गुरुवार, 7 मार्च 2019

यह राजनीति अपने देश को ही कठघरे में खड़ा करती है

अवधेश कुमार

आम भारतीयों तक जैसे ही यह समाचार पहुंचा कि हमारे वायुसेना के लड़ाकू विमानों ने पाकिस्तान की सीमा में घुसकर जैश ए मोहम्मद के ठिकानों पर हमला किया पूरे देश में उत्साह और रोमांच का अभूतपूर्व वातावरण बन गया। आम लोगों के लिए यह समाचार ही काफी था। विदेश सचिव ने आकर बयान दे दिया और यह देश के लिए पर्याप्त था। लोगों को यही लगा कि वर्षों से आतंकवाद से त्रस्त हमारे देश ने अब पाकिस्तान को और दुनिया को दिखा दिया कि हमारे पास राजनीतिक इच्छाशक्ति है और उसे पूरा करने के संसाधन एवं लक्ष्य पा लेने के लिए जान की बाजी लगा देने वाले जाबांज भी। पूरी दुनिया ने भारत के विरुद्ध एक शब्द नहीं बोला,बल्कि कुछ देशों ने तो बयान दिया कि भारत ने आत्मरक्षा में कदम उठाया है। पाकिस्तान के सामने समस्या पैदा हो गई कि वह प्रतिक्रिया व्यक्त करे तो कैसे? किंतु हमारे देश की पार्टियों और नेताओं ने धीरे-धीरे जो वातावरण बना दिया उससे पाकिस्तान का काम आसान हो गया। वहां की संसद में मंत्री भारतीय नेताओं को उद्वृत कर रहे हैं, पाकिस्तानी मीडिया में नेताओं के बयान चल रहे हैं और उन पर बहस हो रही है कि देखो सारे नेता नरेन्द्र मोदी सरकार के खिलाफ हैं।

हर विवेकशील भारतीय का दिल अपने नेताओं के आचरण पर रो पड़ा है। जब 28-29 सितंबर को थल सेना ने नियंत्रण रेखा पार कर सर्जिकल स्ट्राइक किया तब भी विरोधी नेता प्रमाण मांग रहे थे। किसी ने फर्जिकल स्ट्राइक कहा तो किसी ने कुछ। सैन्य औपरेशन के महानिदेशक डीजीएमओ ने बाजाब्ता पत्रकार वार्ता करके सूचना दी कि हमने सर्जिकल स्ट्राइक किया है। देश के लिए इतना ही काफी होना चाहिए। उस एक कार्रवाई से एक बदले हुए आत्मरक्षा के लिए आक्रामक चरित्र वाले भारत का दुनिया को दर्शन हुआ था। लेकिन हमारे नेताओं राजनीति के लिए देश की यह छवि भी बर्दाश्त योग्य नहीं थी। नेताओं ने आतंकवाद के विरुद्ध इतने साहसी और ऐतिहासिक कार्रवाई से पैदा उत्साह पर पानी फेरने की भूमिका निभाई। उड़ी में सोते हुए जवानों को जलाकर मार डालने से क्रोधित सेना ने अपना बदला ले लिया था जिसके बाद सबको साथ खड़ा होकर विजयोत्सव मनाना चाहिए था। यही व्यवहार इस समय भी अपेक्षित था। आखिर 1971 के बाद सोच-विचार कर योजनापूर्वक हमारे वायुयानों ने पहली बार केवल नियंत्रण रेखा नहीं अंतर्राष्ट्रीय सीमा पार कर खैबर पखतूनख्वा तक जैश के ठिकानों पर बमबारी किया। यह विश्वास पैदा हुआ कि आगे जब भी आतंकवादी हमला हुआ और उसमें सीमा पार का हाथ नजर आया तो भारत ऐसा ही करेगा।

