शनिवार, 23 मई 2015

यह उस मुखर भारत की विदेश नीति है जिसकी हमें कब से प्रतीक्षा थी

 

अवधेश कुमार

विदेश नीति के विशेषज्ञों की समस्या यह है कि जो परिभाषायें और शब्दावलियां द्वितीय विश्वयुद्ध फिर शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद अंतरराष्ट्रीय संबंधों की दे दी गईं उसके खांचे से वे बाहर निकलने को तैयार नहीं होते। इसमें मोदी की विदेश नीति का मूल्यांकन संभव नहीं। भारत में दुर्भाग्यपूर्ण राजनैतिक विभाजन इतना तो है ही कि विदेश नीति में भी देश हित को छोड़कर राजनीति तरीके से प्रतिक्रियायें दी जातीं हैं। मोदी की विदेश नीति के मूल्यांकन में ये दोनों कारक हाबी हैं, अन्यथा भारत के प्रधानमंत्री के रुप में वे जहां भी जा रहे हैं, लक्ष्य पाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं, उसमें सफलतायें भीमिल रहीं हैं और भारत, भारतवासी तथा इसके नेतृत्व की क्षमता व समझ के परिप्रेक्ष्य में दुनिया की सोच सकारात्मक हो रहीं हैं। निस्संदेह, एक स्थापित आधार और देशों से संबंध हमारे पहले से थे, पर मोदी ने विदेश नीति का आयाम या तो अपनी शैली से बदल दिया है या फिर जो पहले से स्थापित थें उनके काल, देश और परिस्थिति के सापेक्ष बेहतर व प्रखर बनाने की कोशिश की है।

आप 26 मई 2014 के शपथ ग्रहण समारोह में दक्षिण एशियाई नेताओं को आमंत्रित करने से लेकर 19 मई 2015 को समाप्त हुई दक्षिण कोरिया यात्रा तक देख लीजिए उनमें कुछ निरंतरतायें साफ दिखाई दंेगी। मोदी की विदेश नीति कों संक्षेप में हम मूल आठ आयामो मे देख सकते हैं। एक, जिस देश में जाना वहां की संस्कृति, धर्म, अध्यात्म, इतिहास, लोगों के बसने का सूत्र आदि की जानकारी हासिल कर उनको इन सभी आधारों पर भारत से बिल्कुल भावनात्मक संबंधों की स्थापना का सूत्र देना। मोदी की विदेश नीति में सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और धार्मिक तत्व काफी प्रखरता से जुड़े हैं। दो, वह देश हमें क्या दे सकता है, हम क्या दे सकते हैं, द्विपक्षीय संबंधों को ठोस बनाने का मुख्य आधार क्या होगा, अंतरराष्ट्रीय पटल पर साथ कहां-कहां किन मामलों पर हो सकता है आदि का पूरा अध्ययन कर निष्कर्ष निकालना और उसके अनुसार ही बातचीत एवं समझौते करना। तीसरा, भारत, उसके नेता एवं यहां के निवासियों की ऐसी छवि बनाना ताकि विदेशी उद्योगपति, कारोबारी एवं सरकारें यहां अधिक धन लगाने को प्रेरित हों। उनकी कूटनीति में आर्थिक और व्यापारिक तत्व भी प्रबल है। चौथा, भारतवंशियों को भारत के साथ जोड़ने के लिए प्रभावी आयोजन करना। पांचवें, देश के अंदर और बाहर के भारतवंशियों को अपने प्रति गौरवबोध कराना। किसी भारतीय का विश्व मंें कहीं कोई योगदान है जिसे भुला दिया गया है तो उसे श्रद्धांजलि देकर पुनः स्मृति में ले आना। छठा, भारत की विश्व के अग्रणी देश और विश्व में इसकी प्रमुख भूमिका के रुप में पहचान स्थापित करना। सातवां, संपन्न देश हों या असंपन्न नेताओं से निकटतम संबंध बनाना तथा उनको अपने अनुसार बातचीत करने या घूमने के लिए तैयार करना जिससे विश्व में मनमाफिक संदेश जा सके। और आठवां, पड़ोसी देशों यानी दक्षिण एशिया के संबंधों को नये धरातल पर खड़ा करना। ये आठों आयाम मोदी के विदेशी दौरों में पूरी उत्तुगंता से प्रतिध्वनित होतीं हैं।

