गुरुवार, 30 अक्टूबर 2025

बिहार की चुनावी तस्वीर स्पष्ट हो रही है

अवधेश कुमार

बिहार चुनाव अभियानों के प्रचंड शोर से के बीच से निकलने वाले संकेतों को आप समझ सकते हैं । दोनों प्रमुख गठबंधनों तथा तीसरी शक्ति के रूप में खड़ा होने की कोशिश कर रही जन सुराज व उम्मीदवारों तक ने अपने मुद्दे भी घोषित कर दिए। मतदाताओं के सामने मुख्य प्रश्न यही है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार और प्रदेश की नीतीश कुमार सरकार को कायम रखनी है या बदलने के लिए विपक्षी गठबंधन को सत्ता में लाना है ? प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में केंद्र और भाजपा ने राष्ट्रीय - अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने कार्यों , वक्तव्यों तथा व्यवहारों से स्थायी एवं तात्कालिक मुद्दे लगातार बनाए रखें है। छोटे से छोटे चुनाव में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा एक प्रबल कारक की भूमिका निभाते हैं । इसमें चुनावी आकलन की मुख्य वस्तुनिष्ठ कसौटियां क्या हो सकतीं हैं? एकमात्र कसौटी यही होगी कि आखिर सामने दिखने वाले तीनों प्रमुख धाराओं के चुनाव में उद्देश्य क्या हैं? जब हम उद्देश्यों पर विचार करेंगे तो यह भी प्रश्न उभरेगा कि क्या उनकी संपूर्ण भूमिका उन उद्देश्यों के अनुरूप हैं? इन्हीं के अगले चरण में आपको चुनावी संभावनाओं  के भावी दृश्य भी धीरे-धीरे स्पष्ट हो जाएंगे।

पहले दोनों मुख्य गठबंधनों यानी सत्तारुढ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन या राजग तथा दूसरी ओर जिसे महागठबंधन कहते हैं उनकी चर्चा। हालांकि विपक्ष को महागठबंधन तब कहा गया था जब नीतीश कुमार जदयू के साथ इस ओर आ गए थे। जब नीतीश कुमार इससे निकल चुके हैं तो यह महागठबंधन नहीं है। दोनों ओर सामान्य गठबंधन है। विपक्षी गठबंधन के सामने सीधा लक्ष्य महाराष्ट्र, हरियाणा तथा दिल्ली में भाजपा के विजय अभियान को रोक कर लोकसभा चुनाव में दिए गए धक्के को फिर सतह पर लाना है। राहुल गांधी ने चुनाव आयोग पर हमला करते हुए यही कहा कि  वोट चोरी नहीं होती तो भाजपा की सीटें घट जातीं और उनकी सरकार नहीं बनती। यह स्पष्ट है कि 2014 से हिंदुत्व, हिंदुत्व अभिप्रेरित राष्ट्रवाद के साथ सामाजिक न्याय एवं विकास आदि के आधार पर भाजपा का स्थिर ठोस वोट आधार कायम हो चुका है। भाजपा चाहे चुनाव जीते या हारे इसकी शुरुआत उस निश्चित वोट प्रतिशत से ही होती है। इस नाते विपक्ष का पहला लक्ष्य हर हाल में उम्मीदवारों, राजनीतिक मुद्दों और चुनाव अभियानों में सशक्त एकजुटता प्रदर्शित करनी चाहिए थी। इससे मतदाताओं के बीच संदेश जाता कि वाकई ये विचार और मुद्दों के आधार पर भाजपा का विरोध करते हैं केवल सत्ता पाने के लिए इनका साथ नहीं है। राहुल गांधी, वम दल, स्वयं तेजस्वी यादव आदि सेक्युलरिज्म आदि के आधार पर भाजपा से विचारधारा का टकराव घोषित करते हैं। क्या इनका आचरण इसके अनुरूप रहा?

23 अक्टूबर की संयुक्त प्रेस वार्ता के पहले विपक्षी गठबंधन के शीर्ष नेताओं की एक भी बैठक नहीं हुई।

इसके उलट जब लालू प्रसाद यादव , राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव दिल्ली में अपने मुकदमों के लिए न्यायालय में उपस्थित होने आए थे तो माना गया था कि कांग्रेस के शीर्ष नेताओं साथ उनकी बैठक होगी।  केवल यह समाचार आया कि लालू यादव ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से फोन पर बातचीत की। यानी तेजस्वी यादव और राहुल गांधी की बैठक नहीं हो सकी। सभी पार्टियों ने स्वयं ही उम्मीदवारों की घोषणा की है। इसका  संदेश यही है कि चूंकि इनको मालूम है कि आपस में लड़ने पर हम चुनाव नहीं जीत पाएंगे इसलिए इन्होंने एक दूसरे की सीट से कुछ उम्मीदवार हटाए और या उम्मीदवार खड़ा नहीं किया। बावजूद 11 स्थानों पर गठबंधन के उम्मीदवार एक दूसरे के विरुद्ध लड़ रहे हैं और अनेक स्थानों पर बिना पार्टी चुनाव चिन्ह के निर्दलीय खड़े हैं । क्या चुनाव पर इसका असर नहीं होगा? गठबंधन में पार्टियों द्वारा अधिक से अधिक सीटों की चाहत अस्वाभाविक नहीं है। किंतु कांग्रेस का रवैया गठबंधन धर्म के विपरीत रहा। कांग्रेस का तर्क था कि पिछले चुनाव में 70 सीटों पर केवल 19 पर ही जीत इसलिए मिली क्योंकि ये स्थान हमारे अनुकूल नहीं थे। दरअसल, कांग्रेस मान रही है कि राहुल गांधी सेकुलरिज्म के सबसे बड़े चेहरे हैं, उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा, संघ और हिंदुत्व विचार पर लगातार आक्रमण किया और चुनाव आयोग तक को भाजपा समर्थक घोषित करने के लिए अभियान चलाया इस कारण उनकी लोकप्रियता विपक्ष  के सभी नेताओं से ज्यादा है। इसीलिए गठबंधन या सीटों के बंटवारे में आत्मविश्वास और समानता से हमें व्यवहार करना है। कांग्रेस राजद को ब्लैंक चेक देने के मूड में नहीं रही और इसी कारण तेजस्वी यादव गठबंधन के मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करने में काफी विलम्ब हुआ। ऐसा लगा कि कुछ विरोधियों तथा विश्लेषकों द्वारा लगातार  इस पहलू को उठाने के बाद चुनावी क्षति का भय पैदा हुआ और फिर ये तेजस्वी यादव को नेता घोषित करने को बाध्य हो गए।

 स्वयं कांग्रेस के अंदर टिकटों को लेकर पटना सदाकत आश्रम कार्यालय में मारपीट, गाली-  गलौज तथा प्रदेश अध्यक्ष, विधानसभा में विपक्ष के नेता एवं प्रभारी के हवाई अड्डे पर उतरने के बाद कार्यकर्ताओं के गुस्से वाले दृश्य ने बहुत कुछ स्पष्ट कर दिया। झारखंड मुक्ति मोर्चा पहले गठबंधन का भाग हुई लेकिन नाराज होकर झारखंड के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने घोषणा कर दिया कि उनकी पार्टी बिहार में चुनाव नहीं लड़ेगी और झारखंड उपचुनाव में भी अकेले उतरेगी। इससे तो राष्ट्रीय स्तर पर आईएनडीआईए का अवशेष भी प्रश्नों के घेरे में आ गया।

दूसरी ओर भाजपा जद-यू के समान वर्चस्व वाले राजग के नेताओं ने बार-बार स्पष्ट किया कि वे नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ रहे हैं। सीटों के बंटवारे पर भी स्पष्ट वक्तव्य जारी किया। यहां भी सीटों पर मतभेद थे तथा रालोमो प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा और हम के जीतन राम मांझी ने इसे सार्वजनिक प्रकट भी किया।  गहराई से देखेंगे तो समस्या चिराग पासवान की लोजपा को 29 सीटें देने के कारण पैदा हुई। उनके खाते कुछ सीटें ऐसी जिनमें कुछ क्षेत्रों से रालोमो और हम के साथ भाजपा प्रदेश नेतृत्व भी अपना उम्मीदवार लडाना चाहता था। इसीलिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राजगीर और सोनबरसा में अपने उम्मीदवार को चुनाव चिन्ह देकर नामांकन करवा दिया। ऐसा होने के बावजूद नीतीश कुमार ने हर पार्टी के लिए अपना चुनाव प्रचार जारी रखा, सभी ने एक स्वर से एकजुट होने  के बयान जारी किए। आज की स्थिति में राजग के सभी घटक एकजूट चुनाव लड़ रहे हैं। पार्टियों के अंदर उम्मीदवारों को लेकर असंतोष हैं ।स्थानीय भाजपा कार्यकर्ताओं में हम और लोजपा नेतृत्व द्वारा अपने परिवार रिश्तेदारों तथा कुछ गलत लोगों के टिकट देने का भी विरोध है। इनका थोड़ा असर चुनाव परिणाम पर पड़ता है।

मुद्दों की दृष्टि से राहुल गांधी ने चुनाव आयोग पर भाजपा के लिए वोट चोरी करने का आरोप लगाते हुए वोट अधिकार यात्रा निकाली और इसे बिहार सहित आगामी सभी चुनाव के लिए सबसे बड़ा मुद्दा बनाने की रणनीति अपनाई। वास्तव में जानबूझकर किसी मतदाता का नाम हटा नहीं इसलिए यह मुद्दा बन ही नहीं सका। तेजस्वी यादव और उनके रणनीतिकारों को इसका आभास हुआ तो उन्होंने राहुल की यात्रा के बाद बिहार अधिकार यात्रा शुरू कर दी। आप देखेंगे कि चुनाव में राजद या अन्य घटक यह मुद्दा नहीं उठा रहे थे। इतना शोर वाले मुद्दा ही निराधार हो तो मतदाताओं के मनोविज्ञान पर इसका असर नकारात्मक ही होता है। दूसर ओर भाजपा और जदयू लगातार लालू राबड़ी काल के कुशासन व‌ जंगल राज को शीर्ष पर ला रही है तथा अपने काल में बिहार में आधारभूत संरचनाओं से लेकर स्वास्थ्य आदि के विकास की तस्वीर प्रस्तुत करते हुए मतदाताओं के सामने दोनों के बीच तुलना का विकल्प दे रहे हैं। जब विपक्ष एकजुट नहीं होगा तो सरकार के विरुद्ध प्रभावी तरीके से मुद्दे भी नहीं बनाये जा सकते। यही बिहार चुनाव में दिख रहा है।

 प्रशांत किशोर ने पिछले दो वर्ष में बिहार से जुड़े मुद्दे उठाए। किंतु मुद्दे उठाने और राजनीतिक नेतृत्व का चेहरा बनने में मौलिक अंतर है। बिहार में तीसरी शक्ति को मत तीन स्थितियों में ही मिल सकता है। एक , जब मतदाताओं के अंदर सरकार के विरुद्ध इतना व्यापक असंतोष हो कि वे उसे उखाड़ फेंकना चाहें। दो , यह मान लें कि वर्तमान विपक्ष भाजपा जदयू कि मुकाबला करने में बिल्कुल सक्षम नहीं है। और तीन , सामने तीसरा विकल्प इन दोनों से बेहतर चेहरों मुद्दों और रणनीति के साथ सामने है। ये तीनों स्थितियों बिहार में नहीं हैं। इसके बाद आप निष्कर्ष निकालिए कि आखिर चुनाव की अंतिम तस्वीर क्या होगी?

12 वार्डों में मतदान, किस पार्टी के पास थी कौन-सी सीट, चुनाव आयोग ने 7 लाख मतदाताओं के लिए बनाए 580 मतदान केंद्र


संवाददाता

नई दिल्ली। दिल्ली नगर निगम (MCD) के 12 वार्डों में खाली पड़ी सीटों को भरने के लिए चुनावी बिगुल बज चुका है. स्टेट इलेक्शन कमिशन ने मंगलवार (28 अक्टूबर) को उपचुनाव की घोषणा करते हुए मतदान की तारीख 30 नवंबर तय की है. सुबह 7:30 बजे से शाम 5:30 बजे तक मतदान होगा और इसके साथ ही इन वार्डों में आचार संहिता भी लागू कर दी गई है. 

स्टेट इलेक्शन कमिशन (दिल्ली) के अनुसार, एमसीडी के 250 वार्डों में से 12 वार्डों में उपचुनाव 30 नवंबर को होंगे. चुनाव का नोटिफिकेशन 3 नवंबर से जारी होगा और इसी दिन नामांकन प्रक्रिया भी शुरू होगी. नामांकन भरने की अंतिम तारीख 10 नवंबर और नामांकन वापस लेने की आखिरी तारीख 15 नवंबर तय की गई है. 

