शुक्रवार, 18 मई 2018

कांग्रेस पराजित हुई है इसमें कोई संदेह है क्या?

 

अवधेश कुमार

कर्नाटक चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस ने जैसा तेवर अपनाया हुआ है उससे ऐसा लगता है मानो वह चुनाव हारी नहीं जीती है। विचित्र स्थिति है! कांग्रेस को पूर्व विधानसभा में 122 सीटें थीं जो घटकर 78 रह गईं। सिद्धारमैया सरकार के 16 मंत्री चुनाव हार गए, विधानसभा अध्यक्ष कृष्णनप्पा कोलिवार चुनाव हार गए, स्वयं मुख्यमंत्री सिद्धारमैया जो दो स्थानों से लड़े थे उसमें से एक चामुण्डेश्वरी से 36 हजार से ज्यादा वोटो से हारे। इसके अलावा और किसे हार कहते हैं? आप यदि कर्नाटक का क्षेत्रवार परिणाम देखें तो 2013 की तुलना में सभी क्षेत्रों मंे उसकी सीटें घटीं हैं। मुंबई कर्नाटक के 50 सीटांे में कांग्रेस को 17  सीटें मिलीं हैं जबकि 2013 में उसे 31 सीटें मिलीं थीं। हैदराबाद कर्नाटक में कांग्रेस को 15 सीटें मिलीं हैं जबकि 2013 में 19 मिलीं थीं। तटीय कर्नाटक में कांग्रेस को 3 सीटें मिलीं हैं जबकि 2013 में कांग्रेस को 13 मिलीं थीं। मध्य कर्नाटक में कांग्रेस को 11 सीटें मिलीं हैं जबकि  2013 में उसे 19 सीटें मिलीं थीं। बेंगलुरु शहर में 2 पर चुनाव नहीं हुआ। यहां कांग्रेस को 13 मिलीं है जबकि पिछली बार उसे 15 सीटें मिलीं थी। पुराना मैसूर में कांग्रेस को 17 मिले हैं। यहां 2013 में उसके खाते 25 सीटें गईं थीं। कहने का तात्पर्य यह कि 2013 की तुलना में कांग्रेस को जनता ने सभी क्षेत्रों में खत्म भले नहीं किया, लेकिन काफी हद तक अस्वीकार किया है। हैदराबाद कर्नाटक और बेंगलूरु जिसके बारे में कहा जा रहा था कि मामला एकतरफा है वहां भी भाजपा ने प्रभावी पैठ बनाने में सफलता पाई। किंतु माहौल ऐसा बनाया जा रहा है मानो कांग्रेस चुनाव जीत गई हो और भाजपा केन्द्रीय सत्ता की बदौलत उसकी जीत चुराने में लगी है।

लोकतंत्र का तकाजा तो यही था कि कांग्रेस विनम्रता से हार स्वीकार करती। उसका आचरण इसके विपरीत है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने राज्यपाल द्वारा येदियुरप्पा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने पर लोकतंत्र की हत्या जैसे शब्द प्रयोग तो कर दिए किंतु अपनी पराजय पर कुछ नहीं कहा। हार न स्वीकार करना किस तरह का लोकतांत्रिक आचरण है? यह न भूलिए कि राहुल गांधी ने वहीं से पत्रकारों के प्रश्न के जवाब में स्वयं को प्रधानमंत्री का दावेदार भी घोषित कर दिया था। इस नाते देखें तो सिद्धारमैया के साथ राहुल गांधी को भी कर्नाटक की जनता से नकार दिया है। वास्तव में कांग्रेस को इस बात की गहराई से विवेचना करनी चाहिए कि जिस कर्नाटक को वह अपना सुरक्षित गढ़ मान रही थी, सिद्धारमैया के बारे में प्रचार था कि गरीबों के लिए उनकी योजनाएं तथा अब तक वंचित तबके को आवाज देने के कारण  लोकप्रियता चरम पर है, जिसके बारे में उसका आकलन था कि यहां उसकी सरकार दोबारा गठित होना सुनिश्चित है वहां से वह पराजित क्यों हुई? अगर वह इस प्रश्न का ईमानदारी से उत्तर तलाशेगी तो भविष्य के लिए उसे सीख मिलेगी एवं हो सकता है इसके अनुसार अपने विचार और व्यवहार में परिवर्तन कर वह लगातार हार के दंश से उबर पाए। ऐसा वह करने नहीं जा रही है। किंतु हम आप तो इसका पोस्टमार्टम कर ही सकते हैं।

