शुक्रवार, 18 मार्च 2016

संघ को लेकर ऐसे विवाद का औचित्य क्या है

 

अवधेश कुमार

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस समय तीन कारणों से चर्चा में है। राजस्थान के नागौर मंें आयोजित अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में संघ ने लंबे समय बाद अपना गणवेश बदला है। संघ का गणवेश बदलना भी देश भर की सुर्खिंया बना। संघ का नाम ही ऐसा है कि वो जो कुछ करेगा या उसके बारे में जो कुछ बोला जाएगा वह सब देश की मीडिया की सुर्खियां पा जाता है। वहीं से दूसरा वक्तव्य आरक्षण के संदर्भ में आया। संघ के सर कार्यवाह भैय्या जी जोशी ने कहा कि अमीर लोगों को उन लोगों के लिए आरक्षण छोड़ देना चाहिए जिनको इसकी वाकई जरुरत है। संघ और आरक्षण बिहार चुनाव के समय से बहस और विवाद के विषय बनाए गए हैं। तब सर संघचालक मोहन भागवत ने अपने साक्षात्कार में आरक्षण की समीक्षा की बात की थी। उनके अनुसार ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिससे आरक्षण वाकई जरुरतमंदों को ही मिले। लेकिन इन सबसे अलग कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद द्वारा संघ की विश्व के खंूखार आतंकवादी संगठन आईएसआईएस से तुलना करना हंगामे और तीखे विवाद का सबसे बड़ा कारण बना हुआ है। इसे लेकर संसद तक में ताप महसूस की जा रही है और संघ परिवार इसके खिलाफ देश भर में विरोध प्रकट कर रहा है। ये तीनों अलग-अलग खबरें हैं और इनका एक दूसरे से कोई संबंध भी नहीं लेकिन ये संघ से जु़ड़े हैं इसलिए इन पर अपने-अपने दृष्टिकोणों से टिप्पणियां की जा रहीं हैं।

गणवेश बदलना संघ का आंतरिक मामला है। वह अपने स्वयंसेवकों को किस तरह के वेश में देखना चाहता है यह उसका अपना अधिकार है। पहले स्वयंसेवक गणवेश के तौर पर सफेद शर्ट, खाकी हाफ पैंट, काला जूता, खाकी मोजा तथा सिर पर काली टोपी पहनते थे। अब अंतर इतना आया है कि स्वयंसेवक खाकी हाफ पैंट की जगह भूरे रंग का फुल पैंट पहनेंगे। संघ के अंदर भी इस पर दो मत हैं। कुछ का मानना है कि हाफ पैंट ही ठीक था, लेकिन शीर्ष नेतृत्व को लगा कि युवाओं को संगठन की ओर आकर्षित करने के लिए वेश में समय के अनुकूल बदलाव आवश्यक है। पांच वर्ष की चर्चा के बाद यह निर्णय हुआ है। देखना होगा कि वाकई इस बदलाव का संघ के युवा स्वयंसेवकों की संख्या बढ़ाने में कोई योगदान होता है या नहीं, पर किया उसी उद्देश्य से गया है। इस पर विरोधियों का प्रश्न है कि क्या संघ की ओर युवाओं का आकर्षण कम हुआ जिसके कारण उन्हांेने यह बदलाव किया है? कुछ ने यह कटाक्ष भी किया है कि केवल गणवेश नहीं विचार बदलें। यह विरोधियों की आवाज है जिससे संघ प्रभावित नहीं होता। 1925 में अपनी स्थापना से लेकर आज तक संघ की विचार यात्रा में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं आया हैं। हां, आजादी के पहले स्वयंसेवक अपने शपथ मंें भारत को आजाद कराने की बात करते थे, जबकि आजादी के बाद वे इसे परम वैभव तक पहुंचाने की शपथ लेेते हैं। इसके अलावा हिन्दुत्व, हिन्दू राष्ट्र आदि पर उसके विचार यथावत हैं और हम आप उससे सहमत या असहमत हों....इसी विचार के आधार पर वह संगठन 91 वर्षों में लगातार विस्तारित और शक्तिसंपन्न होता गया है। इस समय कहा जा रहा है कि संघ और उसके विचार परिवार के संगठनों को मिलाकर वह दुनिया का सबसे बड़ा संगठन है जिसका भारत के बाहर भी 150 से ज्यादा देशों तक फैलाव है।