चुनाव आयोग ने 7 डिस्ट्रिक्ट इलेक्शन ऑफिसर (DEO), 11 रिटर्निंग ऑफिसर (RO), 11 इलेक्शन ऑब्जर्वर और एक्रेडिटेड ऑब्जर्वर की नियुक्ति कर दी है. 12 वार्डों में से 6 सामान्य वर्ग, 5 महिला और 1 अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित हैं.

प्रत्याशी अधिकतम 8 लाख तक कर सकेंगे खर्च - चुनाव आयोग के अनुसार सामान्य वर्ग के प्रत्याशियों को नामांकन के समय 5,000 रुपये और अनुसूचित जाति वर्ग के प्रत्याशियों को 2,500 रुपये सिक्योरिटी मनी के रूप में जमा करनी होगी. प्रत्येक प्रत्याशी को प्रचार-प्रसार पर अधिकतम 8 लाख रुपये तक खर्च करने की अनुमति होगी.

करीब सात लाख मतदाता डालेंगे वोट - उपचुनाव में कुल 6,98,751 मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे. इनमें से 3,74,988 पुरुष, 3,23,710 महिलाएं, 53 थर्ड जेंडर वोटर, 60 दिव्यांग मतदाता, 14,529 वरिष्ठ नागरिक (80 वर्ष से ऊपर) और 4,458 युवा (18 वर्ष) शामिल हैं. 

मतदान के लिए कुल 580 पोलिंग स्टेशन बनाए गए हैं. सबसे अधिक पोलिंग स्टेशन (55) मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता के पूर्व वार्ड शालीमार बाग-बी में बनाए जाएंगे.

महिला-पुरुष मतदाताओं में मामूली अंतर - आयोग के आंकड़ों के अनुसार तीन वार्डों में महिला और पुरुष मतदाताओं की संख्या में बहुत कम अंतर है. दिलचस्प बात यह है कि 80 वर्ष से अधिक उम्र के मतदाता (2.07%) की संख्या 18 वर्ष के युवाओं (0.63%) से अधिक है, जो चुनाव में वरिष्ठ नागरिकों की सक्रिय भागीदारी को दर्शाता है.

वार्ड वाइज वोटर्स की संख्या

• मुंडका (सामान्य) – 54,525

• शालीमार बाग-बी (महिला) – 66,391

• अशोक विहार (महिला) – 56,697

• चांदनी चौक (सामान्य) – 44,166

• चांदनी महल (सामान्य) – 46,237

• द्वारका-बी (महिला) – 66,184

• दिचाऊं कलां (महिला) – 72,396

• नारायणा (सामान्य) – 59,340

• संगम विहार-ए (सामान्य) – 59,365

• दक्षिणपुरी (अनुसूचित जाति) – 61,636

• ग्रेटर कैलाश (महिला) – 49,624

• विनोद नगर (सामान्य) – 62,190

क्यों खाली हुईं ये सीटें - इन 12 में से 11 सीटें पार्षदों के विधायक बनने के बाद रिक्त हुईं, जबकि द्वारका-बी सीट पिछले वर्ष मई में सांसद कमलजीत सहरावत के लोकसभा सदस्य बनने से खाली हुई थी. इन्हीं में मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता की विधायक निर्वाचित होने से खाली हुई शालीमार बाग की सीट भी शामिल है.

किस पार्टी के पास थीं कौन-सी सीटें - इन 12 वार्डों में से तीन सीटें — चांदनी महल, चांदनी चौक और दक्षिणपुरी पहले आम आदमी पार्टी (आप) के पास थीं. जबकि नौ सीटें — शालीमार बाग, द्वारका बी, ग्रेटर कैलाश, दिचाऊं कलां, नारायणा, संगम विहार, विनोद नगर, अशोक विहार और मुंडका भाजपा के कब्जे में थीं.

एमसीडी की वर्तमान स्थिति और राजनीतिक समीकरण - वर्ष 2022 में तीनों एमसीडी का एकीकरण किया गया था, जिसमें 250 सीटों पर चुनाव हुए थे. तब आप को 134, भाजपा को 104, कांग्रेस को 8 और 3 निर्दलीय उम्मीदवारों को जीत मिली थी. इसके बाद, 2024–25 में कई आप पार्षद भाजपा में शामिल हो गए और 16 पार्षदों ने नया दल इंद्रप्रस्थ विकास पार्टी (IVP) बना लिया. इस बदले राजनीतिक समीकरण में अप्रैल 2025 में हुए महापौर चुनाव में भाजपा ने बहुमत के आधार पर जीत हासिल की थी.

वर्तमान में एमसीडी की कुल 250 सीटों में से 12 रिक्त हैं. बाकी सीटों पर पार्टीवार स्थिति इस प्रकार है:

● बीजेपी – 116 सीटें

● आप – 98 सीटें

● कांग्रेस – 8 सीटें

● इंद्रप्रस्थ विकास पार्टी – 15 सीटें

तीनों दलों की निगाहें इन 12 सीटों पर - भाजपा, आप और कांग्रेस — तीनों ही दल इन उपचुनावों को बेहद अहम मान रहे हैं. भाजपा इसे निगम में अपना वर्चस्व मजबूत करने के अवसर के तौर पर देख रही है, तो वहीं आम आदमी पार्टी अपनी खोई हुई सीटें वापस पाने के प्रयास में जुटी है. जबकि कांग्रेस भी इस चुनावों में वापसी की उम्मीद कर रही है. दिलचस्प बात यह है कि सभी दलों का दावा है कि वे सभी 12 सीटों पर जीत दर्ज करेंगे.

वोटिंग और नतीजों की तारीखें

◆ नामांकन शुरू: 3 नवंबर

◆ नामांकन की अंतिम तारीख: 10 नवंबर

◆ नामांकन वापसी की अंतिम तारीख: 15 नवंबर

◆ मतदान: 30 नवंबर (सुबह 7:30 बजे से शाम 5:30 बजे तक)

◆ नतीजों की घोषणा: 3 दिसंबर

कांग्रेस ने की उम्मीदवार चयन की तैयारी - दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष देवेंद्र यादव ने आज राजीव भवन में एक अहम बैठक बुलाई. इसमें एमसीडी के 12 वार्डों में होने वाले उपचुनाव के लिए उम्मीदवारों के चयन पर चर्चा हुई. इस दौरान देवेंद्र यादव ने कहा कि पिछले 9 महीनों में बीजेपी की रेखा गुप्ता सरकार हर क्षेत्र में नाकाम साबित हुई है. लोग अब बदलाव की बाट जोह रहे हैं. दिल्ली में बीजेपी के खिलाफ गुस्सा साफ दिख रहा है और कांग्रेस को इन उपचुनावों में बड़ी जीत का मौका मिल सकता है.

भाजपा पर हमला, आप से तुलना - देवेंद्र यादव ने तंज कसा कि रेखा गुप्ता की सरकार पिछली भ्रष्ट आम आदमी पार्टी की सरकार से भी बदतर निकली. विधानसभा चुनाव में किए वादे- बिजली-पानी की दिक्कतें दूर करना, सफाई और प्रदूषण पर काबू, सड़कें ठीक करना, घरों को गिराने का मसला सुलझाना और हर महिला को 2500 रुपये मासिक मानदेय देना- सब अधर में लटक गए.

मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

दिल्ली की 12 सीटों पर एमसीडी उपचुनाव की हुई घोषणा, मतदान 30 नवंबर व मतगणना 3 दिसंबर को

संवाददता

नई दिल्ली। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में चुनाव आयोग ने दिल्ली में नगर निगम के 12 पार्षदों के खाली पदों को भरने के लिए उपचुनाव की तारीखों की घोषणा कर दी है। अधिसूचना जारी होने और नामांकन प्रक्रिया 3 नवंबर से शुरू होगी। 30 नवंबर को मतदान होगा। वहीं 3 दिसंबर को वोटों की गिनती की जाएगी। चुनाव आयोग ने तैयारियों को तेज कर दिया है।

दिल्ली चुनाव आयोग के मुताबिक, नामांकन प्रक्रिया तीन नवंबर से शुरू होगी और दाखिल करने की अंतिम तिथि 10 नवंबर होगी। इसके अलावा नामांकन पत्रों की जांच 12 नवंबर को होगी। नामांकन वापस लेने की अंतिम तिथि 15 नवंबर होगी। 30 नवंबर को सुबह 7.30 बजे से शाम 5.30 बजे तक मतदान होगा।

कहां-कहां होगा उपचुनाव?
मुंडका, शालीमार बाग-बी, अशोक विहार, चांदनी चौक, चांदनी महल, द्वारका-बी, दिचाऊं कलां, नारायणा, संगम विहार-ए, दक्षिण पुरी, ग्रेटर कैलाश और विनोद नगर वार्ड में एमसीडी के उपचुनाव होंगे। उल्लेखनीय है कि दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता पहले पार्षद के रूप में शालीमार बाग-बी वार्ड का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं। वहीं, द्वारका-बी वार्ड भाजपा पार्षद कमलजीत सहरावत के पश्चिमी दिल्ली लोकसभा सीट से निर्वाचित होने के बाद खाली हुआ था। इसके अलावा बाकी वार्ड बीजेपी और आप के मौजूदा पार्षदों द्वारा फरवरी में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ने और विधायक बनने के बाद खाली हुए थे।




सोमवार, 27 अक्टूबर 2025

दूसरे चरण में 12 राज्यों का होगा SIR, तीन बार आपके घर आएगा BLO, आज रात फ्रीज होगी वोटर लिस्ट


संवाददाता

नई दिल्ली। बिहार में एसआईआर की प्रक्रिया के दौरान ही चुनाव आयोग ने कहा था कि एसआईआर पूरे देश में होगा। सोमवार को चुनाव आयोग की अहम प्रेस कॉन्फ्रेंस में मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने कहा कि दूसरे चरण के तहत 12 राज्यों की वोटर लिस्ट का एसआईआर किया जाएगा। सीईसी ने यह भी कहा कि बिहार में वोटर लिस्ट का स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन सफलतापूर्वक पूरा हो गया है।

मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा कि एसआईआर का फेज वन खत्म हो गया। बिहार के साढ़े सात करोड़ वोटरों ने बढ़-चढ़कर इसमें हिस्सा लिया. 90 हजार बीएलओ और राजनीतिक दलों ने मिलकर मतदाता सूची को शुद्ध बनाने का काम किया। बिहार की मतदाता सूची बिल्कुल साफ हो गई है।

21 साल पहले हुआ था वोटर लिस्ट का शुद्धिकरण - मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा कि वोटर लिस्ट की शुद्धिकरण का काम 21 साल पहले 2002-04 में हुआ था। उन्होंने कहा कि इतने सालों में वोटर लिस्ट में कई बदलाव जरूरी है। लोगों का पलायन होता है। इससे एक से ज्यादा जगह वोटर लिस्ट में नाम रहता है। निधन के बाद भी कई लोगों को नाम लिस्ट में रह जाता है।

मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा कि फाइनल मतदाता सूची प्रकाशित करने के बाद अगर किसी को कोई शिकायत रहती है तो वह पहले डीएम को अपील कर सकता है और उसके बाद CEO को भी दे सकते हैं, जिसके बाद व्यक्ति का नाम वोटर लिस्ट में जोड़ दिया जाएगा।

- मुख्य चुनाव आयुक्त ने क्या अहम बातें कहीं?
- फ्रीज हो जाएंगी 12 राज्यों की वोटर लिस्ट
- नहीं दिखाना होगा कोई कागज
- तीन बार घर आएंगे BLO
- लोग ऑनलाइन भी कर पाएंगे आवेदन


फ्रीज कर दी जाएगी वोटर लिस्ट-- मुख्‍य चुनाव आयुक्‍त ने यह भी कहा कि जिन भी राज्यों में SIR होगा, वहां आज रात को उन राज्यों में मतदाता सूची को फ्रीज कर दिया जाएगा। इसके अलावा उन्‍होंने कहा कि आज तक जितने लोगों का नाम मतदाता सूची में है, उन्हें कोई कागज नहीं देना होगा। इसका अर्थ है कि पुराने SIR और अभी के मतदाता सूची में जिनका नाम है, उन्हें कोई कागज नहीं देना होगा।

जानें कब क्या-क्या होगा?

