शुक्रवार, 16 मार्च 2018

श्रीलंका में बौद्ध मुस्लिम दंगा चिंताजनक

 

अवधेश कुमार

हमारा पड़ोसी देश श्रीलंका फिर एक बार सांप्रदायिक दंगों की चपेट में आया है और स्थिति को संभालने के लिए सरकार को आपातकाल लागू करना पड़ा है। आपातकाल लगाना ही यह साबित करता है कि स्थिति को सरकार कितना गंभीर मान रही है। हालांकि बौद्ध और मुस्लिम समुदाय के बीच हिंसक घटनाएं केवल कैंडी तथा उसके पड़ोस मंें ही घटी है लेकिन पूर्व के अनुभवों को देखते हुए सरकार ने एहतियातन पूरे देश में आपातकाल लगा दिया है ताकि इसका विस्तार न हो सके।  2014 में श्रीलंका में बड़े पैमाने दोनों समुदायों के बीच दंगे हुए थे। उसे संभालने में सरकार को नाकों चने चबाने पड़े थे। उस हिंसा में काफी संख्या में मुस्लिम और सिंहली विस्थापित हुए थे। उस घटना ने बता दिया था कि किस तरह दोनों समुदायों के बीच तनाव की खाई चौड़ी हो चुकी है। वास्तव में पिछले कुछ वर्षों में सिंहली बौद्धों तथा मुस्लिमों के बीच जिस तरह रिश्ते बिगड़े हैं उनको देखते हुए सरकार का यह कदम उचित ही है। वैसे आज से एक वर्ष पूर्व 26-27 फरवरी, 2017 को भी श्रीलंका के पूर्वी प्रांत के अंपारा कस्बे में भी सांप्रदायिक हिंसा हुई थी। उसे किसी तरह प्रशासन ने रोक तो दिया लेकिन तनाव खत्म नहीं हुआ। कहा जा जा रहा है कि वर्तमान हिंसा की जड़ भी उन्हीं घटनाओं में निहित हैं।

जो सूचनाएं आईं हैं उनके अनुसार कैंडी में सिंहली बौद्ध समुदाय के एक ट्रक चालक की मौत हो गई। उसका कुछ दिन पूर्व चार मुसलमानों से झगड़ा हुआ था। कहा जाता है कि उसमें वह बुरी तरह घायल हो गया। उसकी अंत्येष्टि में काफी संख्या में लोग जुटे। उनमें उत्तेजना थी, उत्तेजक नारे लगे। इसके बाद कुछ मुसलमानों के घरों एवं दूकानों पर हमले हुए। हालांकि प्रतिकार उधर से भी हुआ लेकिन इसमें एक मुसलमान अपने जले घर में मृत पाया गया। इसके बाद हिंसा तेजी से फैली। इस घटना का पहला निष्कर्ष तो यही निकलता है कि स्थानीय प्रशासन इसे रोकने में नाकामयाब रहा। तनाव पहले से था और किसी की शवयात्रा में भारी संख्या में एक समुदाय के लोग शामिल हैं, नारे लग रहे हैं तो फिर प्रशासन को चौकन्ना हो जाना चाहिए था। यहां तक तो बात समझ में आती है। किंतु यह केवल प्रशासन का मामला नहीं है। मुसलमानों और बौद्धों का संबंध केवल कानून व्यवस्था से संबंद्ध नहीं है। हालांकि सरकार ने वहां सेना भेजी, विशेष पुलिस बल रवाना कर दिया, कफर््यू लगा दिया गया। काफी संख्या में लोगों को गिरफ्तार किया गया है। इसका तात्कालिक असर तो यह हुआ है कि उसके बाद वहां हिंसा नहीं हो रही है। लेकिन दोनों समुदायों के संबंधों तथा पूरे माहौल को देखते हुए आप गारंटी नहीं दे सकते कि आगे फिर हिंसा नहीं होगी।

श्रीलंका में मुस्लिम आबादी केवल दस प्रतिशत है। इसके समानांतर सिंहली बौद्धों की संख्या 75 प्रतिशत के आसपास है। इसलिए दोनों के बीच कोई मुकाबला नहीं। किंतु बौद्धों के अंदर मुस्लिमों को लेकर कई प्रकार की आशंकाएं हैं। वे उन पर धर्म परिवर्तन से लेकर पुरातात्विक महत्व की चीजों को नष्ट करने जैसे कई प्रकार के आरोप लगाते हैं। इस कारण बौद्धों के कई संगठन तक खड़े हो गए हैं जो मुस्लिमों के खिलाफ बयान देते तथा मोर्चा निकालते रहते हैं। बौद्ध संगठन बोदु बाला सेना उन्हीं में सबसे बड़ा और सर्वाधिक सक्रिय है। इस संगठन के महासचिव गालागोदा ऐथे गनानसारा के बयान अक्सर श्रीलंकाई मीडिया में आते रहते हैं। वे कहते हैं कि मुस्लिमों की बढ़ती आबादी देश के मूल सिंहली बौद्धों के लिए खतरा है। 2014 में जब दोनों समुदायों के बीच तनाव चरम पर था उन्होंने कहा था कि मुस्लिम समुदाय का अतिवाद खतरा है और इन्हें मध्यपूर्व के देशों से मदद मिलती है। यह तो एक उदाहरण मात्र है जिससे यह समझा जा सकता है कि श्रीलंका की अंदरुनी सामाजिक स्थिति किस तरह के तनाव से गुजर रही है। वास्तव में ऐसे अनेक नेता और संगठन हैं जो गनानसारा की भाषा बोलते हैं।

