शुक्रवार, 29 जून 2018

आजाद और सोज के बयान निंदनीय

 

अवधेश कुमार

जम्मू कश्मीर को लेकर कांग्रेस के दो वरिष्ठ नेताओं गुलाम नबी आजाद एवं सैफुद्दीन सोज के बयानों पर देश जिस तरह से उद्वेलित हुआ है वह बिल्कुल स्वाभाविक है। ऐसे देश विरोधी बयानों पर भी यदि देश नहीं उबले तो फिर हमारे शरीर में रक्त नहीं पानी बह रहा है। यह सामान्य बात नहीं है कि एक ऐसा नेता जो नौ बार सांसद रहा हो, केन्द्र में मंत्री रहा हो वह कश्मीर की आजादी की बात और उतने सहज ढंग से करे। इसी तरह ऐसा नेता, जो जम्मू कश्मीर का मुख्यमंत्री रहा हो, केन्द्र में कई बार मंत्री रहा हो, राज्यसभा में विपक्ष का नेता हो, कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी के मुख्य रणनीतिकारों में हो वह सेना की कार्रवाई को नरसंहार कहे तो देश को यह विचार करना पड़ता है कि आखिर ये जो दिखते हैं और जो हैं उनमें वाकई अंतर है क्या?  कांग्रेस ने भी सोज के बयानों की तो निंदा कर दी लेकिन सारे नेता और प्रवक्ता आजाद के बयान को सही ठहराने में लगे रहे। इसका कारण एक ही हो सकता है कि आजाद राहुल गांधी और सोनिया गांधी के करीबी हैं, अन्यथा आम कांग्रेसी भी उनके बयान के खिलाफ है।

तो आइए पहले बयानों को देखें। सैफुद्दीन सोज कहते हैं कि मुशर्रफ कहते थे कि कश्मीरियों की पहली पसंद तो आजादी है। मुशर्रफ का बयान तब भी सही था, आज भी सही है। सोज ने अपनी किताब कश्मीरः ग्लिम्प्सेस ऑफ हिस्ट्री एंड द स्टोरी ऑफ स्ट्रगल में मुशर्रफ को उद्धृत करते हुए कहा कि अगर कश्मीरियों को अपनी राह चुनने का मौका दिया जाए तो वे आजादी को तरजीह देंगे। अगर भारत की मुख्यधारा का कोई नेता पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ की कश्मीर संबंधी बातों से इस तरह सहमत होता है तो उसे क्या नाम दिया जाए इसके लिए शब्द तलाशना मुश्किल है। यहीं आजाद के बयान पर एक नजर डाल लिया जाए। कई टीवी चैनलों पर जो उनके बयान दिखाए गए वो बाद कें हैं जिसमें वे केवल अपने पूर्व बयान की सफाई दे रहे हैं। सरकार केवल आतंकवादियों के मरने की संख्या दे रही है आम नागरिकों एवं जवानों की नहीं। दरअसल, उन्होंने एक टीवी चैनल से बातचीत में कहा था कि सरकार चार आतंकवादियों को मारती है तो उसके साथ 20 नागरिकों को भी मार देती है। सरकार की कार्रवाई आतंकवादियों से ज्यादा सिविलियंस यानी नागरिकों के खिलाफ रहती है। पुलवामा में सिर्फ एक आतंकी मारे गए और 13 आम लोग मार डाले गए। ऑलआउट ऑपरेशन शुरू करने के ये मायने हैं कि वे नरसंहार करना चाह रहे हैं।

लश्कर-ए-तैयबा के प्रवक्ता अब्दुल्ला गजनवी ने कश्मीर के मीडिया को भेजे बयान में कहा कि गुलाम नबी आजाद जो कहते हैं, हमारा भी शुरुआत से यही मानना है। लश्कर को उद्धृत करने का उद्देश्य यह बताना है कि आजाद की भाषा किस तरह सीमा पार बैठे आतंकवादी संगठन की सोच से मिलती है। हाफिज सईद ने भी कह दिया कि कश्मीर में भी कुछ अच्छे लोग हैं। क्या आजाद सईद का यह प्रमाण पत्र स्वीकार करेंगे? इन दोनों नेताओं के बयानों को पाकिस्तान मीडिया में पूरी जगह मिली है। वास्तव में इनकी भाषा में और आतंकवादियों तथा पाकिस्तानी पिट्ठू अलगाववादियों की भाषा में कोई अंतर नहीं है। हालांकि सोज का पाखंड तो कई बार उजागर हो चुका है। जब वे नेशनल कॉन्फ्रेंस में थे तो इस विचार से उनको घाटी में वोट मिलता था। इस पार्टी की नीति एक साथ कई भाषा बोलने की रही है। किंतु कांग्रेस में आने के बाद उनको सहन किया गया यह चिंता का विषय है। एक उदाहरण तो पिछले वर्ष का ही है। 12 अप्रैल 2017 को राजधानी स्थिति इंडिया इंटरनेशल सेंटर में इंप्रूविंग इंडो-पाक रिलेशन नाम से एक कार्यक्रम में जिसमें पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी भी शामिल थे सोज ने साफ कहा कि कश्मीर की हालिया समस्या के लिए केवल भारत दोषी है पाकिस्तान नहीं। उनके भाषण पर हंगामा हुआ। कई दिनों तक चर्चा हुई। कांग्रेस ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। इस प्रकार का दोहरा चरित्र वहां के नेताओं में आम है। फारुक अब्दुल्ला स्वयं ऐसे बयान देते रहते हैं। उन्होंने कभी कहा कि पाक अधिकृत कश्मीर आपके बाप का है तो कभी कश्मीरी भाषा में घाटी में भाषण देते हुए कहा कि हुर्रियत, आप हमको अपने से अलग न समझो, इससे आगे बढ़कर उन्होंने पत्थरबाजों को अपने मुल्क के लिए संघर्ष करने वाला बता दिया। आखिर ये भी तो केन्द्रीय मंत्री रहे हैं।