ट्रेनिंग/प्रिंटिंग – 28 अक्टूबर से 3 नवंबर 2025 तक

घर-घर गणना- 4 नवंबर से 4 दिसंबर 2025 तक

ड्राफ्ट मतदाता सूचियों की रिलीज डेट – 9 दिसंबर 2025 तक

दावे और आपत्तियों की अवधि – 9 दिसंबर 2025 से 8 जनवरी 2026 तक

सुनवाई और सत्यापन – 9 दिसंबर 2025 से 31 जनवरी 2026 तक

फाइन वोटर लिस्ट – 7 फ़रवरी 2026 तक


सीईसी ज्ञानेश कुमार ने कहा कि BLO यानी बूथ लेवल ऑफिसर तीन बार मतदाताओं के घर जाएंगे। ऑनलाइन भी फॉर्म भरने की सुविधा रहेगी। साथ ही कहा कहा कि मृत लोग, स्थाई तौर पर दूसरे जगह शिफ्ट हो चुके और दो जगह पर रजिस्टर्ड मतदाताओं की पहचान भी BLO करेगा।

रविवार, 26 अक्टूबर 2025

दिल्ली में कानून-व्यवस्था पूरी तरह फेल, अपराधियों के हौसले बुलंद, भाजपा सरकार सो रही है: सरदार बलविंदर सिंह

संवाददाता

नई दिल्ली। दिल्ली में अपराधों का ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा है। महिलाओं, बुजुर्गों और युवाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों ने राजधानी की कानून-व्यवस्था की पोल खोल दी है। चोरी, लूट, हत्या, बलात्कार और नशे के व्यापार जैसे अपराधों में बढ़ोत्तरी ने दिल्ली की जनता को असुरक्षित महसूस करने पर मजबूर कर दिया है। यह कहना है राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरदचन्द्र पवार) के दिल्ली प्रदेश उपाध्यक्ष सरदार बलविंदर सिंह का।

सरदार बलविंदर सिंह ने कहा कि दिल्ली की कानून-व्यवस्था पूरी तरह चरमरा चुकी है। अपराधियों के हौसले इतने बुलंद हैं कि वे दिनदहाड़े वारदातों को अंजाम दे रहे हैं और पुलिस व सरकार मूकदर्शक बनी बैठी है।

उन्होंने कहा कि भाजपा सरकार सिर्फ धर्म और नफरत की राजनीति करने में व्यस्त है, जबकि आम नागरिक की सुरक्षा उनके एजेंडे में कहीं नहीं है। दिल्ली में बढ़ते अपराध यह साबित करते हैं कि बीजेपी ने राजधानी को अपराधियों के हवाले छोड़ दिया है।

बलविंदर सिंह ने आगे कहा कि अगर यही हालात रहे, तो आने वाले चुनावों में जनता भाजपा को जवाब देगी। दिल्ली को सुरक्षित और सम्मानजनक माहौल देने के लिए अब बदलाव जरूरी है।

उन्होंने दिल्ली पुलिस और गृह मंत्रालय से भी मांग की कि अपराधों पर सख्त कार्रवाई की जाए, पुलिस बल को राजनीतिक दबाव से मुक्त किया जाए और महिलाओं व बच्चों की सुरक्षा के लिए विशेष अभियान चलाया जाए।

शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

कायस्थ राजवंशो का ऐतिहासिक गौरव

विवेक रंजन श्रीवास्तव

भारतीय समाज में हमेशा कायस्थ समुदाय का एक विशिष्ट और महत्वपूर्ण स्थान  रहा है। परंपरागत रूप से लेखन, प्रशासन और राजकीय कार्यों से जुड़े इस समुदाय ने न केवल प्रशासकों और मंत्रियों के रूप में बल्कि स्वतंत्र शासकों और राजवंशों के रूप में भी भारतीय इतिहास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। राजा टोडरमल अकबर के प्रमुख दरबारी थे । कायस्थ राजवंशों के ऐतिहासिक योगदान, उनके शासन क्षेत्रों और वर्तमान परिदृश्य में उनकी स्थिति का विश्लेषण इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

कायस्थ समुदाय की उत्पत्ति के बारे में विभिन्न मत हैं। पौराणिक परंपरा के अनुसार, कायस्थ चित्रगुप्त के वंशज माने जाते हैं। पद्म पुराण में उल्लेख है कि चित्रगुप्त जी के दो विवाह हुए और उनके कुल बारह पुत्र हुए, जिनसे कायस्थों की विभिन्न उपशाखाएं विकसित हुईं। इतिहासकारों के अनुसार, गुप्त काल से पूर्व ही बंगाल में कायस्थ पद की स्थापना हो चुकी थी। 

बंगाल में कायस्थ समुदाय का इतिहास विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। मुस्लिम विजय के पश्चात, बंगाली कायस्थों ने क्षेत्र के पुराने हिंदू शासक वंशों सेन, पाल, चंद्र और वर्मन राजवंशों का प्रतिनिधित्व किया। इस प्रकार वे बंगाल के सरोगेट शासक योद्धा बन गए। बंगाली कायस्थ कई कुलों में विभाजित थे, जिनमें कुलीन कायस्थ उच्च श्रेणी के  थे। पारंपरिक कथाओं के अनुसार,  बोस, घोष, मित्रा, गुहा और दत्ता पांच प्रमुख बंगाली कायस्थ उप जातियां थे। गौड़ कायस्थों में नंदी, पाल, इंद्र, कर, भद्र, धर, ऐच, सुर, दाम, बर्धन, शील, चाकी और आध्य जैसे प्रमुख कुल शामिल थे।

ऐतिहासिक अभिलेखों में उल्लेख है कि गौड़ कायस्थों में महाभारत काल के भागदत्त और कलिंग के रुद्रदत्त जैसे राजा हुए थे। 

मध्यकाल में बंगाल के विभिन्न क्षेत्रों में कायस्थ परिवारों ने स्थानीय शासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन परिवारों ने न केवल राजनीतिक सत्ता का प्रयोग किया बल्कि बंगाल की सांस्कृतिक और बौद्धिक परंपराओं को भी समृद्ध किया। बंगाली कायस्थों का योगदान केवल राजनीति तक सीमित नहीं था, बल्कि वे साहित्य, कला और शिक्षा के क्षेत्र में भी सदैव अग्रणी बने रहे।

दक्षिण भारत में, विशेष रूप से आंध्र प्रदेश में, कायस्थ राजवंश ने तेरहवीं शताब्दी में शासन किया। यद्यपि वे नाममात्र रूप से काकतीय राजवंश के अधीन थे, किंतु व्यावहारिक रूप से वे स्वतंत्र शासक थे। कायस्थ राजवंश ने आंध्र में पनुगल से मार्जवाड़ी तक विशाल क्षेत्र पर शासन किया, जिसकी राजधानियां वल्लूर और गांडिकोटा थीं। इस राजवंश में चार शासक हुए, जो सभी महान योद्धा और प्रशासक के रूप में विख्यात थे। गांडिकोटा का किला आज भी उनकी स्थापत्य कला और सैन्य दक्षता का प्रमाण है। यह किला अपनी सुरक्षा व्यवस्था और रणनीतिक स्थिति के लिए प्रसिद्ध था और कायस्थ राजाओं की सैन्य कुशलता को प्रदर्शित करता है।

उत्तर भारत में चित्रगुप्तवंशी कायस्थों की विभिन्न शाखाएं थीं जिनमें अंभिष्ट, अस्थाना, बाल्मीक, भटनागर इत्यादि  थीं। ग्यारहवीं शताब्दी के बाद के शिलालेखों में विभिन्न क्षेत्रीय वंशों का उल्लेख मिलता है जो उत्तर भारतीय कायस्थों की शाखाओं से संबंधित थे। इन वंशों को उनकी सामान्य व्यावसायिक विशेषज्ञता के साथ पहचाना जाता था और जिनके सदस्य मध्यकालीन राज्यों के प्रशासन में विशेष रूप से प्रभावशाली हो गए थे। कुछ कायस्थों ने  सैन्य कमांडरों और क्षेत्रीय शासकों के रूप में भी पद संभाले। उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों में कायस्थ मंत्रियों, सेनापतियों और सलाहकारों के रूप में राजदरबारों में महत्वपूर्ण स्थान थे।

कायस्थों ने केवल राजनीतिक शासन ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और प्रशासनिक क्षेत्रों में भी अद्वितीय योगदान दिया। चित्रगुप्तवंशी कायस्थ और बंगाली कायस्थ पारंपरिक रूप से प्रारंभिक मध्ययुगीन राज्यों में हिंदू राजाओं के लिए प्रशंसा भाषण और स्तोत्र लिखने के लिए जिम्मेदार थे, जिन्हें प्रशस्ति के रूप में जाना जाता है। वे वित्तमंत्री, सेनाध्यक्ष और शासक के सलाहकार के रूप में नियुक्त किए जाते थे। उनकी लेखन कला, भाषा ज्ञान और प्रशासनिक कौशल ने उन्हें राजदरबारों में अपरिहार्य बना दिया था। कायस्थों ने राजकीय अभिलेखों का रखरखाव, राजस्व प्रबंधन और न्यायिक कार्यों में भी लगातार महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

ब्रिटिश शासन के दौरान, बंगाली कायस्थों और बंगाली ब्राह्मणों ने उच्च शिक्षा और सरकारी सेवाओं में महत्वपूर्ण प्रगति की। उनकी पारंपरिक लेखन और प्रशासनिक कुशलता ने उन्हें औपनिवेशिक प्रशासन में महत्वपूर्ण पद दिलाने में मदद की। इस दौरान कायस्थ समुदाय ने शिक्षा, साहित्य, कला और राजनीति में बहुत अग्रणी भूमिका निभाई। अंग्रेजी शिक्षा को अपनाने में कायस्थ समुदाय अग्रणी रहा और इसने उन्हें आधुनिक व्यवसायों और सेवाओं में प्रवेश का अवसर प्रदान किया। बंगाल में नवजागरण काल में भी कायस्थ समुदाय के कई विद्वानों, लेखकों और सुधारकों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया।

आधुनिक भारत में कायस्थ समुदाय एक उच्च शिक्षित और सामाजिक ,आर्थिक रूप से प्रगतिशील समुदाय के रूप में स्थापित है। शिक्षा, प्रशासन, व्यापार, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, कानून और कला के क्षेत्र में कायस्थ समुदाय के सदस्यों ने उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है। ऐतिहासिक रूप से लेखन और प्रशासन से जुड़े होने के कारण, समुदाय ने आधुनिक शिक्षा को शीघ्रता से अपनाया और विभिन्न व्यावसायिक क्षेत्रों में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज की। आज भारतीय नौकरशाही, न्यायपालिका, शिक्षा जगत और व्यावसायिक क्षेत्रों में कायस्थ समुदाय का महत्वपूर्ण प्रतिनिधित्व है।

वर्तमान में कायस्थ समुदाय भारतीय राजनीति में सक्रिय भागीदारी रखता है। विभिन्न राज्यों में कायस्थ नेता महत्वपूर्ण राजनीतिक पदों पर आसीन हैं। हालांकि, परंपरागत शाही परिवारों की तरह राजवंशीय शासन की प्रणाली अब विद्यमान नहीं है, फिर भी कुछ पुराने कायस्थ राजपरिवारों के वंशज अभी भी सामाजिक और सांस्कृतिक प्रतिष्ठा बनाए हुए हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में कायस्थ समुदाय ने अपनी पारंपरिक प्रशासनिक कुशलता और शिक्षा के प्रति लगाव को बनाए रखते हुए राष्ट्र निर्माण में योगदान दिया है।

कायस्थ समुदाय अपनी सांस्कृतिक विरासत और परंपराओं को संरक्षित करने के लिए सक्रिय रहा है। चित्रगुप्त पूजा, जो कायस्थों का प्रमुख त्योहार है, आज भी बड़ी श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया जाता है। विभिन्न कायस्थ सभाओं और संगठनों ने समुदाय के इतिहास, संस्कृति और योगदान को दस्तावेजित करने और प्रचारित करने के प्रयास किए हैं। समुदाय ने शैक्षणिक संस्थानों, अस्पतालों और सामाजिक कल्याण संगठनों की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। कायस्थ पाठशाला, विभिन्न ट्रस्ट और फाउंडेशन समाज के विकास में सक्रिय हैं। ये संस्थाएं न केवल समुदाय के सदस्यों की सहायता करती हैं बल्कि व्यापक समाज के कल्याण में भी योगदान देती हैं।

आधुनिक भारत में कायस्थ समुदाय भी पारंपरिक पहचान और आधुनिक व्यावसायिकता के बीच संतुलन बनाने का प्रयास कर रहा है। युवा पीढ़ी में वैश्विक दृष्टिकोण और व्यापक सामाजिक एकीकरण की प्रवृत्ति बढ़ रही है। साथ ही, समुदाय अपनी ऐतिहासिक विरासत को भुलाए बिना समकालीन भारतीय समाज में अपनी भूमिका को पुनर्परिभाषित कर रहा है। शिक्षा, विज्ञान, प्रौद्योगिकी और उद्यमिता के क्षेत्रों में कायस्थ युवा पीढ़ी नए आयाम स्थापित कर रही है।