म्यान्मार में बौद्धों और रोहिंग्या मुसलमानों के बीच भीषण दंगों की प्रतिध्वनि यहां भी सुनाई पड़ रही है। सिंहली बौद्ध संगठन उस विषय को बराबर उठाते हैं। वे कहते हैं कि म्यान्मार में हमारे बौद्ध भाइयों के खिलाफ इन्होंने जुल्म किया है। यह प्रचार वहां काफी हुआ है और जाहिर है इसका असर भी है।  जिस तरह हमारे देश में और अन्यत्र रोहिंग्या शरणार्थी हैं, वैसे ही कुछ श्रीलंका भी पहुंचे हैं। ये इसका भी विरोध करते हैं। इन्हें देश के लिए खतरा बताते हुए इनको वापस भेजने की मांग करते हैं। इसके विपरीत श्रीलंकाई मुसलमान उनका समर्थन करते हैं, उनके प्रति सहानुभूति जताते हैं। इस कारण भी दोनों के बीच तनाव बना हुआ है।

हम तनाव और हिंसा की आलोचना कर सकते हैं। लेकिन केवल आलोचना ऐसी किसी समस्या का समाधान नहीं है। अगर श्रीलंका में दोनों समुदायों के बीच शांति स्थापित नहीं हुई तो वह एक नई समस्या से घिर जाएगा जिसका खतरा साफ मंडराता दिख रहा है। ऐसा नहीं है कि दोनों समुदाय के बीच तनाव की चिन्गारी केवल उस देश तक ही सीमित रहेगी। सच कहा जाए तो यह स्थिति केवल श्रीलंका के लिए ही चिंताजनक नहीं है। यह हमारे लिए भी चिंता का कारण है। पूरे दक्षिण एशिया में इसकी प्रतिक्रिया हो सकती है। म्यान्मार दंगा के बाद हमारे देश में ही उसकी प्रतिक्रिया में कई स्थानों पर ंिहसंा की घटनाएं र्हुइं। चाहे वह मुबई के आजाद मैदान की घटना हो या लखनउ का दंगा आज भी उसकी यादें सिहरन पैदा करतीं हैं। हमारे यहां भी रोहिंग्या मुसलमानों को शरण दिए जाने का मुद्दा बहुत बड़ा है तथा कई जगह तनाव का कारण बना हुआ है। इसलिए श्रीलंका में जो कुछ हो रहा है उसे उस देश तक सीमित मान लेना हमारे लिए उचित नहीं होगा। अगर वहां बौद्धों एवं मुसलमानों के बीच हिसंा फैलती है तो फिर इसकी लपटें दूर तक जाएगी। इसलिए भारत भी वहां की घटनाओं से आंखें मूंद नहीं सकता। किंतु हम इसमें कर क्या सकते हैं? समस्या का समाधान तो श्रीलंका को ही करना है।

श्रीलंका के विवेकशील लोग इस बात को अच्छी प्रकार समझते होंगे कि किसी देश की शांति और एकता इस बात पर निर्भर करती है कि वहां के रहने वाले विभन्न समुदायों के बीच किस तरह का संबंध है। अगर संबंधों में सद्भाव है तो वह देश शांतिपूर्वक विकास के रास्ते पर दौड़ लगाता है। यदि संबंधों में तनाव है, एक दूसरे के प्रति आशंकाएं हैं तो फिर यह देश में हिंसा का कारण भी बनता है तथा इससे प्रगति तो प्रभावित होती ही है। श्रीलंका की समस्या रही है कि वहां तमिलों को सामान्य नागरिक अधिकारों से वंचित रखा गया और इस कारण वहां लंबे समय तक गृहयुद्ध चला। हिंसक तमिल संगठन खड़े हो गए। रक्त और लौह की नीति से श्रीलंका ने तमिल उग्रवादियों को तो खत्म कर दिया लेकिन अभी तक मूल सिंहलियों और तमिलों के बीच जैसा भाईचारे का संबंध होना चाहिए था नहीं हुआ। अब मुस्लिमों की समस्या उनके सिर अलग से आ गई है। यह ऐसी समस्या है जिसे श्रीलंका को पार पाना ही होगा। श्रीलंका की सरकारों ने आरंभ से ऐसी नीतियां नहीं अपनाई जिससे सभी समुदायों के बीच परस्पर सद्भाव व सहकार कायम हो सके। उसे अपने पड़ोसी देश भारत से सीखना चाहिए था। आजादी के बाद हमने इतनी विविधताओं के रहते हुए किस तरह एकता के सूत्रों को मजबूत करने का प्रयास किया है। इतने पंथ-संप्रदाय, जातियां सब एक साथ किस तरह रहतीं हैं। ऐसा नहीं है कि हमारे यहां तनाव नहीं होते, दंगे नहीं होते, लेकिन उसके समाधान का रास्ता भी समाज के अंदर से निकल जाता है। श्रीलंका ने अभी तक यह गुर सीेखा नहीं है। उसे अपने देश के बचाना है तो यह कला भारत से सीखनी ही होगी। हम तो यही कामना करेंगे कि हमारा पड़ोसी देश शीघ्र तनाव से मुक्त हो तथा शांतिपूर्ण तरीके से प्रगति और खुशहाली के रास्ते पर बढ़े, पर करना तो उसे ही पड़ेगा।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

  

 

 

 

 

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