ये भारतीय संविधान के तहत शपथ लेते हैं और अंदर भारत के प्रति इनकी वितृष्णा भी रहती है। तभी तो नेहरु जी ने उनके पिता शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर लिया था। अब आजाद की और लौटें। कई लोग आंकड़ों से यह स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं कि आजाद की बातें गलत हैं। यह बिल्कुल सच है कि आतंकवादी ज्यादा मारे गए हैं और उनकी तुलना में आम नागरिक बिल्कुल कम। लेकिन जिस तरह घाटी के पांच जिलों में ये तथाकथित आम लोग सुरक्षा बलों के साथ व्यवहार करते हैं उसमें यदि इनकी संख्या बढ़ भी जाए तो इसमें क्या समस्या है। ये पाकिस्तान के साथ लश्कर, आईएस और न जाने किन संगठनों का झंडा लेकर मजहबी, भारत मुर्दाबाद तथा आजादी के नारे लगाते हैं, पत्थरों से सुरक्षा बलों पर हमला करते हैं, उनसे जूझते हैं....आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में ढाल बनकर आ जाते हैं उनमें यदि सुरक्षा बल संयम से काम न लें, पत्थरों के जख्मों को झेलते हुए शांत न रहें तो कुछ भी हो सकता है। याद दिलाने की आवश्यकता है कि यह स्थिति आजाद के मुख्यमंत्रीत्व काल में ही पैदा हुई जो धीरे-धीरे कांग्रेस नेशनल कान्फ्रेंस सरकार में बढ़ते-बढ़ते यहां तक पहुंची है। आजाद की सरकार ने जून 2008 में 39.88 एकड़ बंजर भूमि श्रीअमरनाथ श्राइन बोर्ड को यात्रियों की सुख-सुविधा के लिए अस्थायी निर्माण के लिए आवंटित किया था। उसके खिलाफ अलगाववादियों ने आंदोलन आरंभ कर दिया, पीडीपी एवं नेशनल कॉन्फ्रेंस में विरोध करने की होड़ लग गई। लंबे समय से जो घाटी शांत दिख रही थी उसमें आग लग गई। अंत में यह निर्णय वापस लिया गया तो उसके विरोध में जम्मू में पहली बार लोग आक्रामक होकर सड़कों पर उतरे। कश्मीर में आजादी का नारा बीते दिनों की बात हो गई थी। हुर्रियत नेताओं को कोई पूछ नहीं रहा था। अचानक इस्लाम के साथ पाकिस्तानी झंडे लहारने लगे। उस समय जो नारे लगे उनको देखिए- भारत की मौत आई, लश्कर आई लश्कर आई,’ ‘जियो-जियो पाकिस्तान हमारी मंडी, हमारी मंडी, रावलपिंडी, रावलपिंडी, ‘ हमें क्या चाहिए आजादी, ‘ छीन के लेंगे आजादीहम हिंद से कश्मीर को आजाद कराके रहेंगे, हम कॉम के नवजवान हैं जेहाद करेंगे,...आदि आदि। एक महीने में स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गई। आजाद ने इनको नियंत्रित करने का प्रयास ही नहीं किया। हालांकि उनकी सरकार भी चली गई। 18 अगस्त 2008 को एक लाख लोगों का उग्र जुलूस भारत विरोधी नारा लगाते हुए श्रीनगर पहुंचा और वह मानमानी करता रहा, उसे रोकने वाला कोई न था। सुरक्षा बलों के हाथ बांध दिए गए थे। ऐसा डरावना दृश्य कश्मीर में इसके पहले कभी नहीं देखा गया था। 2010 आते-आते पत्थरबाजी आरंभ हो चुकी थी।

कहने का तात्पर्य यह कि देन तो आपकी ही है। केन्द्र की यूपीए सरकार को भी जितना सख्त होना चाहिए था नहीं हुई और नौबत आज यहां तक पहुंच गई है। वास्तव में आजाद ने जो कहा वह केवल तथ्यों से परे व अव्यावहारिक ही नहीं, आपत्तिजनक और देश विरोधी भी है। यह भारत को बदनाम करने वाला, सुरक्षा बलों को बदनाम करने वाला, उनका मनोबल तोड़ने वाला तथा आतंकवादियों एवं अलगाववादियों के साथ पाकिस्तान का पक्ष मजबूत करने वाला है। गलत तथ्य देने तथा सुरक्षा बलों पर गलत आरोप लगाने के कारण उन पर मुकदमा होना चाहिए। किंतु सरकार इस सीमा तक जाएगी नहीं। इसलिए आम जनता की हैसियत से हम आप इसका जितना पुरजोर विरोध और निंदा हो करें ताकि दूसरे नेता देश की निंदा करने से बचें।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 981102708 

 

 

शुक्रवार, 22 जून 2018

इस गठबंधन की यही नियति थी

 

अवधेश कुमार

जब 19 जून की सुबह राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल भाजपा अध्यक्ष अतिम शाह से मिलने आए और उसके बाद उनकी जम्मू-कश्मीर के भाजपा नेताओं के साथ बैठक हुई तो यह आभास हो गया कि कुछ होने वाला है। हां, ये प्रदेश सरकार से बाहर आने का ऐलान करेंगे यहां तक शायद ही किसी की सोच गई हो। हालांकि भाजपा पीडीपी सरकार कार्यकाल पूरा करती तो यह आश्चर्य का विषय होता। जम्मू कश्मीर के संदर्भ में दोनों की विचारधारा में दो ध्रुवों को अंतर है। उसमें यह गठबंधन करीब सवा तीन वर्ष चल गया यही सामान्य बात नहीं है। 8-9 जून को गृहमंत्री राजनाथ सिंह जम्मू कश्मीर की यात्रा पर थे जिसमंे मेहबूबा मुफ्ती के साथ जब भी वे सामने आए ऐसा आभास हुआ ही नहीं कि वाकई गठबंधन को लेकर कोई तनाव है। प्रदेश सरकार द्वारा भारी संख्या में पत्थरबाजों की रिहाई पर उनसे प्रश्न किया गया तो उन्होंने का कि बच्चे थे माफ कर दिया। इसका संदेश यही गया कि मेहबूबा की इस नीति को केन्द्र सरकार का समर्थन है। गृहमंत्री के पूर्व 19 मई को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वहां गए थे। उन्होंने अपनी यात्रा में करीब 32 हजार करोड़ रुपए की परियोजनाओं की नींव रखी या शिलान्यास किया। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि सभी समस्याओं का हल विकास है। हम दीपावली मनाने भी आपके बीच आए थे और इस बार रमजान में आए हैं। इन सबका संदेश यही था कि केन्द्र सरकार भी मेहबूबा मुफ्ती और उनके मरहूम पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद की तरह लोगों का विश्वास जीतने की नीति पर चल रही है। तो फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि भाजपा ने प्रधानमंत्री की यात्रा के एक महीने तथा गृहमंत्री की यात्रा के दस दिनों बाद ही सरकार से अलग होने का फैसला कर लिया?

सरकार से अलग होने की घोषणा करते हुए भाजपा के महासचिव राम माधव ने कहा कि घाटी में आतंकवाद, कट्टरपंथ और हिंसा बढ़ रही है। लोगों के जीने का अधिकार और बोलने की आजादी भी खतरे में है। पत्रकार शुजात बुखारी की दिनदहाड़े हत्या कर दी गई किंतु सरकार कुछ नहीं कर सकी। रमजान के दौरान हमने ऑपरेशन रोके, ताकि लोगों को सहूलियत मिले। हमें लगा कि अलगाववादी ताकतें और आतंकवादी भी हमारे इस कदम पर अच्छी प्रतिक्रिया देंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। महबूबा मुफ्ती हालात संभालने में नाकाम साबित हुईं। राज्य के तीनों क्षेत्र जम्मू, लद्दाख और कश्मीर के समान विकास के लिए केंद्र ने पूरा सहयोग दिया पर राज्य सरकार द्वारा जम्मू क्षेत्र के साथ भेदभाव किया गया। अगर यहीं कारण हैं तो ये एक दो दिनों में पैदा नहीं हो गए। फिर इसी समय क्यों?