भारत की विदेश नीति के बारे में हमारे मनीषियों ने बिल्कुल अलग कल्पना की थी। गांधी जी से लेकर महर्षि अरविन्द, विवेकानंद, टैगोर ही नहीं सुभाष बाबू को भी आप पढ़ेंगे तो सबने भारतीय संस्कृति, धर्म और अध्यात्म में वो तत्व देखे थे जो भौतिकता, तनाव और अशांति के इस दावानल को ठंढा कर विश्व को रास्ता दिखा सकता है। सबकी मान्यता थी कि भारत की विदेश नीति के ये मूल तत्व होेने चाहिएं, क्योंकि हमें विश्व का मार्ग दर्शक बनना है। मोदी ने बिना घोषणा किए इसकी नींव डाली है। वे जिस देश में गए वहां मंदिर, गुरुद्वारा, बौद्ध विहारों में अवश्य गये, वहां रुके और यात्रा के अन्य कार्यक्रमों की तरह इसे महत्व दिया। इससे जो माहौल बन रहा है वह अद्भुत है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता की शाखा और इसे आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, धार्मिक सहोदर मानने का भाव पैदा होना शुरु हो गया है। यह भारत की दुष्टि से ऐतिहासिक मोड़ है जिसके परिणाम आने वाले समय में दिखाई दंेगे। कोई कल्पना कर सकता था कि मंगोलिया जैसा चीन एवं रुस की सीमा पर बसा और उनके दबाव एवं प्रभाव से दूर रहने वाला देश मोदी के दौरे से उस तरह गदगद होगा और हमारी मदद को एकदम अपनत्व से स्वीकार करेगा। सिचिल्स में भी तो यही हुआ है।

आप एक भी दौरा ऐसा नहीं देखेंगे जहां किसी भारतीय ने यदि कुछ इतिहास के कालखंड में वहां जाकर किया है, उसे वे याद नहीं करते, उनके इतिहास को भारत से नहीं जोड़ते। आज के वैश्विक ढांचे के तहत शुष्क बातचीत और समझौता ही विदेश नीति है! वो भी है, पर उससे हम अन्य सभी देशों की कतार में ही खड़े होते हैं। मूल बात है भारत को विश्व में एक विशिष्ट देश के रुप मेें पहचान देना। यह मोदी की विदेश नीति से संभव हो रहा है। यह मोदी की विदेश नीति का प्रभाव है कि योग को संयुक्त राष्ट्रसंघ ने मान्यता दे दी।

मोदी जहां भी गए और उनमें जहां आवश्यक था, भारतवंशियों की सभा पूरी तैयारी और बड़े इवेंट के रुप में रखवाई। उनके प्रभाव भी विद्युत सरीखे हो रहे हैं। भारतवंशियों के एक होने, जहां हैं वहीं दूत बनकर भूमिका निभाने तथा भारत के लिए कुछ करने की चेतना जागृत करने की कोशिश मोदी कर रहे है। पहले भी विदेशी दौरों में प्रधानमंत्री भारतवंशियों की सभायंे करते थे, पर विदेश नीति के मूल अपरिहार्य तत्व के रुप में उसे ऐसी व्यापक तैयारियों, भव्यताओं का स्वरुप देकर और प्रचार माध्यमों के भरपूर प्रयोग के सुनियोजन से नहीं होता था। आज मोदी की विदेश नीति का यह प्रमुख आयाम है। यही मौलिक अंतर है। उन सभाओं का असर वहां के नेताओं, कारोबारियों, बौद्धिक वर्ग तथा प्रशासन पर भी होता है। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा कहते हैं कि मोदी का जिस तरह न्यूयॉर्क के मेडिसन स्क्वायर में रौक स्टार की तरह स्वागत हुआ उससे वे और उनका प्रशासन प्रभावित हुआ। यही बात ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री टौनी एबॉट ने कही। वे उन देशों में किन्हीं कारणों से शहीद हुए भारतीयों को श्रद्धांजलि देने जाते हैं तो एक अलग किस्म का संवेदनशील माहौल बनता है। वे जब विदेशी स्वयं भारत माता की जय के नारे लगवाते हैं तो एक स्फुरण सा आम भारतीयों के अंदर पैदा होता है। फ्रांस और कोरिया आदि में हमने इसे देखा।

