शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

तेल मूल्य पर राजनीति करना देशहित में नहीं

 

अवधेश कुमार

अर्थशास्त्र पर जब राजनीति हाबी हो जाए तो परिणाम हमेशा विघातक होता है। पेट्रोल, डीजल और बिना सब्सिडी वाले रसोई गैस की कीमतों पर यही हो रहा है। इसके पूर्व किसी पार्टी ने तेल मूल्यों में बढ़ोत्तरी भारत बंद आयोजित नहीं किया था। राजनीति के कारण यह बड़ा मुद्दा बन चुका है। सरकार दबाव में है। मीडिया में गाड़ियों का उपयोग करने वालों की बड़ी संख्या है इसलिए मुद्दा ज्यादा तूल पकड़ रहा है। तेल महंगा होने का असर चतुर्दिक होता है। महंगाई पर इसका असर होता है। हममें से हर कोई चाहता है कि कीमतें कम हों। किंतु क्या यह संभव है? जिन्हें तेल का अर्थशास्त्र एवं देश की आर्थिक और वित्तीय स्थिति से उसके जुड़ाव का पता है वे जानते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय मूल्य तय करना भारत के हाथ में नहीं है और अगर केन्द्र ने उत्पाद शुल्क तथा राज्यों ने वैट में थोड़ी कमी की भी तो मूल्यों पर इसका हल्का असर होगा लेकिन केन्द्र एवं राज्य दोनों की वित्तीय स्थिति पर प्रतिकूल असर होगा। यहां यह बताना आवश्यक है कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए शासन के अंतर्गत पेट्रो पदार्थों के मूल्यों में रिकॉर्ड बढ़ोत्तरी हुई। 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार जाने के दिन दिल्ली मेें पेट्रोल 31 रुपए तथा डीजल 21 रुपए प्रति लीटर था। मई 2014 तक यह 71 रुपए और 55 रुपए हो गया। 20 मई 2004 से 16 मई 2014 के काल में पेट्रोल की कीमत 75.8 प्रतिशत तथा डीजल की 83.7 प्रतिशत बढ़ी था। भाजपा नीत राजग सरकार में पेट्रौल के मूल्य में 13 प्रतिशत था एवं डीजल में 28 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।

इन आंकड़ों को देने का अर्थ केवल यह बताना है कि विपक्ष का तूफान केवल राजनीति है। उस समय भी अर्थशास्त्रियों का मत था कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ते मूल्य के सामने हम लाचार हैं। बीच-बीच में केन्द्र एवं कुछ राज्यों ने कर घटाए लेकिन इससे ज्यादा अंतर नहीं आ सकता था। वही स्थिति अभी भी है। निस्संदेह, मूल्यों में केन्द्र के उत्पाद कर एवं राज्यों के वैट की बड़ी भूमिका है। एक सच यह भी है कि अनेक राज्यों में वैट केन्द्र के उत्पाद शुल्क से ज्यादा है और वो पार्टियां भी सरकार आग उगल रहीं हैं। 10 सितंबर 2018 को इंडियन बास्केट के कच्चे तेल की कीमत 4,883 रुपये प्रति बैरल थी। एक बैरल में 159 लीटर होता है, इसलिए प्रति लीटर कच्चे तेल का मूल्य हुआ, 30 रुपए 71 पैसे। आयातित तेल को शोधक कारखानों में भेजने और पेट्रोल पंपों तक पहुंचाने के खर्च को भी समझना होगा। एंट्री कर से लेकर शोधन प्रक्रिया, उतारने में खर्च एवं तेल कंपनियों का मार्जिन, डीलर का अंश सहित अन्य कई खर्च आते हैं। एंट्री, शोधन और उतारने में पेट्रोल पर 3.68 रुपये तथा डीजल पर 6.37 रुपये प्रति लीटर खर्च आता है। इस तरह पेट्रोल 34.39 रुपये, जबकि डीजल की कीमत 37.08 रुपये हो गई। पेट्रोल पर 3.31 रुपये और डीजल पर 2.55 रुपये प्रति लीटर तेल कंपनियों की मार्जिन, ढुलाई और फ्र्रंट का खर्च आता है। इसके बाद मूल्य हुआ पेट्रोल 37.70 रुपये तथा डीजल 39.63 रुपये हुआ। इस पर केंद्र का उत्पाद कर प्रति लीटर पेट्रोल 19.48 रुपये और डीजल पर 15.33 रुपये लगता है। इनको जोड़कर कीमत हो गई, पेट्रोल 57.18 रुपये तथा डीजल 54.96 रुपये प्रति लीटर। पेट्रोल पंप डीलरों का कमीशन पेट्रोल पर 3.59 रुपये प्रति लीटर तथा डीजल पर 2.53 रुपये है। इस तरह पेट्रोल का मूल्य हुआ 60.77 रुपये प्रति लीटर और डीजल का 57.49 रुपया। इस पर राज्य सरकारें अलग-अलग वैट और प्रदूषण अधिभार लेती है। यानी इसके बाद का जो मूल्य है वो राज्यों के कर का है।