वस्तुतः केन्द्र सरकार ने मेहबूबा का आग्रह मानकर रमजान के दौरान सैन्य कार्रवाई स्थगित कर दिया, जिसका परिणाम अच्छा नहीं आया। एक महीने की समीक्षा के बाद इसे बनाए रखने का कोई आधार नहीं था। सरकार ने अपनी गलती सुधारी और सेना को ऑपरेशन ऑल आउट फिर से चलाने का आदेश मिल गया। मेहबूबा किसी सूरत में इसके पक्ष में नहीं थीं। वो सैन्य कार्रवाई स्थायी रुप से रोकना चाहतीं थीं। मेहबूबा का यही बयान है कि जम्मू-कश्मीर में सख्ती की नीति नहीं चल सकती है। इससे कौन राष्ट्रीय पार्टी सहमत हो सकती है। यह मतभेद ऐसा था जिसमें बीच का रास्ता नहीं बचा था। संभव था मेहबूबा इसे एक बड़ा मुद्दा बनाती, इसके साथ कुछ और मुद्दे जोड़ती और इस्तीफा देती। भाजपा उनको ऐसा मौका नहीं देना चाहती थी इसलिए उसने पहले ही फैसला कर लिया। वैसे अनेक विषय थे जिनमें दोनों के बीच एक राय नहीं हो सकती। भाजपा के फैसले के बाद मेहबूबा ने पत्रकार वार्ता करके यह बताने की कोशिश की कि उन्होंने खंडित जनादेश को देखते हुए केन्द्र सरकार की पार्टी के साथ इसलिए गठबंधन करके सरकार बनाया ताकि कश्मीर समस्या का हल किया जा सके। उन्होंने अपनी उपलब्धियां क्या गिनाईं? रमजान के दौरान संघर्ष विराम, करीब 11 हजार पत्थरबाजों से मुकदमा हटाना, अनेक नेताओं पर से मुकदमा खत्म करना, भाजपा के साथ रहते हुए अनुच्छेद 370 को बचाना, भारत पाकिस्तान के बीच बातचीत करवाना.... आदि। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दिसंबर 2015 में लाहौर जाने का श्रेय भी स्वयं ले लिया।

हम जानते हैं कि न प्रधानमंत्री के लाहौर जाने में उनकी कोई भूमिका थी और न अनुच्छेद 370 बचाने में। भाजपा अनुच्छेद 370 हटाने की दिशा में कोई काम कर ही नहीं रही है। यह सही है कि भाजपा ने पीडीपी के साथ सरकार चलाने के लिए सीमा से ज्यादा समझौता किया। मुफ्ती मोहम्मद सईद ने ही मशर्रत आलम जैसे कई अलगावादी नेताओं के मुकदमे वापस लिए। आसिया अंद्राबी द्वारा पाकिस्तानी झंडा फहराने एवं भारत के विरुद्ध देशविरोधी भाषण के बावजूद कार्रवाई नहीं हुई। यह सब भाजपा की नीति के विरुद्ध था।  कहने का तात्पर्य यह कि पीडीपी जितना संभव था अपने एजेंडे को पूरा करने में लगी रही। मुफ्ती सईद के इंतकाल के बाद मेहबूबा भी उसी रास्ते चलीं। इससे गठबंधन के अंदर तनाव बढ़ता रहा। पत्थरबाजों की रिहाई के बारे में गृहमंत्री चाहे जो कहें स्थानीय पार्टी ईकाई तथा सरकार के भाजपा में मंत्रियों के लिए अपने मतदाताओं को जवाब देना कठिन था। उसके बाद कठुआ में नाबालिग बच्ची से दुष्कर्म एवं हत्या की घटना में मेहबूबा ने कश्मीर की अपराध शाखा से जांच कराई। पूरे जम्मू में यह वातावरण बना कि निरपराध हिन्दुओं को फंसाया जा रहा है, भाजपा के दो मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया, पूरा आंदोलन चला लेकिन हुआ कुछ नहीं। फिर सरकारी भूमि से गुज्जर, बक्करवालों को न हटाने जैसे फैसले कर मेहबूबा ने भाजपा के लिए मुश्किलें पैदा की। मजहबी संगठन अहले हदीस को सरकारी भूमि देने के मामले में भी मेहबूबा ने भाजपा की नहीं सुनी। एक ओर वो अपने अनुसार फैसले ले रहीं थी लेकिन श्री बाबा अमरनाथ भूमि आंदोलन में हिस्सा लेने वाले युवाओं के खिलाफ मामले वापस लेने के लिए राजी नहीं हुई। भाजपा के सामने साफ हो गया कि जिस जम्मू ने उसे 25 सीटें दीं वहां से उसका जनाधार खिसक रहा है।

मेहबूबा आतंकवादियों के केवल सैन्य कार्रवाइयों के ही खिलाफ नहीं थीं, वो बार-बार पाकिस्तान के साथ बातचीत करने का अनुरोध कर रहीं थीं। पाकिस्तान से बातचीत राष्ट्र की विदेश नीति का विषय है। मेहबूबा चाहती थी कि केंद्र सरकार हुर्रियत समेत सभी अलगाववादियों से भी बातचीत करे। हालांकि उसके लगातार आग्रह पर केन्द्र सरकार ने दिनेश्वर सिंह को वार्ताकार नियुक्त किया लेकिन यह साफ नहीं किया कि उनको किससे बात करनी है और उसका आधार क्या होगा। हुर्रियत के बारे में मोदी सरकार का कड़ा रुख रहा है। मेहबूबा के कारण कुछ नरमी आई लेकिन एक सीमा से आगे जाना उसके लिए राजनीतिक मौत होता और इससे कश्मीर समस्या के समाधान की भी कोई संभावना नहीं बनती। इसके पहले भी हुर्रियत के साथ बातें हुईं हैं उनका जब कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला तो आगे निकलेगा यह मानने का कोई कारण ही नहीं था।

सच यह है कि भाजपा ने पीडीपी के साथ सरकार के लिए एजेंडा नामक एक साझा कार्यक्रम बनाकर गठबंधन अवश्य किया लेकिन साफ था कि इसमें भाजपा ने अपने लगभग सारे मुद्दों का परित्याग किया। पीडीपी को यदि 28 सीटें मिलीं थीं तो भाजपा को 25। तब भाजपा को दो निर्दलीयों का भी समर्थन मिल गया था। ंिकंतु उसे कोई महत्वपूर्ण मंत्रालय नहीं मिला। उसके मंत्री सरकार में दोयम दर्जे की मानसिकता में काम कर रहे थे। ऐसे गठबंधन को तो खत्म होना ही था। हालांकि यह मानना भी गलत होगा कि भाजपा ने बिल्कुल हथियार डाल दिया। एनआईए ने आतंकवाद के वित्त पोषण की जांच करते हुए अलगाववादी नेताओं को जेल में डाला है। यह मेहबूबा को नागवार गुजर रहा था। एनआईए की छानबीन से साफ हो रहा था कि कुछ और नेता अंदर जा सकते हैं। वैसे पीडीपी के साथ 2002 में कांग्रेस ने भी गठबंधन किया था। मुफ्ती सईद तीन वर्ष तक मुख्यमंत्री रहे एवं कांग्रेस के लिए परेशानियां पैदा करते रहे। समझौते के अनुसार जब गुलाम नबी आजाद मुख्यमंत्री हुए उन्होंने अपना रंग दिखाना शुरु कर दिया। आजाद के लिए काम करना मुश्किल हो गया और एक समय आया जब उन्होंने इस्तीफा दे दिया। जब कांग्रेस के साथ पीडीपी की पटरी नहीं बैठी तो भाजपा के साथ कैसे निबह सकती थी। भाजपा ने इस गठबंधन से काफी कुछ खोया है। अब उसके पास अवसर है कश्मीर में आतंकवादियों का सफाया कर और अलगाववादियों की कमर तोड़कर इसकी भरपाई करे। हां, वहां ज्यादा दिनों तक राज्यपाल शासन लगाए रखना भी उचित नहीं होगा।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