मोदी विश्व के वर्तमान ढांचे में मानते हैं कि भारत की आर्थिक और व्यापारिक ताकत जितनी बढ़ेगी उनकी विदेश नीति के मूल आयाम जो शुद्ध भारतीय हैं उनकी प्रभाविता का भी उतना ही विस्तार होगा। यानी सांस्कृतिक आध्यात्मिक के साथ आर्थिक सशक्ता का संतुलन। इसलिए वे हमारे देश के संबंधित अधिकारियों को उस देश के अधिकारियों से बातचीत कर कहां कहां व्यापार व निवेश संभव है उन पर विस्तृत काम कराते हैं, कारोबारियों को वहां के कारोबारियो ंसे मिलान कराते हैं, कंपनियों के प्रमुखों के साथ बड़ा आयोजन रखते हैं- जहां वे बाजार अर्थव्यवस्था में भारत की ऐसी छवि पेश करते हैं जिनसे वे यहां आकर अपना उद्योग, निर्माण कारखाना लगाएं, कारोबार का केन्द्र भारत को भी बनाएं। इनमें सफलतायें मिलनी आरंभ हो गईं हैं। मोदी ने मेक इन इंडिया की अपनी आर्थिक कूटनीति से संदेश दे दिया है कि भारत की रुचि अब केवल उत्पाद का बाजार बने रहने में नहीं उत्पाद का केन्द्र बनने में है। एक मोटामोटी आकलन करें तो इन बैठकों से मोदी सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर 300 अरब डॉलर के करीब निवेश का करार कर चुके है। इससे कई गुणा ज्यादा पर बातचीत हो रही है।

जहां तक विश्व पटल पर भारत के कद का प्रश्न है तो मोदी विश्व की एकल महाशक्ति अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा से एकदम समान दोस्त की तरह टहलते हुए कैमरों के सामने गुफ्तगु करते हैं, बराक कहकर संबोधित करते हैं तो उसका संदेश दुनिया मंें जाता है। कई देशों के प्रमुखों को वो इसी तरह संबोधित करते हैं। यह पहले नहीं हुआ। ओबामा मोदी के साथ रेडियो पर मन की बात करते है। इन सबसे दुनिया में यह संदेश जाता है कि अमेरिका का नेता जब भारत के साथ समान व्यवहार कर रहा है तो फिर उसमें कुछ जान तो है। यह भारत की अघोषित ब्रांडिंग की रणनीति है। दक्षिण एशिया में नेपाल को छोड़कर जहां भारत को लेकर आशंकायें ज्यादा थीं वहां मोदी ने रिश्तेदारों की तरह नए संबंध गढ़े हैं।  इन देशों के नेता मोदी से सलाह और सहयोग उस तरह मांग रहे हैं जैसे अपने विश्वसनीय दोस्त से मांगा जाता था। यह इसीलिए हुआ कि मोदी ने संस्कृति, इतिहास, और धर्म के धरातल पर इनको लाया, आगे बढ़कर विश्वास पैदा किया तथा सतत संपर्क में रहने लगे।

तो मोदी ने विदेश नीति में ऐसे आयाम खड़े करने की नींव डाली है, उसके कुछ स्तंभ खडे किए हैं जिन पर जो भव्य भवन खड़ा होगा उसमेें भारत के साथ दुनिया के ऐसे देशों का समूह होगा जिनकी आवाज एक होगी, वो विश्व कल्याण की होगी, अन्याय के विरोध की होगी, दूसरे देश भी विवश होकर भारत को विश्व का प्रमुख नीति निर्धारक मानने को विवश होंगे तथा भारत मंें इतना धन आएगा कि यहां की बनी हुई सामग्रिंया और सेवायें दुनिया के बाजारों में उपलब्ध होंगी।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरः01122483408, 09811027208