कायस्थ समुदाय का इतिहास भारतीय इतिहास का एक समृद्ध अध्याय है। प्राचीन काल में महाभारत के योद्धाओं से लेकर मध्यकाल में बंगाल, आंध्र और उत्तर भारत के शासकों तक, कायस्थों ने राजनीतिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में अपनी अमिट छाप छोड़ी है। यद्यपि पारंपरिक राजवंशीय शासन अब इतिहास का हिस्सा बन गया है, किंतु कायस्थ समुदाय ने आधुनिक लोकतांत्रिक भारत में भी शिक्षा, व्यवसाय, प्रशासन और राजनीति में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति बनाए रखी है।

चंद्रसेनीय कायस्थ प्रभु (CKP) (महाराष्ट्र और गुजरात) अर्थात पश्चिमी भारत में शासन और प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। यह उपजाति आज भी मुख्य रूप से महाराष्ट्र और गुजरात में प्रशासनिक और पेशेवर क्षेत्रों में महत्वपूर्ण स्थान रखती है।

कुछ स्रोतों में सातवाहन और परिहार कायस्थ राजवंशों का उल्लेख है, जो मध्य भारत में सत्ता में रहे थे। मंडला के गौंड राजाओं ने दीवानी कार्यों के लिए हमारे कायस्थ परिवार को उत्तरप्रदेश से मंडला बुलवाया था , वहां हमारा घर आज भी "महलात" कहलाता है। भोपाल रियासत में भी कायस्थ  बड़े बड़े ओहदों पर रहे हैं। एतमातदोला राजा छक्कू लाल नसरते जंग रियासत के वजीर थे। आखिरी राजा सर अवध नारायण जी रियासत भोपाल के वज़ीर थे उन्होंने  ही रियासत के भारत गणराज्य में शामिल होने के इकरार नामे पर दस्तखत किए थे । आज भी उनका परिवार भोपाल में उनकी कोठी में रहता है । भोपाल में गिन्नौरी की बगिया राजा छक्कू लाल  के समय की आज भी मौजूद है।

वर्तमान में, समुदाय की चुनौती यह है कि वह अपनी गौरवशाली विरासत को संरक्षित करते हुए भी समकालीन भारत के बहुलवादी और समावेशी समाज में सक्रिय योगदान दे। कायस्थ समुदाय की यात्रा प्राचीन शासकों से आधुनिक पेशेवरों तक, परिवर्तन और निरंतरता दोनों की कहानी है, जो भारतीय सभ्यता की गतिशीलता और लचीलेपन को दर्शाती है। इस समुदाय का इतिहास यह सिखाता है कि परंपरा और आधुनिकता के बीच सामंजस्य स्थापित करना संभव है और एक समुदाय अपनी विशिष्ट पहचान बनाए रखते हुए भी राष्ट्रीय मुख्यधारा का अभिन्न अंग बन सकता है।

कायस्थ राजवंशों का इतिहास व्यापक और जटिल है, किन्तु कायस्थ जहां भी रहे हैं सदैव प्रभावी बने रहे। (विनायक फीचर्स)

8 हजार फीट ऊंचे शिखर पर 108 फीट के हनुमान

संजीव शर्मा

हिमाचल प्रदेश में ‘क्वीन ऑफ हिल्स’ शिमला के सबसे लोकप्रिय स्थान मॉल रोड पहुंचते ही दूर पर्वत की चोटी पर विराजमान पवनपुत्र हनुमान जी की प्रतिमा बरबस ही सभी का ध्यान खींच लेती है। इस प्रतिमा और बादलों की आंख मिचौली से शिमला के बदलते मौसम का अंदाजा भी लगता रहता है क्योंकि कभी यह प्रतिमा बादलों में छिपकर अदृश्य हो जाती है तो कभी सूर्य की किरणें को आत्मसात कर दिव्यता से चमकने लगती है। 

यह प्रतिमा इस तरीके से स्थापित की गई है कि मॉल रोड से लेकर इसके आसपास के कई इलाकों से आप हनुमान जी के दर्शन कर सकते हैं और अब यह मॉल रोड के एक प्रमुख आकर्षणों में से एक है।

इस पहाड़ को जाखू हिल्स और हनुमान जी को ‘शिमला के रक्षक’ कहा जाता है। आख़िर, हनुमान चालीसा में ऐसे ही थोड़ी लिखा गया है..’तुम रक्षक काहू को डरना।’

जाखू वाले हनुमान जी केवल एक मंदिर या पर्यटन स्थल नहीं है बल्कि यहां की गाथा रामायण काल से जुड़ी है और यह अकाट्य आस्था का स्थान है। शिमला की ऊंची चोटियों के बीच, समुद्र तल से लगभग 8 हजार फीट की ऊँचाई पर स्थित यह जाखू मंदिर आस्था, प्रकृति और रोमांच का एक अद्भुत संगम है एवं शिमला के 'ताज' से कम नहीं  है।

मंदिर में लगे शिलालेख के अनुसार, ऐसी मान्यता है कि लंका विजय के दौरान युद्ध में मेघनाथ द्वारा शक्ति बाण चलाने से मूर्छित लक्ष्मण को बचाने के लिए जब हनुमान आकाश मार्ग से संजीवनी बूटी लेने के लिए हिमालय की और जा रहे थे तो अचानक उनकी दृष्टि जाखू पर्वत पर तपस्या में लीन यक्ष ऋषि पर पड़ी। 

संजीवनी बूटी का परिचय जानने के लिए हनुमान जी यहां पर उतर गए।  बताया जाता है कि उनके वेग से जाखू पर्वत जो पहले काफी ऊँचा था, आधा पृथ्वी के गर्भ में समा गया। बूटी का परिचय प्राप्त करने के उपरान्त हनुमान  द्रोण पर्वत की और चले गए। जाखू पर्वत पर जिस स्थान पर हनुमान जी उतरे थे वहां पर आज भी उनके चरण चिन्हों को संगमरमर से निर्मित करके सुरक्षित रखा गया है। 

हनुमान ने ऋषि यक्ष को वापसी में इसी स्थान पर उनसे मिलते हुए लौटने का वचन दिया था। परन्तु यात्रा के दौरान हनुमान को मार्ग में कालनेमी राक्षस के कुचक्र सहित कई बाधाओं को पार करना पड़ा और समय अधिक लग गया। तब हनुमान समय पर संजीवनी बूटी लक्ष्मण तक पहुंचाने के लिए इस रास्ते की बजाए दूसरे छोटे मार्ग से अयोध्या होते हुए लंका चले गए। जाखू हिल्स पर अन्न जल त्यागकर हनुमान की प्रतीक्षा कर रहे ऋषि यक्ष की व्याकुलता बढ़ने लगी। उनकी व्याकुलता देख हनुमान जी ने ऋषि को दर्शन दिए और न आने का कारण बताया। उनके अंतर्ध्यान होने के तुरन्त बाद यहां बजरंग बली की एक स्वयंभू मूर्ति प्रकट हुई जो आज भी मन्दिर में पूजी जाती है। 

यक्ष ऋषि ने ही हनुमान जी के यहां ठहराव की स्मृति में इस मन्दिर का निर्माण किया। ऋषि 'यक्ष' के नाम पर ही पर्वत का नाम पहले 'यक्ष' था, जो समय के साथ बदलते हुए 'याक', फिर 'याखू' और अंत में 'जाखू' बन गया।

जाखू मंदिर का अब सबसे बड़ा आकर्षण यहाँ स्थापित हनुमान जी की 108 फीट ऊँची सिंदूरी प्रतिमा है । वर्ष 2010 में स्थापित यह मूर्ति इतनी विशाल है कि इसे शिमला के लगभग हर कोने से देखा जा सकता है। यह प्रतिमा शहर की पहचान बन चुकी है और इसे 'प्राइड ऑफ शिमला' भी कहा जाता है। अब यहां विशाल ध्वज भी स्थापित कर दिया गया है।

जाखू मंदिर तक पहुँचना भी अपने आप में एक रोमांचक अनुभव है। पर्यटक मॉल रोड के रिज मैदान से जाखू मंदिर तक पहुँचने के लिए पैदल या टैक्सी का उपयोग कर सकते हैं। पैदल रास्ता घने देवदार के जंगल से होकर गुज़रता है, जो ट्रेकिंग प्रेमियों के लिए स्वर्ग जैसा है। वहीं संकरे पहाड़ी कच्चे-पक्के मार्ग पर टैक्सी की सवारी भी किसी रोमांच से कम नहीं है। वहीं, जो पर्यटक खड़ी चढ़ाई से बचना चाहते हैं उनके लिए जाखू रोपवे एक बेहतरीन विकल्प है। 

रिज मैदान से शुरू होकर यह रोपवे कुछ ही मिनटों में सीधे मंदिर परिसर तक पहुँचा देता है, साथ ही शिमला शहर के मनमोहक नज़ारे भी दिखाता है। जाखू पहाड़ी की चोटी से शिमला शहर, आसपास की चोटियों और घाटियों का मनोरम और विहंगम दृश्य देखने को मिलता है। यहाँ से सूर्योदय और सूर्यास्त का नज़ारा देखना एक अविस्मरणीय अनुभव है। 

कुल मिलाकर जाखू मंदिर केवल पत्थर और मूर्तियों का ढांचा नहीं है, बल्कि यह वह सिद्ध स्थान है जहाँ देवत्व और प्रकृति का मिलन होता है इसलिए शिमला की यात्रा जाखू हनुमान के दर्शन के बिना अधूरी मानी जाती है। (विनायक फीचर्स)

लेखक संजीव शर्मा

शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2025

क्या आपका भी नामांकन रद्द हुआ है, जाने क्यों हो जाते हैं नामांकन रद्द

क्या आप चुनाव में नामांकन भरने जा रहे हैं तो ध्यान रखें इन बातों को नहीं तो नामांकन हो सकता है रद्द


नई दिल्ली। मौजूदा समय में बिहार में विधानसभा चुनाव की बिगुल बज रही है और उम्मीदवार अपने नामांकन भी कर चुके हैं और कुछ करने वाले हैं। मगर चुनाव आयोग ने कई उम्मीदवारों के नामांकन रद्द कर दिए गए हैं। चुनाव आयोग की जांच में इनके दस्तावेज में कई बड़ी गलतियां पाई गईं। बिहार में मोहनिया विधानसभा क्षेत्र से महागठबंधन की उम्मीदवार श्वेता सुमन, सुगौली विधानसभा सीट से राजद विधायक शशि भूषण सिंह, लोजपा आर की छपरा मढौरा सीट से प्रत्याशी सीमा सिंह समेत अन्य उम्मीदवारों का नामांकन रद्द हो चुका है।

आइए जानते हैं आखिर किन वजहों से उम्मीदवारों का नामांकन रद्द हो जाता है...

1. उम्मीदवार किसी कारण से अयोग्य घोषित किया गया है।
2. नामांकन पत्र या जरूरी दस्तावेज समय पर जमा नहीं किए गए।
3. नामांकन पत्र उम्मीदवार या प्रस्तावक की जगह किसी और ने जमा किया।
4. नामांकन पत्र पर उम्मीदवार या प्रस्तावक के हस्ताक्षर का मिलान नहीं हो पाना।
5. नामांकन के लिए प्रस्तावकों की संख्या पूरी नहीं है।
6. उम्मीदवार उस वर्ग से नहीं है जिसके लिए सीट आरक्षित है।
7. प्रस्तावक उस विधानसभा क्षेत्र का मतदाता नहीं है।
8. उम्मीदवार ने नामांकन के साथ निर्धारित प्रारूप में हलफनामा नहीं दिया।
9. हलफनामे में कॉलम खाली छोड़े गए और नोटिस के बाद भी नया हलफनामा नहीं दिया।
10. उम्मीदवार उस क्षेत्र का मतदाता नहीं है।
11. उम्मीदवार ने अपने नाम वाली मतदाता सूची की प्रमाणित प्रति या अंश नहीं लगाया

क्या नामांकन रद्द होने के बाद उम्‍मीदवारी बहाल की जा सकती है?
चुनाव आयोग के नियमों के अनुसार, एक बार नामांकन रद्द हो जाने पर, उम्मीदवार की उम्मीदवारी को तुरंत बहाल नहीं किया जा सकता है। लेकिन, ऐसे में उम्मीदवार के पास दो कानूनी विकल्प मौजूद होते हैं। पहला विकल्प है पुनर्विचार याचिका दायर करना। इस याचिका के माध्यम से उम्मीदवार चुनाव आयोग के सामने यह साबित करने की कोशिश कर सकता है कि उसका नामांकन रद्द करने की प्रक्रिया में कोई गलती हुई थी या यह अनुचित था। यदि चुनाव आयोग को लगता है कि यह गलती मामूली थी, तो वह अपने फैसले की समीक्षा कर सकता है।

