गुरुवार, 24 सितंबर 2015

आखिर मन की बात पर रोक की मांग का औचित्य क्या था

 

अवधेश कुमार

चुनाव आयोग ने 19 सितंबर को साफ कर दिया कि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मन की बात रेडियो कार्यक्रम पर रोक नहीं लगा सकता। चुनाव आयोग के इस निर्णय का अर्थ था कि वह इसे चुनावी आचार संहिता का उल्लंघन नहीं मानता। हां, आयोग ने इतना अवश्य कहा कि इसका ध्यान रखा जाए कि इससे बिहार विधानसभा चुनाव किसी तरह प्रभावित नहीं हो। 20 सितंबर के मन की बात में चुनाव आयोग को ऐसा कोई भी पहलू नहीं मिला होगा जिससे वह कह सके कि वाकई चुनाव तक इसे रोका जाए। बिहार चुनाव के बीच एक मन की बात और होगी और उम्मीद है कि उससे भी कोई विवाद पैदा नहीं होगा। कांग्रेस, जद यू तथा राजद ने चुनाव आयोग से मांग की थी कि वह बिहार विधानसभा चुनाव होने तक मन की बात पर रोक लगा दे, क्योंकि यह आचार संहिता का उल्लंघन है। इन पार्टियों ने तो सत्ता संसाधन के दुरुपयोग से लेकर इसे न जाने क्या-क्या कह दिया था। इतना आक्रामक बयान मानो मन की बात से ही प्रभावित होकर बिहार के मतदाता भाजपा या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के पक्ष में मतदान कर देंगे। ध्यान रखिए इसके पूर्व दिल्ली एवं हरियाणा चुनाव के दौरान भी इस तरह की मांग की गई थी एवं आयोग का यही जवाब था। महाराष्ट्र चुनाव के दौरान कांग्रेस ने आयोग से मन की बात कार्यक्रम रोकने की अपील की थी। कहने का तात्पर्य यह कि इन पार्टियों के सामने मन की बात कार्यक्रम पर आयोग की सोच पहले से स्पष्ट थी। बावजूद इसके यदि ये मांग करने पहुंचे तो इसका अर्थ क्या है?

चुनाव आयोग का जो जवाब पहले था लगभग वही जवाब आज भी है। यानी प्रधानमंत्री को मन की बात से या कैबिनेट बैठक में देश के लिए कोई निर्णय करने से नहीं रोका जा सकता है। हां, यह पाए जाने के बाद ही कोई संज्ञान लिया जा सकता है कि कार्यक्रम की सामग्री आचार संहिता का उल्लंघन करती है। आयोग का कहना है कि शिकायत के बाद चुनाव आयोग कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग का अध्ययन करता है और तब फैसला लेता है। जाहिर है, इस शिकायत के बाद प्रधानमंत्री मोदी के मन की बात की आयोग ने रिकॉर्डिंग की होगी और उसके एक-एक शब्द को आचार संहिता की कसौटी पर परखेगा। तो विरोधी दलों की शिकायत का इतना असर हुआ कि आयोग की पैनी नजर प्रधानमंत्री की बातों पर थी। दूसरे, इन दलों ने इसका विरोध कर यह भी सुनिश्चित करने की कोशिश की कि इस दबाव में प्रधानमंत्री सतर्क होकर अपनी बात रखेंगे एवं बिहार के लोगों को चुनाव के लिए प्रभावित करने वाला कोई तत्व इसमें नहीं होगा। हालांकि आयोग ने अपने जवाब में इस बात का भी उल्लेख किया कि हरियाणा विधानसभा चुनाव के दौरान कार्यक्रम के खिलाफ कांग्रेस ने इस तरह की मांग की थी, लेकिन निर्वाचन आयोग को कार्यक्रम में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं मिला था।

