शुक्रवार, 4 मई 2018

आखिर न्यायपालिका क्यों हो रही है राजनीति का शिकार

 

अवधेश कुमार

देश का वर्तमान माहौल हर विवेकशील भारतीय को चिंतित कर रहा है। राजनीतिक दलों के बीच सत्ता की होड़ में अप्रिय संघर्ष और तू-तू-मैं-मैं के असभ्य आचरण को देश न चाहते हुए भी स्वीकार कर रहा है। किंतु यह संघर्ष जिस तरह से धीरे-धीरे हमारी संवैधानिक संस्थाओं को अपनी जकड़ में ले रहा है उसे स्वीकार करना संभव नहीं। पिछले कुछ समय से न्यायपालिका की भूमिका पर जो गंदी राजनीति हो रही वह भयभीत करने वाला है। न्यायपालिका हमारे देश में अभी भी लोगों के लिए न्याय की अंतिम उम्मीद के रुप में खड़ा है। अनेक कमजोरियों के बावजूद उसकी साख और विश्वसनीयता कायम है। जिस तरह से न्यायपालिका को निशाना बनाया जा रहा है उससे उसकी साख और विश्वसनीयता पर सीधा चोट हो रहा है। विडम्बना देखिए कि देश पर सबसे ज्यादा समय तक शासन करने वाली पार्टी कांग्रेस इसकी अगुवा बनी हुई है....कभी प्रच्छन्न रुप में तो कभी सीधे सामने। अभी हाल में मुंबई सीबीआई विशेष न्यायालय के न्यायाधीश बीएच लोया की मौत पर उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने एक फैसला दिया। उसने सभी याचिकाकर्ताओं की एक-एक बात सुनी, 10 दिनों तक सुनवाई की, संबंधित कागजात देखे, न्यायाधीश लोया के साथ नागपुर गए चार अन्य साथी न्यायाधीशों के बयानों को देखा, लोया की मौत की प्रदेश पुलिस की जांच रिकॉर्ड को देखा.....उसके बाद उसने फैसला दिया कि वह एक स्वाभाविक मौत थी, इसलिए अलग से इसकी जांच की आवश्यकता नहीं।

उच्चतम न्यायालय का यह फैसला आया और इसके विरुद्ध कांग्रेस के मीडिया प्रभारी रणदीप सुरजेवाला उस तरह के वक्तव्य से सामने आए जिस तरह सरकार के किसी निर्णय का विरोध करने आते हैं। यह हक्का-बक्का करने वाली स्थिति थी। उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की कि न्यायाधीश लोया की मौत संदिग्ध थी जिसमें हत्या की गंध आती है, इसलिए उसकी जांच होनी चाहिए। यह उच्चतम न्यायालय के फैसले पर सीधे-सीधे प्रश्न उठाना था। उनके पूरे बयान को देखिए तो ऐसा लगेगा जैसे उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों ने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को बचाने के इरादे से यह फैसला दिया है। न्यायाधीश लोया सोहराबुद्दीन और तुलसी प्रजापति मुठभेड़ मामले को सुन रहे थे जिसमें अमित शाह भी एक आरोपी थे जो बाद में आए न्यायाधीश द्वारा बरी कर दिए गए। तो यह सीधे-सीधे एक राजनीतिक लड़ाई थी जिसमंे न्यायपालिका को घसीटा गया था। कांग्रेस कहती है कि वह इसमंे याचिकाकर्ता नहीं थी। अगर नहीं थी तो उसने इस तरह प्रेस कॉन्फ्रेंस क्यों बुलाया? क्यों इस तरह का विस्तृत आक्रामक बयान दिया? एक याचिका इसमें ऐसे व्यक्ति द्वारा डाली गई थी जो कांग्रेस का प्रवक्ता न होते हुए भी प्रवक्ता की तरह टीवी स्टुडियो मंे उपस्थित रहते हैं। वैसे भी इस समय कुछ दलों, एनजीओ, सक्रियतावादियों, अधिवक्ताओं, बुद्धिजीवियों के बीच भाजपा एवं मोदी सरकार के विरुद्ध हर अभियान में एक घोषित-अघोषित तालमेल है। इसमंे समस्या नहीं है। आपको भाजपा एवं मोदी सरकार की मुखालफत करने, उसके विरुद्ध एकजुट होने का पूरा अधिकार है, लेकिन आप सीधी लड़ाई लड़िए न, न्यायपालिका को इसमें क्यांे घसीटते हैं।

उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में साफ टिप्पणी की थी कि न्यायालय को राजनीतिक दुश्मनी का हथियार बनाने की कोशिश की गई है। इन याचिकाओ का स्पष्ट राजनीतिक उद्देश्य है। इसी टिप्पणी ने इनको तिलमिला दिया। इससे इनकी कलई खुल गई। बावजूद इसके ये मानने को तैयार नहीं हैं। कांग्रेस ने अन्य सात दलों के साथ मिलकर मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के खिलाफ राज्यसभा के सभापति के रुप में उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू कों महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस थमा दिया। यह असाधारण स्थिति थी। भारत में इसके पूर्व कभी मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस नहीं आया था। केवल नोटिस तक ही ये सीमित नहीं रहे। उपराष्ट्रपति के यहां से बाहर आते ही बाजाब्ता प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर पूरे विस्तार से यह साबित किया कि मुख्य न्यायाधीश का जो आचरण है उसमें महाभियोग ही एकमात्र रास्ता है। इस अभियान का नेतृत्व कपिल सिब्बल कर रहे हैं। वे जिस तरह का बयान दे रहे हैं वो है तो मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के खिलाफ लेकिन उससे पूरा शीर्ष न्यायालय कठघरे में खड़ा हो रहा है। हालांकि महाभियोग के लिए जो पांच आधार इनकी ओर से दिए गए उनमें से एक भी ऐसा नहीं था जिसे निश्चयात्मक कहा जाए। इन आधारों पर महाभियोग लाया ही नहीं जा सकता। महाभियोग के लिए ठोस आरोप चाहिए जिसमंे भ्रष्टाचार, दुर्व्यवहार और अक्षमता साबित होता हो। उपराष्ट्रपति ने इस पर देश के जाने-माने संविधानविदों, लोेकसभा एवं राज्य सभा के पूर्व महासचिवों, पूर्व महाधिवक्ताओं की राय ली, सारे आरोपों एवं उसके साथ लगे दस्तावेजों का अध्ययन किया और उसके बाद नोटिस को खारिज कर दिया।

