अवधेश कुमार
तेलगुदेशम पार्टी (तेदेपा) का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग या एनडीए से बाहर जाना कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं है। हां, केन्द्र सरकार में शामिल अपने दोनों मंत्रियों से पिछले 8 मार्च को इस्तीफा कराने के बावजूद यदि चन्द्रबाबू नायडू ऐसा फैसला नहीं करते तो आश्चर्य अवश्य होता। हालांकि इसका निर्णय करने में वे समय लगाते किंतु आंध्रप्रदेश की ही दूसरी पार्टी वाईएसआर कांग्रेस ने प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा न दिए जाने को लेकर संसद में जो अविश्वास प्रस्ताव पेश करने का ऐलान कर दिया उसमें चन्द्रबाबू को आनन-फानन में वीडियो कॉन्फ्रेसिंग के जरिए नेताओं की बैठक बुलाकर यह निर्णय करना पड़ा। तेदेपा ने केवल राजग से ही अलग होने की घोषणा नहीं की है उसने भी लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया है। हालांकि 16 सांसदों वाले तेदेपा के अलग होने या अविश्वास प्रस्ताव से नरेन्द्र मोदी सरकार को तत्काल खतरा नहीं है, क्योंकि उसके पास अपनी ही पार्टी का बहुमत है। वैसे भी लोकसभा में अभी 536 सांसद ही है, इसलिए सरकार बचाने के लिए 269 का आंकड़ा चाहिए। भाजपा आराम से केवल अपनी बदौलत इसे पार कर जाएगी। किंतु यह देखना होगा कि इस अविश्वास प्रस्ताव में राजग में शामिल और कौन से घटक सरकार के खिलाफ आते हैं।
वास्तव में अविश्वास प्रस्ताव कोई महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम नहीं है, क्योंकि आंध्रप्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देना केन्द्र सरकार के लिए संभव ही नहीं। संवैधानिक रुप से तो यह असंभव है ही, व्यावाहरिक तौर भी इससे परेशानियां बढ़ जाएंगी, क्यांेकि कई राज्य यही मांग कर रहे हैं। वाईएसआर कांग्रेस ने केवल तेदेपा को दबाव में लाने के लिए यह कदम उठाया जिसका असर पड़ा है। किंतु इससे मूल प्रश्न राजग के भविष्य को लेकर पैदा हुआ है। जब तेदेपा ने मंत्रियों से इस्तीफे के बाद यह घोषणा किया था कि वे फिलहाल राजग में बने रहेंगे तो निश्चय ही भाजपा ने राहत की सांस ली थी। अब उसके लिए स्थिति बदल गई है। तेदेपा का अलग होना किसी एक दल का अलग होना मात्र नहीं है। इसका तात्कालिक एवं दूरगामी असर कई तरीकों से हो सकता है। सबसे पहले तो भाजपा से असंतुष्ट राजग के अंदर या सरकार को समय-समय पर समर्थन दे रहे दूसरे दलांे के अंदर भी फैसला करने का मनोविज्ञान पैदा होगा। दूसरे, जो दल अलग जाएंगे वे अन्य दलों के साथ गठबंधन कर सकते हैं तो इससे 2019 का लोकसभा चुनाव परिणाम प्रभावित होगा। तेदेपा अगर बाहर गई है तो निश्चय ही भविष्य की राष्ट्रीय राजनीति में वह कुछ दलों के साथ जुड़ेगी। अगर चुनाव पूर्व उसका गठबंधन नहीं हुआ तो चुनाव बाद अवश्य हो सकता है। कम से कम एक बार विशेष राज्य के दर्जे पर अलग होने के बाद दोबारा बगैर इसके वह भाजपा के साथ तो नहीं आ सकती। यह पहलू भाजपा के लिए ज्यादा चिंताजनक होना चाहिए।