हमारे देश का राजनीतिक प्रतिष्ठान गंभीर समस्याआंें के दुष्चक्र में फंसा है। हम सब यह स्वीकारते हैं कि राजनीतिक दल दिशाभ्रम के शिकार हैं। उनको ठीक से यह समझ ही नहीं आता कि कौन से मुद्दे उठाए जाने चाहिएं, कौन से नहीं, विरोधी पर राजनीति प्रहार के लिए कौन सा विषय उपयुक्त होगा कौन अनुपयुक्त, जनता के सामने सकारात्मक राजनीति को कैसे पेश किया जाए .....आदि पर लगभग सभी राजनीतिक दलों में दिशाहीनता है। यही कारण है कि जो मुद्दे नहीं हो सकते, उसे वे उठाते हैं और परिणाम यही आता है जो मन की बात के संदर्भ मंे चुनाव आयोग के उत्तर से मिला। संसदीय लोकतंत्र में दलीय राजनीति की महत्वपूर्ण भूमिका है। राजनीतिक दलों की अवधारणा के पीछे मूल बात यह है कि दल विचारधारा और कार्यक्रमों के साथ जनता के बीच जाते हैं, उनको विचार करने के लिए प्रेरित करते हैं कि किसकी विचारधारा किसका कार्यक्रम सही है और किसका गलत। इससे स्वस्थ जनमत का निर्माण होता है और फिर संसदीय लोकतंत्र भी स्वस्थ होकर आगे बढ़ता रहता है। चुनाव इस जनमत निर्माण का सबसे बड़ा आयोजन होता है। दुर्भाग्य से जब राजनीतिक दल अपनी मूल भूमिका को ही भूल जाते हैं तो फिर इसी तरह सतही बातों पर मीडिया की सुर्खियां पाना तथा चर्चा मंे आना उनका शगल हो जाता है।

विरोधी पार्टियांे को शिकायत करने का अधिकार है। शायद भाजपा सत्ता से बाहर होती और उसका नेतृत्व दिशाहीन होता तो वह भी ऐसा ही करती। किंतु हम न भूलें कि प्रधानमंत्री किसी दल के तो होते हैं, लेकिन वह अंततः देश के प्रधानमंत्री होते हैं। कोई आचार संहिता यदि देश से बात करने से प्रधानमंत्री को रोकने लगे, राष्ट्र के नाम संदेश देने का निषेध करने लगे, या मंत्रिमंडल के निर्णय पर अंकुश लगाने लगे तो फिर इससे लोकतंत्र और देश दोनों का अहित होगा। हां, प्रधानमंत्री के पास इतना विवेक और इतनी राजनीतिक नैतिकता होनी चाहिए कि वह अपने पद की गरिमा का ध्यान रखें और सत्ता का उपयोग किसी तरह चुनावी लाभ के लिए न करें। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ही नहीं ज्यादातर प्रधानमंत्रियों की दोहरी भूमिका होती है। एक ओर वह देश का प्रधानमंत्री होता है जिसकी भूमिका दलीय सीमाओं से परे हो जाती है तो दूसरी ओर वह दल का नेता होता है जिसका दायित्व अपने दल को चुनावी सफलता दिलाना है। इन दोनों के बीच की जो मर्यादा रेखा है वो इतनी महीन है कि आप यदि सजग न रहें तो कभी भी टूट सकती है। वैसे प्रधानमंत्री को चुनाव के दौरान अन्य नेताआंे से ज्यादा आजादी है। अन्य नेता सरकारी वाहन और साधन का उपयोग नहीं कर सकते, प्रधानमंत्री करते हैं। उन पर कोई रोक नहीं है। यह हर प्रधानमंत्री के साथ लागू होता है। इसलिए मन की बात को रोकने की मांग अबूझ राजनीति का नमूना है। जिस ढंग से विपक्षी नेताओं ने प्रधानमंत्री के संदर्भ मंें शब्द प्रयोग किए वह राजनीति की मर्यादा का उल्लंघन था। उनको ऐसा अभ्यस्त भाषणकर्ता कहा गया जो हमेशा अपने मंच का राजनीतिक दुरुपयोग करता है। ऐसे शब्द प्रयोग से बचा जा सकता था। 