16 जून, 2017 से पेट्रोल-डीजल के मूल्य अंतर्राष्ट्रीय बाजार के अनुसार प्रतिदिन निर्धारित करने (डेली डाइनैमिक प्राइसिंग) का नियम हो गया है। हालांकि इसके पहले भी तेल कंपनियां हर 15 दिन पर मूल्य की समीक्षा करतीं थीं। तो अंतर इतना ही आया है। इसे यह कहते हुए लागू किया गया था कि अंतर्राष्ट्रीय मूल्योें के अनुसार मूल्य निर्धारित होगा। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मूल्य घटने के अनुरुप ग्राहकों को उसका पूरा लाभ नहीं मिला। यह सच है कि केंद्र सरकार ने नवंबर 2014 से जनवरी 2016 के बीच नौ बार में पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क 11.77 रुपये तथा डीजल पर 13.47 रुपये प्रति लीटर बढ़ाया। यह तेल के अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों में गिरावट का दौर था। जब मूल्य बढ़ने लगे तो सिर्फ एक बार अक्टूबर 2017 में उत्पाद शुल्क 2 रुपये प्रति लीटर की दर से घटाई थी।

किंतु यहां यह बताना आवश्यक है कि अंतर्राष्ट्ीय मूल्य जितना बढ़ रहा है राज्य उसके अनुसार ज्यादा कमा रहे हैैं। उनका प्रतिशत के हिंसाब से वैट और पर्यावरण अधिभार बढ़ता है तथा केन्द्रीय कर से भी उनको 42 प्रतिशत हिस्सेदारी मिलती है। वर्ष 2014-15 से वर्ष 2017-18 तक वैट, पर्यावरण अधिभार एवं केंद्रीय कर के हिस्से से राज्यों ने 9 लाख 45 हजार 258 करोड़ रुपये कमाए हैं। इसके अनुपात में केंद्र की आय 7 लाख 49 हजार 485 करोड़ रुपये हुई जिसमें से 42 प्रतिशत यानी 3 लाख 14 हजार 784 करोड़ रुपये राज्यों को मिले। दिल्ली के उदाहरण से इसे समझ सकते हैं। दिल्ली में इस समय पेट्रोल की कीमत 80 रुपए के आसापास है। दिल्ली को 40.45 रुपये प्रति लीटर की दर से पेट्रोल दिया गया है। इस पर केन्द्र का उत्पाद कर करीब 19.48 रुपया लगा जिसमें से 42 प्रतिशत यानी 8.18 रुपया केंद्र से दिल्ली को मिला। दिल्ली सरकार प्रति लीटर करीब 17.20 रुपये वैट ले रही है। अगर इनको मिला दे ंतो कर के रुप में प्राप्त 36.64 रुपये में 25.40 रुपये दिल्ली को मिलता है जबकि केन्द्र के हिस्से केवल 11.24 रुपया। दिल्ली सरकार पेट्रोल पर 27 प्रतिशत तथा डीजल पर 17.24 प्रतिशत वैट वसूलती है। यह केन्द्र के उत्पाद शुल्क से ज्यादा है।