शुक्रवार, 15 जून 2018

लोकतंत्र के लिए पूरी स्थिति डरावनी है

 अखिलेश यादव का बंगला प्रकरण

अवधेश कुमार

निश्चित रुप से यह इस देश के हर विवेकशील व्यक्ति के लिए कई मायनों मंे सन्न कर देने वाला वाकया है। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव का खाली किया गया बंगला जिस स्थिति में मिला है उसे खंडहर के सिवा कुछ कह ही नहीं सकते। एक शानदार बंगले को जिस तरह उन्होंने खाली करने के साथ नष्ट कर दिया वह कोई सामान्य खबर नहीं है। उसके बाद उनका यह बयान है कि सरकार सूची भिजवा दे हम वे सारे सामान वापस भिजवा देंगे। ऐसी ढिढाई के लिए कौन सा शब्द प्रयोग किया जाए यह तलाश करना मुश्किल है। यही नहीं पत्रकारों को बंगला दिखाने की व्यवस्था करने वाले सरकारी अधिकारियों को धमकी भी दी कल जब मेरा शासन आएगा तो यही अधिकारी कप प्लेट उठाएंगे। यह कैसी मानसिकता है? मजे की बात देखिए कि सपा के लोग प्रदेश सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि वो जानबूझकर मामले को गलत ढंग से पेश कर रहे हैं ताकि हमारे नेता बदनाम हो जाएं। वो कह रहे हैं कि कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह ने बंगला खाली किया उसकी तस्वीरें क्यों नहीं दिखा रहे। इस तरह का कुतर्क लोगों को खीझ को बढ़ाने वाला है। अगर कल्याण सिंह या राजनाथ सिंह ने अपने बंगले को उसी तरह नष्ट किया है तो सपा के लोग पत्रकारों को वहां ले जाकर दिखाए। ऐसा है नहीं। उन बंगलों किसी तरह की तोड़फोड़ या वहां से सरकारी सामान ले जाए जाने की खबर नहीं है। संभवतः भारत के राजनीतिक इतिहास में अखिलेश यादव ऐसे पहले नेता होंगे जिन्होंने इस तरह एक बंगले को पूरी तरह बरबाद कर दिया।

वास्तव मंे इस प्रकरण के तीन पहलू हैं। इनमेें सबसे पहला है बंगले का वाकई खंडहर में परिणत होना। फर्श से लेकर छतें, उद्यान, स्वीमिंग पुल, साइकिल ट्रैक, जिम., सेंट्रलाइज्ड एसी., बैडमिंटन कोर्ट,. आदि को किस तरह तहस-नहस किया गया है उसकी पूरी सूची तस्वीरों के साथ टीवी चैनलों और समाचार पत्रों मेें हमारे सामने आ चुकीं है। सच यही है कि बंगले मंे एक मंदिर के सिवा और कुछ भी सही-सलामत नहीं मिला। इनमें विस्तार से जाने की आवश्यकता नहीं। केवल बरबाद ही नहीं किया गया उसमें से प्रयोग के लगभग सारे सामान ले जाए गए। सारे एसी, टीवी, फर्नीचर, पंखे, फॉल सीलिंग से लगीं लाइटें, मुख्य बंगले में बने सभी बाथरूमों की टोटियां और जकूजी बाथ असेंबली, चिन की टोटियां, मॉड्यूलर किचन एक्विपमेंट्स, सिंक, किचन टॉप तक को निकाल लिया गया, प्रथम तल की दीवारों पर लगी टाइल व मार्बल को तोड़ दिया गया।  स्विमिंग पूल में लगी इंपोर्टेड टाइल्स उखाड़ ली गईं। सजावट के अन्य सामान सहित शीशे तक निकाल लिए गए। यह विवरण काफी छोटा है। किंतु यह किस तरह के आचरण का परिचायक है? एक व्यक्ति जो दो-दो बार सांसद रहा हो, फिर प्रदेश का मुख्यमंत्री बना हो,  भविष्य में पार्टी का प्रधान होने के नाते मुख्यमंत्री का दावेदार हो कम से कम उससे ऐसी ओछी हरकत की उम्मीद कोई नहीं कर सकता। बंगला तो उच्चतम न्यायालय के आदेश पर खाली करना पड़ा है। क्या उन्होंने बंगला खाली करने की खीझ निकाली है? क्या उनके अंदर की कुंठा इस रुप में सामने आई है?

गुस्से और खीझ में कोई सारा सामान और फर्नीचर तक लेकर नहीं जाता। यह तो लालच का प्रतीक है। इस तरह सारे सामान ले जाने का मतलब है कि वो निर्माणाधीन अपने निजी बंगले में इनका उपयोग करेंगे। इस हरकत के लिए कोई भी शब्द प्रयोग छोटा हो जाएगा। कुछ लोग कह रहे हैं कि अगर वो वहां से सामान ले गए हैं तो उन पर सरकार कानूनी कार्रवाई करे। कानूनी कार्रवाई तो बाद की बात है। किंतु इसमें बड़ा प्रश्न एक बड़े नेता के आचरण का है, उसकी नैतिकता का है, राजनीतिक मर्यादा का है। बंगले का ध्वंस एवं वहां से सारे सामनों को ले जाना उनके चरित्र को आईना है जिसमें वे कैसा दिख रहे यह आप तय करिए।

इसी से जुड़ा इसका दूसरा पहलूू है। वह यह है कि कोई नेता यह क्यों मान लेता है कि अगर वह एक बार मुख्यमंत्री या मंत्री बना तो जो बंगला उसे मिला है वह आजीवन उसके पास रहेगा। जिस तरह उस बंगले का पुनर्निर्माण किया गया उससे तो ऐसा ही लगता है मानो कोई निजी बंगला बनाया गया हो। यह कैसा लोकतांत्रिक व्यवहार है? हालांकि उत्तर प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्रियों को घर देने का फैसला कैबिनेट का था और इसी कारण सभी को घर मिला हुआ था। लेकिन उसमें यह तो नहीं था कि जिस बंगले में मुख्यमत्री रहते हैं वे उसी में रहेंगे? उनको कोई भी मकान आवंटित किया जा सकता था। किंतु यह सोच कि हम मुख्यंमंत्री रहें या न रहें इसी में रहना है एक सामंती और लोकतंत्र विरोधी सोच है। चूंकि अखिलेश यादव की पार्टी कहने के लिए तो समाजवादी है लेकिन यह वंशानुगत नेतृत्व की पार्टी हो चुकी है। पहले मुलायम सिंह, उसके बाद अखिलेश यादव एवं हो सकता है आगे अखिलेश के बाद पार्टी जीती तो उनके पुत्र अगले मुख्यमंत्री हो सकते हैं। तो बंगले का आंतरिक पुनर्निर्माण तथा साज-सज्जा कराते हुए यह भी ध्यान में रहा होगा कि इसमें हमारी कई पीढ़ी रहने वाली है। आप इस सोच को राजशाही सोच कहेंगे या लोकतांत्रिक? इस समय उच्चतम न्यायालय के आदेश से ऐसा नहीं हुआ तो गुस्से मंें उसे तहस-नहस कर दिया। इस लोकांत्रिक व्यवस्था में इस तरह की सोच भयभीत करती है। इसका मतलब यह भी है कि कल कोई व्यक्ति जो शायद आपके इतना सशक्त न हो, लेकिन आपको प्रबल राजनीतिक चुनौती दे दे तथा उससे आपका राजनीतिक लक्ष्य प्रभावित होने लगे तो उसे भी आप बरबाद करने पर तुल जाएंगे!