 

 

शनिवार, 16 मई 2015

इन प्रतिक्रियाओं के परिणामों पर हमने सोचा है कभी

 

अवधेश कुमार

हमारा देश एक साथ कई मानसिक समस्याओं का शिकार होता जा रहा है। उसमें एक प्रमुख समस्या है, अतिवाद में सोचना, वैसे ही किसी मुद्दे पर सामूहिक प्रतिक्रिया देना तथा उसके अनुरुप कोई परिणाम न आने, घटना न घटने या न्यायालयों का, सरकारों का फैसला न आने पर उसी तरह का अविादी सामूहिक विचार प्रकट करना। ऐसा करते समय यह भी ध्यान रखने की हम जहमत नहीं उठाते कि कहीं इससे संस्थाओं की बची-खुची साख तो खत्म नहीं हो रही। पहले सलमान खान प्रकरण में मुंबई उच्च न्यायालय के तात्कालिक फैसले एवं अब कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा  अन्नाद्रमुक प्रमुख जे. जयललिता को आय से ज्यादा संपत्ति के 19 साल पुराने मामले में बेदाग बरी कर दिए जाने पर आम व्यवहार देख लीजिए। एक पक्ष तो अतिवाद में उत्सव जैसे माहौल में आ गया। अभी तक पूरे तमिलनाडु में जश्न का माहौल है। जयललिता समर्थकों और पार्टी का उत्सव तो समझ में आता है उनकी खत्म  हो चुकी राजनीतिक जिन्दगी वापस आ गई है तथा अन्नाद्रमुक के भविष्य पर लगा प्रश्न चिन्ह तत्काल खत्म हो गया। खैर,  दूसरी ओर आ रहीं प्रतिक्रियाओं से ऐसा लग रहा है जैसे हमारे न्यायालयों ने इनके प्रभाव में आकर पक्ष में अन्यापूर्ण फैसला दे दिया है। यानी हम मान बैठे थे कि जयललिता तो चोर थी ही, उन्होंने मुख्यमंत्री काल में पद का दुरुपयोग करते हुए धन बनाया ही था, मामला भी पुख्ता  था और सही था लेकिन उच्च न्यायालय ने किसी तरह प्रभावित होकर फैसला दे दिया। क्या हम कभी संतुलित होकर शांत मन से यह विचार नहीं कर सकते कि न्यायालय ने फैसला दिया है तो उसके पीछे तर्क, तथ्य और कानून का ठोस आधार भी होगा?

वास्तव में न्यायालयों के फैसले पर विचार करते समय हमें यही तीन कसौटियां बनानी चाहिए। यह स्वीकार करने में हर्ज नहीं है कि हमारी न्याय प्रणाली में व्यापक सुधार या आमूल बदलाव की आवश्यकता है। इसमें कई दोष हैं जिनमें एक यह है कि जिसके पास रुपया है वो अच्छे से अच्छे  वकील खड़ा करके, नीचे से उपर तक के न्यायालय में अपना मामला बेहतर तरीके से लड़ सकता है और फैसला उसके पक्ष में आ सकता है। जिसके पास धन नहीं है उसके लिए यह स्थिति नहीं है, क्योंकि एक वकील यदि एक बार न्यायालय में खड़ा होने के कई लाख रुपये लेगा तो फिर वो कहां से दे पाएगा। लेकिन न्यायालयों में ज्यादातर फैसले मामले के गुण दोष, पक्ष विपक्ष में आये हुए साक्ष्यों और कानून के आधार पर ही होते हैं। अगर एक न्यायालय से कहीं भूल होती है तो दूसरा उसे सुधाररता है। उच्चतम न्यायायल तो स्वयं से हुई भूलों के परिमार्जन का भी दरवाजा खुला रखे हुए है। आंख मूंदकर यह मान लेना कि सुब्रह्मण्यम स्वामी ने 1996 में जयललिता पर आय से अधिक संपत्ति को जो मुकदमा किया या बाद में द्रमुक सरकार ने मामले को एंटी करप्शन को जो मामला दिया उनके तहत लगाए गए सारे आरोप और प्रस्तुत किए गए सारे तथ्य सही ही थे, तार्किक नहीं होगा।  