कल्पना करिए, यदि इस समय सारे राजनीतिक दल एकजुट रहते तो कैसा दृश्य होता। पाकिस्तान ही नहीं दुनिया को संदेश मिलता कि यह पूरे देश की लड़ाई है। पहले दिन तो सबने कह दिया कि वो सेना को सैल्यूट करते हैं। हालांकि उसमें भी राजनीति थी, क्योंकि लोकतांत्रिक देश होने के कारण फैसला राजनीतिक नेतृत्व करता है,सेना उसको साकार करती है। उसके बाद 21 दलों की बैठक में सरकार के खिलाफ सेना के नाम पर राजनीति करने का आरोप लगाते हुए निंदा प्रस्ताव ही पारित कर दिया गया। यहीं से पूरा वातावरण विषाक्त होने लगा। फिर स्वनामधन्य नेता सामने आ गए। दिग्विजय सिंह मैदान में कूदे यह कहते हुए कि आपने 300 आतंकवादी मारे तो उसका सबूत दीजिए। जिस तरह अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को मारने का सबूत दुनिया के सामने रख दिया वैसे ही भारत को भी रख देना चाहिए। दिग्विजय सिंह को पता नहीं कि अमेरिका में किसी ने भी तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा से सबूत नहीं मांगा था। किसी को नहीं पता कि ओसामा कहां दफनाया गया। किंतु वह एक व्यक्ति को मार डालने का मामला था जो एक घर में छिपकर परिवार के साथ रहता था, इसलिए उसका पूरा साफ वीडियो बनाना संभव था। भारत के 14 विमानों की कार्रवाई वैसी नहीं थी। यद्यपि सेना के तीनों अंगांें के अधिकारियों ने संयुक्त पत्रकार वार्ता में बताया गया कि हमने सबूत दे दिए हैं और यह निर्णय बड़े नेतृत्व को करना है कि उसे कब दिखाया जाएगा। किंतु उसे दिखाया ही जाए यह क्यों जरुरी है?

दिग्विजय के साथ कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, पी. चिदम्बरम, अजय सिंह, ममता बनर्जी, अरविन्द केजरीवाल.....जैसे नेता सबूत मांग रहे हैं कि आपने कितने आतंकवादी मारे इसे साबित करिए। सिब्बल साहब ने ट्विट कर दिया कि इंटरनैशनल मीडिया में पाकिस्तान के बालाकोट में आतंकियों को नुकसान की कोई खबर नहीं है। इस पर जवाब दिया जाना चाहिए। क्यों देना चाहिए? क्या उनके पास सूचना के विशेष तंत्र हैं? कुछ रिपोर्ट और लेख तो उनमेें भारतीयों के भी हैं जिनमें अरुंधति राय भी शामिल हैं। सिब्बल की नजर में इनकी विश्वसनीयता है लेकिन हमारी सेना की नहीं। नवजोत सिंह सिद्धू ने कहा कि हम आतंकवादी मारने गए थे या पेंड़ गिराने। राजनीतिक विरोध में इस सीमा तक न चले जाएं कि देश का विरोध करने लगें और देश के पराक्रम सेना की वीरता को दुनिया की नजर में झुठा बना दें। यही हो रहा है। वस्तुतः जब राजनीति में अदूरदर्शी और गैरजिम्मेवार नेताओं का वर्चस्व हो जाए तो ऐसी ही त्रासदी सामने आती है। मजे की बात देखिए कि ये नेता कह रहे हैं कि सेना का राजनीतिकरण नही किया जाए। यह क्या है? दिग्विजय सिंह ने कहा कि मैं सेना की कार्रवाई पर कोई सवाल नहीं खड़े कर रहा। तो किस पर सवाल खड़े कर रहे हैं? मोदी और निर्मला सीतारमण लड़ाकू विमान उड़ाकर गए नहीं थे। सेना के पायलट गए थे। उनने कहा कि मिशन पूरा हुआ तो सरकार ने माना। इसलिए आप मोदी सरकार या भाजपा  नहीं सेना पर संदेह पैदा कर रहे हैं। भारतीय वायुसेना के कारण भारत की जो धाक बनी है और उससे आतंकवादियों के अंदर जो भय पैदा हुआ है उसे आप खत्म करने पर तूले हैं।

