शनिवार, 16 मई 2015

इन प्रतिक्रियाओं के परिणामों पर हमने सोचा है कभी

 

अवधेश कुमार

हमारा देश एक साथ कई मानसिक समस्याओं का शिकार होता जा रहा है। उसमें एक प्रमुख समस्या है, अतिवाद में सोचना, वैसे ही किसी मुद्दे पर सामूहिक प्रतिक्रिया देना तथा उसके अनुरुप कोई परिणाम न आने, घटना न घटने या न्यायालयों का, सरकारों का फैसला न आने पर उसी तरह का अविादी सामूहिक विचार प्रकट करना। ऐसा करते समय यह भी ध्यान रखने की हम जहमत नहीं उठाते कि कहीं इससे संस्थाओं की बची-खुची साख तो खत्म नहीं हो रही। पहले सलमान खान प्रकरण में मुंबई उच्च न्यायालय के तात्कालिक फैसले एवं अब कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा  अन्नाद्रमुक प्रमुख जे. जयललिता को आय से ज्यादा संपत्ति के 19 साल पुराने मामले में बेदाग बरी कर दिए जाने पर आम व्यवहार देख लीजिए। एक पक्ष तो अतिवाद में उत्सव जैसे माहौल में आ गया। अभी तक पूरे तमिलनाडु में जश्न का माहौल है। जयललिता समर्थकों और पार्टी का उत्सव तो समझ में आता है उनकी खत्म  हो चुकी राजनीतिक जिन्दगी वापस आ गई है तथा अन्नाद्रमुक के भविष्य पर लगा प्रश्न चिन्ह तत्काल खत्म हो गया। खैर,  दूसरी ओर आ रहीं प्रतिक्रियाओं से ऐसा लग रहा है जैसे हमारे न्यायालयों ने इनके प्रभाव में आकर पक्ष में अन्यापूर्ण फैसला दे दिया है। यानी हम मान बैठे थे कि जयललिता तो चोर थी ही, उन्होंने मुख्यमंत्री काल में पद का दुरुपयोग करते हुए धन बनाया ही था, मामला भी पुख्ता  था और सही था लेकिन उच्च न्यायालय ने किसी तरह प्रभावित होकर फैसला दे दिया। क्या हम कभी संतुलित होकर शांत मन से यह विचार नहीं कर सकते कि न्यायालय ने फैसला दिया है तो उसके पीछे तर्क, तथ्य और कानून का ठोस आधार भी होगा?

वास्तव में न्यायालयों के फैसले पर विचार करते समय हमें यही तीन कसौटियां बनानी चाहिए। यह स्वीकार करने में हर्ज नहीं है कि हमारी न्याय प्रणाली में व्यापक सुधार या आमूल बदलाव की आवश्यकता है। इसमें कई दोष हैं जिनमें एक यह है कि जिसके पास रुपया है वो अच्छे से अच्छे  वकील खड़ा करके, नीचे से उपर तक के न्यायालय में अपना मामला बेहतर तरीके से लड़ सकता है और फैसला उसके पक्ष में आ सकता है। जिसके पास धन नहीं है उसके लिए यह स्थिति नहीं है, क्योंकि एक वकील यदि एक बार न्यायालय में खड़ा होने के कई लाख रुपये लेगा तो फिर वो कहां से दे पाएगा। लेकिन न्यायालयों में ज्यादातर फैसले मामले के गुण दोष, पक्ष विपक्ष में आये हुए साक्ष्यों और कानून के आधार पर ही होते हैं। अगर एक न्यायालय से कहीं भूल होती है तो दूसरा उसे सुधाररता है। उच्चतम न्यायायल तो स्वयं से हुई भूलों के परिमार्जन का भी दरवाजा खुला रखे हुए है। आंख मूंदकर यह मान लेना कि सुब्रह्मण्यम स्वामी ने 1996 में जयललिता पर आय से अधिक संपत्ति को जो मुकदमा किया या बाद में द्रमुक सरकार ने मामले को एंटी करप्शन को जो मामला दिया उनके तहत लगाए गए सारे आरोप और प्रस्तुत किए गए सारे तथ्य सही ही थे, तार्किक नहीं होगा।  

प्रश्न किया जा सकता है कि अगर उनके मामले में दम नहीं होता तो कर्नाटक का विशेष न्यायालय क्यों जयललिता और उनके तीन साथियों को चार-चार वर्ष की सजा सुनाता, जयललिता पर 100 करोड़ तथा इन तीनों पर 10-10 करोड़ का जुर्माना लगता तथा नहीं देने पर पूरी संपत्ति जब्त करने का आदेश दे देता? 27 सितंबर 2014 को आए फैसले से तो यही लगा था कि इनने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए जमकर जनता की गाढ़ी कमाई लूटी है। उच्च न्यायालय ने कह दिया है कि विशेष न्यायालय का फैसला किसी ठोस कानूनी आधार पर नहीं है इसलिए यह कहीं ठहर नहीं सकता। दूसरे, उसने इनने वाकई काली कमाई की ऐसा कोई प्रमाण इनकी सपंत्ति के दिए ब्यौरे से नहीं मिलता। उच्च न्यायालय बिना सोचे समझे तो इस तरह की टिप्पणी नहीं कर सकता। आखिर मामला उच्चतम न्यायालय भी जा सकता है। पूरा फैसला 919 पृष्ठों का है।

