी लाइव प्रसारित किया था ताकि देश विदेश में जहां भी लोग चाहें वे सुन सकते हैं।

इसके बाद यह प्रश्न उठता है कि मोहन भागवत द्वारा इतनी विस्तृत व्याख्या और स्पष्टीकरण के बाद क्या वाकई संघ का नया चेहरा आएगा? भागवत की बातों के पहला निष्कर्ष यह है कि डॉ. हेडगेवार ने जो कुछ सूत्र रुप में दिया संघ उसी को आगे विस्तृत कर रहा है। यह मान लेना कि संघ ने बदलाव नहीं किया है गलत होगा। पहले कु. सी. सुदर्शन तथा अब भागवत ने अपने नेतृत्व में विचार और व्यवहार के स्तर पर संघ को बदला है। संघ ने सीधे किसी आंदोलन में भाग न लेकर सिर्फ देशभक्त, निर्भीक और संमर्पित स्वयंसेवकों के निर्माण का दायित्व अपने उपर लिया था। स्वयंसेवक किसी आंदोलन में भाग ले सकता था, किसी संगठन का सदस्य भी बन सकता है। भागवत ने यहां तक कह दिया कि स्वयंसेवक चाहे तो किसी राजनीतिक दल का भी सदस्य बन सकता है। विरोधी आज भी 1966 की बंच ऑफ थॉट या विचार नवनीत को गलत उद्धृत करके संघ को कठघरे में खड़ा करते है। भागवत ने साफ किया कि वो बातें उस समय की परिस्थितियों में कही गई। हम बंद संगठन नहीं है। उनकी बातों से स्पष्ट है कि हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्र की मूल अवधारणा पर तो कायम है, किंतु इसकी व्याख्या धीरे-धीरे ज्यादा उदार, स्पष्ट और मान्य हुई है। किसी भी संगठन का क्रमिक विकास होता है। स्वामी दयानंद द्वारा स्थापित आर्य समाज, स्वामी विवेकानंद का रामकृष्ण मिशन सिमटते हुए संप्रदाय जैसे रह गए हैं, जबकि संघ न संप्रदाय बना न सिमटा, इसका सतत विस्तार हुआ है। यह बताता है कि देश, काल, परिस्थिति के अनुसार मूल हिन्दुत्व पर टिके हुए ही उसकी व्याख्या को धीरे-धीरे ज्यादा स्वीकार्य बनाया है।

संघ की सबसे ज्यादा आलोचना हिन्दुत्व को लेकर ही होती है। हिन्दुत्व कोई मजहब, कोई पूजा की पद्धति नहीं है। यह जीवन दर्शन है जो विविधाताओं से परिपूर्ण है।  भागवत ने कहा कि हिन्दुत्व ऐसा नहीं है जिसमें दूसरे मजहब न समा सकें। यदि मुसलमान इसमें नहीं आ सकते तो यह हिन्दुत्व होगा ही नहीं। यह उन लोगों के लिए संदेश है जो हिन्दुत्व के नाम विकृत तरीके की सोच और व्यवहार के शिकार हैं। भागवत ने कहा कि विविधता हिन्दू संस्कृति की शक्ति है इसे विश्व में हिंदुत्व की स्वीकार्यता बढ़ रही है। पर भारत में पिछले ढेड़ से दो हजार सालों में धर्म के नाम पर अधर्म बढ़ा, रूढ़ियां बढ़ीं इसलिए भारत में हिंदुत्व के नाम पर रोष होता है। धर्म के नाम बहुत अधर्म का काम हुआ है। इसलिए अपने व्यवहार को ठीक करके हिंदुत्व के सच्चे विचार पर चलना चाहिए। उनसे पूछा गया कि हिंदुत्व, हिंदुनेस और हिंदुइज्म क्या तीनों एक ही है?उन्होंने उत्तर दिया--नहीं, इज्म यानी वाद एक बंद चीज मानी जाती है, उसमें विकास के लिए खुली राह नहीं होती है। हिंदुत्व एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। हिंदुत्व अन्य मतावलंबियों के साथ तालमेल कर चल सकने वाली एकमात्र विचारधारा है। भारत में रहने वाले सभी अपने हैं।