इसका तीसरा पहलू देश के एक-एक व्यक्ति को गंभीरता से सोचने को मजबूर करने वाला है कि आखिर हम कैसे लोगांें को अपना नेता चुनते हैं। अभी तक उत्तर प्रदेश के संपत्ति विभाग से जो सूचना मिल रही है उसके अनुसार मुख्यमंत्री बनने के बाद अखिलेश यादव ने उस बंगले का कायाकल्प करने के लिए दो किश्तों में 42 करोड़ रुपया खर्च कराया। हो सकता है कुछ ज्यादा भी खर्च हुआ हो। कई स्थानीय पत्रकार कह रहे हैं कि 80 करोड़ रुपया खर्च हुआ था। एक विशेष वास्तुकार ने अपने अनुसार उसका डिजायन किया एवं उसी तरह आंतरिक पुनर्निर्माण, अतिरिक्त निर्माण एवं साज-सज्जा हुई। उसे ऐसा बनाया गया कि ऐसी कोई सुख-सुविधा न हो जो उस बंगले में उपलब्ध नहीं हो। विदेशों से मार्बल्स एवं टाइल्स न जाने क्या-क्या मंगाए गए। गार्डन के लिए अनेक पेड़ भी विदेश से आए। विशेष किस्म का साइकिल ट्रैक बना, उच्च स्तरीय बैडमिंटन कोर्ट निर्मित हुआ, छत पर गार्डर लगार जिम बनाया गया.......कहां तक वर्णन करुं.। एक सम्पूर्ण शानो-शौकत वाला बंगला था वह। जिस प्रदेश में लाखों लोगांें को छत नसीब नहीं हो वहां का मुख्यमंत्री इस तरह राजसी ठाठ में रहे तो उसे आप क्या कहंेंगे? क्या समाजवाद का यही चरित्र हो गया है? समाजवादियों के जितने बड़े नेता हुए हैं उन्होंने अपने रहन-सहन और आचरण से एक मापदंड स्थापित किया। जैसा सरकारी भवन मिला उसका ही उपयोग किया। उनके दरवाजे कार्यकर्ताओं और आम नागरिकों के लिए हमेशा खुले रहते थे। किन-किन के नामों का उल्लेख करुं। उनके कई कमरे बाहर से आने वाले या अनेक प्रकार के आंदोलनों में लगे लोगांें से भरे रहते थे। अखिलेश यादव ने अपने इस बेहद खर्चीली रहन-सहन से उन सबके सबके स्थापित मापदंडों और परंपराओं को राैंंद दिया है।

हालांकि हाल के वर्षों में राजनीतिक दलांें में जिस तरह के लोगों का प्रवेश हुआ है उससे पुराने समय का संयमित जीवन, मितव्ययी आचरण तो तेजी से नष्ट हो ही रहा है, कार्यकर्ताओं और आम लोगों के लिए दरवाजे खुले रखने तथा अपने आवास में जरुरतमंदों को ठहरने देने की संस्कृति लगभग खत्म सी हो गई है। ऐसे अब कुछ ही लोग बचे हैं। इसका शिकार प्रत्येक पार्टी है। हालांकि अभी भी रहन-साहन, खर्च और जीवन शैली में मानक बचाए हुए नेता हैं, लेकिन नेताओं के बड़े वर्ग के अंदर सभी सुख सुविधाओं से लैश जीवन आम बात हो रही है। यह पूरी राजनीति एवं भारतीय लोकतंत्र के भविष्य की दृष्टि से अत्यंत चिंताजनक है। यह स्थिति राजनीति में व्यापक बदलाव की माग करती है। संसदीय लोकतंत्र मेें नेताओं को अपने आचरण से जनता को संयमित, नैतिक जीवन जीने की प्रेरणा देनी चाहिए। किंतु अखिलेश यादव ने तो समाजवादी पार्टी के नेता होते हुए सुख-सुविधाओं और शानो-शौकत मंें शायद आज की स्थिति में भी देश के सारे नेताओं को पीछे छोड़ दिया। केन्द्र का कोई मंत्री या किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री ने इस तरह बंगले के आंतरिक पुनर्रचना और साज-सज्जा पर इतनी बड़ी राशि खर्च करके उसे पुराने जमाने के राजमहल से भी ज्यादा विलासमय बना दिया हो इसके प्रमाण अभी तक सामने नहीं आए हैं। इसलिए जनता को यह तय करना है कि हम ऐसे लोगों को वाकई अपना नेता चुनें या नहीं।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208 

 

शनिवार, 9 जून 2018

यह एक नए युग के शुरुआत का अवसर हो सकता है

 

अवधेश कुमार

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दुत्व की उसकी सोच ऐसा विषय है जिस पर न जाने कितनी बार कहां-कहां चर्चा हुई है और होती रहेगी। हमारे भारत देश का संस्कार ही ऐसा है जहां शास्त्रार्थ की महान परंपरा अब बहस और वाद-विवाद के रुप में परिणत हुआ है और कुछ मायने में विकृत भी हुआ है। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. प्रणब मुखर्जी के संघ के मंच से भाषण देने के कारण संघ अगले कुछ समय तक चर्चा में रहेगा। संघ हम किसे माने? जो उसके वर्तमान प्रमुख मोहन भागवत कह रहे हैं या उनके पूर्व के संघ के उच्चाधिकारी कह गए हैं उनको या फिर जो लोग संघ से बाहर होते हुए अपनी दृष्टि से उसका वर्णन कर रहे हैं उसे? दोनों मत हमारे सामने हैं। जब संघ ने पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को तृतीय वर्ष प्रशिक्षण वर्ग के समापन समारोह में मुख्य अतिथि के रुप में आने का निमंत्रण दिया तो उसका यह उद्देश्य कतई नहीं था कि वे वहां आकर संघ की भाषा बोलेंगे। मोहन भागवत ने अपने भाषण में कहा भी कि संघ संघ है और डॉ. प्रणब मुखर्जी डॉ. प्रणब मुखर्जी हैं। यह सच है कि प्रशिक्षण शिविर हर वर्ष आयोजित होता है और किसी ऐसे व्यक्तित्व को वहां मुख्य अतिथि के रुप में आमंत्रित किया जाता है जो संघ से बाहर के होते हैं। यह एक सामान्य परंपरा है। वो अपनी बात वहां रखते हैं। संयोग से इस बार संघ ने डॉ. प्रणब मुखर्जी को आमंत्रित किया। भारत का वातावरण ऐसा हो गया है कि हम इसे इतने ही सामान्य ढंग से ने ही नहीं सकते। इसलिए इसके पीछे अनेक प्रकार के मंसूबे तलाशे गए। भाजपा की हाल के उपचुनावों के पराजय से जोड़ा गया आदि आदि। अब पता चला है कि संघ ने काफी पहले प्रणब मुखर्जी को आमंत्रित किया था और उन्होंने अपनी स्वीकृति भी काफी पहले दी थी। उस समय तक कर्नाटक चुनाव परिणाम भी नहीं आया था।