गाय, गोविंद और गौशाला : संस्कृति से समृद्धि की ओर मध्यप्रदेश की ‘गौ कथा’

पवन वर्मा


भारत की सभ्यता की जड़ें केवल मिट्टी में नहीं, बल्कि उस चेतना में हैं जो करुणा, सहअस्तित्व और संवेदनशीलता को जीवन का सार मानती है। उस चेतना का सबसे जीवंत प्रतीक गाय है। जो केवल एक पशु नहीं, बल्कि भारतीय मन, माटी और धर्म का नितांत अभिन्न अंग है। वह खेतों की हरियाली में, लोकगीतों की धुन में, और हमारे उत्सवों के उल्लास में बराबरी से सहभागी रही है। उसे ‘माता’ कहा गया, और यह केवल श्रद्धा नहीं थी। यह उस संबंध की अभिव्यक्ति थी जो जीवन, प्रकृति और मानव के बीच संतुलन को सबसे स्वाभाविक रूप में दिखाता है। वैदिक दृष्टि और सांस्कृतिक सभ्यता ऋग्वेद का मंत्र “गावो विश्वस्य मातरः” केवल धार्मिक उद्घोष नहीं, बल्कि सहअस्तित्व की सर्वोच्च घोषणा है। गाय को ‘विश्वमाता’ कहना यह मानना है कि पोषण और करुणा, धर्म और जीवन, एक-दूसरे से विलग नहीं। भारतीय चिंतन में गाय वह माध्यम रही जिससे ग्रामीण समाज में आत्मनिर्भरता आती है, खेत उपजाऊ बनते हैं और परिवार समृद्ध होता है। महाभारत में कहा गया है- “गावः सर्वसुखप्रदाः,” अर्थात गायें समस्त सुख देनेवाली हैं। यह सुख केवल भौतिक नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक भी है। गोपालन, केवल दुग्ध उत्पादन का साधन नहीं, बल्कि एक जीवन-दर्शन है। जिसमें त्याग, सेवा और संतुलन का भाव निहित है।  मध्यप्रदेश इस दृष्टि से भारत का एक जीवित उदाहरण है। जहाँ परंपरा, नीति और ग्रामीण जीवन एक-दूसरे में रचे-बसे हैं। नर्मदा की पवित्रता, मालवा की मिट्टी की सुगंध और बुंदेलखंड के लोकगीतों में ‘गोविंद’ और ‘गौ’ की भावना सहज रूप में प्रकट होती है। यहाँ की संस्कृति में गोपालन केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि अस्तित्व का हिस्सा रहा है। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की सरकार ने इस परंपरा को केवल धार्मिक आयोजन के सीमित दायरे से निकालकर नीति की मुख्यधारा में स्थापित किया है। उन्होंने गाय को न केवल श्रद्धा का विषय माना, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था के स्थायी स्तंभ के रूप में देखा। ‘गौशाला विकास’, ‘गोवर्धन पूजा’ और ‘गोपालन संवर्धन’ जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से यह दृष्टि क्रियान्वित होती दिख रही है।

परंपरा से नीति तक की यात्रा - जहाँ पहले गोवर्धन पूजा केवल घर-आँगन का धर्मिक उत्सव थी, वहीं अब यह मध्यप्रदेश में सामूहिक संकल्प का प्रतीक बन चुकी है। 21 और 22 अक्टूबर, 2025 को राज्यभर में जिस भव्यता से यह पर्व मनाया गया, उसने यह संदेश दिया कि शासन और संस्कृति के बीच कोई विभाजन रेखा नहीं रहनी चाहिए। मुख्यमंत्री डॉ. यादव ने इस पर्व को राज्यव्यापी स्वरूप देते हुए ‘गौशाला’ को ग्रामीण अर्थव्यवस्था का केंद्र घोषित किया। यह कदम प्रशासनिक दृष्टि से उतना ही दूरदर्शी है जितना सांस्कृतिक रूप से गहरे अर्थों वाला। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि गाय अब केवल पूजा की मूर्ति नहीं, बल्कि ग्रामीण स्वावलंबन, पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास की धुरी है।

नई ग्रामीण अर्थव्यवस्था का केंद्र - आज मध्यप्रदेश की गौशालाएँ केवल आश्रय स्थल नहीं रहीं। वे ग्रामीण जीवन के आत्मनिर्भर मॉडल के रूप में विकसित हो रही हैं। गोबर और गौमूत्र आधारित जैविक खेती, वर्मी-कम्पोस्ट निर्माण, पंचगव्य उत्पादों तथा गोबर गैस संयंत्रों ने गाय को कृषि और उद्योग के संगम में पुनः प्रतिष्ठित किया है। यह परिवर्तन केवल आर्थिक नहीं, बल्कि दार्शनिक भी है, क्योंकि यह उस विचार का पुनर्जागरण है जिसमें प्रकृति का दोहन नहीं, उसका संवर्धन होता है। गौशालाएँ अब ग्रामीण जनजीवन की प्रयोगशालाएँ हैं, जहाँ सामाजिक आस्था, पर्यावरणीय संरक्षण और आजीविका का समन्वय एक साथ दिखाई देता है। महाभारत के अनुशासन पर्व में कहा गया है कि “गावः सर्वं प्राप्यते लोके”, अर्थात गाय से संसार के सभी श्रेष्ठ लाभ प्राप्त होते हैं। यह आज के संदर्भ में और भी प्रासंगिक है। जैविक खेती को बढ़ावा देने से लेकर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने तक, गाय आधुनिक पारिस्थितिकी का अभिन्न हिस्सा बन चुकी है।

गोवर्धन पूजा का सामाजिक रूपांतरण - गोवर्धन पूजा अब केवल धार्मिक विधि नहीं रही। यह अब ‘नीति और लोक’ के संगम का अवसर बन चुकी है। जब प्रशासन, समाज और संस्कृति एक साथ किसी पर्व को मनाते हैं, तब वह अनुष्ठान से आगे बढ़कर नीतिगत उद्घोषणा बन जाता है। राज्य के प्रत्येक जिले, गाँव और पंचायत स्तर पर आयोजित गोवर्धन पर्व में जब अधिकारी, किसान, महिलाएँ और विद्यार्थी एक मंच पर आए, तो यह सामाजिक साझेदारी की अनूठी मिसाल बनी। यह आयोजन एक प्रकार से ‘सांस्कृतिक जननीति’ का उदाहरण है, जो विश्वास दिलाता है कि धर्म और विकास विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं। 

पर्यावरण और आत्मनिर्भरता की नयी दिशा - ‘गोपालन संवर्धन योजना’ के तहत पंचगव्य आधारित उद्योग और जैविक उत्पादों के निर्माण ने गाँवों में नए अवसर खोले हैं। गोबर से ऊर्जा, खाद और औषधि का निर्माण ग्रामीण भारत की उस परंपरा का पुनर्जीवन है जो आत्मनिर्भरता और सतत जीवनशैली पर आधारित थी।मध्यप्रदेश में अब कई गौशालाओं ने गोबर गैस संयंत्रों के ज़रिए न केवल ऊर्जा संकट को घटाया है, बल्कि स्थानीय स्तर पर बिजली और ईंधन का भी उत्पादन प्रारंभ किया है। इससे पर्यावरण प्रदूषण घटा है और ग्रामीण समुदायों की आर्थिक बचत भी हुई है। यही वह दृष्टिकोण है जिसमें ‘धर्म नीति बनता है और नीति धर्म का विस्तार करती है।’

शासन और संस्कृति का अभिन्न संबंध- इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब राज्य व्यवस्था अपने सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़ी रहती है, तब समाज की स्थिरता और विकास साथ-साथ चलते हैं। गाय का संरक्षण, केवल एक प्रशासनिक योजना नहीं, बल्कि ‘संवेदनशील शासन’ की पहचान है। मध्यप्रदेश की यह पहल राजनीतिक अर्थों में नहीं, बल्कि मानवीय संवेदना के धरातल पर खड़ी है। मुख्यमंत्री डॉ. यादव ने जिस प्रकार गौशालाओं को नीति के केंद्र में रखा, उसने यह सिद्ध किया कि विकास मात्र निर्माण नहीं, बल्कि सभ्यता की आत्मा की रक्षा भी है। अथर्ववेद का श्लोक  “गोभिः प्रजाः सुवृता भवन्ति” आज इसी नीति में साकार होता दिखता है। जब गाँवों में गाय की सेवा के माध्यम से जैविक खेती, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और सामाजिक सहभागिता बढ़ती है, तब यह श्लोक केवल प्रार्थना नहीं, बल्कि नीति का प्रत्यक्ष रूप बन जाता है।

भारतीयता की परम्परा - गाय की सेवा का अर्थ केवल दूध का संग्रह या धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि उस सोच का पुनर्पाठ है जो कहती है कि मनुष्य और प्रकृति प्रतियोगी नहीं, सहचर हैं। यह दर्शन भारतीयता का मूल है। हमारे यहाँ अर्थ और धर्म कभी एक-दूसरे के विरोधी नहीं रहे। आज, जब वैश्विक स्तर पर ‘सस्टेनेबिलिटी’ का विमर्श बढ़ रहा है, तब भारत की यह परंपरा आधुनिक विकास का आधार बन सकती है। गाय, गौशाला और गोवर्धन पूजा इस सोच का जीवंत उदाहरण हैं कि परंपरा केवल अतीत का बोझ नहीं, बल्कि भविष्य का मार्गदर्शन भी है। ग्रामीण पुनर्जागरण की ओर मध्यप्रदेश की ‘गौ कथा’ अब केवल संस्कृति की रक्षा नहीं, बल्कि ग्रामीण पुनर्जागरण का संग्राम बन चुकी है। आज गाँवों में नयी पीढ़ी समझ रही है कि गोबर सिर्फ अपशिष्ट नहीं, बल्कि संसाधन है। गौमूत्र औषधि का स्रोत है। गाय केवल खेत की सहचरी नहीं, बल्कि पर्यावरण की प्रहरी है। सरकार ने जब इन पहलों को आर्थिक प्रशिक्षण और अनुसंधान से जोड़ा, तब यह योजना आत्मनिर्भर भारत की भावना के अनुरूप बन गई। यह वही आत्मनिर्भरता है जिसके केंद्र में स्वदेशी, स्वावलंबन और स्वाभिमान तीनों समाहित हैं। 

धर्म और विकास का संगम - स्कन्दपुराण में कहा गया है- “गावो मां पातु सर्वतः,” अर्थात गाय मेरी सर्वत्र रक्षा करे। यह केवल धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि सामाजिक तंत्र का सूत्रवाक्य है, जो बताता है कि जो समाज गाय की रक्षा करता है, उसकी रक्षा स्वयं धर्म करता है। जब शासन इस सिद्धांत को अपनाता है, तो नीति में केवल आर्थिक लक्ष्य नहीं रहते, बल्कि लोककल्याण की भावना जुड़ जाती है। मध्यप्रदेश ने यह दर्शाया है कि धर्म और नीति, भावनाएँ और प्रशासन, परंपरा और तकनीकी नवाचार  सब साथ चल सकते हैं, यदि दृष्टि संवेदनशील और दिशा स्पष्ट हो

संस्कृति से समृद्धि - 21वीं सदी का भारत एक ऐसे दोराहे पर है जहाँ उसे विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाना है। मध्यप्रदेश का ‘गौशाला मॉडल’ इस चुनौती का भारतीय उत्तर प्रस्तुत करता है। यहाँ विकास, संस्कृति से पोषण लेता है और संस्कृति विकास से दिशा। जैविक खाद, पंचगव्य औषधियाँ, गोबर गैस संयंत्र और पशुधन आधारित उद्योग न केवल अर्थव्यवस्था को गति देते हैं, बल्कि प्रदूषण को भी घटाते हैं। यह आधुनिक अर्थशास्त्र का भारतीय संस्करण है  जो बताता है कि लाभ और लोककल्याण में संघर्ष नहीं, संगति संभव है।

संवेदनशील शासन की नई पहचान - मध्यप्रदेश की इस पहल ने यह भी सिद्ध किया है कि शासन केवल कानून लागू करने की प्रक्रिया नहीं, बल्कि जीवनमूल्यों को संरक्षित रखने की प्रक्रिया भी है। जब नीति करुणा और संस्कृति से संलिप्त होती है, तब वह ‘शासन’ नहीं, ‘सेवा’ बन जाती है। गोवर्धन पूजा का व्यापक आयोजन केवल प्रशासनिक दक्षता का उदाहरण नहीं, बल्कि उस भावनात्मक एकता का प्रतीक है जो समाज और सरकार को एक सूत्र में बांधती है। जब पंचायत स्तर पर अधिकारी स्वयं गोसेवा में भाग लेते हैं, तब यह कार्यक्रम धार्मिकता से आगे बढ़कर लोकनीति बन जाता है। 

