शनिवार, 11 नवंबर 2017

जंतर-मंतर से धरना प्रदर्शनों का हटाया जाना कई प्रश्न खड़े करता है

 

अवधेश कुमार

जंतर-मंतर का पूरा नजारा बदल गया है। वर्षों से जहां चारो ओर आंदोलनकारियों के बैनरों-पोस्टरों तथा तरह-तरह के तंबुओं की भरमार होती थी वहां अब करीने से सजाए गए फूल भरे गमले दिख रहे हैं। हर दिन की चहल-पहल और जन समूह गायब है। दिल्ली पुलिस के पास राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के आदेश को अमल करने की जिम्मेवारी थी और उसने वही किया। अपनी-अपनी मांगों और शिकायतों को लेकर वहां बैठे लोग अपने-आप तो हटने वाले नहीं थे, इसलिए पुलिस ने अपने स्वभाव के अनुरुप जितना संभव था बल प्रयोग किया। सबसे ज्यादा समस्या पूर्व सैनिकों के साथ पैदा हुआ। वे वन रैंक वन पेंशन में अपनी बची हुई मांगों को लेकर वहां लंबे समय से धरने पर बैठे थे। पुलिस ने जिस तरह का बल प्रयोग किया उससे फिर यह साबित हो गया कि हमारी पुलिस को अभी भी संवेदनशील मामलों से निपटने के तौर-तरीके सीखने की जरुरत है। बिना बल प्रयोग किए भी मामले से निपटा जा सकता है। कोई व्यक्ति या व्यक्ति समूह इस भावना से जंतर-मंतर पर आया है कि उनके साथ जो अन्याय हुआ है उसे यहां से सरकार तक पहुंचाया जा सकता है और उसे वहां से हटने के लिए कहा जाए तो उस पर क्या गुजरेगी इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।

वैसे तो जब 5 अक्टूबर को राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने जंतर-मंतर से धरना-प्रदर्शन बंद करने का आदेश दिया उसी दिन यह तय हो गया था कि करीब ढाई दशकों से देश भर के आंदोलनकारियों या सरकारों के किसी निर्णय से असंतुष्ट या अन्याय के शिकार लोगों को अपनी आवाज उठाने का गवाह बना जंतर मंतर इन मामलों में इतिहास बन सकता है। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में कुछ लोग मामला लेकर गए थे कि वहां होने वाली आवाज से प्रदूषण फैलता है तथा उनके शांति से रहने एवं सोने के अधिकार का हनन होता है। प्राधिकरण ने  इस याचिका पर फैसला देते हुए एक साथ दिल्ली सरकार, एनडीएमसी और दिल्ली पुलिस को आदेश दिया कि धरना-प्रदर्शन के लिए लगाए गए लाउड स्पीकर्स को फौरन जंतर-मंतर मार्ग से हटाए। साथ ही सभी तरह के धरना, प्रदर्शन, आंदोलन, सभा, जनसभा और रैली पर रोक लगाए। जंतर-मंतर रोड पर धरने पर बैठे सभी प्रदर्शनकारियों को तत्काल हटाकर रामलीला मैदान में शिफ्ट किया जाए। इसके अनुसार इस इलाके में लगातार प्रदर्शनों और इनमें इस्तेमाल हो रहे लाउड स्पीकर्स से ध्वनि प्रदूषण फैल रहा है। इस इलाके के लोगों को भी शांति से जीने का हक है। वो भी चाहते हैं कि उनका घर ऐसी जगह हो, जहां वातावरण प्रदूषण मुक्त हो।

इन्हें पांच सप्ताह का वक्त दिया गया था। इस बीच न किसी ने पुनर्विचार याचिका दायर की और न ही इस आदेश के विरुद्ध कोई न्यायालय गया। इसमें आदेश पालन होना ही था। किंतु इसने एक साथ कई प्रश्न हमारे सामने उपस्थित किए हैं। लोकतंत्र में अपनी मांगों को लेकर अहिंसक तरीके से कानून के दायरे में धरना-प्रदर्शन हमारा अधिकार है। अगर यह अधिकार है तो इसका पालन हो एवं इसकी रक्षा हो इसका दायित्व भी सरकारी एजेंसियों को है। यानी यह उनकी जिम्मेवारी है कि अपने इस अधिकार का प्रयोग लोग कर सकें इसके लिए उन्हें समुचित जगह और अवसर उपलब्ध कराए। दुनिया के हर लोकतांत्रिक देश में इसके लिए सरकारें व्यवस्था करती है। देश का केन्द्र दिल्ली है तो लोग अपनी मांगें और शिकायतें लेकर ज्यादा संख्या में यहां पहुंचेंगे। एक समय था जब दिल्ली के वोट क्लब पर ऐसे सारे आंदोलन होेते थे। वहां से केन्द्र सरकार के कार्यालय एवं संसद भवन दोनों पास थे। सत्ताधारी नेतागण और सरकारी अधिकारियों को यहां की गतिविधियां सीधे दिखाई पड़तीं थीं। उनकी आवाजें भी कई बार उनकी कानांे तक यूं ही पहुंच जाती थी। अचानक 1993 मंें उस स्थान को धरना-प्रदर्शन के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया। उसकी जगह जंतर-मंतर से लगे सड़क के फुटपाथ को इसके लिए अधिकृत किया गया।