प्रश्न किया जा सकता है कि अगर उनके मामले में दम नहीं होता तो कर्नाटक का विशेष न्यायालय क्यों जयललिता और उनके तीन साथियों को चार-चार वर्ष की सजा सुनाता, जयललिता पर 100 करोड़ तथा इन तीनों पर 10-10 करोड़ का जुर्माना लगता तथा नहीं देने पर पूरी संपत्ति जब्त करने का आदेश दे देता? 27 सितंबर 2014 को आए फैसले से तो यही लगा था कि इनने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए जमकर जनता की गाढ़ी कमाई लूटी है। उच्च न्यायालय ने कह दिया है कि विशेष न्यायालय का फैसला किसी ठोस कानूनी आधार पर नहीं है इसलिए यह कहीं ठहर नहीं सकता। दूसरे, उसने इनने वाकई काली कमाई की ऐसा कोई प्रमाण इनकी सपंत्ति के दिए ब्यौरे से नहीं मिलता। उच्च न्यायालय बिना सोचे समझे तो इस तरह की टिप्पणी नहीं कर सकता। आखिर मामला उच्चतम न्यायालय भी जा सकता है। पूरा फैसला 919 पृष्ठों का है।

पहले आरोपों को देखें। जब मामला कर्नाटक के विशेष न्यायालय में पहुंचा तो उन पर अभियोजन पक्ष ने जो आरोप लगाए उसे देख लीजिए। जयललिता, शशिकला और बाकी दो आरोपियों ने 32 कंपनियां बनाईं जिनका कोई कारोबार नहीं था। ये कंपनियां सिर्फ काली कमाई से संपत्तियां खरीदती थीं। इन कंपनियों के जरिए नीलगिरी में 1000 एकड़ और तिरुनेलवेली में 1000 एकड़ जमीन खरीदी गई। जयललिता के पास 30 किलोग्राम सोना, 12 हजार साड़ियां थीं। उन्होंने दत्तक बेटे वी.एन. सुधाकरण की शादी पर 6.45 करोड़ रुपए खर्च किए। आवास के अतिरिक्त निर्माण पर 28 करोड़ रुपए लगाए। उनकी कुल संपत्ति 66.44 करोड़ की होती है जो कि आय से कई गुणा ज्यादा हैं।

अब जयललिता की ओर से आये जवाब के अंश-1 सुधाकरण की शादी पर 29 लाख रुपया खर्च हुआ, 2. अतिरिक्त निर्माण पर 28 करोड़ रुपए खर्च नहीं हुए। 3. कुल संपत्ति का आकलन करते समय खेती से 5 वर्ष में हुई 50 लाख रुपए की आय को शामिल नहीं किया गया। 4. बैंक से कर्ज को भी नहीं जोड़ा गया। 5. जयललिता जिन कंपनियों का हिस्सा नहीं थीं, उनके कारोबार के लिए उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इन दोनांे को देखने के बाद तब उच्च न्यायालय का फैसलों हमारी समझ में आ सकता है। न्यायाधीश ने जयललिता सहित अन्य आरोपियों के इस तर्क को स्वीकार किया है कि संपत्ति के मूल्य तो बढ़ाकर लगाया ही गया, इसके साथ कई तथ्यों का ध्यान नहीं रखा गया। न्यायाधीश ने कहा है कि जयललिता के कपड़ों, जूतों, चप्पलों और इस तरह की अन्य चीजों का जो मुल्य लगाया गया है वह बेमानी है, पर मैं उन मूल्यों को कम नहीं करते हुए ही संपत्ति का आकलन कर रहा हूं। हमें अतिरिक्त निर्माण और शादी के खर्च को बढ़ा चढ़ाकर पेश किया हुआ मानना होगाा। 1996 में मकान बनाने की कीमत इतनी नहीं थी। अगर बढ़ाकर बताए गए खर्च को घटा दें तो कुल संपत्ति 37.59 करोड़ रुपए की हो जाती है। यानी करीब 27 करोड़ तो ऐसे ही कम हो गया। फिर आरोपियों की निजी आय और कंपनियों की आमदनी मिला दें तो 34.76 करोड़ रुपए होती है। इस तरह दोनों के बीच अंतर 2.82 करोड़ रुपए का है। उच्चतम न्यायालय कह चुका है कि अगर कुल आय से वर्तमान संपत्ति 10 प्रतिशत अधिक हो तो उसे काली कमाई या भ्रष्टाचार नहीं माना जा सकता। इस मामले में कुल संपत्ति कुल आय से  8.12 प्रतिशत ज्यादा है। यह 10 प्रतिशत से कम है। इस कारण इसमें सजा देने जैसा कोई आधार है ही नहीं।