गाय भारतीय जीवन का प्रतीक - “गावो धनं गावो मे जीवनं”  गोपालसहस्रनाम का यह श्लोक गाय की भूमिका को सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित करता है। गाय न केवल धन है, बल्कि जीवन का पर्याय है। गाँव की आत्मा उसके साथ बसती है। खेत की उपज, परिवार की आराधना और समाज की स्थिरता, तीनों उसकी उपस्थिति से आलोकित होती हैं।आज जब शहरी केंद्रों में जीवन उदासीनता और भौतिकता में उलझा है, तब मध्यप्रदेश का ग्रामीण भारत गाय के माध्यम से पुनः अपनी जड़ों से जुड़ता हुआ दिखता है। यह दृश्य केवल धार्मिक पुनर्जागरण नहीं, बल्कि सांस्कृतिक आत्मस्मरण का संकेत है।

नीति, संस्कृति और संवेदना का संगम - गाय, गोविंद और गौशाला। ये तीन शब्द केवल परंपरा का प्रतीक नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता की त्रिविध आत्मा हैं। इनका संगम यह सिखाता है कि विकास तब ही टिकाऊ हो सकता है जब वह संस्कृति से प्रेरित और समाज से जुड़ा हो।मध्यप्रदेश ने यह सिद्ध किया है कि धर्म और शासन का मेल किसी टकराव का नहीं, बल्कि सृजन का माध्यम है। यहाँ गोवर्धन पूजा, गौशाला विकास और गोपालन संवर्धन केवल कार्यक्रम नहीं, बल्कि नीति का वह रूप हैं जो “सस्टेनेबल डेवलपमेंट” को भारतीय आत्मा देता है। जब शासन संवेदनशील और दूरदर्शी होता है, तो वह केवल योजना नहीं बनाता,वह जीवन को गढ़ता है, संस्कृति की रक्षा करता है, और समाज को दिशा देता है। यही वह संदेश है जो गाय, गोविंद और गौशाला से निकलता है कि  संवेदनशील विकास ही सच्चा धर्म है, और धर्मसम्मत नीति ही सच्चा विकास है।  (विनायक फीचर्स)

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2025

अशोक पहलवान बने एनसीपी (एसपी) के नजफगढ़ के जिला अध्यक्ष


संवाददाता

नई दिल्ली। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरदचंद्र पवार) ने संगठन को मज़बूत बनाने और ज़मीनी स्तर पर कार्यों को गति देने की दिशा में एक अहम कदम उठाते हुए नजफगढ़ जिले के लिए जिला अध्यक्ष के रूप में अशोक पहलवान की नियुक्ति की घोषणा की। यह नियुक्ति 23 अक्टूबर 2025 से तत्काल प्रभाव से लागू होगी।

इस संबंध में प्रदेश संयोजक इंजीनियर डी. सी. कपिल द्वारा जारी नियुक्ति-पत्र में कहा गया है कि श्री अशोक पहलवान जी को उनके सामाजिक योगदान, संगठनात्मक अनुभव और जनसेवा के प्रति समर्पण को देखते हुए यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई है।

प्रदेश संयोजक डी.सी. कपिल ने कहा कि अशोक पहलवान जी लंबे समय से समाज और संगठन के लिए सक्रिय रूप से कार्य कर रहे हैं। उनके नेतृत्व में नजफगढ़ जिले में पार्टी की संगठनात्मक पकड़ और मजबूत होगी। हमें विश्वास है कि वे पार्टी की विचारधारा और नीतियों को जनता तक प्रभावी रूप से पहुंचाने का कार्य करेंगे।

डी.सी. कपिल ने साथ ही यह भी कहा कि पार्टी का लक्ष्य जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं को सशक्त बनाना और जनता के मुद्दों को मजबूती से उठाना है। अशोक पहलवान जी की नियुक्ति इसी दिशा में एक निर्णायक कदम है।

नवनियुक्त जिला अध्यक्ष अशोक पहलवान ने अपनी नियुक्ति पर आभार व्यक्त करते हुए कहा कि वे पार्टी नेतृत्व द्वारा जताए गए विश्वास पर खरा उतरने का पूरा प्रयास करेंगे। उन्होंने कहा कि वे क्षेत्र की जनता के हितों की रक्षा और संगठन के विस्तार के लिए समर्पित रहेंगे।

प्रदेश संयोजक इंजी. डी. सी. कपिल ने श्री अशोक पहलवान जी को नई जिम्मेदारी मिलने पर हार्दिक शुभकामनाएं दीं और उनके उज्जवल भविष्य की कामना की।

 






शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2025

कई साफ संकेत दे रहे हैं बिहार के चुनाव

अवधेश कुमार

बिहार विधानसभा चुनाव की घोषणा के पहले ही राजनीतिक दलों ने करो या मरो जैसा प्रश्न बनाने की राजनीति की है। राहुल गांधी ने‌ महीनों पहले से ही चुनाव आयोग पर भाजपा के पक्ष में काम करने का आरोप लगाना शुरू किया। उन्होंने डर पैदा किया कि महाराष्ट्र में चुनाव आयोग ने भाजपा को जीताने के लिए मतदाताओं के नाम हटाए और जोड़े तथा मतदान के दौरान आंकड़ों तक में हेरा फेरी की और यही बिहार में दोहराया जाएगा। बड़ी तैयारी से दो बड़ी पत्रकार वार्ताएं आयोजित हुई। स्वयं उन्होंने बिहार में वोटर अधिकार यात्रा निकाली। इन सबका एक उद्देश्य यह था कि किसी तरह बिहार के लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार और भाजपा तथा चुनाव आयोग के विरोध में आयें, विद्रोह करें, सड़कों पर उतरें और आगामी चुनाव में उसे पराजित किया जा सके। चुनाव आयोग द्वारा पूरे देश के लिए निर्धारित विशेष मतदाता परीक्षण अभियान या एस आई आर की शुरुआत बिहार से करने के कारण भी यह चुनाव शीर्ष राष्ट्रीय मुद्दा बना रहा। हालांकि अंतिम सूची में सारे आरोप धराशायी हुए,किंतु इसका एक परिणाम यह हुआ कि बिहार विधानसभा चुनाव पिछले चुनावों से इस मायने में काफी भिन्न हो गया है कि देश ही नहीं भारत में रुचि रखने वाले दुनिया की भी दृष्टि यहां लगी हुई है।

बिहार के जमीनी हालात स्पष्ट करते हैं कि राहुल गांधी ,कांग्रेस और अन्य पार्टियों के प्रचंड शोर के बावजूद धरातल पर तथाकथित वोट चोरी मुद्दा बिल्कुल नहीं है। पिछले दो वर्षों से ज्यादा समय से बिहार में यात्रा कर तीसरी शक्ति के रूप में खड़े होने की कोशिश कर रहे जन सुराज पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर ने इसका संज्ञान तक नहीं लिया। चुनाव प्रबंधक होने के कारण उन्हें मतदाता सूचियों, चुनाव की प्रवृत्तियों और परिणाम की अन्य अनेक नेताओं से ज्यादा अधिकृत जानकारी है। उनके एसआईआर के प्रति निरपेक्ष भाव का संदेश लोगों में यही गया कि राहुल गांधी , तेजस्वी यादव या गठबंधन के उनके अन्य साथी जानबूझकर चुनाव आयोग के साथ भाजपा के वरुद्ध लोगों के अंदर आक्रोश पैदा  करने की रणनीति पर चल रहे हैं। इस रणनीति का विपक्ष के लिए सबसे बड़ी क्षति हुई कि चुनाव पूर्व के एक महत्वपूर्ण काल में बिहार सरकार के विरुद्ध संभावित मुद्दे भी उभर नहीं सके।जो मुद्दे है नहीं उसे बड़े-बड़े झूठ के आधार पर आप आरोप लगाते हैं, उत्तेजना पैदा करते हैं तो आम लोगों में विरुद्ध प्रतिक्रिया होती है और जमीन पर आपकी विश्वसनीयता कमजोर होती है। बिहार में एसआईआर को लेकर लोगों के अंदर यही भाव है और इसका चुनाव पर भी न्यूनाधिक असर पड़ना है।  राजद और  तेजस्वी यादव को इसका भान हुआ तो उस यात्रा के बाद बिहार अधिकार यात्रा में निकले। नाम में अधिकार यात्रा शब्द रहा लेकिन वोटर की जगह बिहार आ गया। इसमें उन्होंने सामान्य मुद्दे अवश्य उठाएं। वोटर अधिकार यात्रा के बारे में राजद की प्रमुखता वाले गठबंधन के समर्थकों की टिप्पणी यही है कि जितनी ऊर्जा, संसाधन उसमें लगाए गए उससे वास्तव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को ही लाभ हुआ।

अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय वातावरण ने भी विधानसभा चुनाव को हमेशा प्रभावित किया है और बिहार में इसका असर दिख रहा है। कुछ समय से दुनिया ऐसे मोड़ पर है जहां भारत के हर व्यक्ति के अंदर राजनीतिक निर्णय को लेकर सतर्कता बढ़ीहै। नेपाल की हिंसक उथल-पुथल के बाद आयोजित होने के कारण बिहार चुनाव इससे बिल्कुल अप्रभावित नहीं हो सकता। उसके पूर्व बांग्लादेश तथा श्रीलंका और इसी तरह आंदोलन में भारत के अंदर ऐसे ही करने के साफ दिखते प्रयासों के कारण बहुत बड़े वर्ग को शांति, स्थिरता, विकास और सुरक्षा पर ज्यादा संवेदनशील बनाया है। ऑपरेशन सिंदूर और उसके बाद कुछ देशों के भारत विरोधी रवैये से राष्ट्रवाद का भाव ज्यादा प्रखर हुआ है। बिहार क्षेत्रवाद की सोच से राजनीतिक व्यवहार करने वाला राज्य नहीं रहा। पूरे देश में हिंदुत्व के आधार पर भाजपा का एक ठोस वोट बैंक बन चुका है और चुनावों में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वक्फ संशोधन कानून पर मुस्लिम संगठनों के साथ राजद, कांग्रेस आदि के खड़ा होने तथा मुस्लिम कट्टरपंथ की घटनाओं पर उनकी चुप्पी के विरुद्ध गैर मुसलमानों के बड़े वर्ग में प्रतिक्रिया है । कांग्रेस के कारण विपक्ष जहां एसआईआर में फंसा रहा वहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा और केंद्र सरकार ने ऑपरेशन सिंदूर से लेकर ,अपनी विदेश नीति, रक्षा नीति को लोगों तक पहुंचाने के अभियान चलाएं, प्रधानमंत्री ने लाल किले से लोगों को सीमा के साथ धार्मिक और नागरिक स्थलों की सुरक्षा के प्रति सचेत करते हुए सुदर्शन चक्र की योजना रखी,  सरकार जीएसटी में कटौती का बड़ा कर सुधार लेकर आ गई जिससे परिवारों को खर्चे में थोड़ी राहत मिल रही है। भाजपा इसे लेकर जनता के बीच गई जिसमें बिहार भी शामिल है। हालांकि भाजपा-जदयू और राजग केवल इन्हीं मुद्दों पर केंद्रित नहीं है। सच कहें तो विपक्ष के अभियान के समानांतर प्रधानमंत्री लगातार रेल, सड़क, हवाई अड्डा, अस्पताल, कॉलेज , स्कूल सहित आधारभूत संरचना एवं विकास परियोजनाओं का लोकार्पण व शिलान्यास करते रहे तो दूसरी ओर कई योजनाओं में महिलाओं, किसानों, मजदूरों आदि के खाते में सीधे रकम स्थानांतरित हुई। इनमें मुख्यमंत्री रोजगार योजना के तहत करीब 1 करोड़ महिलाओं के खाते में भेजे गए 10 हजार रुपए तथा रोजगार में निवेश करने के प्रमाण पर भविष्य में दो लाख देने के वायदे से भी वातावरण बनाया है। यह कितना उचित है अनुचित इस पर बहस हो सकती है किंतु महिलाओं के बड़े वर्ग का वोट इससे राजग की ओर आने की संभावना बढ़ गई है। इसी तरह जीविका दीदी ने भी राजग के पक्ष में महिलाओं का सुदृढ़ीकरण किया है।