वस्तुतः तेदेपा का राजग से बाहर आना भविष्य की केन्द्रीय राजनीति में नए गठबंधन का संकेत हो सकता है। उसके अलग होने का जिस तरह विपक्षी नेताओं में ममता बनर्जी ने स्वागत किया, सीताराम येचुरी ने उसके अविश्वास प्रस्ताव का समर्थन किया उसमें नए समीकरण के संकेत साफ निहित हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में अभी 330 सांसद हैं। तेदेपा के अलग होने के बाद 314 सांसद बच जाते हैं। इसके अलावा राजग में अभी शिवसेना के 18, लोजपा के 6, अकाली दल के 4, राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के 3, जद यू के 2, अपना दल के 2 एवं अन्य दलों 4 सांसद शामिल हैं। इसमें शिवसेना लगातार मोदी सरकार के खिलाफ उसी तरह बयान देती है जिस तरह विपक्षी दल। पिछले 23 जनवरी को उसने यह घोषणा कर दिया था कि 2019 का आम चुनाव वह भाजपा से अलग लड़ेगा। हालांकि इसमें भाजपा का कोई दोष नहीं है किंतु यदि शिवसेना अपनी घोषणा पर कायम रहता है तो फिर राजग में यह दूसरा बड़ा बिखराव होगा। शिवसेना भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी है। 2014 लोकसभा चुनाव में साथ लड़कर दोनों ने कांग्रेस एवं राकांपा को प्रदेश से लगभग खत्म कर दिया था। उसके अलग होने का आगामी लोकसभा चुनाव परिणामों पर असर होना निश्चित है। हालांकि अगर शिवसेना को कोई दूसरा साथी नहीं मिलता तो क्षति उसे भी होगी लेकिन कुल मिलाकर भाजपा एवं राजग के लिए तो यह बड़ी क्षति होगी ही। बिहार में जद यू से हाथ मिलाने के बाद रालोसपा को भी लगता है कि उसके लिए अब राजग में बने रहना मुश्किल होगा। हालांकि इस मामले पर पार्टी में विभाजन है, पर संभव है लोकसभा चुनाव आते-आते वह भी अलग राह पकड़कर बिहार में राजद और कांग्रेस के साथ गठबंधन कर ले। वैसे इससे राजग को बहुत ज्यादा क्षति होने की संभावना नहीं है।
तो फिलहाल अभी प्रतीक्षा करनी होगी कि राजग से कौन-कौन से दल कब नाता तोड़ते या फिर नहीं तोड़ते हैं। तेदेपा ने शुरुआत की है तो यही तक रुकेगा इसकी भविष्यवाणी भी नहीं की जा सकती। पहले का वातावरण यह था कि आंध्रप्रदेश में यदि तेदेपा अलग होती है तो तत्काल 9 सांसदों वाली जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस भाजपा के साथ आ जाएगी। किंतु विशेष राज्य का दर्जा ऐसा मामला है जिसमें आंध्र की सभी पार्टियों ने मोदी सरकार को खलनायक बना दिया है। उसमंें जगनमोहन के लिए भाजपा के साथ आना जरा कठिन होगा। प्रदेश मंेे विशेष राज्य का दर्जा न दिला पाने के लिए इस पार्टी ने लगातार प्रदर्शन कर तेदेपा की नाकों मंें दम कर दिया था। अगर वह अब भाजपा के साथ जाती है तो फिर मतदाताओं को क्या जवाब देगी? लेकिन जन सेना के पवन कल्याण भाजपा के साथ आ सकते हैं। वे कितना प्रभावी होंगे यह अलग बात है। किंतु तेदेपा या वाईएसआर जैसी इस समय उसकी स्थिति नहीं है। महाराष्ट्र में भी शिवसेना के अलग होने के बाद रिपब्लिकन पार्टी के अलावा कोई उसके साथ आएगा इसकी संभावना न के बराबर है। इन दो राज्यों में भाजपा को अपनी बदौलत चुनाव लड़ने की तैयारी अभी से करनी होगी। पता नहीं पार्टी इस बारे में क्या सोचती है।