विशेष न्यायालय ने भी सुधाकरण की शादी का खर्च घटाकर 3 करोड़ रुपए कर दिया था। उच्च न्यायालय कह रहा है कि खर्च 3 करोड़ रुपए का हुआ था इसके कोई प्रमाण सामने नहीं आए। जयललिता के वकीलों ने इंडियन बैंक से जयललिता द्वारा लिए गए कर्ज का विवरण और प्रमाण दिया था। जब न्यायालय ने एक बार मान लिया कि संपत्तियां खरीदने के लिए बैंकों से बड़ा कर्ज लिया गया था तो फिर उनको काली कमाई से खरीदा गया कैसे माना जा सकता है। इस आधार पर आय के स्रोत वैध पाए गएं। इस आधार पर न्यायालय कह रहा है कि साजिश करके आमदनी इकट्ठा नहीं की गई थी। तो जयललिता एवं उनकी दोस्त शशिकला सहित चारों आरोपी बेदाग बरी।

इस तरह फैसला शुद्ध तकनीकी आधार पर हुआ है। हमें यह जानना होगा कि जब भी भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत मामला दर्ज होता है उसमें प्रत्यक्ष घूस लेने का या किसी विभाग में धांधली का प्रमाण नहीं है तो पूरा मामला कुल संपत्ति और आय पर टिक जाता है। इसके बाद फैसला इसी आधार पर होता है कि जो संपत्ति विवरण अभियोजन पक्ष ने प्रस्तुत किया वे कितने वास्तविक हैं, जो हैं उनके अनुसार उनकी आय हैं या नहीं। इस आय में लिया गया कर्ज हमेशा शामिल होता है। इसलिए हम यह नहीं मान सकते कि उच्च न्यायालय ने किसी मानसिक झनक में आकर फैसला दे दिया है। राजनीति एवं सत्ता में शीर्ष स्तर का भ्रष्टाचार बहुत बड़ी समस्या है इसमें कोई दो राय नहीं, पर सारे आरोप सच ही हो यह आवश्यक नही। भ्रष्टाचार से संघर्ष और उसके नाश का रास्ता न्यायालयों से होकर वैसे भी कम ही जाता या निकलता है। यह सामाजिक-सांस्कृतिक विषय ज्यादा है कानूनी कम। हम किसी परिस्थिति में प्रतिक्रिया व्यक्त करते समय यह अवश्य सोचे कि इसके परिणाम क्या आएंगे।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

शुक्रवार, 8 मई 2015

आम आदमी पार्टी एवं केजरीवाल का मीडिया पर हमला चिंताजनक

 

अवधेश कुमार

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने जिस तरह सम्पूर्ण पत्रकार जगत को सुपारी लेने की संज्ञा दी हैं और पार्टी में उनके सहयोगी संजय सिंह ने पत्रकार वार्ता बुलाकर उनकी बातों को और विस्तार दिया मुझे याद नहीं इसके पूर्व किसी पार्टी ने ऐसा किया। केजरीवाल कह रहे हैं कि मीडिया ने उनकी पार्टी को समाप्त करने की सुपारी ले रखी है। मीडिया उनके खिलाफ जो खबरें होतीं हैं उसे खूब दिखाता है, उनके खिलाफ बिना सबूत के, निराधार, बेसिरपैर की खबरें दिखाता है, लेकिन जब हम कोई सबूत वाली चीज लाते हैं तो नहीं दिखाता है। संजय सिंह भी कह रहे थे कि बिना प्रमाण, बिना आधार, बिना जांचे परखे आपलोग इस तरह चीजों को चला रहे हैं जो गैर जिम्मेवार है। दोनों नेता अपने अनुसार इसके उदाहरण भी दे रहे हैं। इन दोनों के बाद पार्टी की एक पूर्व महिला कार्यकर्ता द्वारा महिला आयोग जाने के मामले पर मीडिया के रवैये को कुमार विश्वास ने मीडिया को अंग्रेजी में मोदिया कहकर मजाक उड़ाया। यह सब मीडिया पर किसी सरकार और राजनीतिक दल की ओर से अब तक का सबसे तीखा प्रहार और तीखी निंदा है।