विविधताओं के देश भारत में विचारधाराएं और मत-मतांतर भी विविध हैं। यही भारत की विशिष्टता है। किंतु कोई आवश्यक नहीं कि सारी विचारधाराएं या मत-मतांतर सकारात्मक और कल्याणकारी सोच से ही पैदा हुए हों। बावजूद इसके संवाद के रास्ते को बाधित करना या उस पर प्रश्न उठाना भारतीय संस्कार नहीं हो सकता। तो जिन लोगों ने प्रणब मुखर्जी के संघ कार्यक्रम में जाने का विरोध किया या उस पर प्रश्न उठाया वो दरअसल, संवाद की सार्थकता और भारतीय संस्कार के विरुद्ध थे। मुखर्जी ने यही तो कहा कि संवाद जरुरी है। समस्याओं के समाधान की समझ बातचीत से ही विकसित होती है। आज कांग्रेस के नेता जो तर्क दें लेकिन उनके जाने को प्रत्यक्ष-परोक्ष जिस तरह विवाद का विषय बनाया गया वो बिल्कुल अनुचित था। संघ के लोगों ने मुखर्जी की बातचीत को जितने ध्यान से सुना उसका भी कुछ अर्थ है। वास्तव में मुखर्जी का संघ मंच पर जाना और अपनी बात कहना तथा उसके पूर्व मोहन भागवत का भाषण ऐसा अवसर है जिसे सकारात्मक तरीके से लिया जाए तो यह एक नए युग की शुरुआत सदृश घटना साबित हो सकता है। संघ के बारे में ईमानदार पुनर्विचार की शुरुआत हो सकती है। हर वर्ष ऐसा कार्यक्रम होते हुए भी पूरे देश और देश के बाहर रहने वाले भारतीयों ने जितने ध्यान से इस बार भाषणों को सुना इसके पहले ऐसा कभी नहीं हुआ।

ध्यान रखिए, मुखर्जी ने पूरे भाषण में कहीं भी संघ का नाम नहीं लिया। उन्होंने यह कहीं नहीं कहा कि आपका कौन सा विचार सही है या गलत। इससे उन लोगांे को निराशा हुई है जो हमेशा संघ की निंदा करते हैं। उन्होंने राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देशभक्ति पर अपनी बात रखी जो विषय उनको बोलने के लिए दिया गया था। भले कोई इसे न स्वीकारे लेकिन सच यही है कि भागवत एवं मुखर्जी के भाषणों में मूल तत्व एक ही था। दोनों के तरीके, शब्दावलियां, उदाहरण आदि अलग-अलग थे, लेकिन अंत मंें पहुंचे एक ही जगह। भारतीय राष्ट्र-राज्य को लेकर हमारे देश मेें दो मत रहे हैं। संघ भारत को एक प्राचीन राष्ट्र मानता है जब यूरोप में राष्ट्र राज्य का उदय नहीं हुआ था। उस राष्ट्र का आधार संस्कृति को मानता है। महात्मा गांधी की भारतीय राष्ट्र संबंधी सोच यही थी। किंतु गांधी जी के समय भी कांग्रेस के अंदर इस सोच से भिन्न मत रखने वाले लोग थे जो मानते थे कि भारत राष्ट्र निर्माण की अवस्था में है और अंग्रेजों का योगदान इसमें है। मुखर्जी ने अपने भाषण में साफ कहा कि यूरोप में राष्ट्र-राज्य का उदय 17 वीं सदी की परिघटना है जबकि भारत का अस्तित्व एक राष्ट्र के रुप में सदियों से रहा है। उन्होंने विदेशी यात्रियों के यहां आने तथा भारत के वर्णन को अपने कथन के प्रमाण के रुप में प्रस्तुत किया। यह एक बड़ी बात है। दुर्भाग्य से हमें संघ का विरोध करना है इसलिए वो जो कुछ भी कहता है उसका विरोध करो की भावना में हम भारतीय राष्ट्र के इस ध्रुव सत्य को भी विवाद का विषय बना चुके हैं। जो लोग कह रहे हैं कि प्रणब ने संघ को उसके मंच से आईना दिखाया वे कम से कम इस सच को तो स्वीकार लें। इस सच को स्वीकारने मात्र से भारत के संदर्भ में कितना कुछ बदल जाएगा इसकी कल्पना करिए। अंग्रेजों और अपने यहां के स्वनामधन्य इतिहासकारों द्वारा लिखित पूरा इतिहास बदल जाएगा।

मुखर्जी ने भारतीय राष्ट्रीयता में विविधता और बहुलता की बात की। भागवत ने भी अपने भाषण में कहा कि विविधता में जो अंतर्निहित एकता है उसे स्वीकार कर आगे बढ़ना होगा। विविधता होना समृद्धि की बात है। दिखने वाली विविधता एक ही एकता का है। उस एकता का भाव रखकर हम सब एक हैं इसका दर्शन समय-समय पर होते रहना चाहिए। तो अंतर कहां है? हिन्दुत्व का दर्शन भी यही है। जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं उसमें अनेक पंथ पैदा हुए, कितने विलीन हो गए और कितने आज भी कायम हैं। किंतु सबके मूल में एक ही बात है, उस परमतत्व को प्राप्त करना। उसी को केन्द्र में रखकर भारतीय राष्ट्र की सारी व्यवस्था निर्मित हुई। मुखर्जी ने संसद के द्वार संख्या छः परं लिखे कौटिल्य के श्लोक प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां तु हिते हितम, नात्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम का जिक्र करते हुए कहा कि प्रजा के हित और सुख में ही राजा का सुख निहित है। उनका कहना था कि जिसे आधुनिक लोकतंत्र कहते हैं उसके पैदा होने के पहले ही हमारे यहां यह विचार प्रचलित हो गया था। प्रणब ने हिन्दुत्व का नाम नहीं लिया। लेकिन यह दर्शन कहां से आया? उसी हिन्दुत्व से, भारतीय दर्शन से जिसे आज फासीवाद का पर्याय बता दिया जाता है। मुखर्जी ने भी यह तो कहा ही कि भारत से होकर हिंदुत्व के प्रभाव वाला बौध धर्म मध्य एशिया, पूर्वी एशिया,चीन तक पहुंचा।

प्रणव मुखर्जी ने कहा कि धर्म, मतभेद और असिहष्णुता से भारत को परिभाषित करने का हर प्रयास देश को कमजोर बनाएगा। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय पहचान और भारतीय राष्ट्रवाद सार्वभौमिकता और सह-अस्तित्व से पैदा हुआ है। उन्होंने सार्वजनिक बहस में बढ़ती हिंसा की आलोचना की। भागवत ने क्या कहा? हम सब भारत माता के पुत्र हैं। अपने अंतःकरण से भेदों को तीलांजलि देकर देश के लिए पुरुषार्थ करने के लिए तैयार हो जाएं तो सारे विचार सारे मत एक हो जाते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि किस मत से हमें कोई परहेज नहीं है। दुश्मन कोई नहीं है। सबके पूर्वज समान हैं। सबके जीवन के उपर भारतीय संस्कृति के प्रभाव स्पष्ट रुप से देखने को मिलते हैं। अपने को संकुचित भेद छोड़कर सबकी विविधताओं का सम्मान करते हुए संघ सबको जोड़ने का काम करता है। हम समाज में नहीं पूरे समाज को संगठित करने का काम कर रहे है। संघ में एक विशिष्ट व्यवहार है और वह है सौहार्द्र का सौमन्वस्य का सबको समझने का। इसी को लोकतांत्रिक सोच कहते हैं। विचार कुछ भी हो, देश के सामने जितनी भी समस्याएं हैं उनके हल के बारे में भी विचार कुछ भी हो जातिपांति पंथ संप्रदाय जो भी हो राष्ट्र के लिए हमारा आचरण कैसा हो यह विचार करके अपने आचरण उदाहरण के रुप में प्रस्तुत करने वाला होना चाहिए। भागवत ने शक्ति की भी बात की। उन्होंने कहा कि किसी भी कार्य को करने के लिए शक्ति चाहिए। शक्ति सबको मिलकर काम करने में है। लेकिन शक्ति को शील का आधार नहीं तो वह शक्ति दानवी शक्ति हो जाएगी। शक्ति से दूसरांें को पीड़ा कौन देते हैं? दुष्ट लोग देते हैं। हम शक्ति का उपयोग रक्षण के लिए करते हैं। शक्ति को शील का आधार चाहिए बिना उसके अनियंत्रित शक्ति विनाश करती है। अपना काम सज्जन शक्ति को संगठित करने का है। यह हिंसा और असहिष्णुता का निषेध ही तो है। यानी जो शक्ति हम पैदा करते हैं वो शीलयुक्त है, नियंत्रित है और यह हिन्दुत्व से, भारतीय संस्कृति से मिला है।  

अब संघ को हम कैसे समझें? भागवत ने कहा कि आप हमें प्रत्यक्ष देखिए। जो कुछ मैंने कहा वो संघ में है कि नहीं इसकी पड़ताल करिए। अगर लगता है कि वैसा है तो सहभागी करिए। संध को अंदर से परखिए। यहां सब आ सकते हें, सब परख सकते हैं। परखकर भाव बना सकते है। हम जो हैं वहीं करते हैं। सबके प्रति सद्भाव रखकर सबके प्रति सम्मान रखकर चल रहे हैं। तो यह आह्वान है बाहर से विचार बनाने की बजाय निकट आकर देखिए और फिर अपना मत तय करिए। क्या हम आप इसके लिए तैयार हैं?

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

शनिवार, 2 जून 2018

उपचुनाव परिणामों के अतिवादी निष्कर्ष से बचें

 

अवधेश कुमार

भारत में पहले उप चुनावों को राष्ट्रीय स्तर पर महत्व न के बराबर मिलता था। अब यह प्रवृत्ति बदल गई है। जबसे नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार केन्द्र में आई है एक-एक चुनाव मानो राष्ट्रीय महत्व का हो गया है। हर चुनाव को हम मोदी के समर्थन और विरोध के नजरिए से देखते हैं तो यह स्वाभाविक है। सामान्य तौर पर यह समझना मुश्किल है कि तीन राज्यों में चार लोकसभा तथा 9 राज्यों की 11 विधानसभा क्षेत्रों के उपचुनावों से हम मोदी का समर्थन घटने और बढ़ने या 2019 की दृष्टि कोई आकलन कैसे कर सकते हैं। यह कहा जा सकता है कि जब मोदी विरोधी विपक्ष एकजुटता की बात हो रही है और यह उपचुनावों में कुछ जगह धरातल पर मूर्त रुप ले रहा है तो इन पर देश भर की दृष्टि लगना बिल्कुल स्वाभाविक है। परिणामों के अनुसार इसका राजनीतिक निहितार्थ भी निकाला जाएगा। अगर चार में से तीन लोकसभा सीटें भाजपा की थीं और उसमें से दो उसके हाथ से निकल गए तो इसका तत्काल कुछ तो मायने है। इसी तरह विधानसभाओं में यदि भाजपा अपनी पूर्व की दो में से एक सीट बचाने में कामयाब नहीं रहतीं हैं तथा उसके सहयोदी जद-यू, अकाली दल अपनी सीटें गंवा बैठते हैं तो इसका किसी न किसी तरह विश्लेषण किया जाएगा और जो होगा वह भाजपा के अनुकूल नहीं हो सकता। तो फिर?

वस्तुतः जिस विपक्षी एकजुटता की कोशिश हो रही है वह उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड में सम्पूर्ण दिखा है। उत्तर प्रदेश कैराना लोकसभा तथा नूरपुर विधानसभा क्षेत्र में विपक्ष ने भाजपा के खिलाफ एक-एक सम्मिलित उम्मीदवार उतारा। दोनों सीटें भाजपा के हाथों से निकल गईं। इसका सामान्य अर्थ यही है कि अगर 2019 में भाजपा के विरुद्ध इसी तरह विरोधी दलों यानी सपा, बसपा, रालोद तथा कांग्रेस ने एक-एक उम्मीदवार उतारा तो फिर यह परिणाम विस्तारित हो सकता है। कैराना में रालोद के उम्मीदवार को इन सभी पार्टियों का घोषित-अघोषित समर्थन था। बसपा ने खुलकर समर्थन की घोषणा नहीं की थी लेकिन संकेत साफ था। इस तरह परिणाम को आप भाजपा विरोधी गठबंधन के कारण मतों की एकजुटता का परिणाम मान सकते हैं। उत्तर प्रदेश का महत्व इस मायने में है कि यहां लोकसभा की 80 सीटें हैं जिनमें से भाजपा को 71 एवं सहयोगी अपना दल को दो सीटें मिलीं थीं। यानी 2014 में मोदी के नेतृत्व में भाजपा को लोकसभा में बहुमत मिला तो उसमें उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी भूमिका थी। एक धारणा यह बनाई गई थी कि सपा और बसपा के नेताओं के बीच यदि गठबंधन हो भी गया तो इसका जमीन पर कार्यकर्ताओं के बीच उतर पाना कठिन होगा। पहले गोरखपुर, फूलपुर एवं अब कैराना तथा नूरपुर के परिणामों का कम से कम इस समय निष्कर्ष यही है कि यह धारणा पूरी तरह सही नहीं थी।

