शनिवार, 9 सितंबर 2017

आखिर नोटबंदी से मिला क्या

 

अवधेश कुमार

भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा नोटबंदी के दौरान वापस आए नोटों का आंकड़ा जारी करने के साथ सरकार पर राजनीतिक हमला आरंभ हो गया है। विपक्ष का प्रश्न है कि यदि बाजार में प्रचलित कुल नोटों में से 99 प्रतिशत वापस ही आ गए तो फिर कालाधन कहां निकला? पहली नजर में प्रश्न सही भी लगता है। अर्थशास्त्रियों की सोच और उनका तर्क जो भी रहा हो, लेकिन आम आदमी के बीच धारणा यही बनी थी कि इस कदम से जिनने भी कालाधन जमा कर रखा है उनकी शामत आ गई है। यानी 500 और 1000 रुपए में जिनने भी नकदी छिपाकर रखा है उनके नोट या तो सड़ जाएंगे या फिर वे पकड़े जाएंगे। रिजर्व बैंक का आंकड़ा पहली नजर मंे इसके विपरीत संदेश देता है। इसके अनुसार बाजार में करीब 15.44 लाख रुपए प्रचलन में थे जिनमें से करीब 15.28 लाख करोड़ वापस आ गए। 1000 के नोटों में से 99 प्रतिशत वापस आ गए। हालांकि रिजर्व बैंक ने 500 रुपए के नोटों मंे कितने वापस आए इसका आंकड़ा नहीं दिया है। किंतु कुल मिलाकर 98.96 प्रतिशत का बैंकिंग प्रणाली मंें आ जाना यानी केवल 1.4 प्रतिशत का न आना निर्मित धारणा के आलोक में निराश करने वाला है। कुल मिलाकर केवल 16 हजार 50 करोड़ रुपया प्रचलन में वापस नहीं आया। तो इसका क्या निष्कर्ष निकाला जाए?

यह तो हो नहीं सकता कि देश में केवल 16 हजार 50 करोड़ रुपया ही कालाधन के रुप में रहा हो। जाहिर है, तो कालाधन रखन वालों और हवाला कारोबारियों ने उस दौरान किसी तरह धन को बैंकों में खपा दिया। इसमें बैंकोें की मिलीभगत हो सकती है। अगर यह भी सच है तो इसे नोटबंदी योजना की विफलता माननी होगी। विपक्ष इस पर सवाल उठाएगा ही। देश के लिए  भी यह निराशा की स्थिति है। आम आदमी का समर्थन सरकार को इसीलिए मिला था क्योंकि वातावरण यह बनाया गया था कि धन्नासेठों की गंदी तिजोरियों पर डाका पड़ा है। इस दृष्टि से विचार करें तो यह खोदा पहाड़ निकली चूहिया वाली बात हो गई। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और यूपीए सरकार में वित्त मंत्री रह चुके पी चिदंबरम ने ट्वीट में लिखा है कि नोटबंदी के बाद 15,44,000 करोड़ के नोटों में से केवल 16000 करोड़ नोट नहीं लौटे। यह एक प्रतिशत है। नोटबंदी की अनुशंसा करने वाले रिजर्व बैंक के लिए यह शर्मनाक है। चिदंबरम ने लिखा है कि 99 प्रतिशत नोट विधिक तरीके से बदले गए। क्या नोटबंदी की योजना कालेधन को सफेद करने के लिए थी? चिदंबरम ने व्यंग्य किया है कि रिजर्व बैंक ने 16000 करोड़ रुपये कमाए लेकिन नए नोट छापने में 21000 करोड़ रुपये खर्च कर दिए। ऐसे अर्थशास्त्री को नोबेल पुरस्कार मिलना चाहिए। रिजर्व बैंक ने कहा कि नोटबंदी के बाद नये नोटों की छपाई से वर्ष 2016-17 में लागत दोगुनी होकर 7,965 करोड़ रुपये हो गई जो 2015-16 में 3,421 करोड़ रुपये थी। सपा के राज्यसभा सांसद नरेश अग्रवाल ने कहा कि उनकी पार्टी रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल के खिलाफ संसदीय समिति को गुमराह करने के लिए विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव लाएगी।

ये तो विपक्ष की प्रतिक्रियाओं के केवल दो उदाहरण हैं। वस्तुतः रिवर्ज बैंक की रिपोर्ट के बाद नोटबंदी पर राजनीति पूरी तरह गरमा गई है और शीत सत्र में सरकार को इसका सामना करना पड़ेगा। किंतु क्या यही सच है? क्या नोटबंदी को केवल इस आधार पर विफल मान लेना उचित है कि इससे 99 प्रतिशत राशि बैंकिंग प्रणाली में वापस आ गई? इस संदर्भ में वित्त मंत्री अरुण जेटली का जवाब देखिए। उन्होंने कहा कि नोटबंदी का उद्देश्य डिजिटलाइजेशन और आतंकवाद के वित्त पोषण पर चोट करना था। वित्त मंत्री के अनुसार नोटबंदी ने आतंकवादियों और पत्थरबाजों को मिलने वाली नकदी के प्रभाव को कम किया है, जैसा कि छत्तीसगढ़ और कश्मीर में देखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि भारत मुख्य रूप से उच्च नकदी वाली अर्थव्यवस्था है, इसलिए उस स्थिति में काफी बदलाव की आवश्यकता है। प्रत्यक्ष कर आधार में विस्तार हुआ है और ठीक ऐसा ही अप्रत्यक्ष कर के साथ भी हुआ है। यही नोटबंदी का प्रथम उद्देश्य था। अब करदाताओं की संख्या ज्यादा है, कर आधार बढ़ा है, डिजिटलीकरण बढ़ा है, सिस्टम में नकदी में कमी आई है, यह भी नोटबंदी के प्रमुख उद्देश्यों में से एक था। वास्तव में यह सच है कि प्रत्यक्ष कर देने वालों की संख्या में करीब 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। डिजिटल भुगतान मंें भी बढ़ोत्तरी हुई है। नोटबंदी के बाद बैंकिंग प्रणाली में नोटों का सर्कुलेशन 20.2 प्रतिशत कम हुआ है। इस साल सर्कुलेशन में नोटों का मूल्य 13.1 लाख करोड़ है जबकि पिछले साल मार्च में यह 16.4 लाख करोड़ थी। सरकार नोटबंदी की सफलता दर्शाने के लिए इसे प्रस्तुत कर रही है तो इसकें कुछ भी गलत नहीं है।