वैसे केजरीवाल इससे ज्यादा गालियां मीडया को, पत्रकारों को पहले भी दे चुके हैं, देते रहते हैं। जबसे वे मुख्यमंत्री बने हैं तबसे कम से कम एक दर्जन बार तो वो मीडिया पर हमला कर चुके हैं। लोकसभा चुनाव के पूर्व नागपुर के भोजन चंदा कार्यक्रम में उन्होेंने सत्ता में आने पर पत्रकारों को जांच कराकर जेल में डालने की बात की थी। उनको अनुमान नहीं था कि वहां कोई पत्रकार भी थाली का 20 हजार रुपया जमा करके पैठ चुका है। उसने टेप कर लिया और वह बाहर आ गया। उसके पूर्व मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देने के बाद रोहतक की अपनी पहली सार्वजनिक सभा में पूरा भाषण ही मीडिया के खिलाफ दिया था। उसके पहले किसी पार्टी के नेता ने इस तरह पूरा भाषण सार्वजनिक सभा में मीडिया के खिलाफ नहीं दिया था। अब उन्होंने अपनी बात पहुंचाने का अपना तरीका चुना है कि उनका ही आदमी उनसे प्रश्न पूछे और वे उसका अपने अनुसार उत्तर दंें तथा वही बाइट चारों ओर भेज दिया। यह कौन सी मीडिया का तरीका है, जहां आपके सामने कोई प्रतिप्रश्न करने वाला नहीं है? ऐसे तो पत्रकार काम नहीं कर सकते, न कोई मीडिया संस्थान कर सकता है।

मीडिया उनकी नजर मंें उनके खिलाफ अपुष्ट, बिना प्रमाण और आरोपों की जांच किए खबरें दिखता है। तो उनके पास इस बात का कोई सबूत है क्या कि मीडिया ने उनके खिलाफ सुपारी ली है? अगर सबूत हैं तो वे सामने लाएं? किस मीडिया ने या पत्रकार/पत्रकारों ने उनकी पार्टी या उनके खिलाफ सुपारी ली है? सुपारी शब्द वैसे जघन्य अपराधियों या अपराधी गैंग के लिए प्रयोग किया जाता है जो धन लेकर हत्या या अन्य आपराधिक वारदात करता है। तो केजरीवाल की नजर में मीडिया और उसमें काम करने वाले पत्रकार उसी तरह के अपराधी गैंग हैं। आप दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं तो सबूत दीजिए। नहीं देते हैं तो फिर आप क्या हैं?

कितनी बड़ी विडम्बना है। जो व्यक्ति स्वयं मीडिया की पैदाईश है। वे एक से एक आधारहीन आरोप लेकर पत्रकार वार्ता करते रहे, मीडिया लाइव दिखाती रही तब उनको कोई समस्या नहीं थी। उनके सभी राजनीतिक दलों के खिलाफ विषवमन वाले भाषण लाइव दिखाये जाते रहे तो उनके लिए मीडिया अनुकूल था। जैसे ही उनके मन के विपरीत कुछ हुआ तो मीडिया सुपारी लेकर काम करने वाला अपराधी हो गया। मीडिया दलालों, बिकाउ चेहरों, बेईमानों का समूह हो गया। उन्हें याद दिलाया जाए कि अपने नेताओं को टेलीफोन बात में कमीना आपने कहा, लात मारकर बाहर निकालने की बात आपने कही और उसे बाहर आपकी पार्टी के ही नेता ने लाया। तो क्या मीडिया उसे प्रकाशित, प्रसारित न करे? इससे आप जो हैं वह सामने आया। अपने से वरिष्ठ नेताओं के बारे में इस तरह की सोच आप रखते हैं, उसके अनुसार पीएसी एवं कार्यकारिणी मेें निर्णय करवाते भी हैं, पर आप प्रश्नों से परे हैं! आप एकदम गंगोत्री की स्वच्छ गंगा हैं ये तो मीडिया नहीं कह सकता न।

