आचार्य राघवेंद्र पी. तिवारी
सिखों के नौवें गुरु श्री गुरु तेग बहादुर जी (1621-1675) भारतीय इतिहास के उथल-पुथल वाले कालखंड में अवतरित हुए। औरंगज़ेब के दमनकारी शासनकाल में धार्मिक असहिष्णुता और जबरन धर्मांतरण ने भारत की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को खतरे में डाल दिया था। जहाँ मुग़ल साम्राज्य में हिंदुओं का धर्मांतरण व्यापक पैमाने पर हो रहा था, वहीं कश्मीर का मुग़ल गवर्नर अपने बादशाह का कृपापात्र बनने हेतु, धर्मांतरण की नीति को बड़े उत्साह से लागू कर रहा था। परिणामस्वरूप कश्मीरी पंडितों पर भीषण अत्याचार हुए। उनके मंदिर तोड़े गए। उन्हें इस्लाम स्वीकारने पर विवश किया गया। कश्मीरी पंडितों ने आनंदपुर साहिब में गुरु साहिब से भेंटकर अपने धर्म एवं आस्था की रक्षा हेतु प्रार्थना की।
असाधारण साहस, करुणा और अंतःकरण की स्वतंत्रता के
सार्वभौमिक समर्थक गुरु साहिब ने कश्मीरी पंडितों के धार्मिक स्वतन्त्रता की रक्षा
करने का निर्णय लिया। उन्होंने पंडितों को आश्वासन दिया कि वे दिल्ली जाकर मुगल सम्राट
से चर्चा करेंगे। साथ ही पंडितों से कहा कि वे अपने गवर्नर को सूचित करें कि यदि गुरु
जी अपना धर्म परिवर्तित कर इस्लाम अपना लेते हैं, तो हम भी इस्लाम धर्म अपना लेंगे,
लेकिन यदि वे इसका विरोध करते हैं, तो हमें धार्मिक रूप से स्वतंत्र रखा जाए।
गुरु साहिब के बढ़ते प्रभाव और जनसमर्थन को देखकर मुगल
शासन घबरा उठा। दिल्ली यात्रा के दौरान मुगल शासक ने गुरु साहिब एवं उनके अनुयायियों
को गिरफ्तार कर लिया। उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति को तोड़ने हेतु उन्हें और उनके अनुयायियों
को रास्ते भर यातनाएँ दी एवं अपमानित किया। परन्तु गुरु साहिब ने अपने सिद्धांतों से
समझौता नहीं किया। काजी द्वारा झूठे मुकदमें के दौरान उन्हें धर्म परिवर्तन का प्रस्ताव
दिया गया, जिसे गुरूजी ने दृढतापूर्वक अस्वीकार कर दिया। उनके आँखों के समक्ष उनके
तीन अनुयायियों, भाई मती दास जी, भाई सती दास जी और भाई दयाला जी को निर्ममतापूर्वक
मार दिया गया, फिर भी गुरू साहिब शांतचित्त होकर नाम-स्मरण में लीन रहे।
24 नवंबर, 1675 को दिल्ली के चांदनी चौक में स्वयं उपस्थित होकर गुरु साहिब ने धार्मिक
स्वतन्त्रता के अधिकार की रक्षा हेतु अपनी शहीदी दी। दृढ़ संकल्प एवं अटूट साहस के
माध्यम से उन्होंने भारत की संप्रभुता
की रक्षा की और धर्म के शाश्वत आदर्शों को कायम रखा। उनकी इस शहीदी ने भावी पीढ़ियों
को भय और व्यक्तिगत सुरक्षा के बजाय विवेक,
साहस और नैतिक कर्तव्य को बनाए रखने हेतु प्रेरित कर रही हैं। गुरु साहिब का जीवन
इस आदर्श का प्रमाण है कि सच्ची वीरता अस्त्र-शस्त्र, सत्ता या क्रूरता में नहीं,
अपितु आत्मविश्वास, बलिदान, नैतिक
साहस, न्याय हेतु निडरता से खड़े होने में भी निहित है। इस सर्वोच्च बलिदान हेतु उन्हें
‘हिंद दी चादर’ अर्थात भारत की ढाल की
उपाधि से विभूषित किया गया। युद्धकला में निपुण होने के बावजूद, गुरु साहिब का स्वभाव अत्यंत गंभीर, विचारशील,
एवं आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख था। उनका साहस एवं वीरता केवल सांसारिक रक्षा के लिए नहीं बल्कि वैराग्य, ध्यान और धर्म के प्रति
निष्ठाजनित नैतिक साहस के उच्चतम आदर्श के रूप में भी थी।
गुरु साहिब की शहादत मनुष्य के स्वतंत्र रूप से जीने के सार्वभौमिक अधिकार हेतु दिया गया सर्वोच्च
बलिदान है। यह सिखाता है कि दूसरों के स्वतंत्रता की रक्षा करना आध्यात्मिक कर्तव्य
का सर्वोच्च रूप है। अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध प्रतिरोध इस बात का भी प्रमाण था
कि धर्म-पालन का विषय साम्राज्यों के अधिकार से परे है। गुरु साहिब ने बलिदान के माध्यम
से उद्घोष किया था कि स्वतंत्रता, समानता और मानवीय गरिमा, मन की पवित्रता में अंतर्निहित
हैं। उन्होंने जाति, पंथ, लोभ अथवा धन के आधार पर सभी प्रकार के भेदभाव को अस्वीकार
किया और संदेश दिया कि ईश्वरीय प्रकाश सभी में विद्यमान है। उनकी शहादत मानवाधिकारों