जाहिर है, यदि इरादा नेक होता तो इसे यहीं पूर्ण विराम दे दिया जाता। उपराष्ट्रपति ने अपनी टिप्पणी में कहा कि राजनीतिक दलों को इस तरह के आरोप लगाने तथा ऐसा आचरण करने से बचना चाहिए क्योंकि इससे जनता की नजर में न्यायपालिका की साख घटती है। कपिल सिब्बल ने उपराष्ट्रपति के फैसले की खुलकर आलोचना की एवं यहां तक कह दिया कि उनको तो नोटिस को खारिज करने का अधिकार ही नहीं है। उपराष्ट्रपति भी एक संवैधानिक पद है, इसलिए कपिल सिब्बल की आलोचना संवैधानिक पद की गरिमा को चोट पहुंचाने वाला है। किंतु हम यहां इस पर विचार करने नहीं जा रहे। सिब्बल की घोषणा है कि उप राष्ट्रपति के फैसले का विरुद्ध हम उच्चतम न्यायालय जाएंगे और उम्मीद करेंगे जो पीठ इसकी सुनवाई करे उसमें मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा नहीं हों। इस तरह का रवैया आजादी के बाद से आज तक किसी राजनीतिक दल का नहीं देखा गया। अब नया मामला कांग्रेस ने उच्चतम न्यायालय मंें न्यायाधीशों की नियुक्ति का ला दिया है। उच्चतम न्यायालय के कोलेजियम की ओर से वरिष्ठ वकील इन्दु मल्होत्रा तथा उत्तराखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के एम जोसेफ को न्यायाधीश के रुप मंें नियुक्त करने की अनुशंसा की गई थी। सरकार ने इन्दु मल्होत्रा को तो नियुक्त कर दिया, लेकिन जोसेफ की अनुशंसा वापस कर दी। सरकार का तर्क है कि वरिष्ठता क्रम में देश में उनका स्थान 42 वां है तथा वे केरल से हैं जिनका प्रतिनिधित्व पहले से है। कई राज्यों का उच्चतम न्यायालय मंे प्रतिनिधित्व नहीं है एव ंके जी बालाकृष्णन के बाद अनुसूचित जाति का भी कोई न्यायाधीश उच्चतम न्यायालय में नहीं आया है। देखना होगा कोलेजियम किसी नए नाम की अनुशंसा करता है या इसी नाम को वापस करता है। उच्चतम न्यायालय ने भी माना है कि संविधान के अनुसार सरकार को कोई नाम पुनर्विचार के लिए वापस करने का अधिकार है। किंतु कांग्रेस और उसके साथ कई पार्टियां, एक्टिविस्ट आदि इसे बड़ा मामला बना रहे हैं।

यहां मैं अतीत मंें नहीं जाना चाहता कि कांग्रेस की पूर्व सरकारों ने न्यायपालिका के साथ क्या व्यवहार किया। लेकिन यह तो विचार करना पड़ता है कि आखिर कांग्रेस और उसके साथी इस तरह न्यायपालिका को अपनी संकुचित राजनीति में क्यों घसीट रहे हैं? इसका कोई सकारात्मक तार्किक उत्तर तलाशना मुश्किल है। कांग्रेस के अंदर भी इस पर मतभेद है। किंतु नेतृत्व ने इसकी हरि झंडी दी है तभी तो कपिल सिब्बल इतना आगे आ रहे हैं। इनकी कोशिश यह साबित करने की है कि मोदी सरकार सभी संवैधानिक संस्थाओं को अपना आज्ञाकारी बनाने की ओर अग्रसर है और वो इसे बचाना चाहते हैं। इसलिए वे आगे किसी सीमा तक जा सकते हैं। हो सकता है कुछ छद्म बैनरों से मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ लोगों को सड़कांें पर उतारा जाए। हालांकि कांग्रेस अगर अपने इस रवैये पर देश की प्रतिक्रिया को समझ जाए तो  इससे सीधे पीछे हट जाए। न्यायपालिका को निशाना बनाने के उसके व्यवहार के खिलाफ देशव्यापी वातावरण बन रहा है। यानी राजनीतिक रुप से भी यह उसके लिए अलाभकर साबित होनेवाला है। प्रश्न यहां राजनीतिक लाभ हानि का नहीं है। प्रश्न एक संवैधानिक संस्था के रुप में तथा लोकतंत्र के एक स्तंभ के तौर पर न्यायापालिका की गरिमा, उसकी साख एवं विश्वसनीयता को बचाने का है। कांग्रेस और उसके साथी इसे तार-तार करने पर तुले हैं जिसका पुरजोर विरोध होना चाहिए। वास्तव में जब कोई राजनीतिक दल अपने मूल्यों और आदर्शों से पूरी तरह च्युत हो जाता है, उसके पास दूरदर्शी नेतृत्व का अकाल पड़ जाता है तो इस तरह का व्यवहार करता है। कांग्रेस अभी ऐसी ही पार्टी हो गई है। किंतु भय इस बात की है कि अपनी अदूरदर्शिता में वह न्यायपालिका की गरिमा को इतनी क्षति न पहुंचा दे कि उसे पुनर्स्थापित करना मुश्किल हो जाए। इसलिए हर हाल मेें इस अभियान को पराजित करना होगा।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208    

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