ध्यान रखिए, 2013 में कांगेस ने जब बहुमत प्राप्त किया था उसका मुख्य कारण भाजपा से लोगों की निराशा थी। भाजपा को 2008 में जिन उम्मीदों से लोगों ने मत दिया उस कसौटी पर वह खरी नहीं उतर पाई थी। नेताओं के बीच आपसी कलह इतना था कि आधा दर्जन बार सरकार गिरने का संकट पैदा हुआ तथा तीन मुख्यमंत्री बने। भाजपा से अलग होकर वी. एस. येदियुरप्पा ने कर्नाटक जनता पक्ष के नाम से अलग पार्टी बना ली थी तो बी. श्रीरामुलू बेल्लारी क्षेत्र में अलग पार्टी बनाकर लड़ रहे थे। येदियुरप्पा की कर्नाटक जनता पक्ष ने 9.79  तथा वी. श्रीरामुलू की बदवारा श्रमिकरा रैयतारा या बीएसआर कांग्रेस ने 2 प्रतिशत से ज्यादा मत प्राप्त कर लिया। भाजपा के मतदाताओं ने नाराज होकर कांग्रेस एवं कुछ क्षेत्रों में जद-से के पक्ष में मतदान किया। परिणामस्वरुप कांग्रेस को 36.59 प्रतिशत मत प्राप्त हुआ एवं 122 सीटें मिलीं। 2018 की स्थितियां बिल्कुल बदली हुई थी। येदियुरप्पा सहित उनके साथ बाहर गए ज्यादातर नेता पार्टी में वापस आ चुके थे। भाजपा ने उनको मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाकर यह घोषणा कर दिया कि वो ही पूरे कार्यकाल तक पद पर बने रहेंगे। 2014 के लोकसभा चुनाव में ही एक होकर लड़ रही भाजपा ने कांग्रेस को मात दे दिया था। लोकसभा चुनाव के अनुसार भाजपा 132 विधानसभा क्षेत्रों में आगे थी। कांग्रेस 77 सीटों पर ही आगे थी। इसका सीधा निष्कर्ष यही था कि सामान्य परिस्थितियों में 2013 की पुनरावृत्ति नहीं हो सकती। 

 सिद्धारमैया जद-से कांग्रेस में आए हैं। केन्द्र ने उन्हें अवश्य नेता बना दिया लेकिन उनकी कार्यशैली से प्रदेश के परंपरागत कांग्रेसी असंुष्ट रहे हैं। पार्टी में उनके खिलाफ विद्रोह हुआ और अनेक नेता भाजपा में चले गए। इसे उन्होंने रोकने की कोई बड़ी कोशिश नहीं की। पूर्व मुख्यमंत्री एवं केन्द्रीय मंत्री एस. एम. कृष्णा जैसे कद्दावर नेता ने उनके रवैये से निराश होकर पार्टी छोड़ दी। चुनाव के दौरान भी आप देखेंगे कि कर्नाटक के मुख्य नेताओं की भूमिका न के बराबर थी। सिद्धारमैया ने इससे निपटने के लिए पार्टी में दूसरे नेताओं को आगे बढ़ाया। वे जिस जद-से से आए थे उसे लगातार तोड़ा। इन नए लोगों को पार्टी में ज्यादा तरजीह मिला। उन्होंने राहुल गांधी एवं सोनिया गांधी तथा उनके निकटवर्ती नेताओं से लगातार संवाद बनाए रखा तथा उनकी हर बातें मानीं। लगातार चुनाव हारने के बाद राहुल और सोनिया कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन का जोखिम लेने की स्थिति में नहीं थे। किंतु इसका असर चुनाव पर तो होना था।

 कर्नाटक में सरकार एवं कांग्रेस के खिलाफ वातावरण बन रहा था। सिद्धारमैया सरकार पर भ्रष्टाचार के भी आरोप लगे और भाजपा ने उसे मुद्दा बनाया। कई क्षेत्रों में सरकार की विफलता साफ थी। बेंगलुरु तक की सड़कांें की बुरी हालत हुई है। कानून और व्यवस्था की स्थिति खराब हुई। एम.एस. कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या का आरोप भले हिन्दूवादी संगठनों पर लगाया गया लेकिन पुलिस  हत्यारों का सुराग पाने में विफल रही। काफी संख्या में किसानों ने आत्महत्या की। सिद्धारमैया को थोड़ा-बहुत आभास था। इन सारी स्थितियों का मुकाबला करने के लिए उन्हें क्षेत्रवाद की राह पकड़ी। उन्होंने कन्नड़ स्वाभिमान का नारा लगाते हुए प्रदेश के अलग झंडे की आवाज उठा दी। उसके लिए समिति बनाया तथा उससे मनमाफिक रिपोर्ट मंगवाकर अलग झंडे को स्वीकृति दी। उसके बाद कन्नड़ भाषा को सर्वोपरि रखने की मुहिम शुरु की। कन्नड़ को उन्होंने सभी विद्यालयों के लिए अनिवार्य कर दिया। मेट्रों  पर लगे हिन्दी नामों की पट्टिकाएं हटा दी गईं। लिंगायत को अलग धर्म का दर्जा देकर उसका प्रस्ताव केन्द्र के पास भेज दिया। येदियुरप्पा लिंगायत हैं और उनके प्रभाव से लिंगायतों के मत का एक बड़ा हिस्सा भाजपा को मिलता रहा है। उनको उम्मीद थी कि इससे लिंगायतों का एक वर्ग उनके पक्ष में आ जाएगा।

