शनिवार, 26 नवंबर 2016

संसद का ठप्प होना किसी के हित में नहीं

 

अवधेश कुमार

 अगर विपक्ष के बयानों को देखे तो ऐसा लगेगा कि संसद न चलने देने के लिए खलनायक सरकार है। बड़ा अजीबोगरीब दृश्य बना हुआ है। संसद आरंभ होते ही विपक्ष हंगामा करता है और पीठासीन अधिकारी के सामने स्थगित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। संसद में बहस करने की जगह दोनों सदनों के करीब 200 सांसदों ने परिसर के अंदर गांधी जी की प्रतिमा के सामने प्रदर्शन किया और सरकार विरोधी नारे लगाए। विपक्ष के लोग इसे ऐसा मामला बना रहे हैं मानो सरकार ने इतना बड़ा जनविरोधी निर्णय लिया है जिसे रोकना उनका दायित्व है और यह संसद को ठप्प करके ही हो सकता है। हालांकि विपक्ष के बीच भी मतभेद हैं। कुछ पाटियां नोट वापसी के निर्णय के तौर तरीकों को गलत बता रहीं हैं तो कुछ इस निर्णय को ही वापस लेने की मांग कर रहीं हैं। ममता बनर्जी और अरविन्द केजरीवाल दूसरी श्रेणी के नेता है। इसके अलावा अधिकतर पार्टियां पहले विन्दू पर टिकीं हैं। विपक्ष के नाते आवाज उठाना इनका अधिकार और दायित्व दोनों है। जनता को अगर किसी फैसले से कष्ट हो रहा है तो उसके हक में आखिर आवाज कौन उठाएगा? इस नजरिए से देखा जाए तो इनका रवैया आपको सही नजर आएगा। किंतु आवाज उठाने का मतलब संसद को ठप्प करना नहीं है। आवाज उठाने का मतलब संसद के विषय को सड़क तक ले जाना भी नहीं है।

पहली नजर मंें ऐसा लग सकता है कि अगर विपक्ष कह रहा है कि प्रधानमंत्री सदन के अंदर आएं और जवाब दें तो इसमें गलत क्या है। आखिर नोटों की वापसी का फैसला उनका ही था तो जवाब वे ही क्यों न देें? प्रधानमंत्री जवाब दें यह मांग करने का अधिका विपक्ष को है और इसे अनौचित्यपूर्ण नहीं कह सकते।  किंतु इसका दूसरा पक्ष भी है। विपक्ष कह रहा है कि प्रधानमंत्री पूरी बहस के दौरान सदन में उपस्थित रहें। यह मांग अनुचित और अव्यावहारिक है। यह संसद की किसी नियम या पंरपरा में निहित नहीं है कि प्रधानमंत्री पूरी बहस के दौरान उपस्थित ही रहें। यह संभव भी नहीं है। प्रधानमंत्री के अनेक कार्यक्रम होते हैं। वे बहस के दौरान उपस्थित रह सकते हैं और नहीं भी। यह उनके पास उपलब्ध समय पर निर्भर करेगा। इसके लिए जिद करने का मतलब कि यहां कहीं पे निगाहें और कहीं पे निशाना वाली बात है। आप चाहते कुछ और हैं और बोल कुछ और रहे हैं। संसद यदि सत्र में है तो उसे सबसे ज्यादा महत्व दिया जाए यह सरकार की जिम्मेवारी है। प्रधानमंत्री उसके प्रमुख हैं, इसलिए संसद महत्वहीन न हो जाए इसका ध्यान रखना उनक भी दायित्व है। किंतु ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि प्रधानमंत्री सारे कार्यक्रम रद्द कर लंबी चलने वाली किसी बहस में पूरे समय बैठे हों। वैसे भी एक ही मांग दोनों सदनों में हो रही है। क्या कोई व्यक्ति चाहे भी तो एक साथ दोनों सदनांे मंें उपस्थित रह सकता है? नहीं न।

सरकार ने नहीं कहा है कि प्रधानमंत्री जवाब नहीं देंगे। प्रधानमंत्री को जवाब देने में समस्या भी नहीं होनी चाहिए। हालांकि यह आवश्यक नहीं है कि इस बहस का जवाब प्रधानमंत्री ही दें, किंतु विपक्ष की जिद है तो प्रधानमंत्री जवाब दे सकते हैं। जवाब बहस का दिया जाएगा। इसलिए पहले बहस तो हो। लोकसभा में विपक्ष की यह जिद है कि बहस कार्यस्थगन प्रस्ताव के तहत हो। इसका क्या मतलब है? कार्यस्थगन पर ही बहस करें यह जिद अनावश्यक है। कार्यस्थन प्रस्ताव में बहस के बाद मतदान का प्रावधान है। लोकसभा में सरकार को बहुमत प्राप्त है इसलिए यहां मतदान मंे समस्या नहीं है, फिर भी इसकी जिद क्यों? महत्वपूर्ण बहस है या नियम? नियम को प्रधानता देना और बहस को नहीं यह कहां की विवेकशीलता है। नोट वापसी पर संसद में मतदान का मतलब क्या है? हो सकता है इसके बाद मांग हो राज्य सभा में भी इस प्रस्ताव के तहत बहस हो और वहां सरकार के अल्पमत होने का लाभ उठाया जाए। राज्य सभा में तो बाजाब्ता बहस आरंभ हो गई थी। बीच में कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद ने नोट वापसी के बाद हुई कथित मौतों की तुलना कश्मीर में आतंकवादियों के हमले से कर दिया। इस पर सरकारी पक्ष ने आपत्ति की। हालांकि बाद मंें सरकार इस मांग से वापस आ गई कि आजाद माफी मांगे केवल इसलिए कि किसी तरह बहस हो। अब विपक्ष प्रधानमंत्री को बुलाने की मांग को आधार बनाकर बहस नहीं होने दे रहा है। सरकार बहस को तैयार है इसे लेकर कहीं संदेह की गुंजाइश नहीं है। विपक्ष की मांग इसमें बाधा है। इस संबंध में राज्य सभा के उपसभापति पी. जे. कूरियन का वक्तव्य यहां उद्धृत करने योग्य है। उन्होंने कहा कि आप कहते हैं कि प्रधानमंत्री बहस का जवाब दें तो यह मुझे समझ में आता है। लेकिन जब आप कहते हैं कि प्रधानमंत्री बहस में मौजूद रहें तो यह समझ में नहीं आता।