आशीष खेतान पर मीडिया ने आरोप नहीं लगाया। आपकी ही पार्टी के संस्थापक सदसस्य प्रशांत भूषण ने बयान दिया कि तहलका के गोवा फेस्ट के लिए शशि रुइया ने पैसे दिए और आशीष खेतान ने 2 जी मामले में उसके पक्ष में प्लांटेड खबरें लिखीं जो कि पेड न्यूज की श्रेणी में आता है। मीडिया ने उस बयान को दिखाया और उस समय खेतान ने पत्रिका में जो लिखा था उसे सामने रख दिया। उसने खेतान का बयान भी चलाया। अमेठी लोकसभा चुनाव में एक छात्रा तथा महिला के साथ कुमार विश्वास के संबंधों को लेकर आम आदमी पार्टी के भीतर से ही खबरें, तस्वीरें, केजरीवल को भेजी गईं शिकायतें आदि सामने र्लाइं गईं। मीडिया ने इसे तूल नहीं दिया। छोटी खबर बना दी, क्योंकि यह किसी महिला और लड़की के भी सम्मान और जिन्दगी का प्रश्न है। इस समय एक महिला दिल्ली महिला आयोग में पहुंुची इस आवदेन के साथ कि उन पर आरोप से उनका परिवार टूट रहा है कुमार विश्वास इस पर बयान दें। वो महिला अमेठी लोकसभा चुनाव में आप पार्टी के लिए काम कर रहीं थीं। किसी मीडिया ने उन पर कोई आरोप लगाया ही नहीं, वो तो पार्टी के अदंर से आवाज उठी। अगर वो आयोग में आई है तो खबर बनती ही है।

ऐसी बहुत सारी बातें हैं जिनसे अरविन्द केजरीवाल एवं उनके साथियों को परेशानी हो सकती है। कारण, यह बार-बार साफ हो रहा है कि उनकी मानसिकता एकपक्षीय एकाधिकारवादी चरित्र तक सीमित है। यानी हम जो सोचें, करें, बोलें बस वही सही और उसी अनुरुप पत्रकारों को खबरे या विश्लेषण लिखनी या बोलनी चाहिए। यह संभव नहीं। यह तो नहीं हो सकता कि आप अपने दल से उन लोगांे को बेइज्जत करके बाहर करिए जो आपके आरंभ से साथी रहे हैं और मीडिया आपके पक्ष को सही ठहराये। आपके एक मंत्री पर फर्जी डिग्री का आरोप है। वह गलत भी हो सकता है और सही भी। मीडिया इसे दिखाएगा क्यों नहीं? आप कह रहे हैं कि सही है तो मीडिया उसे भी दिखा रहा है, विरोधी कह रहे हैं कि फर्जी है मीडिया उसे भी दिखा रहा है, और उन विश्वविद्यालयों में भी जाकर वहां के अधिकारियों के वक्तव्य भी दिखा रहा है, न्यायालय में वहां से आए शपथ पत्र भी दिखा रहा है। केवल आपका ही पक्ष दिखाए और दूसरे का न दिखाए यह तो पत्रकारिता नहीं हो सकती। यह सोच फासीवाद की ओर ले जाती है। सच कहंें तो अरविन्द केजरीवाल जिस तरह का वक्तव्य दे रहे हैं, आचरण कर रहे हैं उन सबके आलोक मंे उनके बारे में फासीवादी सोच जैसे शब्द प्रयोग अतिवादी नहीं हो सकते। विरोध और असहमतियों के प्रति उनकी सोच और व्यवहार से वाकई फासीवाद झलकता है। राजनीति में यह प्रवृत्ति खतरनाक है। इसका विरोध होना चाहिए।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

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