उनकी सोच थी कि भाजपा क्षेत्रवाद को स्वीकार नहीं करेगी एवं इसका लाभ उनको मिलेगा। भाजपा ने इन कदमों का विरोध किया। अमित शाह ने घोषणा कर दिया कि लिंगायत हिन्दू समाज के अंग हैं और रहेंगे। अमित शाह ने लिंगायतों से लेकर अन्य मतों के मठों का दौरा किया तथा उनके प्रमुख संतों का आशीर्वाद प्राप्त किया। उसका असर हुआ। राहुल गांधी ने भी मठांें का दौरा किया लेकिन यह रणनीति इसलिए कामयाब नहीं हुई, क्योंकि बहुसंख्य हिन्दुओं के अंदर दो भावनाएं पैदा हुईं थीं। एक, कांग्रेस हिन्दुओं को बांटना चाहती है तथा दूसरे, सिद्वारमैया वोट के लिए अल्पसंख्यकों के पक्ष में झुक रहे हैं। सिद्दारमैया ने अहिंदा समीकरण बनाने की कोशिश की। अहिंदा कन्नड़ शब्दों अल्पसंख्यात (अल्पसंख्यक), हिंदुलिदाव मट्टू (पिछड़ी जातियां) और दलित (दलितों) का पर्याय है। इस समुदाय के कर्नाटक में करीब 60 प्रतिशत मतदाता हैं। सिद्दारमैया ने इनके लिए कई योजनाएं चलाईं। सिद्दारमैया स्वयं कुरुबा जाति से हैं जिनकी आबादी 7 प्रतिशत है और वह पिछड़ी जाति में आता है। वह खुद को भी अहिंदा बताते रहे। अल्पसंख्यकों पर पिछले पांच वर्षों में सांप्रदायिक हिंसा के सारे मुकदमे वापस लिए गए। इसका लाभ पीएफआई जैसे संगठनों को गया जिस पर धर्मांतरण एवं योजनाबद्ध तरीके से लव जिहाद के आरोप हैं। टीपू सुल्तान की जयंती अभियान के रुप में मनाई गई। और भी कई कार्यक्रम किए। इस समुदाय का वोट तो कांग्रेस को मिला, दूसरे समुदाय मंे इसकी प्रतिक्रियाएं होनीं थी। अल्पसंख्यकों को खुश करने के लिए ऐसे कदम और मठों के दौरों में समानता नहीं थी। इन सबके समानांतर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का चुनावी प्रबंधन, उनका प्रदेश में लंबे समय तक बने रहना, येदियुरप्पा के साथ भाजपा कार्यकर्ताओं का जुड़ाव तथा नरेन्द्र मोदी की 21 रैलियांे का मुकाबला कांग्रेस नहीं कर सकी। 

तो कांग्रेस की पराजय सरकार की अनेक मोर्चों पर विफलता, कानून और व्यवस्था की गिरावट, सिद्धारमैया द्वारा कांग्रेस पर वर्चस्व स्थापना के लिए पुराने वरिष्ठ नेताओं को हाशिए पर धकेलने की रणनीति, खतरनाक संकीर्ण क्षेत्रवाद, हिन्दू समाज को बांटने की विषाक्त नीति, अल्पसंख्यकों के पक्ष में अति झुकाव तथा राहुल गांधी का मोदी के मुकाबले कमजोर पड़ने का मिलाजुला परिणाम है। कांग्रेस सबसे ज्यादा 38 प्रतिशत मत पाने का तर्क दे रही है। कर्नाटक कांग्रेस का परंपरागत जनाधार वाला प्रदेश है। 2008 चुनाव में जब भाजपा की सरकार बनी थी तब भी कांग्रेस को 34.8 प्रतिशत मत प्राप्त हुआ था जो भाजपा से ज्यादा था। इसका कारण आज भी उसका सभी क्षेत्रों में एक निश्चित जनाधार का होना है। इसके समानांतर भाजपा का जनाधार मुख्यतः चार क्षेत्रों में ही है। इसलिए कम प्रतिशत पाकर भी वह कांग्रेस से ज्यादा सीटें पा गईं।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

शुक्रवार, 11 मई 2018

पर्यटक की मौत पर आंसू बहाना पर्याप्त नहीं

 