बिहार में पिछले विधानसभा चुनाव के समय तेजस्वी यादव की जबरदस्त लोकप्रियता थी, किंतु उपमुख्यमंत्री बनने के बाद जबसे विपक्ष में आए हैं वैसे स्थिति बिल्कुल नहीं है। बार-बार पाला बदलने और बीच के काल में तिलमिलाहट भरे वक्तव्यों और व्यवहारों से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की छवि कमजोर हुई थी। एक बड़ा समूह उनसे छुटकारा भी चाहने लगा था। पिछले सात आठ महीना में स्थिति काफी बदली है। भाजपा की नीति इस समय दिल्ली तथा उसके पूर्व हरियाणा, महाराष्ट्र में मिली जीत को कायम रखने की है। इसलिए वह किसी किस्म का जोखिम नहीं लेना चाहती। नीतीश कुमार को लेकर भाजपा के स्वर पूरी तरह बदल गए। एक-एक नेता उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ने तथा पुनः उन्हें ही मुख्यमंत्री बनाए जाने का बयान दे रहे हैं। इसमें तेजस्वी यादव या अन्य नेताओं का यह कहना कि भाजपा चुनाव जीतने के बाद उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाएगी जनता के गले नहीं उतर रहा। प्रशांत किशोर ने लगातार अपनी यात्राओं , सभाओं और वक्तव्यों से बिहार से जुड़े अनेक आवश्यक, लोगों को स्पर्श करने वाली मुद्दे उठाए। इससे जन जागरण हुआ है। उन्होंने लालू यादव परिवार से लेकर भाजपा के प्रमुख नेताओं पर भी तीखे हमले किए हैं। बावजूद बिहार का वर्तमान राजनीतिक समीकरण बदल जाने की संभावना जमीन पर बिल्कुल नहीं दिखती है। मतदाताओं के सामने प्रश्न है कि केंद्र में नरेंद्र मोदी और प्रदेश में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार को कायम रखकर राजनीतिक स्थिरता ,सामाजिक न्याय, शांति, विकास, मुस्लिम कट्टरपंथ का सरकार द्वारा नियंत्रण और सुरक्षा के प्रति निश्चिंत रहें या कुछ स्थानीय मुद्दों के कारण उनके विरुद्ध जाएं? इस सोच में विपक्ष के पक्ष में बहुमत मत नहीं दे सकता।

बिहार में जातीय सामाजिक समीकरण को प्रमुख कारक माना जाता रहा है। किंतु बिहार में हमने 2005 , 2010, 2014 और 2019 में बहुत बड़ी संख्या में लोगों को जातीय सीमाओं से उठकर मतदान करते भी देखा है। वैसे अभी तक प्रदेश में नीतीश कुमार और केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले राजग के सामाजिक समीकरण में भी क्षरण के संकेत नहीं हैं तो दूसरी ओर राजग नेतृत्व वाले गठबंधन में नए प्रभावी सामाजिक वर्गों के जुड़ने का भी कोई प्रमाण नहीं। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पिछले चुनाव में चिराग पासवान की लोजपा का राजग से बाहर आकर 137 सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करने के परिणामस्वरूप राजद गठबंधन को समतुल्य मत प्रतिशत एवं सीटें प्राप्त हुईं । लोजपा गठबंधन में है तथा जीतन राम मांझी के हम एवं उपेंद्र कुशवाहा के लोकतांत्रिक मोर्चा के कारण शक्ति बढ़ी है। राजद नेतृत्व वाले गठबंधन में पशुपति पारस, विकासशील इंसान पार्टी और झारखंड मुक्ति मोर्चा इसकी भरपायी करेंगे ऐसा नहीं लगता।

गुरुवार, 16 अक्टूबर 2025

इस बार जलाएं एक दिया उम्मीदों का...

संजीव शर्मा

मोबाइल फोन में घुसकर ऑनलाइन लाइटिंग,सजावट का सामान और कपड़े तलाशने में समय बर्बाद करने की बजाए एक बार सपरिवार घर से बाहर निकलिए और सड़क पर दिए बेचती बूढ़ी अम्मा की आंखों में पलती उम्मीदों की रोशनी देखिए या फिर रंगोली के रंग फैलाए उस नहीं सी बालिका के चेहरे पर चढ़ते उतरते रंग महसूस कीजिए..क्या आप हम इस बार ऐसे ही किसी व्यक्तिया परिवार के घर में उम्मीदों का दिया नहीं जला सकते?

हमें करना ही क्या है…बस,इस बार स्थानीय और खासतौर पर पटरी पर बाज़ार सजाने वालों से खरीददारी करनी है और अपने बच्चों में भी यही आदत डालनी है। जाहिर सी बात है रोशनी, खुशहाली, समृद्धि और सामूहिकता का पर्व दीपावली क़रीब है। घर घर में सफाई,रंगाई पुताई और दीप पर्व से जुड़ी तैयारियों का दौर जारी है इसलिए सामान खरीदने का दौर भी शुरू हो गया है।

दीप पर्व केवल रोशनी और खुशियों का प्रतीक भर नहीं है, बल्कि यह सामुदायिक एकजुटता और आर्थिक सहयोग का भी अवसर है। इसलिए,इस दीवाली जब हम बाजारों में रंग-बिरंगे दीयों, मिठाइयों, और सजावटी सामानों की खरीदारी के लिए निकलें, तो अपनी आदत में क्यों न एक छोटा सा बदलाव लाएं ? इस बार, बिना मोलभाव के लोकल और पटरी विक्रेताओं से खरीदारी करें और त्योहार के असली मायने को और गहरा करें।

बिना मोलभाव के खरीदारी करना न केवल आपके त्योहार को खास बनाएगा, बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी मजबूत करेगा। पटरी बाजार के लिए हर बिक्री न केवल आजीविका का साधन है, बल्कि परिवार के पोषण, बच्चों की पढ़ाई, और त्योहार की तैयारी का आधार भी है। एक छोटे विक्रेता के लिए, 10-20 रुपये की कीमत कम करना भी उनके दिन के कुल मुनाफे को प्रभावित कर सकता है। दीवाली जैसे व्यस्त मौसम में, जब उनकी बिक्री साल भर की कमाई का बड़ा हिस्सा होती है, मोलभाव उनके लिए बोझ बन सकता है। बिना मोलभाव के खरीदारी करके आप उनकी मेहनत का सम्मान करते हैं और उन्हें त्योहार की असली खुशी देते हैं।

हम सात सौ रुपए का पिज़्ज़ा, दो सौ का बर्गर और तीन सौ रुपए की कॉफी बिना मोलभाव के खा पी लेते हैं लेकिन साल में एक बार मिट्टी के दर्जन भर दिए खरीदने के लिए मोलभाव में कोई कसर नहीं छोड़ते। हम मल्टीप्लेक्स में चार सौ रुपए का पॉपकॉर्न चुपचाप ले लेते हैं लेकिन कागज़ की झालर,तोरण और बिजली का लड़ी खरीदते समय इतना भाव ताव करते हैं जैसे अमेरिका चीन से कोई व्यापारिक समझौता कर रहे हों।

हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि देश में बढ़ती ऑनलाइन खरीदारी स्थानीय बाजारों मसलन किराना दुकानें, पटरी विक्रेता और छोटे रिटेलर पर गहरा प्रभाव डाल रही है। 2025 तक, ई-कॉमर्स बाजार का मूल्य लगभग 10 लाख करोड़ रुपये पहुंच चुका है, जो 2024 की तुलना में 14 प्रतिशत की वृद्धि दर्शाता है। एक अध्ययन के मुताबिक भारत का कुल रिटेल बाजार 2024 में लगभग 1.4 ट्रिलियन डॉलर का है, जिसमें ई-कॉमर्स का योगदान 8 फीसदी है और 2028 तक यह हिस्सेदारी बढ़कर 14 फीसदी हो जाएगी, जिससे ऑफलाइन रिटेल का शेयर 92 प्रतिशत से घटकर 86 फीसदी रह जाएगा।

हमारे मोबाइल में घुसकर खरीददारी करने और बढ़ती ऑनलाइन खरीदारी के कारण छोटे रिटेलरों की बिक्री में 15-20 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है । एक रिपोर्ट के अनुसार, 2022-2024 के बीच 1-2 लाख छोटे स्टोर्स बंद हो चुके हैं या डिजिटल प्लेटफॉर्म्स में बदल गए हैं। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि रिटेल सेक्टर भारत में 4 करोड़ से अधिक लोगों को रोजगार देता है। ई-कॉमर्स की वृद्धि से 5-7 लाख नौकरियां प्रभावित हुई हैं। इनमें मुख्य रूप से पटरी विक्रेताओं और छोटे दुकानदारों से जुड़ी नौकरी शामिल हैं।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी स्थानीय अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करते रहे हैं और इसे वे आत्मनिर्भरता का जरिया मानते थे। वैसे भी, लोकल और पटरी विक्रेता भारतीय बाजारों की रीढ़ हैं। ये वे लोग हैं जो सुबह जल्दी उठकर अपने स्टॉल सजाते हैं, मिट्टी के दीये बनाते हैं, हस्तनिर्मित सजावटी सामान तैयार करते हैं, और स्थानीय स्वाद वाली मिठाइयां बेचते हैं। इनके उत्पाद न केवल पर्यावरण के लिए बेहतर हैं, बल्कि ये हमारी सांस्कृतिक विरासत को भी जीवित रखते हैं। इन विक्रेताओं से खरीदारी करके आप हम न केवल स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करते हैं, बल्कि बड़े कॉरपोरेट्स पर निर्भरता को भी कम करते हैं।

आइए,इस दीवाली रोशनी के साथ-साथ अपने करीबी बाजार को भी रोशन करें। बिना मोलभाव के खरीदारी करें एवं त्योहार की असली खुशियों को फैलाकर सभी के लिए दीवाली शुभ बनाए और घर घर में जलाएं एक दिया उम्मीदों का। (विनायक फीचर्स)

त्यौहारी सीजन का मारा....एक बेचारा

व्यंग्य

सुधाकर आशावादी

कहने को समाज आजकल नारी पुरुष एक समान की नीति पर चल रहा है। अधिकारों के नाम पर श्रीमतियों की डिमांड अपने अपने श्रीमान जी से बढ़ती जा रही है। करवा चौथ पर्व पर जब श्रीमती जी ने श्रीमान जी के दीर्घायु होने की कामना में व्रत रखा, तो अपनी डिमांड की लम्बी फ़ेहरिस्त श्रीमान जी के हाथ में थमा दी। महंगी साड़ी के साथ महंगाई की ऊँची कूद लगाते स्वर्ण आभूषणों की डिमांड कर डाली। साथ ही धमकी भी दीं, कि चाहे जो मजबूरी हो, डिमांड श्रीमती जी की पूरी हो। श्रीमान जी मरते क्या न करते, श्रीमती जी की डिमांड पूरी करने के लिए बैंक के कर्जे की किश्त बढ़ाने के लिए विवश हो गए।

गृहस्थ जीवन में शांति पाठ का महत्व केवल श्रीमान जी ही जानते हैं, श्रीमती जी तो आपदा में अवसर ढूँढने की फिराक में ही रहती हैं, कि जैसे भी हो, त्यौहार के नाम पर कैकेयी बनकर कोप भवन में अनशन की धमकी देती रहे और श्रीमान जी को समझौता वार्ता के लिए विवश करती रहे। बहरहाल करवा चौथ के समापन के उपरांत श्रीमती जी यदि श्रीमान जी से प्राप्त उपहारों से संतुष्ट हों, तो बड़ी बात है, अन्यथा श्रीमान जी भले ही अपनी जेब का अतिक्रमण करके कितना ही महँगा उपहार श्रीमती जी की सेवा में प्रस्तुत कर दें । श्रीमती जी को प्रसन्न करना आसान काम नही होता। त्यौहारी सीजन आता तो है, मगर सामान्य श्रीमान जी के सम्मुख मुसीबतों का पहाड़ खड़ा करने में पीछे नहीं रहता। करवा चौथ के उपरांत धन तेरस भी श्रीमान जी की जेब पर क्रूर प्रहार करने से नहीं चूकता। श्रीमती जी की सुविधा प्राप्त करने वाली फ़ेहरिस्त का आकार प्रतिवर्ष बढ़ता ही जाता है। अब पीतल के बर्तनों की डिमांड नही होती। डायमंड के गहनों की डिमांड अधिक होती है। साइकिल आज भी कुछ श्रीमानों के लिए सपना होगी, किंतु सुविधा भोगी श्रीमतियों की नजर किसी दोपहिया पर नहीं पड़ती। सामान्य चौपहिया भी उन्हें आराम दायक नहीं लगते। चौपहिया में भी उन्हें ऊँचे कद और तेज गति से दौडऩे वाली गाडिय़ां ही पसंद आती हैं।

