शनिवार, 2 जून 2018

उपचुनाव परिणामों के अतिवादी निष्कर्ष से बचें

 

अवधेश कुमार

भारत में पहले उप चुनावों को राष्ट्रीय स्तर पर महत्व न के बराबर मिलता था। अब यह प्रवृत्ति बदल गई है। जबसे नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार केन्द्र में आई है एक-एक चुनाव मानो राष्ट्रीय महत्व का हो गया है। हर चुनाव को हम मोदी के समर्थन और विरोध के नजरिए से देखते हैं तो यह स्वाभाविक है। सामान्य तौर पर यह समझना मुश्किल है कि तीन राज्यों में चार लोकसभा तथा 9 राज्यों की 11 विधानसभा क्षेत्रों के उपचुनावों से हम मोदी का समर्थन घटने और बढ़ने या 2019 की दृष्टि कोई आकलन कैसे कर सकते हैं। यह कहा जा सकता है कि जब मोदी विरोधी विपक्ष एकजुटता की बात हो रही है और यह उपचुनावों में कुछ जगह धरातल पर मूर्त रुप ले रहा है तो इन पर देश भर की दृष्टि लगना बिल्कुल स्वाभाविक है। परिणामों के अनुसार इसका राजनीतिक निहितार्थ भी निकाला जाएगा। अगर चार में से तीन लोकसभा सीटें भाजपा की थीं और उसमें से दो उसके हाथ से निकल गए तो इसका तत्काल कुछ तो मायने है। इसी तरह विधानसभाओं में यदि भाजपा अपनी पूर्व की दो में से एक सीट बचाने में कामयाब नहीं रहतीं हैं तथा उसके सहयोदी जद-यू, अकाली दल अपनी सीटें गंवा बैठते हैं तो इसका किसी न किसी तरह विश्लेषण किया जाएगा और जो होगा वह भाजपा के अनुकूल नहीं हो सकता। तो फिर?

वस्तुतः जिस विपक्षी एकजुटता की कोशिश हो रही है वह उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड में सम्पूर्ण दिखा है। उत्तर प्रदेश कैराना लोकसभा तथा नूरपुर विधानसभा क्षेत्र में विपक्ष ने भाजपा के खिलाफ एक-एक सम्मिलित उम्मीदवार उतारा। दोनों सीटें भाजपा के हाथों से निकल गईं। इसका सामान्य अर्थ यही है कि अगर 2019 में भाजपा के विरुद्ध इसी तरह विरोधी दलों यानी सपा, बसपा, रालोद तथा कांग्रेस ने एक-एक उम्मीदवार उतारा तो फिर यह परिणाम विस्तारित हो सकता है। कैराना में रालोद के उम्मीदवार को इन सभी पार्टियों का घोषित-अघोषित समर्थन था। बसपा ने खुलकर समर्थन की घोषणा नहीं की थी लेकिन संकेत साफ था। इस तरह परिणाम को आप भाजपा विरोधी गठबंधन के कारण मतों की एकजुटता का परिणाम मान सकते हैं। उत्तर प्रदेश का महत्व इस मायने में है कि यहां लोकसभा की 80 सीटें हैं जिनमें से भाजपा को 71 एवं सहयोगी अपना दल को दो सीटें मिलीं थीं। यानी 2014 में मोदी के नेतृत्व में भाजपा को लोकसभा में बहुमत मिला तो उसमें उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी भूमिका थी। एक धारणा यह बनाई गई थी कि सपा और बसपा के नेताओं के बीच यदि गठबंधन हो भी गया तो इसका जमीन पर कार्यकर्ताओं के बीच उतर पाना कठिन होगा। पहले गोरखपुर, फूलपुर एवं अब कैराना तथा नूरपुर के परिणामों का कम से कम इस समय निष्कर्ष यही है कि यह धारणा पूरी तरह सही नहीं थी।