हिन्दुत्व की इससे बढ़िया व्याख्या नहीं हो सकती। कहा गया है- यस्तु सर्वाणि भूतानि, सर्वभूतेषु च आत्मनः। यानी सभी में एक ही तत्व है। सब मुझमे हैं और मैं सबमे हूं। इसमें किसी के प्रति भेदभाव की गुंजाइश कहां है। एक उदाहरण अथर्ववेद के पृथिवी सुक्त का दिया जा सकता है। इसमें ऋषि से श्ष्यि प्रश्न करते हैं। ‘‘ऋषिवर! हमारी इस धरती के निवासियों का सृजनात्मक स्वरूप क्या हैं?’’ऋषि उत्तर देते हैं-‘‘नाना जातिः नाना धर्माः नाना वर्णाः,नाना वर्चस यथोकसम्’’। अर्थात् हमारी इस धरती पर विविध जातियों, विविध धर्मों, विविध वर्णों और विविध भाषा-भाषियों का निवास है। शिष्य फिर प्रश्न करते हैं-‘‘यदि हमारी इस भूमि के निवासियों में इतनी विविधता है,तब यहां एकता कैसे संभव होगी?’’ऋषि उत्तर देते हैं-‘‘ यदि इस एक सिद्धान्त पर लोग आचरण करें कि माताः भूमिः पुत्रोअहम् पृथ्व्यिा अर्थात् यह भूमि माता-पिता की, इस पृथिवी की हम संतान हैं, तो सहजभाव से सब परस्पर भाई-भाई बन जाते हैं और तब सरलता से विविधता में एकता हो सकती है।’’शिष्य फिर पूछते हैं-‘‘ क्या एकता के लिए इतना यथेष्ट है?’’ऋषि उत्तर देते हैं-‘‘ नहीं, उन्हें एक बात और करनी होगी, और वह यह कि -वाचः मधु- अर्थात् जब परस्पर बात करें, वाणी में मिठास हो, कटुता या हिंसा न हो।’’

मोहन भागवत ने हिन्दुत्व के इसी व्यापक स्वरुप को संघ का सिद्धांत बताया है। हिन्दू राष्ट्र का यह अर्थ नहीं कि हम संविधान नहीं मानते और जबरन परिवर्तन कर अन्य मजहबों के अधिकार छीन लेंगे। दूसरे, इसे हम हिन्दू राष्ट्र मानते हैं,बनाने की आवश्यकता ही नही। उन्होंने गोरक्षा से लेकर जनसंख्या नीति, भाषा, शिक्षा नीति, जातिभेद और छुआछूत, अंतर्जातीय एवं अंतधर्मीय विवाह, महिलाओं के सशक्तीकरण, यहां तक की समलैंगिकता पर भी विचार प्रकट किए और सबमें बनाई गई छवि के विपरीत प्रगतिशील और उदार विचार। गोरक्षा के नाम पर हिंसा के संदर्भ में कहा कि कानून हाथ में लेने वालों पर कार्रवाई होनी चाहिए। गोरक्षा करने वाले गाय को घर पर रखें, उसे खुला छोड़ेंगे तो आस्था पर सवाल उठेगा। इसलिए गो संवर्धन पर विचार होना चाहिए। अच्छी गौशाला चलाने वाले कई मुसलमान भी हैं। भाषा के बारे में उन्होंने कहा भारत की सभी भाषाएं हमारी अपनी है। किसी भाषा से शत्रुता करने की जरूरत नहीं है। अंग्रेजी का हौवा जो हमारे मन में है उसको निकालना चाहिए। देश का काम अपनी भाषा में हो इसकी आवश्यकता है। हिंदी की बात पुराने समय से चली है अधिक लोग इसे बोलते हैं इसीलिए चली है। लेकिन इसका मन बनाना पड़ेगा, कानून बनाने से काम नहीं चलेगा। उन्होंने जाति व्यवस्था को जाति अव्यवस्था कहा, अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहित करने की बात की। आरक्षण को अभी आवश्यक बताया लेकिन कहा कि समस्या आरक्षण की राजनीति है।  

इस प्रकार देखें तो संघ ने अपने को पूरी तरह खोलकर देश के सामने रख दिया है। थोड़े शब्दों में कहें तो उन्होंने. चारित्र्य संपन्न देश़ जिसके नागरिक सुशील हों, ज्ञान संपन्न देश, संगठित समरस,. समतायुक्त, शोषणमुक्त समाज को भविष्य का भारत बताया है। उन्होंने एक ऐसे आदर्श देश का लक्ष्य पेश किया है जो दुनिया के गरीब, वंचित और पिछडे देशों की प्रगति के लिए सक्रिय रहने के साथ विश्व कल्याण के लिए काम करे। हमारे महापुरूषों ने ऐसे ही भारत की कल्पना की थी। विरोधी कुछ भी कहें संघ ने व्यापक पैमाने पर संदेश दिया है और चूंकि यह सबके समझने लायक है, सकारात्मक है इसलिए इसका असर होगा। नए समर्थक पैदा होंगे। हां, इससे हिन्दुत्व के नाम पर दूसरे मजहब से नफरत करने वाले, उन पर वैचारिक हमला करने वाले निराश और क्षुब्ध होंगे। किंतु काम करने वालों को बिल्कुल स्पष्ट दिशा मिल गई है कि संघ क्या है, क्या चाहता है और कैसे काम करना चाहता है। भागवत ने नए दौर की शुरुआत की है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 09811027208

 

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