लेकिन आरक्षण के संदर्भ में संघ की मूल विचारधारा में कोई बात नहीं कही गई है। समय-समय पर संघ के अधिकारी जो बात करते हैं उन्हें आरक्षण के संबंध में उसका विचार मान लिया जाता है। किंतु अगर संघ कह रहा है कि अमीर लोग गरीब लोगों के लिए आरक्षण का परित्याग करें तो इसमें गलत क्या है? क्या इसका केवल इसलिए विरोध होना चाहिए कि इसे संघ ने कहा है? या हम संघ के विरोधी हैं इसलिए उसकी बात को गलत मोड़ दे दें? कह दें कि संघ तो आरक्षण को खत्म करना चाहता है, इसलिए अलग-अलग तरीके से उसे अप्रासंगिक साबित करने की कोशिश कर रहा है। जब मोहन भागवत ने समीक्षा की बात की थी तब भी उस बयान में आरक्षण खत्म करने का भाव न था और न आज भैय्या जी जोशी के बयान में ही। चुनाव और राजनीति के कारण उस समय इसको गलत मोड़ दिया गया और चंूकि इस समय फिर पांच राज्यों के चुनाव हैं, इसलिए इसकी गलत दिशा में व्याख्यायित करने की पूरी संभावना है। आखिर आरक्षण की इस दृष्टि से समीक्षा क्यों नहीं होनी चाहिए कि इसका लाभ वाकई उन लोगों तक पहुंचता है या नहीं जिनको इसकी जरुरत है? दुखद सच्चाई तो यह है कि एक परिवार लगातार आरक्षण का लाभ लेते-लेते व्यवहार में संपन्न और अभिजात्य की श्रेणी में आ जाता है और ज्यादा गरीब वर्ग इससे वंचित रह जाता है। इस दिशा में बदलाव समय की मांग है और यह बात कोई करे तो उसे आरक्षण विरोधी करार दिया जाए ये उचित नहीं। शायद पिछले बयान के कटु अनुभव को ध्यान में रखते हुए ही संघ ने अब अमीरों से आग्रह किया है कि अपने गरीब बंधुओं के लिए उनको आरक्षण छोड़ना चाहिए। हालांकि बात वही है कि किसी तरह आरक्षण उन तक पहुंचे जो इसके पात्र हैं या जिनको इसकी आवश्यकता है तथा आरक्षण का लाभ उठाकर जिनकी सामाजिक-आर्थिक अवस्था समुन्नत हो गई है उनको इससे बाहर किया जाए। संघ की सलाह कोई तत्काल मानेगा इसकी संभावना कम है, लेकिन इससे बहस तो छिड़ेगी।  वैसे संघ की आलोचना करने वाले भूल रहे हैं कि उच्चतम न्यायालय ने भी क्रीमी लेयर यानी मलाईदार परत या संपन्न हो गए वर्ग को इससे बाहर करने का फैसला दिया हुआ है। 

अब आइए आजाद के बयान पर। हालांकि आजाद ने सफाई दी है कि उन्होंने संघ की तुलना आईएस से नहीं की है, लेकिन जमीयत ए उलेमा हिन्द के कार्यक्रम में भाषण देते हुए उन्होंने कह दिया कि आरएसएस की उसी तरह निंदा करते हैं जिस तरह आईएसआईएस की। इस भाषण का सीधा अर्थ यही निकलता है कि आजाद आईएसआईएस और संघ को एक ही तराजू का संगठन मान रहे हैं। संघ के विरोधियों की संख्या इतनी ज्यादा है और उनका बौद्धिक व मीडिया क्षेत्र में इतना प्रभाव है कि आजाद को कुछ समर्थन भी मिल रहा है। किंतु जरा पक्ष-विपक्ष से उपर उठकर विचार करिए। आईएसआईएस दुनिया का क्रूरतम आतंकवादी संगठन है जिसके नेता ने स्वयं को इस्लाम का खलीफा घोषित कर दुनिया को इस्लामिक साम्राज्य में बदलने की जुनूनी मानसिकता से अकल्पनीय हिंसा का अभियान चलाया हुआ है। सीरिया, इराक और तुर्की में संघर्ष के अलावा दुनिया भर में हमले कर रहा है। पूरी दुनिया में उसे लेकर दहशत है और उस पर कई देशों की सेनाएं हमला कर रहीं हैं। आप संघ के चाहे जितने भी विरोधी हों, लेकिन आईएसआईएस से उसकी तुलना कैसे कर सकते हैं? एक जेहादी आतंकवादी संगठन और खुले में काम करने वाले संगठन को समानता के धरातल पर कैसे रखा जा सकता है? जाहिर है, आजाद विरोध में सीमा का उल्लंघन कर गए हैं।

ऐसे बयानों के परिणाम भी भारत के लिए उल्टे आते हैं। भारत के विरोधी देश ऐसे बयानों को उद्वृत करके यह प्रचारित करते हैं कि देखिए वहां भी आइएस जैसा संगठन आरएसएस है। तीन वर्ष पहले तत्कालीन गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने जयपुर कांग्रेस की सभा में यह कह दिया था कि भाजपा के प्रशिक्षण शिविरों में बाजाब्ता हथियारों का प्रशिक्षण दिया जाता है और आतंकवादी तैयार होते हैं। उस समय भी पूरा हंगामा हुआ। हालांकि वो नाम संघ का लेना चाहते थे, उनके मुंह से भाजपा निकल गया। बाद मंे उनको अपना बयान वापस लेना पड़ा। संघ का विरोध या आलोचना नई बात नहीं है। किंतु पिछले कुछ समय से गाहे-बगाहे आतंकवाद से उसका संबंध जोड़ने की कोशिश हुई है। केसरिया आतंकवाद या हिन्दू आतंकवाद शब्द का आविर्भाव उसी सोच से हुआ है। हालांकि सच यही है कि पूर्व सरकार भी संघ के संगठित आतंकवाद की संलिप्तता के सबूत न पा सकी और उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। अगर पूर्व संप्रग सरकार को तनिक भी सबूत मिल जाता तो वह संघ के खिलाफ अवश्य कठोर कार्रवाई करती। ऐसा नहीं हुआ तो उसके अर्थ स्पष्ट हैं। विचारधारा के आधार पर मतभेद समझ में आने वाली बात है लेकिन ऐसी विकृत सोच उचित नहीं कि उसके सही बयान को भी गलत साबित किया जाए और फिर सीमा से आगे बढ़कर उसे आतंकवादी संगठन के समकक्ष खड़ा कर दिया जाए।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

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