इसी तरह महाराष्ट्र में प्रवेश करें तो पालघर एवं भंडारा गोंदिया लोकसभा तथा पलूस कोडेगांव विधानसभा के परिणामों के अर्थ क्या हैं? पालघर भाजपा की सीट थी लेकिन उनके सांसद का स्वर्गवास हो गया और उनका बेटा शिवसेना में चला गया। यहां एनसीपी एवं कांग्रेस का संयुक्त उम्मीदवार था, शिवसेना भाजपा से अलग लड़ रही थी एवं बहुजन अघाड़ी दल भी था। इसमें भाजपा जीत गई है।  भंडारा गोंदिया में शिवसेना ने अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं किया तो वहां राकांपा जीती। इसका अर्थ यह है कि महाराष्ट्र में शिवसेना भाजपा के विरुद्ध जो बयानवाजी कर रही है उसका असर नीचे तक गया है। शिवेसना के कार्यकर्ताओं और समर्थकांें ने भंडारा गोंदिया में राकांपा के उम्मीदवार को मत दिया लेकिन भाजपा को नहीं। यह स्थिति अगर 2019 तक कायम रहती है तो भाजपा एवं शिवसेना दोनों के लिए खतरा है। हां, शिवेसना के लिए खतरा भाजपा से ज्यादा है। इसका संकेत उनके लिए भी है। ध्यान रखिए, 2014 में महाराष्ट्र की 48 में से 42 सीटें भाजपा-शिवसेना के खाते गई थी। उपुचनाव का निष्कर्ष इस समय यही है कि अगर दोनों मिलकर लड़ें तभी यह स्थिति कायम रह सकती है। बिहार में जद-यू उम्मीदवार की राजद द्वारा इतने भारी मतों से पराजय भी महत्वपूर्ण है। हालांकि वहां ज्यादा दल हैं नहीं। वहां 2019 के समीकरण का अनुमान अभी लगाना जरा कठिन है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को हरा पाना अभी तक संभव नहीं दिख रहा हैं। किंतु भाजपा के लिए यहां राहत की बात यही है कि वह वाममोर्चा एवं कांग्रेस को पछाड़कर दूसरे स्थान पर आ गई है। हालांकि अगर वह तृणमूल कांग्रेस को पराजित करने की स्थिति में नहीं पहुंचती तो फिर दूसरे स्थान पर होने का कोई मतलब नहीं है।

 यह पहलू भविष्य के संदर्भ में कई ऐसे संदेश देता है जो विपक्ष के उत्साह को थोड़ा ठंढा कम देता है। इन चुनाव परिणामों को विपक्ष इस रुप में प्रचारित कर रहा है कि मिलकर लड़ने का सूत्र नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की सारी रणनीतियों को विफल करने में सक्षम है। सामान्य तौर पर देखने से परिणामों का निष्कर्ष यही निकलता है। किंतु इसके कुछ दूसरे पक्ष भी हैं। पश्चिम बंगाल में यह साफ हो गया है कि भाजपा विरोधी विपक्षी एकता संभव ही नहीं। तृणमूल के विरुद्ध वहां वामपंथी दल एवं कांग्रेस भी है। यही हाल केरल का है। वहां की माकपा अपनी एक सीट बचाने में कायम रही है। उसके विरुद्ध कांग्रेस के नेतृत्व वाला मोर्चा तथा भाजपा लड़ रहे थे। झारखंड मंें झारखंड मुक्ति मोर्चा अपनी दोनों सीट बचाने में अवश्य कामयाब रही, पर उसकी जीत का अंतर काफी कम रहा। यही स्थिति मेघालय मंें कांग्रेस की विजय के साथ हुई है। नगालैंड में राजग अपनी सीट बचाने में सफल रही। यानी कांग्रेस का उत्थान वहां नहीं हुआ है। इस तरह देखें तो जिस तरह की एकपक्षीय तस्वीर इन उप चुनाव परिणामों की पेश की जा रहीं हैं वैसी पूरी तरह है नहीं। हां, भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश के परिणाम बहुत फिलवक्त बड़ा धक्का अवश्य है। उसे यह विचार करना होगा कि आखिर वह प्रदेश में तीन अपनी लोकसभा एवं एक विधानसभा सीट क्यों गंवा बैठी है? विपक्ष को क्यों इसमें सफलता मिल गई? इस समय तो केन्द्र सरकार अपनी चार वर्ष की उपलब्धियों को देशव्यापी प्रचार में लगी है। उसके मंत्री, सांसद, कार्यकर्ता सभी जनता के बीच जा रहे हैं। इसका असर जनता पर अभी ज्यादा होना चाहिए। ऐसे माहौल में अगर वह हारी है तो उसके लिए इसमें गहरे आत्मविश्लेषण का कारण निहित है।