इसी तरह महाराष्ट्र में प्रवेश करें तो पालघर एवं भंडारा गोंदिया लोकसभा तथा पलूस कोडेगांव विधानसभा के परिणामों के अर्थ क्या हैं? पालघर भाजपा की सीट थी लेकिन उनके सांसद का स्वर्गवास हो गया और उनका बेटा शिवसेना में चला गया। यहां एनसीपी एवं कांग्रेस का संयुक्त उम्मीदवार था, शिवसेना भाजपा से अलग लड़ रही थी एवं बहुजन अघाड़ी दल भी था। इसमें भाजपा जीत गई है।  भंडारा गोंदिया में शिवसेना ने अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं किया तो वहां राकांपा जीती। इसका अर्थ यह है कि महाराष्ट्र में शिवसेना भाजपा के विरुद्ध जो बयानवाजी कर रही है उसका असर नीचे तक गया है। शिवेसना के कार्यकर्ताओं और समर्थकांें ने भंडारा गोंदिया में राकांपा के उम्मीदवार को मत दिया लेकिन भाजपा को नहीं। यह स्थिति अगर 2019 तक कायम रहती है तो भाजपा एवं शिवसेना दोनों के लिए खतरा है। हां, शिवेसना के लिए खतरा भाजपा से ज्यादा है। इसका संकेत उनके लिए भी है। ध्यान रखिए, 2014 में महाराष्ट्र की 48 में से 42 सीटें भाजपा-शिवसेना के खाते गई थी। उपुचनाव का निष्कर्ष इस समय यही है कि अगर दोनों मिलकर लड़ें तभी यह स्थिति कायम रह सकती है। बिहार में जद-यू उम्मीदवार की राजद द्वारा इतने भारी मतों से पराजय भी महत्वपूर्ण है। हालांकि वहां ज्यादा दल हैं नहीं। वहां 2019 के समीकरण का अनुमान अभी लगाना जरा कठिन है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को हरा पाना अभी तक संभव नहीं दिख रहा हैं। किंतु भाजपा के लिए यहां राहत की बात यही है कि वह वाममोर्चा एवं कांग्रेस को पछाड़कर दूसरे स्थान पर आ गई है। हालांकि अगर वह तृणमूल कांग्रेस को पराजित करने की स्थिति में नहीं पहुंचती तो फिर दूसरे स्थान पर होने का कोई मतलब नहीं है।

 यह पहलू भविष्य के संदर्भ में कई ऐसे संदेश देता है जो विपक्ष के उत्साह को थोड़ा ठंढा कम देता है। इन चुनाव परिणामों को विपक्ष इस रुप में प्रचारित कर रहा है कि मिलकर लड़ने का सूत्र नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की सारी रणनीतियों को विफल करने में सक्षम है। सामान्य तौर पर देखने से परिणामों का निष्कर्ष यही निकलता है। किंतु इसके कुछ दूसरे पक्ष भी हैं। पश्चिम बंगाल में यह साफ हो गया है कि भाजपा विरोधी विपक्षी एकता संभव ही नहीं। तृणमूल के विरुद्ध वहां वामपंथी दल एवं कांग्रेस भी है। यही हाल केरल का है। वहां की माकपा अपनी एक सीट बचाने में कायम रही है। उसके विरुद्ध कांग्रेस के नेतृत्व वाला मोर्चा तथा भाजपा लड़ रहे थे। झारखंड मंें झारखंड मुक्ति मोर्चा अपनी दोनों सीट बचाने में अवश्य कामयाब रही, पर उसकी जीत का अंतर काफी कम रहा। यही स्थिति मेघालय मंें कांग्रेस की विजय के साथ हुई है। नगालैंड में राजग अपनी सीट बचाने में सफल रही। यानी कांग्रेस का उत्थान वहां नहीं हुआ है। इस तरह देखें तो जिस तरह की एकपक्षीय तस्वीर इन उप चुनाव परिणामों की पेश की जा रहीं हैं वैसी पूरी तरह है नहीं। हां, भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश के परिणाम बहुत फिलवक्त बड़ा धक्का अवश्य है। उसे यह विचार करना होगा कि आखिर वह प्रदेश में तीन अपनी लोकसभा एवं एक विधानसभा सीट क्यों गंवा बैठी है? विपक्ष को क्यों इसमें सफलता मिल गई? इस समय तो केन्द्र सरकार अपनी चार वर्ष की उपलब्धियों को देशव्यापी प्रचार में लगी है। उसके मंत्री, सांसद, कार्यकर्ता सभी जनता के बीच जा रहे हैं। इसका असर जनता पर अभी ज्यादा होना चाहिए। ऐसे माहौल में अगर वह हारी है तो उसके लिए इसमें गहरे आत्मविश्लेषण का कारण निहित है।

किंतु यही बात दूसरे प्रदेशों के साथ नहीं कहा जा सकता और इसके भी दूसरे पक्ष हैं। सबसे पहले तो सम्पूर्ण देश के उपचुनावों को एक साथ मिलाकर उसकी एक राजनीतिक तस्वीर बना देना किसी दृष्टि से वस्तुनिष्ठ आकलन नहीं माना जा सकता। तात्कालिक उत्साह में कोई कुछ भी कहे अलग-अलग राज्यों की चार लोकसभा एवं 11 विधानसभा चुनाव के परिणाम पूरे देश की धारा का प्रतिनिधित्व नहीं करते। अगर उत्तर प्रदेश को ही लें तो कैराना में सभी दलों का एक उम्मीदवार होने के बावजूद जीत का अंतर केवल 42 हजार रहा। नूरपुर में भाजपा करीब 6600 मतों से हारी है। ये अंतर इतने ज्यादा नहीं हैं जो पाटे न जा सकें। कैराना में जाटों के बीच यह संदेश था कि अगर इस चुनाव में रालोद उम्मीदवार को मत नहीं दिया तो उनके नेता स्व. चौधरी चरण सिंह के परिवार की राजनीति खत्म हो सकती है। फिर एक समुदाय के अंदर भाजपा और मोदी को किसी तरह हराने का भाव पैदा किया गया था। इसमें ऐसा परिणाम आया है। 2019 में जब देश की सरकार चुनने के लिए चुनाव होगा तो वातावरण यही नहीं होगा। यह तर्क दिया जा रहा है कि 2014 एवं 2017 के चुनावों में बसपा, सपा, कांग्रेस, रालोद के मत भाजपा से ज्यादा थे और वे मिल जाएं तो इन्हें हरा सकते हैं। कैराना एवं नूरपुर मंे उतने प्रतिशत मत रालोद एवं सपा के उम्मीदवारों को नहीं मिला। इसलिए यह मान लेना सही नहीं है कि वो सारे मत एक साथ आने पर जुड़ ही जाएंगे। भंडारा गोंदिया में भी सभी पार्टियों ने मिलकर भी भाजपा को बहुत ज्यादा अंतर से नहीं हराया है। महाराष्ट्र में यदि शिवसेना स्थितियों को समझते हुए भाजपा के साथ आ गई तो परिणाम क्या हो जाएगा यह बताने की आवश्यकता नहीं। हां, इन चुनाव परिणामों ने अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे कुछ दलों मेे तत्काल उम्मीद अवश्य पैदा की है। उनका यह विश्वास सुदृढ़ हुआ है कि मोदी से सफलतापूर्वक मुकाबला करने का एकमात्र रास्ता साथ आना ही है। इससे माहौल बनाने में मदद मिलेगी। इससे निपटना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती है। दूसरी ओर भाजपा के कार्यकर्ताओं और समर्थकों में थोड़ी निराशा पैदा होगी। इससे बाहर निकालने के लिए नेतृत्व को काफी परिश्रम करना होगा। ऐसा नहीं कर पाए तो 2019 में उनकी कठिनाई बढ़ जाएगी। इससे ज्यादा और कुछ इन परिणामों में पढ़ना व्यावहारिक नहीं है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

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