अवधेश कुमार

कश्मीर में पत्थरबाजी आतंक से निपटना सुरक्षा बलांे के लिए गंभीर चुनौती रही है। यह एक आम स्थिति हो गई है कि सुरक्षा बल जहां भी आतंकवादियों के खिलाफ ऑपरेशन करते हैं पत्थरबाज वहां पहंचकर पत्थरबाजी शुरु करते हैं। उसमें सुरक्षा बल भी घायल होते हैं, शहीद होते हैं और पत्थरबाज भी सुरक्षा बलों की जवाबी कार्रवाई का निशाना बनते हैं। पत्थर आतंक से हुई दर्दनाक घटनाओं की एक लंबी सूची है। ंिकंतु इस समय पत्थरबाजों का शिकार हुए चेन्नई के 22 वर्षीय पर्यटक आर थिरुमनी की दर्दनाक मौत ने इसे एक नया मोड़ दे दिया है। आप देख लीजिए मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती एवं फारुख अब्दुल्ला दोनांे ने तो एक स्वर से इसकी निंदा की ही है, हुर्रियत कॉन्फ्रेंस ने भी इसकी आलोचना की है। मेहबूबा मुफ्ती ने कहा कि इससे मेरा सिर शर्म से झुक गया है। यह अत्यंत दुखद और पीड़ादायक है। उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट कर लिखा कि हमने एक पर्यटक की जान उसके वाहन पर पथराव करके ली है। यह एक कठोर सच्चाई है कि हमने एक मेहमान की जान ली है और वह भी इन पत्थरबाजों के तरीकों को सही ठहराते हुए। हमें इस पर सोचना चाहिए। कृपया इस तथ्य पर गौर करें कि हमने एक पर्यटक, एक अतिथि पर पत्थर मारे जिससे उसकी मौत हो गई। ऐसा तब है जब हम इन पत्थरबाजों और उनके तरीकों का महिमामंडन करते हैं। इस युवा पर्यटक की मेरे चुनावी क्षेत्र में मौत हो गई। जबकि मैं इन गुंडों, उनके तरीकों और उनकी विचारधारा का समर्थन नहीं करता।

वास्तव में यह ऐसी घटना है जिसका खुलकर समर्थन करना किसी के लिए संभव नहीं। सभी राजनीतिक दलों ने एक स्वर से इस घटना की निंदा की है तथा पीडीपी भाजपा सरकार पर तीखा हमला बोला है। उमर अब्दुल्ला पूछ रहे हैं कि आखिर राज्य सरकार हत्यारों को बचाने का प्रयास क्यों कर रही है। हमेशा अलगावादी भाषा बोलने वाले निर्दलीय विधायक इंजीनियर रशीद ने भी सरकार पर पर्यटक को बचाने में नाकाम रहने का आरोप लगा दिया है। नैशनल पैंथर्स पार्टी के प्रमुख भीम सिंह  सरकार को पूरी तरह से विफल बता रहे हैं। उनका कहना है कि जिस दिन जनता सरकार को बदल देगी, सूबे में पत्थर बरसने बंद हो जाएंगे। यहां तक कि शोपियां में हुई मौत के खिलाफ बंद और प्रदर्शन का अह्वान करने वाले अलगावावादी नेता मीरवाइज उमर फारूक ने इस घटना को गुंडागर्दी करार दे दिया। अन्य नेताओं के भी ऐसे ही बयान हैं।

इससे ऐसा लग सकता है कि कश्मीर में सारी पार्टियां और नेता पत्थरबाजों के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं। इंजिनियिर राशिद का बयान है कि यदि घाटी में पत्थरबाजी का लोग निशाना बनेंगे तो फिर कोई यहां क्यों आएगा। किंतु इससे किसी प्रकार की गलतफहमी नहीं पालनी चाहिए। पर्यटन कश्मीर की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। वहां की बहुसंख्य जनता के लिए यह जीविकोपार्जन का मुख्य साधन है। यदि पर्यटक वहां इस तरह हमले का शिकार होंगे तो फिर कश्मीर में कौन पांव रखना चाहेगा। चंूंकि पर्यटक के मारे जाने तथा कुछ के घायल होने के कारण वहां का वातावरण अभी प्रतिकूल है इसलिए ऐसे बयान आ रहे हैं। उदाहरण के लिए उमर अब्दुल्ला का ही बयान ले लीजिए। वे कह रहे हैं कि हम अपनी मेहमाननवाजी के लिए दुनिया भर में जाने जाते हैं और हमने अपने मेहमानों के साथ जैसा सलूक किया और चेन्नै से एक मेहमान इसमें मारे गए, इससे ज्यादा शर्म की बात नहीं हो सकती। एक आंकड़ा हमारे सामने आया है। 8 जुलाई 2016 को आतंकवादी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद जबसे पत्थरबाजी तेज हुई है कश्मीर आने वाले पर्यटकांे की संख्या में गिरावट आई इै।  2016 के पहले चार महीने में 3,91,902 पर्यटक आए थे। अगले साल इन्हीं महीने में इनकी संख्या 1,69,727 तथा इस वर्ष इसी अवधि में 1,54,062 पर्यटक आए हैं। यह सरकार के साथ सभी पार्टियों के लिए चिंता का विषय है। कारण, पर्यटन नही ंतो फिर कश्मीरी जिएंगे कैसे?  सवाल है कि अगर पर्यटक नहीं मारे गए होते तो क्या इनका स्वर ऐसा ही निकलता? यही मूल प्रश्न है जिसका उत्तर हमेे तलाशना है।