इस तरह तेदेपा के बाहर जाने के प्रभाव बहुआयामी हैं। आसानी से इसका राजनीतिक मायने और प्रभाव कुछ लोगों की समझ में नहीं आए लेकिन जब आप भविष्य की तस्वीर बनाते हैं तो बहुत कुछ आपके सामने स्पष्ट हो जाता है। तेदेपा का अलग होना भारतीय राजनीति में इस समय चल रहे एक नए हलचल और उससे उभर रहीं नई प्रवृत्तियों का संकेतक है। विपक्षी दलों में इस बात को लेकर एक राय बन ही रही है कि भाजपा एवं नरेन्द्र मोदी को पराजित करना है तो साथ आना होगा। उत्तर प्रदेश के दो लोकसभा उपचुनावों में बसपा सपा मिलन ने भाजपा को पराजित कर इस सोच को बल ही नहीं दिया है इस प्रवृत्ति को तेज कर दिया है। वैसे इसका हस्र अभी देखना बाकी है, फिर भी भाजपा के लिए 2019 की दृष्टि से यह चिंताजनक तो है ही। तेदेपा के बाहर आने से कांग्रेस को छोड़कर विपक्षी दलों के एक बड़े खेमे में उत्साह बढ़ा है। राजनीति में माहौल काफी मायने रखता है और वह चुनाव पर प्रभाव भी डालता है। न भूलें कि इस साथ आने में राजग के कुछ दलों को भाजपा से अलग कर उनको अपने खेमे में लाने की कोशिश भी शामिल है। इसकी कोशिश वे कर रहे हैं।
ध्यान रखने की बात है कि भाजपा की रणनीति 2019 के लिए राजग के विस्तार करने की रही है। तमिलनाडु को एक उदाहरण के रुप में लिया जा सकता है। वहां राजग के विस्तार की वह लगातार कोशिश कर रही है। स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी करुणानिधि से मिलने पहुुंच गए थे। अन्नाद्रमुक के साथ वे लगातार संपर्क बनाए हुए हैं। जो तीन नए समूह दिनाकरण, राजनीकांत एवं कमल हासन के बन रहे हैं उनके भाजपा के साथ आने की संभावना इस समय नहीं दिख रही है। अगर राजग में कुछ और टूट हुई तो तमिलनाडु ही नहीं कई राज्यों में उसके प्रयासों को धक्का लग सकता है। फिर उसे इन राज्यों में या तो अकेले लोकसभा चुनाव लड़ना होगा या फिर कुछ वैसे दल साथ रहेंगे जिनका मतदाता पर प्रभाव ही नहीं हो। निश्चय ही भाजपा नेतृत्व इन सारी संभावनाओं का आकलन कर रहा होगा, उस अनुसार रणनीतियां भी बनाने की कोशिश होगी, तेदेपा के बाहर जाने एवं बनते वातावरण में उसके लिए चुनौतियां काफी बढ़ गईं हैं। हम नहीं कहते कि भाजपा के लिए 2019 का भविष्य धूमिल हो चुका है, पर उसे साथी दलों को साथ बनाए रखने की पहले से कई गुणा ज्यादा कोशिश करनी होगी। भाजपा की ओर से तेदेपा से जल्दबाजी न करने की अपील की गई थी, जिसका असर नहीं हुआ। बेशक, तेदेपा ने किसी वाजिब कारण से तलाक नहीं दिया है, लेकिन इसकी सीख है कि कोई साथी दल या नेता असंतोष प्रकट कर रहे हैं तो उसे केवल शब्दिक गीदड़भभकी नहीं मानना चाहिए। बदलते माहौल में वे साथ छोड़कर जा सकते हैं। भाजपा को यह साफ समझना होगा कि जितने दल उसे छोड़कर जाएंगे उससे माहौल विपरीत बनेगा और कम से कम अभी उतने एवं उसी तरह जनाधार रखने वाले दलों के साथ आने की संभावना नहीं है।
अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208
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