पहले आरोपों को देखें। जब मामला कर्नाटक के विशेष न्यायालय में पहुंचा तो उन पर अभियोजन पक्ष ने जो आरोप लगाए उसे देख लीजिए। जयललिता, शशिकला और बाकी दो आरोपियों ने 32 कंपनियां बनाईं जिनका कोई कारोबार नहीं था। ये कंपनियां सिर्फ काली कमाई से संपत्तियां खरीदती थीं। इन कंपनियों के जरिए नीलगिरी में 1000 एकड़ और तिरुनेलवेली में 1000 एकड़ जमीन खरीदी गई। जयललिता के पास 30 किलोग्राम सोना, 12 हजार साड़ियां थीं। उन्होंने दत्तक बेटे वी.एन. सुधाकरण की शादी पर 6.45 करोड़ रुपए खर्च किए। आवास के अतिरिक्त निर्माण पर 28 करोड़ रुपए लगाए। उनकी कुल संपत्ति 66.44 करोड़ की होती है जो कि आय से कई गुणा ज्यादा हैं।

अब जयललिता की ओर से आये जवाब के अंश-1 सुधाकरण की शादी पर 29 लाख रुपया खर्च हुआ, 2. अतिरिक्त निर्माण पर 28 करोड़ रुपए खर्च नहीं हुए। 3. कुल संपत्ति का आकलन करते समय खेती से 5 वर्ष में हुई 50 लाख रुपए की आय को शामिल नहीं किया गया। 4. बैंक से कर्ज को भी नहीं जोड़ा गया। 5. जयललिता जिन कंपनियों का हिस्सा नहीं थीं, उनके कारोबार के लिए उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इन दोनांे को देखने के बाद तब उच्च न्यायालय का फैसलों हमारी समझ में आ सकता है। न्यायाधीश ने जयललिता सहित अन्य आरोपियों के इस तर्क को स्वीकार किया है कि संपत्ति के मूल्य तो बढ़ाकर लगाया ही गया, इसके साथ कई तथ्यों का ध्यान नहीं रखा गया। न्यायाधीश ने कहा है कि जयललिता के कपड़ों, जूतों, चप्पलों और इस तरह की अन्य चीजों का जो मुल्य लगाया गया है वह बेमानी है, पर मैं उन मूल्यों को कम नहीं करते हुए ही संपत्ति का आकलन कर रहा हूं। हमें अतिरिक्त निर्माण और शादी के खर्च को बढ़ा चढ़ाकर पेश किया हुआ मानना होगाा। 1996 में मकान बनाने की कीमत इतनी नहीं थी। अगर बढ़ाकर बताए गए खर्च को घटा दें तो कुल संपत्ति 37.59 करोड़ रुपए की हो जाती है। यानी करीब 27 करोड़ तो ऐसे ही कम हो गया। फिर आरोपियों की निजी आय और कंपनियों की आमदनी मिला दें तो 34.76 करोड़ रुपए होती है। इस तरह दोनों के बीच अंतर 2.82 करोड़ रुपए का है। उच्चतम न्यायालय कह चुका है कि अगर कुल आय से वर्तमान संपत्ति 10 प्रतिशत अधिक हो तो उसे काली कमाई या भ्रष्टाचार नहीं माना जा सकता। इस मामले में कुल संपत्ति कुल आय से  8.12 प्रतिशत ज्यादा है। यह 10 प्रतिशत से कम है। इस कारण इसमें सजा देने जैसा कोई आधार है ही नहीं।

विशेष न्यायालय ने भी सुधाकरण की शादी का खर्च घटाकर 3 करोड़ रुपए कर दिया था। उच्च न्यायालय कह रहा है कि खर्च 3 करोड़ रुपए का हुआ था इसके कोई प्रमाण सामने नहीं आए। जयललिता के वकीलों ने इंडियन बैंक से जयललिता द्वारा लिए गए कर्ज का विवरण और प्रमाण दिया था। जब न्यायालय ने एक बार मान लिया कि संपत्तियां खरीदने के लिए बैंकों से बड़ा कर्ज लिया गया था तो फिर उनको काली कमाई से खरीदा गया कैसे माना जा सकता है। इस आधार पर आय के स्रोत वैध पाए गएं। इस आधार पर न्यायालय कह रहा है कि साजिश करके आमदनी इकट्ठा नहीं की गई थी। तो जयललिता एवं उनकी दोस्त शशिकला सहित चारों आरोपी बेदाग बरी।

इस तरह फैसला शुद्ध तकनीकी आधार पर हुआ है। हमें यह जानना होगा कि जब भी भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत मामला दर्ज होता है उसमें प्रत्यक्ष घूस लेने का या किसी विभाग में धांधली का प्रमाण नहीं है तो पूरा मामला कुल संपत्ति और आय पर टिक जाता है। इसके बाद फैसला इसी आधार पर होता है कि जो संपत्ति विवरण अभियोजन पक्ष ने प्रस्तुत किया वे कितने वास्तविक हैं, जो हैं उनके अनुसार उनकी आय हैं या नहीं। इस आय में लिया गया कर्ज हमेशा शामिल होता है। इसलिए हम यह नहीं मान सकते कि उच्च न्यायालय ने किसी मानसिक झनक में आकर फैसला दे दिया है। राजनीति एवं सत्ता में शीर्ष स्तर का भ्रष्टाचार बहुत बड़ी समस्या है इसमें कोई दो राय नहीं, पर सारे आरोप सच ही हो यह आवश्यक नही। भ्रष्टाचार से संघर्ष और उसके नाश का रास्ता न्यायालयों से होकर वैसे भी कम ही जाता या निकलता है। यह सामाजिक-सांस्कृतिक विषय ज्यादा है कानूनी कम। हम किसी परिस्थिति में प्रतिक्रिया व्यक्त करते समय यह अवश्य सोचे कि इसके परिणाम क्या आएंगे।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

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