शोपियां में 6 मई को एक बड़े आतंकरोधी अभियान में पांच आतंकवादी मारे गए। इस अभियान से बुरहान वानी गैंग का सफाया हो गया। यह सुरक्षा एजेंसियों की बहुत बड़ी सफलता थी। ंिकंतु इन आतंकवादियों को बचाने आए पत्थरबाजों मंे से भी पांच की मौत हो गई। इसके बाद हुर्रियत एवं अन्य समर्थकों ने बंद तथा प्रदर्शन की घोषणा कर दी। इस कारण पथराव का विस्तार अन्य क्षेत्रांे में भी हुआ। पत्थरबाज जहां वाहन देखते उसी पर हमला करने लगते। 7 मई शाम को गुलमर्ग से पर्यटकों का एक दल श्रीनगर लौट रहा था। रास्ते में श्रीनगर-बारामुला हाईवे पर स्थित नारबल के पास भड़काऊ नारेबाजी कर रहे तत्वों ने उनके वाहनों पर पथराव शुरू कर दिया। इन वाहनों में सवार पर्यटकों को चोटें आई और दो गंभीर रूप से घायल हो गए। पुलिस ने घायल पर्यटकों को तुरंत शेरे कश्मीर आयुर्विज्ञान अस्पताल सौरा पहुंचाया, जहां चेन्नई के पर्यटक की मौत हो गई। उसके सिर पर गंभीर चोटें आई थीं। उनके साथ घायल होने वाली हंदवाड़ा की सबरीना की हालत भी गंभीर बनी हुई है। हालांकि दिवंगत पर्यटक का शव जहां पोस्टमार्टम के लिए पुलिस अस्पताल ले जाया गया था वहां मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती और स्वास्थ्य राज्यमंत्री आसिया नक्काश भी पहुंचीं। मुख्यमंत्री ने पीडित पर्यटक परिवार के साथ अपनी संवेदना जताई। यह एक सही कदम था। किंतु कल्पना करिए यदि पत्थरबाजों द्वारा कोई सुरक्षा बल शहीद किया गया होता तो भी मेहबूबा इसी तरह संवेदना व्यक्त करने पहुंचतीं और नेताओं के बयान इसी तरह आते?

अभी तक के इनके रवैये को देखते हुए तो इसका उत्तर है, नहीं। इंजिनियर राशिद को ही देखिए। एक तरफ तो वे पर्यटक के मारे जाने पर अफसोस प्रकट करते हैं दूसरी ओर कहते हैं कि शोपियां में सिर्फ 1 दिन में 11 कश्मीरियों ने अपनी जवान गईं। आतंकवादी और उनके समर्थकांे के प्रति ऐसी हमदर्दी इन नेताओं में लगातार देखी जा रही है। यह इन्हीं का रवैया है जिससे पत्थरबाजी अब वहां आतंकवादियों के लिए रक्षा कवच तथा सुरक्षा बलों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गई है। ऐसी दुखद घटनाओं की लंबी सूची यहां प्रस्तुत की जा सकती है जिसमंे आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए पहुंचे सुरक्षा बलांे सामने पत्थरबाज आ धमके और उनकी आड़ में हमारे जवान शहीद हुए और घायल हुए। अगर उसमें कुछ पत्थरबाज मारे गए तो नेताओं का बयान उनके पक्ष में ही जाता था। उमर अब्दुल्ला ने ही कई बार बयान दिया कि सुरक्षा बलों ने संयम से काम लिया होता तो नागरिक नहीं मारे जाते। उसके साथ अलगाववादी ताकतें बंद आयोजित कर देतीं हैं जिसमें प्रदर्शन होता है, पत्थर चलते हैं और उनकी चपेट में कोई भी आ सकता है। वैसे इन्हीं पत्थरबाजों ने कुछ समय पहले बच्चों की स्कूल बस पर हमला कर दिया था। क्यों? आखिर इन बच्चों ने इनका क्या बिगाड़ा था? पर्यटकों पर भी इनके हमले बढ़े हैं। पिछले महीने ही  श्रीनगर और उससे सटे इलाकों में इनके हमले में कई पर्यटक जख्मी हो गए थे। उनमें दो महिला पर्यटकों को गंभीर चोटें आई थीं। पहलगाम के पास केरल के पर्यटकों पर पथराव हुआ और उसमें सात पर्यटक जख्मी हुए थे। यह प्रवृत्ति बढ़ रही है। यह केवल संयोग है कि इन पूर्व के हमले में कोई पर्यटक मारा नहीं गया। वस्तुतः इस तरह के हमले हो रहे हैं और इनको इन्हीं नेताआंे की शह मिलती है जो इस समय छाती पीटकर स्यापा कर रहे हैं।