उस निर्णय का भी काफी विरोध हुआ, लोगांें ने जबरन वहां धरने देने की कोशिश की और गिरफ्तारियां दीं लेकिन उनकी शक्ति इतनी नहीं थी कि उस निर्णय को बदलवाया जा सके। जंतर-मंतर के मामले में तो ऐसा भी नहीं हो रहा है। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के आदेश को उद्धृत करते हुए दिल्ली सरकार या केन्द्र सरकार कह सकती है कि उसके पास कोई चारा ही नहीं है। किंतु इसके साथ यह भी सच है कि सरकारों ने जंतर-मंतर को धरनास्थल बनाए रखने के लिए प्राधिकरण में ठीक से कानूनी लड़ाई भी नहीं लड़ी। दिल्ली सरकार तो जंतर-मंतर के आंदोलन की पैदाइश है। उसका तो ज्यादा भावनात्मक लगाव उस जगह से होना चाहिए था। उसे न केवल प्राधिकरण में जोरदार ढंग से लोगों के आंदोलन करने के अधिकारों का पक्ष रखना चाहिए था, बल्कि फैसले के विरुद्ध उपरी अदालत में जाना चाहिए था। ऐसा उसने नहीं किया तो इसे क्या कहा जाए? वस्तुतः सत्ता का चरित्र ऐसा ही होता है। कोई पार्टी नहीं होगी जिसने कभी न कभी जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन नहीं किया होगा, किंतु किसी ने एक शब्द इस आदेश पर नहीं बोला तो इसका क्या कारण हो सकता है?

इसका कारण सत्ता के चरित्र में निहित है। हमने बड़े से बड़े क्रांतिकारी व्यक्ति को सत्ता में जाने के साथ सत्तावादी होते देखा है। सत्ता की मानसिकता सामान्यतः आंदोलनों, धरना-प्रदर्शनों को अपने शासन में बाधा मानने की होती है। चंूकि आप कानूनन सामान्यतः उसे प्रतिबंधित नहीं कर सकते, इसलिए आप कोई एक जगह उसके लिए आवंटित कर देेते हैं तथा एक मशीनरी बन जाती है। आपको पुलिस वाले संबंधित विभाग ले जाएंगे जहां आपका मांग पत्र ले लिया जाएगा। यह बड़ा अजीबोगरीब है कि ज्यादातर आंदोलन सरकारों के खिलाफ होता है और वही यह तय करती है कि आप कहां, कैसे और कितनी देर तक आंदोलन करें तथा कहां अपनी मांग पत्र दें। यही व्यवस्था है और इसी के साथ हमें आपको काम करना है। लेकिन इस व्यवस्था को भी स्थिर और सम्माजनक ढंग से संचालित करना मुश्किल हो रहा है। सत्ता के अलावा भी देश में एक ऐसा सुखी संपन्न वर्ग है जो आंदोलन की गतिविधियों को हेय दृष्टि से देखता है, उसके प्रति वितृष्णा रखता है। आखिर जो लोग याचिका लेकर हरित प्राधिकरण गए उनके साथ भी तो कभी अन्याय हुआ होगा या कई ऐसी मांगों के लिए जंतर-मंतर पर आंदोलन हुए होंगे जो उनकी जिन्दगी से जुड़ते होंगे। किंतु यही आंदोलन उनकी नजर में खलनायक बन गया।

तो तत्काल जंतर-मंतर के आंदोलन स्थल को इतिहास बना दिया गया है। लेकिन आंदोलन जहां होंगे, धरना-प्रदर्शन जहां होगा वहां लाउडस्पीकर होंगे और उससे निकलने वाली आवाज से ध्वनि प्रदूषण होगा। यह तो नहीं हो सकता कि ध्वनि प्रदूषण जंतर-मंतर पर होगा और रामलीला मैदान में नहीं होगा। वहां के लोगों को भी शांति के साथ जीने और नींद लेने का अधिकार है। कोई कल इसी तर्क के साथ उस जगह का विरोध करते हुए हरित प्राधिकरण चला जाएगा तो क्या होगा? साफ है कि इस फैसले के विरुद्ध सशक्त कानूनी संघर्ष की आवश्यकता है। हरित प्राधिकरण में भी फिर से अपील की जा सकती है। यदि वहां से राहत नहीं मिलती है तो फिर उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। सच्चे लोकतंत्र में तो असंतोष अभिव्यक्त करने या अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए ऐसे महत्वपूर्ण जगह का आवंटन होना चाहिए जहां से सत्ता तक उनकी गूंज आसानी से पहुंच सके। इससे सत्ता को भी अपनी गलतियों को सुधारने तथा लोगांे के असंतोष कम करने का मौका मिलता है। दुर्भाग्य से इस दिशा में सरकारों की सोच जाती ही नहीं। इसे सम्पूर्ण व्यवस्था में विजातीय द्रव्य की तरह मान लिया गया और उसी अनुसार व्यवहार भी होता है। इस सोच में भी बदलाव की आवश्यकता है। अगर आप शांतिपूर्वक धरना-प्रदर्श्रन के लिए उचित जगह और माहौल मुहैया नहीं कराएंगे तो फिर असंतुष्ट लोग हिंसा का वरण करेंगे, जैसा हमने हाल के वर्षों में भी देखा है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208

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