शनिवार, 13 अगस्त 2016

कश्मीर में कारगर हस्तक्षेप का उपयुक्त समय

 

अवधेश कुमार

यह सवाल हर भारतीय के मन मैं कौंध रहा है कि कश्मीर का क्या किया जाए? कैसे शांति स्थापित हो? आशंका यह पैदा हो रही है कि कश्मीर कहीं 1990 के दशक वाली स्थिति में न पहुंच जाए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चन्द्रशेखर आजाद की जन्मस्थली भाबड़ा से इन्सानियत, जम्हूरियत, कश्मीरीयत की बात की। उन्होंने कहा कि पूरा देश कश्मीर से प्यार करता है, उसे स्वर्गभूमि मानता है और सभी भारतीय की इच्छा होती है कि वह एक दिन कश्मीर जाए। उन्होंने इस बात पर दुख प्रकट किया कि जिन बच्चों के हाथों में किताब, क्रिकेट के बैट आदि होने चाहिए उनके हाथों में पत्थर पकड़ा दिया गया है। यह एक प्रकार से प्रधानमंत्री की ओर से प्रस्ताव है कि हमने जिस इन्सानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत की बात की है उस पर आकर समाधान तलाशा जाए। प्रश्न है कि कश्मीर के जो उत्पाती हैं वो इस अपील या प्रस्ताव को मानने के लिए तैयार हैं?

प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य के एक दिन पहले मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने दिल्ली आकर गृहमंत्री से भेंट की और उसके बाद कहा कि आम अवाम के साथ सभी पक्षों से बातचीत की जाए। सभी पक्षों का उन्होंने तात्पर्य भी स्पष्ट कर दिया कि हुर्रियत यानी अलगाववादी और पाकिस्तान। उन्होंने लोगों के कथित घाव पर मरहम लगाने की बात की। उनकी पोटली में कश्मीर समस्या का यही समाधान है। मेहबूबा के ये विचार नए नहीं है। उनके पिता स्व. मुफ्ती मोहम्मद सईद भी जख्मों पर मरहम लगाने की बात करते थे। वे देश के गृहमंत्री रहे, जब आतंकवादियों ने उनकी बेटी का अपहरण कर लिया था। वे दो बार मुख्यमंत्री रहे। यह तो नहीं कहा जा सकता कि मुख्यमंत्री रहते उन्होंने उन तथाकथित जख्मों पर मरहम लगाने का काम नहीं किया। क्या उससे स्थिति में अंतर आ गया? उसी बात को फिर दुहराने का क्या अर्थ है? सामान्य तौर पर यह ठीक है कि समस्याओं का समाधान अंततः बातचीत से ही निकलता है। किंतु क्या वर्तमान कश्मीर इस कसौटी पर खरा उतरता है?

कहना बहुत आसान है कि लोगों से बातचीत की जाए। सवाल है कि जो लोग सुरक्षा बलों पर पत्थरों से हमले कर रहे हैं, एसिड फेंक रहे हैं और जो उनके पीछे हैं उनके साथ बातचीत कैसे की जाए? कोई भी इस तरह अपराध करेगा यानी कानून अपने हाथ में लेगा तो उससे कानून के तरीके से निपटना होगा। संसद में हुई बहस में कई अच्छी बातें भी आईं लेकिन कई सांसदों ने पैलेट गन का प्रयोग रोकने की मांग की। सुरक्षा बल पैलेट गन का प्रयोग रोक दें तो वे पत्थरबाजी, एसिडबाजी का मुकाबला कैसे करें यह भी माननीय सांसदों को बताना चाहिए। मेहबूबा मुफ्ती का रवैया बताता है कि उनके पास उपयुक्त सोच नहीं है। हो भी नहीं सकता। उपयुक्त सोच वस्तुस्थिति जैसी है उसी रुप में देखने से पैदा हो सकती है। कश्मीर को देखने के उनके नजरिए में ही दोष है। लोगों को चोट न पहुंचे, वे मारे न जाएं, उनको मनाया जाए यह सुनने में अच्छा लग सकता है लेकिन कश्मीर की आंतरिक स्थिति और उसके पीछे की साजिशकर्ता शक्तियों को देखें तो पूरी तस्वीर ही उलट जाती है। 8 जुलाई को आतंकवादी बुराहन वानी के सुरक्षा बलों से मुठभेड़ में मारे जाने के बाद जो हिंसा भड़की है वह रुकने का नाम नहीं ले रहा है। इसके पीछे जो शक्तियां लगीं हैं उनको पहचाने और उनका इलाज तलाशे बगैर आप समाधान की दिशा में बढ़ ही नहीं सकते।