इस दोहरे चरित्र से हिंसा का समाधान नहीं हो सकता। अलगाववादी तो पत्थरबाजों का बाजाब्ता उपयोग करते हैं। कभी लाउडस्पीकरांें से घोषणा होती है कि अमुक जगह हमारे मुजाहिद्दीन फंस गए हैं उनके पक्ष में आएं तो कभी सोशल मीडिया पर अपील वायरल की जाती है। मेहबूबा की नीति थी कि अगर इन नवजवानों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाएगा तो ये सुधर जाएंगे। केन्द्र सरकार की ओर से नियुक्त वार्ताकार दिनेश्वर शर्मा ने भी कश्मीर से लौटकर सरकार को कुछ रिपोर्टें दीं। उसके बाद काफी संख्या में पत्थरबाजों पर से मुकदमा वापस लेकर उनको जेल से रिहा किया गया। किंतु इसका अपेक्षित असर नहीं हुआ है। खैर, ऑपरेशन ऑल आउट के तहत सुरक्षा बलों ने अब पत्थरबाजों के आगे घुटने टेकने या वापस आने की नीति का परित्याग कर दिया है। वे हर हालत मंे ऑपरेशन पूरा करके ही वहां से हटते हैं। किंतु इसकी प्रतिक्रिया में यदि पत्थरबाज आम हिंसा पर उतारु हो गए, पर्यटक हमलों का शिकार होने लगे, स्कूली बच्चे होने लगे तो फिर इनसे निपटने के अन्य रास्ते भी तलाशने होंगे बिना इस बात की चिंता किए कि सरकार इससे लोकप्रिय हो रही है या अलोकप्रिय।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408ष् 9811027208

 

 

 

 

 

 

शुक्रवार, 4 मई 2018

आखिर न्यायपालिका क्यों हो रही है राजनीति का शिकार

 

अवधेश कुमार

देश का वर्तमान माहौल हर विवेकशील भारतीय को चिंतित कर रहा है। राजनीतिक दलों के बीच सत्ता की होड़ में अप्रिय संघर्ष और तू-तू-मैं-मैं के असभ्य आचरण को देश न चाहते हुए भी स्वीकार कर रहा है। किंतु यह संघर्ष जिस तरह से धीरे-धीरे हमारी संवैधानिक संस्थाओं को अपनी जकड़ में ले रहा है उसे स्वीकार करना संभव नहीं। पिछले कुछ समय से न्यायपालिका की भूमिका पर जो गंदी राजनीति हो रही वह भयभीत करने वाला है। न्यायपालिका हमारे देश में अभी भी लोगों के लिए न्याय की अंतिम उम्मीद के रुप में खड़ा है। अनेक कमजोरियों के बावजूद उसकी साख और विश्वसनीयता कायम है। जिस तरह से न्यायपालिका को निशाना बनाया जा रहा है उससे उसकी साख और विश्वसनीयता पर सीधा चोट हो रहा है। विडम्बना देखिए कि देश पर सबसे ज्यादा समय तक शासन करने वाली पार्टी कांग्रेस इसकी अगुवा बनी हुई है....कभी प्रच्छन्न रुप में तो कभी सीधे सामने। अभी हाल में मुंबई सीबीआई विशेष न्यायालय के न्यायाधीश बीएच लोया की मौत पर उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने एक फैसला दिया। उसने सभी याचिकाकर्ताओं की एक-एक बात सुनी, 10 दिनों तक सुनवाई की, संबंधित कागजात देखे, न्यायाधीश लोया के साथ नागपुर गए चार अन्य साथी न्यायाधीशों के बयानों को देखा, लोया की मौत की प्रदेश पुलिस की जांच रिकॉर्ड को देखा.....उसके बाद उसने फैसला दिया कि वह एक स्वाभाविक मौत थी, इसलिए अलग से इसकी जांच की आवश्यकता नहीं।