इनमें देश की एकता को तोड़ने का पाप है तो सेना के मनोबल पर विपरीत असर डालने का भी और भारत को दुनिया की नजर में झूठा साबित करने का शर्मनाक हरकत तो है ही। आप इससे बड़ी क्षति देश को पहुंचा नहीं सकते। इस तरह की राजनीति मोदी या सरकार विरोधी नहीं भारत विरोधी है। अमित शाह ने कहा कि 250 आतंकवादी मारे गए हैं तो आप उनसे सवाल करिए। हालांकि अमित शाह का बयान विपक्षी नेताओं के कार्रवाई के सबूत मांगने के बाद आए हैं। इससे दुखद तथ्य क्या हो सकता है कि पाकिस्तान को सबसे बड़ी राहत इन नेताओं के बयानों से ही मिली है। कुछ पत्रकारों के ट्वीट ने भी पाकिस्तान सरकार को अपने अवाम के सामने बचाव का आधार दिया है। पाकिस्तान तो परेशान था कि अपना पक्ष रखे तो कैसे? हालांकि 4 मार्च को कोयम्बटूर में वायुसेना प्रमुख बी. एस. धनोआ ने बिना राजनीति पर कुछ बोले इनकी बातों का करारा जवाब दे दिया। उन्होंने जो कुछ कहा वह प्रमाणित करता है कि नेताओं की नासमझी से सेना के लक्ष्य और संकल्प पर कोई अंतर नही पड़ा है। उन्होंने साफ कहा कि आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई अभी जारी है। धनोआ से जब सवाल किया गया कि पाकिस्तान बालाकोट में आतंकवादी ठिकानों को निशाना बनाए जाने की बात को खारिज कर रहा है, तो उन्होंने कहा कि हमने टारगेट हिट करने का प्लान बनाया था, तो हमने टारगेट हिट किया है। हम टारगेट हिट करते हैं, मानव शवों को नहीं गिनते। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसके बाद भी इन नेताआंे की जुबान बंद नहीं हुई है। तो अब जनता को ही इसका जवाब देना होगा। कोई पाकिस्तानी नेता अपनी सरकार के खिलाफ नहीं बोल रहा, अपनी सेना पर प्रश्न नहीं उठा रहा। पाकिस्तानी पत्रकार अपने देश के साथ खड़े हैं जबकि भारत के पत्रकारों का एक वर्ग उनको भारत विरोध करने की सामग्री प्रदान कर रहा है। 

मान लीजिए वहां एक भी आतंकवादी नहीं मरा। यह भी मान लीजिए कि जैश का भवन भी उम्मीद के अनुरुप नष्ट नहीं हुआ। तो क्या इससे इतनी बड़ी कार्रवाई का महत्व घट जाता है? कितनी क्षति हुई यह मुख्य बात है ही नहीं। मुख्य बात यह है कि आतंकवादी हमले के बाद वायुसीमा पार कर कार्रवाई का साहसी निर्णय करके उसे साकार किया गया। सेना उनकी सीमा में गई और एक शुरुआत हुई है। पाकिस्तान के अंदर भय पैदा हुआ है, आतंकवादी संगठनों में आतंक पैदा हुआ है कि भारत कभी भी हमें निशाना बना सकता है, पाक सेना को अपनी पूरी नीति और रणनीति नए सिरे से निर्धारित करनी पड़ रही है। सवाल उठाने वाले नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि आपके शासन काल में क्या हुआ? मुंबई हमले के बाद वायुसेना ने सीमा पार करने की अनुमति मांगी थी। आपके क्यों नहीं दिया? युद्ध में केवल सेना नहीं लड़ती, देश के नेताओं का बयान, निर्मित वातावरण दुश्मन के विरुद्ध प्रचार और उसके झूठ का पर्दाफाश भी भूमिका निभाती है। भारतीय नेताओं के रवैये से हम इन मोर्चो पर कमजोर पड़ रहे हैं।

 

अधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408,9811027208

 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

http://mohdriyaz9540.blogspot.com/

http://nilimapalm.blogspot.com/

musarrat-times.blogspot.com

http://naipeedhi-naisoch.blogspot.com/

http://azadsochfoundationtrust.blogspot.com/