इसके बाद आसानी से समझा जा सकता है कि देश में तेल मूल्यों पर जो हंगामा मचा है उसमें पाखंड कितना है। अगर कर ही कम करना है तो राज्यों की भूमिका ज्यादा होनी चाहिए। अभी राजस्थान एवं आंध्रप्रदेश में ने थोड़ी कमी की है लेकिन अन्य राज्य इसके लिए तैयार नहीं हैं। वे केवल केन्द्र को दोषी ठहराने में लगे हैं। ज्यादातर आम लोगों को तेल के इस वित्तशास्त्र की जानकारी नहीं होती, इसलिए वे भी केन्द्र को ही दोषी मान रहे हैं। हालांकि जैसा हमने देखा पिछले समय में केन्द्र ने भी कमाई की है, लेकिन राज्यों ने उससे ज्यादा किया है। उदाहरण के लिए वर्ष 2015-16 में अंतरराष्ट्रीय बाजार से भारत ने औसतन 46 डॉलर प्रति बैरल की दर से कच्चा तेल खरीदा था। राज्यों ने वैट से 1 लाख 42 हजार 848 करोड़ रुपये प्राप्त किए। केंद्र को उत्पाद शुल्क मिला,1,78,591 करोड़ रुपये जिसमंे से 42 प्रतिशत तो राज्यों को चला गया। इस तरह राज्यों को कुल 2,17,856 करोड़ रुपये प्राप्त हुए। वर्ष 2017-18 में अंतरराष्ट्रीय बाजार से कच्चा तेल औसतन 56 डॉलर प्रति बैरल की दर से खरीदा गया। राज्यों की राशि बढ़ कर 2 लाख 80 हजार 278 करोड़ रुपये हो गई।

प्रश्न है कि क्या तेल मूल्य घटाने का कोई रास्ता है? हम अपनी आवश्यकता का 80 प्रतिशत आयात करते हैं। वित्त वर्ष के आरंभ में 108 अरब डॉलर (7.02 लाख करोड़ रुपये) का कच्चा तेल आयात किए जाने का अनुमान था। तब कच्चे तेल की औसत कीमत 65 डॉलर प्रति बैरल तथा एक डॉलर की 65 रुपये कीमत आंकी गई थी। आज कच्चे तेल के दाम बढ़ गए तथा रुपया और नीचे आ गया। रास्ता एक ही बचता है, कर कम करने का। यानी केन्द्र और राज्यों को प्राप्त करों की स्थिति देखने के बाद केन्द्र से ज्यादा जिम्मेवारी राज्यों की दिखती है। किंतु राज्यों के खर्च का ढांचा भी इस पर इतना टिक गया है कि इसे ज्यादा कम करते ही उनकी कठिनाइयां बढ़ जाएंगी। केन्द्र का राजकोषीय घाटा बढ़ जाएगा। जिन कल्याण कार्यक्रमों पर राशि खर्च होती हैउनके लिए अलग से धन जुटाना होगा। जीएसटी में लाने का तर्क सुनने में अच्छा है लेकिन राज्य ही इसके लिए तैयार नहीं हैं। निष्कर्ष यह कि विपक्षी दल इसे राजनीतिक मुद्दा बनाकर देश को संकट में न डालें। जब तक ओपेक देश तेल उत्पादन नहीं बढ़ाते, ईरान पर प्रतिबंध जारी रहेगा तथा वेनेजुएला का राजनीतिक संकट खत्म नहीं होगा अंतर्राष्ट्रीय मूल्य बढ़ते रहेंगे। ऐसे में हमारे पास बढ़े मूल्य को झेलना ही एकमात्र विकल्प है। जो राजनीतिक दल इसमें विरोध का नायक बनने की कोशिश कर रहे हैं वे गलत ही नहीं पाखंडी भी हैं।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

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