उच्चतम न्यायालय का यह फैसला आया और इसके विरुद्ध कांग्रेस के मीडिया प्रभारी रणदीप सुरजेवाला उस तरह के वक्तव्य से सामने आए जिस तरह सरकार के किसी निर्णय का विरोध करने आते हैं। यह हक्का-बक्का करने वाली स्थिति थी। उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की कि न्यायाधीश लोया की मौत संदिग्ध थी जिसमें हत्या की गंध आती है, इसलिए उसकी जांच होनी चाहिए। यह उच्चतम न्यायालय के फैसले पर सीधे-सीधे प्रश्न उठाना था। उनके पूरे बयान को देखिए तो ऐसा लगेगा जैसे उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों ने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को बचाने के इरादे से यह फैसला दिया है। न्यायाधीश लोया सोहराबुद्दीन और तुलसी प्रजापति मुठभेड़ मामले को सुन रहे थे जिसमें अमित शाह भी एक आरोपी थे जो बाद में आए न्यायाधीश द्वारा बरी कर दिए गए। तो यह सीधे-सीधे एक राजनीतिक लड़ाई थी जिसमंे न्यायपालिका को घसीटा गया था। कांग्रेस कहती है कि वह इसमंे याचिकाकर्ता नहीं थी। अगर नहीं थी तो उसने इस तरह प्रेस कॉन्फ्रेंस क्यों बुलाया? क्यों इस तरह का विस्तृत आक्रामक बयान दिया? एक याचिका इसमें ऐसे व्यक्ति द्वारा डाली गई थी जो कांग्रेस का प्रवक्ता न होते हुए भी प्रवक्ता की तरह टीवी स्टुडियो मंे उपस्थित रहते हैं। वैसे भी इस समय कुछ दलों, एनजीओ, सक्रियतावादियों, अधिवक्ताओं, बुद्धिजीवियों के बीच भाजपा एवं मोदी सरकार के विरुद्ध हर अभियान में एक घोषित-अघोषित तालमेल है। इसमंे समस्या नहीं है। आपको भाजपा एवं मोदी सरकार की मुखालफत करने, उसके विरुद्ध एकजुट होने का पूरा अधिकार है, लेकिन आप सीधी लड़ाई लड़िए न, न्यायपालिका को इसमें क्यांे घसीटते हैं।

उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में साफ टिप्पणी की थी कि न्यायालय को राजनीतिक दुश्मनी का हथियार बनाने की कोशिश की गई है। इन याचिकाओ का स्पष्ट राजनीतिक उद्देश्य है। इसी टिप्पणी ने इनको तिलमिला दिया। इससे इनकी कलई खुल गई। बावजूद इसके ये मानने को तैयार नहीं हैं। कांग्रेस ने अन्य सात दलों के साथ मिलकर मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के खिलाफ राज्यसभा के सभापति के रुप में उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू कों महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस थमा दिया। यह असाधारण स्थिति थी। भारत में इसके पूर्व कभी मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस नहीं आया था। केवल नोटिस तक ही ये सीमित नहीं रहे। उपराष्ट्रपति के यहां से बाहर आते ही बाजाब्ता प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर पूरे विस्तार से यह साबित किया कि मुख्य न्यायाधीश का जो आचरण है उसमें महाभियोग ही एकमात्र रास्ता है। इस अभियान का नेतृत्व कपिल सिब्बल कर रहे हैं। वे जिस तरह का बयान दे रहे हैं वो है तो मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के खिलाफ लेकिन उससे पूरा शीर्ष न्यायालय कठघरे में खड़ा हो रहा है। हालांकि महाभियोग के लिए जो पांच आधार इनकी ओर से दिए गए उनमें से एक भी ऐसा नहीं था जिसे निश्चयात्मक कहा जाए। इन आधारों पर महाभियोग लाया ही नहीं जा सकता। महाभियोग के लिए ठोस आरोप चाहिए जिसमंे भ्रष्टाचार, दुर्व्यवहार और अक्षमता साबित होता हो। उपराष्ट्रपति ने इस पर देश के जाने-माने संविधानविदों, लोेकसभा एवं राज्य सभा के पूर्व महासचिवों, पूर्व महाधिवक्ताओं की राय ली, सारे आरोपों एवं उसके साथ लगे दस्तावेजों का अध्ययन किया और उसके बाद नोटिस को खारिज कर दिया।