प्रश्न यह भी उठता है कि क्या नोटबंदी में ज्यादातर नोटों की वापसी से इसे विफल कहना उचित है? वास्तव में केवल नोटों की वापसी से इसे विफल या सफल करार नहीं दिया जा सकता है। रिजर्व बैंक का तर्क है कि नोटबंदी की सफलता को लेनदेन को बेहतर बनाने तथा अवैधता और धोखाधड़ी का पता लगाने के आधार पर आंका जाना चाहिए। इसके अनुसार नोटबंदी से न सिर्फ  अर्थव्यवस्था को औपचारिक रूप दिया जा सका है बल्कि सरकार के लिए गैरकानूनी और अवैध लेनेदन का पता लगाना संभव भी बनाया है। यह सच है कि किसी ने बैंक में रकम जमा करा दिया इसका यह मतलब नहीं कि वह सफेद हो गया। सारे जमा किए गए नोटों के आंकड़ों की जांच की जा रही है और लोगों को नोटिस भी जा रहा है। यानी जमा किए गए नोटों के बारे में उन्हें सही स्रोत बताना होगा और न बताने पर उसे कालाधन मानकर कार्रवाई की जाएगी। इस तर्क को स्वीकार कर लें तो अभी रिजर्व बैंक ने नोटबंदी का केवल दूसरा चरण पूरा किया है। यानी नोटों की वापसी के बाद उसे गिनने का। इसका तीसरा चरण उनमें से काला और सफेद को अलग करना है। यह काम जरा कठिन है लेकिन करना होगा। वैसे भी इतनी बड़ी राशि के बैंकिंग प्रणाली में आने का यह लाभ तो हुआ है कि बैंक अब ज्यादा कर्ज कम ब्याज पर दे सकेंगे। नोटबंदी से 2 लाख फर्जी कंपनियों का भी पता लगा है। यह भी इसकी एक सफलता ही है।

इस तरह निष्कर्ष निकलता है कि कुछ फर्जीवाड़ा तथा धोखाधड़ी को पकड़ना इससे आसान हुआ है। जो लोग अपने धन को छिपाकर कर देने से बचते थे उनमें से कुछ के ही सही कर देना पड़ रहा है। जिसका भी जमा असामान्य लगेगा उसकी संवीक्षा की जाएगी। लेकिन देश को तो तभी संतोष होगा जब वाकई ऐसा हो। आखिर देश को तो यही लग रहा था कि नोटबंदी का मतलब कालाधन का बाहर आना और भ्रष्टाचार पर बहुत बड़ा चोट है। आम आदमी की सोच यह थी और सच भी है कि देश में प्रभावी लोगों ने अकूत कालाधन जमा किया है और उसकी बदौलत तो ऐशो आराम की जिन्दगी जी रहे हैं। नोटबंदी उन पर सबसे बड़ी चोट मानी गई। सरकार की ओर से आए बयानों का अर्थ भी उस समय यही निकल रहा था। कम से कम रिजर्व बैंक के वर्तमान आंकड़े से स्वतः ऐसा निष्कर्ष नहीं निकलता है। तो सरकार को इसे प्रमाणित करना होगा कि वाकई उसने काला धन पर चोट किया है। आखिर आम लोगों ने नोटबंदी की बड़ी कीमत चुकाई है। कई-कई दिनों तक वो बैंकों तथा एटीएम के सामने कतारों में खड़े रहे हैं। शादियां तक रद्द करनी पड़ी या फिर शादियों को अत्यंत सादे तरीके से करना पड़ा। अपने आवश्यक खर्चों में व्यापक कटौती करनी पड़ी। जो छोटी कंपनियां बंद हुई या जिनके कारोबार पर असर पड़ा वहां से रोजगार के अवसर भी घटे। वस्तुतः अनेक प्रकार से नोटबंदी ने इस देश के आम आदमी को प्रभावित किया है। विकास दर में गिरावट के भी नोटबंदी से ही जोड़कर देखा जा रहा है। इन सबका मूल्य तभी चूकता होगा जब वाकई कालाधन वाले पकड़ में आएं। किंतु यहां भी यह प्रश्न उठता है कि जब रिजर्व बैंक को आंकड़ा देने में इतना समय लग गया तो फिर जमा हुए नोटों में से कालाधन को पकड़ने में कितना समय लगेगा?

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208

 

 

 

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