बहरहाल, भले विपक्ष चाहे जितना शोर मचाए, प्रश्न उठाए...मोदी ने अभी तक 12 मन की बातें की हैं। कुल मिलाकर इसमें करीब 265 मिनट उनने लगाए हैं। औसत एक मन की बात पर करीब 22 मिनट लगा है। इनमें से तीन बातों की चुनाव आयोग ने पहले रिकॉर्डिंग की और उसे कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा। चौथी बात के बारे में उसने कोई मत नहीं दिया। आगे की बातों में भी ऐसा ही होगा यह उम्मीद है। अगर नहीं होगा तो केवल यह आचार सहिंता का ही उल्लंघन नहीं होगा, प्रधानमंत्री पद की मर्यादा और संविधान ने जो भावना उसकी भूमिका की प्रकट की है उसका भी अतिक्रमण होगा। लेकिन सोचने की बात है कि रेडिया टीवी पर करीब 25 भाषाओं में अगर इसका प्रसारण होता है तो जनता को प्रभावित करने के लिए या जनता को कुछ मार्गदर्शन देने के लिए। यानी मोदी जो बात भाषणों या अन्य कार्यक्रमों में नहीं कर पाते वो यहां करते हैं। इसका असर किसी पर न हो ऐसा तो संभव नहीं। प्रधानमंत्री कुछ भी बोलेंगे उसका सकारात्मक नकारात्मक प्रभाव होना ही है। इसका राजनीतिक लाभ भी मिल सकता है। इससे प्रधानमंत्री बोलना बंद कर दें यह उचित नहीं होगा। कांग्रेस ने यही मांग की है। इसकी बजाय अगर प्रधानमंत्री अपनी मर्यादा का अतिक्रमण करते हैं तो कांग्रेस सहित सारी पार्टियों को जनता के बीच जाकर बताना चाहिए कि किस तरह वो सत्ता के संसाधन का दुरुपयोग कर रहे हैं। 

वर्तमान राजनीति की त्रासदी यह है कि अधिकतर नेता जनता के बीच प्रभावी ढंग से अपनी बात रखने में सक्षम नहीं है। युवावस्था से विश्वविद्यालयों या जनता के बीच सक्रियता से बोलने की जो क्षमता विकसित होती थी वह राजनीति के नए माहौल में अवरुद्व हो चुका है। यहां तक कि चुनाव के अलावा जनता के बीच रहकर संघर्ष और सहकार की राजनीति भी धीरे-धीरे विलुप्त हुई है। इसमें जो निदान राजनीतिक स्तर पर होना चाहिए उसे चुनाव आयोग और न्यायालयों से प्राप्त करने की कोशिश होती है। इसमें राजनीति कमजोर होती जा रही है। मोदी विरोधी दलों और नेताआंे की आरंभ से यही समस्या रही है। वे ऐसे मुद्दे उठाते रहे हैं जिनसे मोदी को कोई क्षति तो छोड़िए उनको लाभ मिलता रहा है। उनकी लोकप्रियता में इजाफा कराने मंे इन विरोधी दलों की भूमिका ज्यादा है। आप देखिए, मन की बात का विरोध कर इनने इसे इतना चर्चित बना दिया कि देश भर के लोग ध्यान से सुनेंगे। हो सकता है जो लाखों लोग पहले नहीं सुनते होंगे वो भी सुनें। बिहार चुनाव पर इसका असर होगा या नहीं कहना जरा कठिन है, पर मोदी को यदि एक राजनेता के तौर पर देखें तो यह उनके लिए ज्यादा अनुकूल हो गया।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092ए दूर.ः01122483408, 09811027208

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