के वैश्विक इतिहास में मील का पत्थर बनकर भावी पीढ़ी को न्याय और स्वतंत्रता के समर्थन
हेतु प्रेरित करती रहेगी।
गुरु साहिब आस्था के नैतिक मूल्यों को पुनर्परिभाषित
करने हेतु सिख इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उन्होंने सिख धर्म को न्याय, मानवीय गरिमा एवं अंतःकरण की स्वतंत्रता
हेतु प्रतिबद्धता के रूप में स्थापित किया। उनके बलिदान ने सामूहिक रूप से सिख धर्म
के दायरे को क्षेत्रीय धार्मिक समुदाय से सार्वभौमिक
नैतिक धर्म के रूप में स्थापित किया। उन्होंने गुरु अर्जन देव जी की शहादत को सिख धर्म
के सार्वभौमिक अंतरात्मा के जीवंत उदाहरण तथा रक्षक के रूप में प्रस्तुत किया, जिससे धार्मिक आस्था की रक्षा को नैतिक साहस
एवं मानवाधिकारों के प्रतिमान के रूप में पहचान मिली।
गुरु साहिब के आध्यात्मिक योगदान उनके भजनों
में परिलक्षित होते हैं। उदाहरणार्थ, वे कहते हैं, “किसी से डरो मत, किसी को भयभीत
मत करो; इस प्रकार तुम ज्ञान प्राप्त करोगे” (गुरु ग्रंथ साहिब, अंग 1427), जहाँ वे
आध्यात्मिक अनुशासन और नैतिक साहस के समन्वय को स्पष्ट करते हैं, संत-सिपाही (संत-सैनिक)
आदर्श की रूपरेखा स्थापित करते हैं, और सभी के कल्याण (सरबत दा भला) के लिए कार्य करते
हैं। उनकी विरासत व्यापक मानवतावादी चिंतन को आलोकित करती है। उनका जीवन यह प्रमाणित
करता है कि सच्चा धर्म सभी सांप्रदायिक सीमाओं से परे है। उनके जीवन का संदेश सरल किन्तु
शाश्वत है: “दूसरों की स्वतंत्रता की रक्षा
उसी प्रकार करो जैसे तुम अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करते हो; इसी में ईश्वर का सच्चा
मार्ग निहित है।” साथ ही उनके सबद सांसारिक
आसक्तियों की अनित्यता पर ज़ोर देते हैं और मानव को अहंकार, लोभ तथा क्षणिक सुखों से ऊपर उठने का आह्वान करते है। इन भजनों से सीख
मिलती है कि हर परिस्थिती में समभाव बनाए रखना ही सच्ची आध्यात्मिकता है। गुरु जी की
आध्यात्मिक दृष्टि विवेकपूर्ण एवं व्यावहारिक है, जो गहन सिमरन (ध्यान) एवं समर्पण
(सेवा) के संयोजन पर आधारित है, जिससे स्पष्ट होता है कि ईश्वर भक्ति का सार मानवता
के प्रति करुणा एवं सेवा में ही निहित है।
गुरु साहिब ने सिख धर्म को आध्यात्मिकता से आलोकित
किया जो ध्यान, नैतिक सामर्थ्य तथा सार्वभौमिक
करुणा पर आधारित है। उनके अनुसार सच्ची आध्यात्मिकता
किसी कर्मकांड, संन्यास में नहीं, बल्कि
निडरता, विनम्रता और सांसारिक चुनौतियों
के मध्य ईश्वर के स्मरण में निहित है। उन्होंने सिख धर्म को एक सार्वभौमिक दर्शन के
रूप में स्थापित किया, जो आंतरिक जागृति, नैतिकता
एवं मानवता की सेवा पर केंद्रित है। उन्होंने सीख दी कि आध्यात्मिक बोध और नैतिक साहस
सत्य के दो अविभाज्य आयाम हैं।
गुरु साहिब का जीवन
और बलिदान न केवल सिख इतिहास का महत्वपूर्ण अध्याय है, अपितु समूची मानवता के लिए शाश्वत सीख भी हैं। उनकी सीख सद्भाव और शांतिपूर्ण
सह-अस्तित्व की है। ये ऐसे जीवन मूल्य है जो अशांत एवं संघर्षग्रस्त विश्व में अत्यंत
प्रासंगिक हैं। उन्होंने कहा कि सच्चा सुख भौतिक संपत्ति अथवा क्षणिक सुखों में नहीं, बल्कि सत्य, नि:स्वार्थता और मानव सेवा में निहित है। उनका जीवन प्रेरणा देता है
कि कैसे सभी प्राणियों के प्रति गहरी करुणा रखते हुए भी धर्म पर दृढ़ रहा जा सकता है। यह संदेश संस्कृतियों की सीमाओं से परे मानव
समाज को हमेशा प्रेरित करता रहेगा। गुरु साहिब का जीवन हमें विपत्ति में वीरता, शक्ति में करुणा और सेवा में निस्वार्थता
की सीख देता है। उनकी विरासत लोगों को स्वतंत्रता, समानता, न्याय और सर्वजन
हिताय, बहुजन सुखाय के आदर्शों के लिए जीने हेतु प्रेरणा देती है। उनका साहस और बलिदान
मानव समाज का अमर प्रेरणा स्त्रोत रहेगा। हमेशा
स्मरण कराएगा कि वास्तविक शक्ति सत्य और धर्म की रक्षा में निहित है। यह न्याय और करुणा
का सार्वभौमिक संदेश है, जो कालातीत है।
(लेखक कुलपति, पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा हैं और यह इनके व्यक्तिगत विचार हैं।)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें