शनिवार, 1 अप्रैल 2017

दलाई लामा की पूर्वोत्तर यात्रा एवं चीन का रुख

 

अवधेश कुमार

दलाई लामा को लेकर चीन की खीझ एवं उनके बारे में की गई टिप्पणियां दुनिया के लिए नई नहीं हैं। चीन की ओर से उनको मनुष्य की खाल में राक्षस और भेड़िया तक कहा जा चुका है। इस समय अगले 1 अप्रैल से वे असम की यात्रा पर हैं जहां राजधानी गुवाहाटी में पांच दिवसीय नमामी ब्रह्मपुत्र उत्सव में भाग लेंगे। उसके बाद वे 4 अप्रैल से आठ दिन की अरुणाचल यात्रा पर जाने वाले हैं। कुल मिलाकर पूर्वोत्तर की उनकी यात्रा 13 दिनों की हो जाती है। स्वाभाविक ही दलाई लामा का अरुणाचल में तवांग मठ भी जाने का कार्यक्रम है। तवांग के बारे में हम जानते हैं कि चीन उसे किस रुप में लेता है। वैसे तो पूरे अरुणाचल पर ही वह दावा करता है किंतु तवांग को वह अपना इसलिए मानता है कि क्योंकि इसकी स्थापना पूर्व दलाई लामा ने किया था। तिब्बत में चीन के जबरन कब्जे के विरुद्व छः दशक पूर्व जो विद्रोह हुआ था उसका भारत में एक बड़ा केन्द्र तवांग मठ हो गया था। तिब्बत से भागने वाले बौद्ध भिक्षु भी आरंभ में वहीं पहुंचे। चीन दलाई लामा और तवांग दोनों से सशंकित रहता है। उसे पता है कि बौद्ध धर्मावलंबियों के बीच दोनों का महत्व कितना है। शायद उसे यह अशंका बनी रहती है कि फिर कहीं तवांग को केन्द्र बनाकर दलाई लामा उसके खिलाफ विद्रोह न करा दे।

हालांकि इस बात की तत्काल कोई संभावना नहीं है। इसका सबसे बड़ा कारण तो यही है कि भारत ने दलाई लामा सहित उनके साथ आए तिब्बतियों को शरण अवश्य दिया है, उन्हें यहां धर्मशाला में निर्वासित सरकार चलाने तथा उनके लिए जन प्रतिनिधियों के निर्वाचन की भी छूट दिया हुआ है, तिब्बतियों को आम शरणार्थियों से ज्यादा अधिकार भारत में हासिल है, किंतु उन्हें किसी तरह की चीन विरोधी गतिविधियां चलाने की इजाजत नहीं है। जब भी चीनी नेताओं की यात्राएं होतीं हैं और तिब्बती विरोध प्रदर्शन की कोशिश करते हैं उनको रोका जाता है। भारत की नीति अभी तक अपनी भूमि से तिब्बतियों को चीन के खिलाफ विद्रोह करने या तिब्बत के अंदर भी विद्रोह भड़काने की किसी भी गतिविधि को न चलने देने का है। स्वयं चीन ने भी पूर्व तिब्बत के भूगोल, राजनीति और मानवीकी को जिस सीमा तक परिवर्तन कर दिया है उसमें उसकी आजादी के लिए विद्रोह वैसे भी कठिन हो गया है। उसके भाग को कई अलग-अलग प्रांतों में मिलाया जा चुका है तथा मूल चीनी हान जाति के लोग वहां भारी संख्या में बसे हैं। चीन ने वहां अपना सैनिक सुदृढ़िकरण भी कर दिया है। अब तो पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह तक जाने और सिल्क रुट को फिर से आरंभ करने वाली उसकी रणनीति में तिब्बत का प्रमुख स्थान हो गया है। कहने का तात्पर्य यह कि तिब्बत पर राजनीतिक एवं सैनिक पकड़ इतनी सशक्त हो चुकी है कि छोटी संख्या वाले तिब्बतियों के लिए वहां विद्रोह करना काफी कठिन है। वैसे भी दलाई लामा ने साफ किया है कि वो तिब्बत की पूर्ण स्वतंत्रता की मांग नहीं कर रहे, बल्कि चीन के अंदर एक ऐसे स्वायत्त राज्य के रुप में उसे चाहते हैं जो अहिंसक क्षेत्र के रुप में खड़ा हो।

बावजूद चीन सशंकित रहता है तो क्यों? आखिर दलाई लामा अरुणाचल जाएंगे या नमामी ब्रह्मपुत्र उत्सव में भाग लेंगे उससे उसका क्या बिगड़ जाएगा? दलाई लामा के अरुणाचल दौरे पर उसने भारत को जिस तरह संबंधों पर प्रतिकूल असर की चेतावनी दी है उसे क्या कहा जाए इसके लिए शब्द तलाशना होगा। आखिर एक बुढ़ा संन्यासी, जिसके पास न कोई फौज है, न कोई बड़ी संगठित शक्ति और न ही अपने मूल तिब्बत के लोगों से 1959 के बाद कोई प्रत्यक्ष संपर्क है वह चीन जैसे आर्थिक एवं सैनिक महाशक्ति का क्या बिगाड़ लेगा? दलाई लामा वैसे भी अहिंसा के पथ पर चलने वाल संत है तो फिर उनसे डर किस बात का? इन प्रश्नों का उत्तर तलाशाने से ऐसा लगता है कि चीन दलाई लामा को लेकर कुछ अतिवादी मानसिकता मंे आ जाता है। किंतु यह उसकी रणनीति भी है ताकि कोई देश दलाई लामा एवं उनके साथियों को विशेष महत्व न दे या उनका साथ न दे। वह जानता है कि तिब्बत पर उसका कब्जा अवैध एवं अनैतिक है। वह भारत के प्रति भी इसलिए सशंकित रहता है, क्योंकि इतिहास बताता है कि हमारा पड़ोसी चीन कभी था नहीं तिब्बत था। तिब्बत एक समय चीन के बीच हमारे लिए बफर राज्य की भूमिका निभाता था। तो भारत सरकार की जो भी नीति हो, भारतीयों के अंदर यह मंशा स्वाभाविक है कि तिब्बत फिर से आजाद हो एवं हमारे लिए अपनी स्वाभाविक भूमिका में आए। चीन जैसे देश के नेताओं को आम भारतीयों की इस मानसिकता का अंदाजा होगा। यह बात अलग है कि भारत की नीति में तिब्बत की आजादी शामिल नहीं है। लेकिन यह नीति स्थायी होगी ऐसा मानने का भी कोई कारण नहीं है। यदि चीन पाकिस्तान को हमारे विरुद्ध शह देता रहा, जिस तरह वह पाक अधिकृत कश्मीर से लेकर ग्वादर तक चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा बनाकर अपनी आर्थिक एवं सैनिक उपस्थिति को सुदृढ़ कर रहा है, कश्मीर पर उसकी दोहरी नीति है उसमें भारत की नीति कभी भी बदल सकती है।