जाहिर है, यदि इरादा नेक होता तो इसे यहीं पूर्ण विराम दे दिया जाता। उपराष्ट्रपति ने अपनी टिप्पणी में कहा कि राजनीतिक दलों को इस तरह के आरोप लगाने तथा ऐसा आचरण करने से बचना चाहिए क्योंकि इससे जनता की नजर में न्यायपालिका की साख घटती है। कपिल सिब्बल ने उपराष्ट्रपति के फैसले की खुलकर आलोचना की एवं यहां तक कह दिया कि उनको तो नोटिस को खारिज करने का अधिकार ही नहीं है। उपराष्ट्रपति भी एक संवैधानिक पद है, इसलिए कपिल सिब्बल की आलोचना संवैधानिक पद की गरिमा को चोट पहुंचाने वाला है। किंतु हम यहां इस पर विचार करने नहीं जा रहे। सिब्बल की घोषणा है कि उप राष्ट्रपति के फैसले का विरुद्ध हम उच्चतम न्यायालय जाएंगे और उम्मीद करेंगे जो पीठ इसकी सुनवाई करे उसमें मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा नहीं हों। इस तरह का रवैया आजादी के बाद से आज तक किसी राजनीतिक दल का नहीं देखा गया। अब नया मामला कांग्रेस ने उच्चतम न्यायालय मंें न्यायाधीशों की नियुक्ति का ला दिया है। उच्चतम न्यायालय के कोलेजियम की ओर से वरिष्ठ वकील इन्दु मल्होत्रा तथा उत्तराखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के एम जोसेफ को न्यायाधीश के रुप मंें नियुक्त करने की अनुशंसा की गई थी। सरकार ने इन्दु मल्होत्रा को तो नियुक्त कर दिया, लेकिन जोसेफ की अनुशंसा वापस कर दी। सरकार का तर्क है कि वरिष्ठता क्रम में देश में उनका स्थान 42 वां है तथा वे केरल से हैं जिनका प्रतिनिधित्व पहले से है। कई राज्यों का उच्चतम न्यायालय मंे प्रतिनिधित्व नहीं है एव ंके जी बालाकृष्णन के बाद अनुसूचित जाति का भी कोई न्यायाधीश उच्चतम न्यायालय में नहीं आया है। देखना होगा कोलेजियम किसी नए नाम की अनुशंसा करता है या इसी नाम को वापस करता है। उच्चतम न्यायालय ने भी माना है कि संविधान के अनुसार सरकार को कोई नाम पुनर्विचार के लिए वापस करने का अधिकार है। किंतु कांग्रेस और उसके साथ कई पार्टियां, एक्टिविस्ट आदि इसे बड़ा मामला बना रहे हैं।

यहां मैं अतीत मंें नहीं जाना चाहता कि कांग्रेस की पूर्व सरकारों ने न्यायपालिका के साथ क्या व्यवहार किया। लेकिन यह तो विचार करना पड़ता है कि आखिर कांग्रेस और उसके साथी इस तरह न्यायपालिका को अपनी संकुचित राजनीति में क्यों घसीट रहे हैं? इसका कोई सकारात्मक तार्किक उत्तर तलाशना मुश्किल है। कांग्रेस के अंदर भी इस पर मतभेद है। किंतु नेतृत्व ने इसकी हरि झंडी दी है तभी तो कपिल सिब्बल इतना आगे आ रहे हैं। इनकी कोशिश यह साबित करने की है कि मोदी सरकार सभी संवैधानिक संस्थाओं को अपना आज्ञाकारी बनाने की ओर अग्रसर है और वो इसे बचाना चाहते हैं। इसलिए वे आगे किसी सीमा तक जा सकते हैं। हो सकता है कुछ छद्म बैनरों से मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ लोगों को सड़कांें पर उतारा जाए। हालांकि कांग्रेस अगर अपने इस रवैये पर देश की प्रतिक्रिया को समझ जाए तो  इससे सीधे पीछे हट जाए। न्यायपालिका को निशाना बनाने के उसके व्यवहार के खिलाफ देशव्यापी वातावरण बन रहा है। यानी राजनीतिक रुप से भी यह उसके लिए अलाभकर साबित होनेवाला है। प्रश्न यहां राजनीतिक लाभ हानि का नहीं है। प्रश्न एक संवैधानिक संस्था के रुप में तथा लोकतंत्र के एक स्तंभ के तौर पर न्यायापालिका की गरिमा, उसकी साख एवं विश्वसनीयता को बचाने का है। कांग्रेस और उसके साथी इसे तार-तार करने पर तुले हैं जिसका पुरजोर विरोध होना चाहिए। वास्तव में जब कोई राजनीतिक दल अपने मूल्यों और आदर्शों से पूरी तरह च्युत हो जाता है, उसके पास दूरदर्शी नेतृत्व का अकाल पड़ जाता है तो इस तरह का व्यवहार करता है। कांग्रेस अभी ऐसी ही पार्टी हो गई है। किंतु भय इस बात की है कि अपनी अदूरदर्शिता में वह न्यायपालिका की गरिमा को इतनी क्षति न पहुंचा दे कि उसे पुनर्स्थापित करना मुश्किल हो जाए। इसलिए हर हाल मेें इस अभियान को पराजित करना होगा।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208    

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