ऐसा नहीं है कि श्रीमती जी श्रीमान जी की जेब की सीमाएँ न जानती हो, किंतु श्रीमती जी अपने अड़ोस पड़ोस, अपनी सहेलियों और रिश्तेदारों की समृद्धि को कैसे पचाएँ जो भौतिक संसाधनों से घर के ड्रॉइंग रूम में महँगे झूमर की रोशनी से नहा रहे हों तथा श्रीमती जी की महत्वकांक्षा के परों को उड़ान भरने के लिए उकसा रहे हों। ख़ैर जो भी हो, भले ही व्यापार घाटे में जाए या श्रीमान जी की नौकरी छूट जाए? त्योहारी सीजन श्रीमतियों के लिए ख्वाहिश बुनने और उन्हें पूरा कराने के लिए एक अदद श्रीमान जी पर दवाब बनाने का सीजन ज़रूर बन जाता है। (विभूति फीचर्स)

धन तेरस के दिन यमराज के निमित्त घर के मुख्य द्वार पर सायंकाल दीपदान किया जाता है

धनतेरस पर विशेष

सोमेश्वर सिंह सोलंकी

हर त्यौहार समय के महत्व को प्रदर्शित करते हुये अपना एक विशेष स्थान रखता है। यह स्वत: एक ऐसा अवसर है जब इनमें विज्ञान की स्पष्ट झलक देखने को मिलती है। त्यौहार मनाना प्राचीन लकीर पर चलना अथवा अंध परंपरा है, ऐसा सोच इनके महत्व की अनभिज्ञता का द्योतक है। त्यौहार समाज में समरसता, भाईचारा एवं सौहार्द बढ़ाने हेतु मिलजुलकर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं।
यह खुशी का एक ऐसा अवसर है जो हमें उदासीनता का परित्याग करके सभी से गले मिलकर भेदभाव की नीति से दूर होकर लौकिक जीवन को सुखमय बनाने की ओर अग्रसर करता है। कार्तिक मास के शुभांकों में दीपावली का त्यौहार धनतेरस (त्रयोदशी) से प्रारंभ होकर नरक चतुर्दशी (रूपचौदस), दीपावली- अमावस्या (लक्ष्मी पूजन), तथा द्वितीय पक्ष (शुक्ल पक्ष) की प्रतिपदा (प्रथमा) को गोवर्धन पूजा एवं अन्नकूट का दिन, यम द्वितीया को भैय्या दूज को लेखनी पूजन के पश्चात इस त्यौहार का समापन माना जाता है। इन दिवसों में प्रत्येक दिन से धार्मिक आस्था जुड़ी हुई है। यह पर्व यमराज से संबंध रखता है और त्रयोदशी से अमावस्या तक तीन दिन सायंकाल ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदि देवताओं का पूजन कर दीपदान करने की परंपरा है। दीपदान के लिये गुप्त गृहों, रसोई व निवास स्थान, देव स्थान, वृक्षों के तले, जलाशयों, गौशाला, बगीचा-पार्क में तथा भवन की चारदीवारी के सभी प्रमुख स्थानों पर जलते दीप रखे जाते हैं और इससे हम आशा प्रकट करते हैं कि यमराज के पास जाने से मुक्ति मिले तथा श्री महालक्ष्मी सदैव हमारे घर पर अक्षय निवास करती रहे।
धन तेरस के दिन यमराज के निमित्त घर के मुख्य द्वार पर सायंकाल दीपदान किया जाता है। इसके साथ यह धारणा है कि असामायिक मृत्यु कदापि न हो। इसी दिन धनवंतरि भगवान की जयंती मनायी जाती है। इस पवित्र दिन व्रत करके सूर्यवंशी राजा दिलीप को कामधेनु (गौ) की पुत्री नंदिनी की सेवा से पुत्र की प्राप्ति हुई थी। आज के दिन मुख्य रूप से सौभाग्यवर्धन हेतु घर के टूटे-फूटे बर्तनों के बदले नवीन बर्तन क्रय किया जाना अत्यंत शुभ माना जाता है। धनतेरस के सूर्योदय से पूर्व यमुना में स्नान करने का महात्म्य माना गया है। पौराणिक कथानुसार धर्मराज यम की बहिन यमुना ने यम से वरदान प्राप्त किया था कि जो मुझ यमुना के जल में इस दिन स्नान करे उसे उनका (यम का) भय प्राप्त न हो। प्राचीन त्यौहारों में दीपावली पंच दिवसीय त्यौहार है, जिसका सामाजिक, आर्थिक एवं वैज्ञानिक महत्व है। यह ऐसा समय है जब हमारे कृषि प्रधान देश में फसल खलिहानों से घरों पर लायी जाती है। नवान्न की प्राप्ति में खरीफ के अन्न-दाल मुख्य धन (लक्ष्मी) के आने पर प्रसन्नता का होना स्वाभाविक है। इस त्यौहार पर अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थों का बनाना और परस्पर वितरण करना सामाजिक दृष्टि से न केवल धार्मिक प्रदर्शन है, अपितु समानता व प्रेमभाव उत्पन्न करने वाला है। धर्म शास्त्री सनत्सुजात ऋषि का कथन है कि प्रमादी और आसुरी संपत्ति वाले मनुष्य मृत्यु (यमराज) से पराजित है, परंतु अप्रमादी, दैवी संपदा वाले महात्मा ब्रह्मस्वरूप हो जाते हैं। प्रमाद से भिन्न यम को मृत्यु कहते हैं और हृदय से दृढ़तापूर्वक पालन किये हुये ब्रह्मïचर्य को अमृत मानते हैं। यह देवता पितृ-लोक में शासन करते हैं। वह पुण्य कर्म वालों के लिये सुखदायक और पाप कर्म वालों के लिये भयंकर हैं। आगे यह भी कहा है कि त्यौहार वाली त्रयोदशी शुभाचरण की देहरी हैं जो जीवन में आगे बढऩे का मार्ग प्रशस्त करती हैं। हमें यह जानने का अवसर मिलता है कि पुण्य व पाप जो स्वर्ग-नरक के रूप में दो अस्थिर फल हैं। उनका भोग करके मनुष्य जगत में जन्म लेता हुआ तद्नुसार कर्मो में लग जाता है। फिर भी धर्म की गति अति बलवान है। धर्माचरण कर्ता को समयानुसार अवश्य ही सिद्धि प्राप्त होती है। इस त्यौहार को मनाने से जीवन के सार्थक भाव का दर्शन होता है। लोक में ऐश्वर्य रूपी लक्ष्मी सुख का घर मानी गई हैं। उनका समुद्र मंथन से इसी दिन प्रादुर्भाव हुआ माना जाता है। इस मंथन से चौदह रत्न समुद्र में से निकाले गये थे।
हमें इससे शिक्षा मिलती है कि परिश्रम से क्या नहीं मिल सकता। धन, वैभव की तो बात ही क्या, मनुष्य अमरत्व भी प्राप्त कर सकता है। इसी के साथ पाठकों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं। धन-धान्य की वृद्धि हो ताकि जीवन सुखी बने। (विभूति फीचर्स)

बुधवार, 15 अक्टूबर 2025

इस दीपावली श्री की आंतरिक गरिमा का अभ्युदय करें

उमेश कुमार साहू

प्रतिवर्ष दीपावली पर भारत माता एक नए प्रकाश पुंज के अवतरण की प्रतीक्षा करती है। ऐसा प्रकाश पुंज जो उसकी सौ करोड़ से अधिक संतानों के घर-आंगन के साथ उनके मन-आंगन में उजियारा फैला सके। हजारों साल से चले आ रहे ज्योति पर्व पर देश की दीवारें तो जगमगा जाती हैं, पर माटी के सभी पुतलों (आज के इंसान) को माटी के ये दीप अभी तक पूरी तरह से आलोकित नहीं कर पाए। असत्य पर सत्य की विजय के अभिनंदन और समृद्घि की कामना के पर्व दीपावली पर अपसंस्कृति के बढ़ते हुए आक्रमण ने सामाजिक विवेक के माथे पर चिंता की रेखाएं उकेर दी हैं। दीपावली के आगमन से कई दिन पूर्व लोग घरों की साफ-सफाई में लग जाते हैं। खील-बताशे, दीये, रूई, फुलझडिय़ां-पटाखे आदि खरीदने में व्यस्त हो जाते हैं। लक्ष्मी पूजा के लिए लक्ष्मी-गणेश की तस्वीरें या मूर्तियां खरीदी जाती हैं, लेकिन ऐसे घर अब कम रह गए हैं, जहां दीपावली की पूजा पर उचित विधि-विधान अपनाया जाता हो, जो दीपावली के वास्तविक कर्म को जानते हों। देवी-देवताओं की आराधना करने की इच्छा लोगों को शायद इसलिए होती है कि वह इन देवी-देवताओं से मनोवांछित फल पाने की कामना करते हैं, पर आधुनिक समय में बिखरते जीवन मूल्यों और नए सांस्कृतिक व भौतिक प्रलोभनों के कारण लोग इन देवी-देवताओं की आराधना तक भूल गए हें।

ऐसे में त्यौहार मनाना सिर्फ देखा-देखी और रूढ़ि के अलावा कुछ भी नहीं। आज देश में समृद्घि जिस कदर बढ़ती जा रही है, उसी के अनुपात मेें यह त्यौहार उतना ही रंग-बिरंगा और शोर-शराबे भरा तथा भोंडा व अश्लील भी बनता जा रहा है। बेशुमार खरीददारी, नये-नये डिजायनों के कटे-फटे कपड़े, भव्यतम पार्टियां और जबरदस्त चकाचौंध को देखकर दीपक आज आंसू बहाकर रह जाता है।

दीपावली, जो देश का सबसे बड़ा त्यौहार है आज सबसे बड़ी रूढ़ि बन चुकी है। रूढिय़ां स्मृतियों को जीवित रखती है, लेकिन दीपावली राष्ट्रीय स्मृति-लोप का सबसे बड़ा उदाहरण है। हम दीए जलाते है और अंधेरा बढ़ता जाता है। पिछले वर्षों में उपभोक्तावाद ने ऐसी अपसंस्कृति फैलायी है, जो सांस्कृतिक घटनाओं और वस्तुओं के सहज आनंद और उसके सामाजिक अर्थों को नष्ट कर उन्हें व्यावसायिक हितों के लिए सतही तौर पर इस्तेमाल में ला रही है। अब दीपावली का पूंजीकरण हो गया है। अब इस पर्व को भी उद्योग के रूप में देखा जाने लगा है। आतिशबाजी-पटाखे, रोशनी और प्रकाश उद्योगों की वजह से यह त्यौहार ध्वनि व पर्यावरण प्रदूषण तथा जान-माल की हानि का प्रमुख कारण बन गया है। महंगे पटाखों में जितना पैसा खर्च किया जाता है, उससे न जाने कितने ही भूखों का पेट भरा जा सकता है, कितने ही नंगे तन को ढंका जा सकता है। अब ज्योतिपर्व सिर्फ एक औपचारिकता बनकर रह गया है। परंपरागत प्रवाह की लीक में बहते असंख्य दीप अवश्य जलते हैं, किंतु इनकी ज्योति अंतर्मन को प्रकाशित नहीं कर पाती। परिणामस्वरूप आंतरिक अंधकार गहराता जाता है और हमारी कुंठित आशाएं मानसिक विकृति की दशा में बहती जा रही है। आधुनिकता और भौतिकवाद के दौर में नैतिकता, मर्यादा एवं मूल्यों का पथ अंधकार में विलीन होता जा रहा है। इससे उपजी कुंठा व्यक्तिगत जीवन में अर्द्धविक्षिप्त मनोदशा, पारिवारिक जीवन में बिखराव के साथ चारों ओर अराजकता, आतंक एवं अशांति के रूप मेें परिलक्षित हो रही है। जीवन की अंधेरी राहों से गुजरते हुए आम लोगों को दीपोत्सव कितना आलोकित कर सकता है, यह बड़ा ही कंटीला और रहस्यमय प्रश्न है।

अत्याचार, अनाचार, व्यभिचार एवं भ्रष्टाचार हर रोज, हर कहीं प्राय: सभी को चुनौती देते घूम रहे हैं। उनकी नाक में नकेल डालने का साहस किसी में नहीं हैं। वर्तमान परिस्थितियां सचमुच जटिल हैं। किन्तु हमें जरूरत है बस थोड़ी सी समझदारी और ढेर सारे आत्मविश्वास की।

ज्योति पर्व तभी हमारे मन में और जीवन में कोटि-कोटि दीपों का प्रकाश स्थापित करने में समर्थ होगा, जब हम अपने अंदर के अंधकार को साफ कर उसे अकलुष बनाएं। साथ ही यह समझें कि शील से प्राप्त लक्ष्मी ही देवभूमि भारत और यहां की संस्कृति को अभीष्ट है, अत्याचारों से बनी सोने की लंका नहीं। दीपावली एकता, प्रेम और सद्भावना का पर्व है। आइए हम सभी एक-एक दीप प्रज्वलित करें ताकि उत्सव में प्रेम और उत्साह का समन्वय हो, श्री के साथ आंतरिक गरिमा का अभ्युदय हो। (विभूति फीचर्स)

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