उसके आशंकित होने का एक कारण यह भी लगता है कि उसके भावी आर्थिक एवं सामरिक व्यवहार में तिब्बत का महत्व ज्यादा बढ़ गया है। चाहे वह ग्वादर बंदरगाह तक की गतिविधियां हों या फिर नेपाल के साथ व्यवहार सब कुछ तिब्बत से ही जुड़ा है। उसके तेल गैस का पाइपलाइन भी इसी क्षेत्र से गुजर रहा है। चेंगडू जैसे बड़े सैनिक अड्डे तक पहुंचने के लिए रेल रास्ता हो या सड़क मार्ग सबको तिब्बत से ही जाना है। इस तरह उसे भविष्य की चिंता भी है। यानी कहीं कोई बड़ा विद्रोह हो गया तो फिर इन सबकी सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी। इसके लिए हर कदम पर सुरक्षा जाल बिछाना संभव नहीं है। तो वह पहले से अपनी आखंेे तरेड़ता है ताकि भविष्य सुरक्षित रहे। उसकी चिंता अगले दलाई लामा की भी है। पता नहीं वर्तमान दलाई लामा के गुजरने के बाद उनके पुनर्जन्म को तिब्बती कहां और किसे मान लें। उसने जबरन एक व्यक्ति को पंचेन लामा घोषित कर एक बड़े धर्मगुरु के पुनर्जन्म का रास्ता निकालने की कोशिश की वह भी पूरी तरह सफल नहीं हुई। अगर यह सब कारण नहीं हो तो दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा या फिर नमामी ब्रह्पुत्र उत्सव में भागीदारी से उसे कोई परेशानी नहीं होती।

वैसे ब्रह्मपुत्र के साथ भी चीन की समस्या जुड़ी हुई है। यार्लुंग त्सांगपो यानी ब्रह्मपुत्र पर तिब्बत की राजधानी ल्हासा के दक्षिण पूर्व मे ंउसने झांगमू बांध बनाया है तथा चार और बांध बनाए जा रहे हैं। हालांकि चीन ने भारत एवं बंगलादेश दोनों को यह वचन दिया है कि इन बांधों से उसके बहाव पर कोई असर नहीं होगा। किंतु पर्यावरणविदों की राय अलग है। त्सांगपो, जो तिब्बत के मुख्य क्षेत्रों में पश्चिम से पूरब की ओर बहती है भारत में ब्रह्मपुत्र एवं बंगलादेश में जमुना कहलाती है। ब्रह्मपुत्र पर उसके वचन पर भारत सरकार ने विश्वास किया है, लेकिन आम लोगों की सोच पर तो उसका वश नहीं। तिब्बती वैसे भी बांध को एक बड़ा मुद्दा बताते हैं। वे तिब्बत में पर्यावरण की क्षति के एक कारण में इसे भी लेते हैं। हो सकता है दलाई लामा इसे वहां उठाएं। इसलिए चीन इस पर कुछ न कुछ प्रतिक्रिया अवश्य व्यक्त करेगा। भारत नमामी ब्रह्मपुत्र उत्सव का व्यापक पैमाने पर आयोजन कर रहा है वह भी चीन को नागवार गुजर रहा होगा। हालांकि इसमें दक्षिण पूर्व एशिया के देशों को निमंत्रण दिया गया है और चीन भी उसमें शामिल है। चीन ने अपने आने की पुष्टि नहीं की है। शेष देश के प्रतिनिधि आएंगे। लगता नहीं कि दलाई लामा की उपस्थिति वाले किसी समारोह में चीनी प्रतिनिधि भाग लेंगे। तो हमें चीन की प्रतिक्रिया देखनी होगी। ध्यान रखिए, दलाई लामा का असम दौरा अब केवल नमामी ब्रह्मपुत्र उत्सव तक सीमित नहीं है। 1 अप्रैल से ही उनके कई कार्यक्रम निर्धारित हैं जिसमें वे गुवाहाटी में आम लोगों को संबोधित करेंगे, फिर 4 अप्रैल को डिब्रुगढ़ विश्वविद्यालय में उनका संबोधन है। यह इस बात का सबूत है कि दलाई लामा की अहिंसक एवं विश्व कल्याणकारी सोच और उनके व्यवहार को देखते हुए भारत में उनको पूरा सम्मान और महत्व मिलता है। यही बात चीन को खटकती होगी। किंतु चीन के खटकने से भारत का व्यवहार नहीं बदल सकता। 

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208 

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