 1990 के बाद पहली बार है जब वहां किसी संगठन ने पोस्टर लगाया कि पंडितों घाटी छोड़ो, अन्यथा मरने के लिए तैयार रहो। इस पोस्टर पर लश्कर ए इस्लाम का नाम लिखा है जो हिज्बुल मुजाहीद्दीन आतंकवादी संगठन का भाग माना जाता है। लिखा गया कि इंडिया गो बैक, योअर गेम इज ओवर। यानी भारत वापस जाओ, तुम्हारा खेल खत्म हो चुका है। सैयद अली शाह गिलानी दीवार पर यह नारा लिखते कैमरे में देखे गए। वो नारा लगवा रहे हैं पाकिस्तान हमारा है, हम हैं पाकिस्तानी। क्या ये स्थितियां बात करने लायक है? 1989 के बाद यही स्थितियां थीं जिनमें घाटी से पंडितों को पलायन करना पड़ा था। एक ओर यह हालत है तो दूसरी ओर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री कहते हैं कि इंशा अल्लाह, हम उस दिन के इंतजार में हैं जब कश्मीर पाकिस्तान होगा। हिज्बुल मुजाहिद्दीन जैसे आतंकवादी संगठन और अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा घोषित आतंकवादी सैयद सलाहुद्दीन पाकिस्तान में खुलेआम सक्रिय है। वह कराची से बयान देता है कि हमने समझ लिया है कि अब हथियारबंद जेहाद ही हमारे पास एकमात्र रास्ता है तथा पाकिस्तान इसमें मदद कर रहा है। वह कश्मीर पर भारत पाकिस्तान के बीच नाभिकीय युद्ध तक की बात कर रहा है। हाफिज सईद की अति सक्रियता तो सामने है ही। अगर पाकिस्तान की सेना और आईएसआई की शह नहीं हो तो सलाहुद्दीन इतना सक्रिय हो ही नहीं सकता। पाकिस्तान कश्मीर में वैसी स्थिति पैदा करना चाहता है ताकि यहां ज्यादा से ज्यादा उसके एजेंट सक्रिय हो, हालात ऐसे पैदा कर दें जिसमें भारत को कठोर सैन्य कार्रवाई करवानी पड़े, खून खराबा हो और कुल मिलाकर नियंत्रणविहीनता का वातावरण पैदा हो जाए।

क्या आप सीमा पार जाकर सलाहुद्दीन और हाफिज सईद से हाथ जोड़ेंगे कि आइए हम आपसे बात करना चाहते हैं, आप कश्मीर में शांति स्थापित करने में हमारी मदद कीजिए। पाकिस्तान का पूरा सत्ता प्रतिष्ठान क्या हमारे बातचीत के आग्रह से अपना रवैया बदल लेगा? कश्मीर में कारगर हस्तक्षेप की यकीनन आवश्यकता है। वह इसलिए है ताकि स्थिति बिल्कुल हाथ से बाहर न निकल जाए। लेकिन वह हस्तक्षेप क्या हो सकता है इसकी समग्र योजना बनाने की जरुरत है। मेहबूबा ने तो ईद के मौके पर पत्थर फंेकने के अपराध में गिरफ्तार करीब छः सौ लोगों को जेल से रिहा किया उससे क्या हुआ? पाकिस्तान का झंडा फहराने वाली आसिया अंद्राबी पर मुकदमा होने के बावजूद सरकार ने गिरफ्तार नहीं किया। तो क्या उससे उसका ह्रदय बदल गया? हाफिज सईद कहता है कि आसिया अंद्राबी ने उससे फोन पर लंबी बातचीत की। क्या बातचीत की होगी? हर शुक्रवार को रुटिन की तरह पाकिस्तानी झंडा फहराने और नारा लगाने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती। तो उससे उनका दिल पसीज गया क्या? अब तो आईएसआईएस और लश्कर ए तैयबा तक के झंडे लहराए जाते हैं।

क्या हमारे देश के नेतागण नहीं जानते कि अगर लोग घायल हो रहे हैं तो 4500 से ज्यादा सुरक्षा बल भी घायल हुए हैं। दो जवान भी मारे गए हैं। क्या उनके परिवारों के जख्म पर मरहम की आवश्यकता नहीं? कश्मीर पर छाती पीटने वालों में कोई नहीं कहता कि लोग पुलिस व अर्धसैनिक बलों पर हमले न करे केवल पुलिस और अर्धसैनिक बल पैलेट गन न चलाएं यह मांग की जा रही है। लोग अगर उन पर हमले करेंगे तो वो क्या करेंगे? उनके कैंपों पर भीड़ द्वारा भड़काऊ हमले हो रहे हैं। वे कितनी विकट परिस्थितियों में काम कर रहे हैं यह विचार का विषय होना चाहिए।

हालांकि हमने पूर्व में भी ऐसी स्थितियां देखी हैं। सन् 2010 में पत्थरबाजी और हिंसा चार महीने तक चलती रही थी। उस समय भी 20 सितंबर 2010 को सांसदों का एक प्रतिनिधिमंडल कश्मीर गया था। क्या निकला यह उसमें जाने वाले सांसद बता सकते हैं? तब भी सर्वदलीय प्रतिनिमंडल में कोई समस्या नहीं है। लेकिन यह कश्मीर की स्थिति पर कोई विशेष रिपोर्ट देगा, या समाधान का कोई विशेष रास्ता सुझा देगा ऐसा मानना बेमानी होगी। हालांकि कश्मीर में जम्मू और लद्दाख शांत है, उत्तरी कश्मीर में भी स्थिति नियंत्रण से बाहर नहीं है। समस्या का केन्द्र दक्षिणी कश्मीर है जहां हुर्रियत के सारे नेता रहते हैं। लेकिन 2010 में पाकिस्तान की यह नीति नहीं थी जो इस समय सेना और नवाज शरीफ ने अपना लिया है। इसलिए कश्मीर पर केवल बात की बजाय कारगर हस्तक्षेप किया जाए। दुनिया क्या कहेगी, पाकिस्तान कैसे छाती पीटेगा, तथाकथित मानवाधिकारवादी क्या कहेंगे इन सबकी चिंता छोड़कर संकल्पबद्ध कार्रवाई करनी होगी।  अगर नहीं किया गया तो घाटी की स्थिति नियंत्रण से बाहर हो सकती है। साथ ही पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाने के लिए उसके द्वारा कब्जा किए गए कश्मीर, गिलगित बलतिस्तान पर अपना दावा करके इसे बड़ा मुद्दा बनाने की कूटनीति अपनाई जाए।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, 0981107208 

 

 

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