किंतु यही बात दूसरे प्रदेशों के साथ नहीं कहा जा सकता और इसके भी दूसरे पक्ष हैं। सबसे पहले तो सम्पूर्ण देश के उपचुनावों को एक साथ मिलाकर उसकी एक राजनीतिक तस्वीर बना देना किसी दृष्टि से वस्तुनिष्ठ आकलन नहीं माना जा सकता। तात्कालिक उत्साह में कोई कुछ भी कहे अलग-अलग राज्यों की चार लोकसभा एवं 11 विधानसभा चुनाव के परिणाम पूरे देश की धारा का प्रतिनिधित्व नहीं करते। अगर उत्तर प्रदेश को ही लें तो कैराना में सभी दलों का एक उम्मीदवार होने के बावजूद जीत का अंतर केवल 42 हजार रहा। नूरपुर में भाजपा करीब 6600 मतों से हारी है। ये अंतर इतने ज्यादा नहीं हैं जो पाटे न जा सकें। कैराना में जाटों के बीच यह संदेश था कि अगर इस चुनाव में रालोद उम्मीदवार को मत नहीं दिया तो उनके नेता स्व. चौधरी चरण सिंह के परिवार की राजनीति खत्म हो सकती है। फिर एक समुदाय के अंदर भाजपा और मोदी को किसी तरह हराने का भाव पैदा किया गया था। इसमें ऐसा परिणाम आया है। 2019 में जब देश की सरकार चुनने के लिए चुनाव होगा तो वातावरण यही नहीं होगा। यह तर्क दिया जा रहा है कि 2014 एवं 2017 के चुनावों में बसपा, सपा, कांग्रेस, रालोद के मत भाजपा से ज्यादा थे और वे मिल जाएं तो इन्हें हरा सकते हैं। कैराना एवं नूरपुर मंे उतने प्रतिशत मत रालोद एवं सपा के उम्मीदवारों को नहीं मिला। इसलिए यह मान लेना सही नहीं है कि वो सारे मत एक साथ आने पर जुड़ ही जाएंगे। भंडारा गोंदिया में भी सभी पार्टियों ने मिलकर भी भाजपा को बहुत ज्यादा अंतर से नहीं हराया है। महाराष्ट्र में यदि शिवसेना स्थितियों को समझते हुए भाजपा के साथ आ गई तो परिणाम क्या हो जाएगा यह बताने की आवश्यकता नहीं। हां, इन चुनाव परिणामों ने अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे कुछ दलों मेे तत्काल उम्मीद अवश्य पैदा की है। उनका यह विश्वास सुदृढ़ हुआ है कि मोदी से सफलतापूर्वक मुकाबला करने का एकमात्र रास्ता साथ आना ही है। इससे माहौल बनाने में मदद मिलेगी। इससे निपटना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती है। दूसरी ओर भाजपा के कार्यकर्ताओं और समर्थकों में थोड़ी निराशा पैदा होगी। इससे बाहर निकालने के लिए नेतृत्व को काफी परिश्रम करना होगा। ऐसा नहीं कर पाए तो 2019 में उनकी कठिनाई बढ़ जाएगी। इससे ज्यादा और कुछ इन परिणामों में पढ़ना व्यावहारिक नहीं है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

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