कूरियन का यह वक्तव्य ही विपक्ष के रवैये को समझने के लिए पर्याप्त है। वास्तव में कूरियन ने बिना कहे साफ कर दिया है कि विपक्ष का यह रवैया उचित नहीं है। वैसे भी विपक्ष की कुछ पार्टियां जो मांग कर रहीं हैं उनमें बीच के रास्ते की गुंजाइश इस समय नहीं दिख रहा। उदहारण के लिए कांग्रेस कह रही है कि नोट वापसी में बहुत बड़ा घोटाला है, घोषणा के पहले अपने लोगों को सरकार ने बता दिया था। इस आरोप को आधार बनाकर वे संयुक्त संसदीय समिति से जांच की मांग कर रहे है। अगर बहस कुछ समय के लिए हुआ भी तो संयुक्त संसदीय समिति की मांग को लेकर संसद फिर ठप्प किया जाएगा। ममता बनर्जी कह रहीं है कि यह फैसला ही गलत है इसे वापस लिया जाए। तो इस मांग को लेकर उनके सांसद संसद में हंगामा करते रहेंगे। इसलिए प्रधानमंत्री  अगर पूरे समय के लिए किसी सदन में बैठ भी जाएं उससे स्थिति बदलने वाली नहीं है। स्थिति तब बदलेगी जब पार्टियां यह तय करें कि हमें संसद चलाना है। राजनीति अपनी जगह है लेकिन संसद जिस उद्देश्य के लिए है उसके लिए हमें काम करना है।

कोई नहीं कहता कि विपक्ष सरकार पर हमला न करे, उसे घेरे नहीं। विपक्ष का काम ही आवश्यकता पड़ने पर सरकार को घेरना और हमला करना है। वह सरकार का अनुगामी नहीं हो सकता और होना भी नहीं चाहिए। लेकिन हमला, घेराव आलोचना सब सदन के अंदर बहस के माध्यम से हो। संसद बहस के लिए है। बहस होने से ही सरकार पर बाध्यकारी दबाव बन सकता है। आपको लगता है कि सरकार के निर्णय के कारण आम आदमी परेशान है तो आप संसद में सरकार से पूछिए कि ऐसा क्यों है और परेशानियों को दूर करने के लिए वह क्या कर रही है? आपके पस कुछ उपाय हैं तो वह बताइए। संसद ठप्प करना संसद की मूल धारणा के ही विपरीत है। सरकार और विपक्ष दोनों संसद के अंग हैं। इसलिए विपक्ष यह कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकता कि संसद चले यह केवल सरकार की ही जिम्मेवारी है। जिम्मेवारी उसकी भी है। कांग्रेस के नेता बातचीत में कहते हैं कि जब हमारी सरकार थी तो भाजपा संसद को चलने नहीं देती थी। हम इसमें यहां विस्तार से नहीं जाना चाहते कि यूपीए सरकार के दौरान संसद क्यों ठप्प होती थी। लेकिन ऐसे तर्क का एक अर्थ यही निकलता है कि आपने जो किया हम आपके साथ वही कर रहे हैं। यानी हमको संसद में आपको हलकान करना ही है और इसके लिए हम कोई भी कारण तलाश लेंगे। संसदीय लोकतंत्र में बदले की भावना से कोई काम नहीं किया जाना चाहिए। संसद ठप्प होने से नेताओं की ही छवि और धूमिल होती है और एक समय बाद धीरे-धीरे लोगों के अंदर संसदीय व्यवस्था को लेकर वितृष्णा पैदा होने लगती है। यह स्थिति लोकतंत्र के भविष्य के लिए चिंताजनक है। सच कहें तो संसद ठप्प होना किसी के हित में नहीं है। जितनी जल्दी इस गतिरोध का अंत किया जाए उतना ही देश के लिए, लोकतंत्र के लिए अच्छा होगा।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

http://mohdriyaz9540.blogspot.com/

http://nilimapalm.blogspot.com/

musarrat-times.blogspot.com

http://naipeedhi-naisoch.blogspot.com/

http://azadsochfoundationtrust.blogspot.com/