अवधेश कुमार |
यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है कि भारत सरकार ऐसी संधियों से बंधी हैं, जिसमें अभियोजन के बिना विदेशी बैंकों के किसी खातेदार के नाम का खुलासा उसकी शर्तों का उल्लंघन होगा। इसके साथ यह भी सच है कि कि आगे कुछ संधियां होने वाली हैं उन पर असर होगा, एवं हम और जो नाम चाह रहे हैं, या जिन नामों के लिए जांच में सहयोग चाहते हैं वह भी प्रभावित होगा। यहां तक सरकार का तर्क गले उतर रहा था। लेकिन किसी की समझ में ये नहीं आ रहा कि आखिर बंद लिफाफे में उच्चतम न्यायालय में इन नामों की सूची और कार्रवाई रपट तथा संधियों के दस्तावेज पहले देने में क्या समस्या थी? जो कुछ सरकार ने 29 अक्टूबर को किया वह पहले भी कर सकती थी। इतने हील हुज्जत की जरुरत क्या थी? उच्चतम न्यायालय के पास इतना विवेक इतनी समझ है कि वह उस सूची का क्या करे। उसने अंततः उस लिफाफे को बिना पढ़े विशेष जांच दल या सिट को सौंप ही दिया।
सरकार की एक ही दलील थी कि हम संधियों के कारण अभी नामों का खुलासा नहीं कर सकते। उच्चतम न्यायालय नामों के खुलासे की तो बात कर नहीं रहा था वह तो कह रहा था कि जो भी जानकारी आपके पास है वह पूरी दीजिए। सरकार और न्यायालय दोनांें का इस मामले में एक ही लक्ष्य होना चाहिए- छानबीन कर चोरी से विदेशों में धन जमा करने वालों को सामने लाना, उनसे करों की वसूली करना तथा उनको सजा देना। तो फिर आमने-सामने की स्थिति इसमें पैदा होनी ही नहीं चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के नेताओं ने जिस तरह विदेशी बैंकों में काला धन को चुनाव का बड़ा मु्द्दा बनाया था उसके बाद उनका दायित्व है कि देश के सामने दूध का दूध और पानी का पानी हो। सरकार ने सिट के गठन और उसे व्यापक अधिकार देकर आरंभ में अपने इरादे का प्रमाण भी दिया। सरकार को यकीनन अभी समय कम मिला है, इसके द्वारा गठित सिट जांच कर रही है, लेकिन एप्रोच में मौलिक अंतर नहीं दिख रहा है। एकदम सामान्य सी बात थी कि जब आपने फ्रांस से प्राप्त जिनीवा स्थित एचएसबीसी बैंक 627 खातेदोरों की सूची सिट को पहले से सौंपी हुई है तो फिर उच्चतम न्यायालय को सौंपने में कोई हर्ज नहीं होनी चाहिए थी।
यह ठीक है कि उच्चतम नयायालय में आने के बाद कोई अंतर नहीं आया। सरकार ने उस सूची के साथ अब तक की कार्रवाई कार्रवाई रपट और संधियों के दस्तावेज न्यायालय को सौंपे है। निस्संदेह, इसका उद्देश्य यह साबित करना है कि हम जो बता रहे है। वे सच हैं, संधियो में हमारी प्रतिबद्धतायें हैं और हम बैठे नहीं हैं कार्रवाई कर रहे हैं। चूंकि वह भी सिट के पास आ गया इसलिए उसका दायित्व है कि उससे संबंधित रिपोर्ट उच्चतम न्यायालय को दे। इसके लिए उसके पास मार्च 2015 की समयसीमा भी है। हालांकि कुल मिलाकर उन नामों के आने के बावजूद हमारे पास वही 25 नाम हैं जिसे दो दिनों पहले सरकार ने न्यायालय को सौंपा था। लेकिन साफ है कि वित्त मंत्र अरुण जेटली के व्यवहार से 10 दिनों में सरकार की आम जनता की नजर में जैसी छवि बनी है, उससे बचा जा सकता था। उच्चतम न्यायालय ने इतनी कड़ी टिप्पणी सरकार के विरुद्ध कर दी। एक प्रकार से उस पर अविश्वास व्यक्त किया कि ऐसे अगर काम हुआ तो मेरी जिन्दगी में सच सामने नहीं आएगा। मोदी सरकार के विरुद्ध यह सामान्य टिप्पणी नहीं है। वित्त मंत्री पहले ही उच्चतम न्यायालय के निर्देश का पालन करते हुए सूची सौंप देते तो यह नौबत नहीं आती और सरकार का सिर उंचा रहता। आज सरकार कुछ भी कहे उसके इस रवैये से आम जनता के बीच भाव यह बना है कि सरकार उच्चतम न्यायालय में अगर सूची नहीं दे रही थी तो कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है। यानी आपकी भूमिका प्रश्नों के घेरे में आ गई। विपक्ष को हमला करने का अवसर मिल गया।
हालांकि कांग्रेस जिस तरह सिना तानकर बातें कर रहीे हैं, वह केवल अपने पाप को छिपाना है। उच्चतम न्यायालय ने आदेश 2011 में ही दिया था। फ्रांस से सूची उन्हें ही मिली थी। न्यायालय बार-बार सरकार को कहती रही, डांटती रही, लेकिन सरकार ने अपने तरीके से ही काम किया। वैसे उस सरकार ने भी विदेशों में काला धन पर काम किया, पर वैसा नहीं जैसा हो सकता था। लेकिन नरेन्द्र मोदी सरकार ने तो ऐसी उम्मीद पैदा की थी जिसमे उसका व्यवहार पूर्व सरकार से अलग दिखना चाहिए था। सरकार की ओर से यह घोषणा हो चुकी थी कि 136 नामों की सूची वह सौंपने वाली है। उसी आधार पर यह मान लिया गया कि 136 की सूची दी गई है जिसमेे से 8 का खुलासा हुआ है, लेकिन बाद में शपथ पत्र से पता चला कि 136 की सूची दी ही नहीं गई। इसका सहमतिजनक कारण तलाशना कठिन है।
वैसे इस मामले में कई प्रकार के दुष्प्रचार हो रहे हैं एवं गलतफहमियां पैदा की जा रहीं हैं। मसलन, भाजपा ने विदेशों से काला धन लाने की कोई समय सीमा दी थी। नरेन्द्र मोदी ने कभी नहीं कहा या भाजपा के घोषणापत्र में भी 100 दिन में कालाधन वापस लाने का वायदा नहीं किया गया। यह सफेद झूठ है। इसी तरह हर व्यक्ति को 15 लाख देने की बात मैंने मोदी के या भाजपा के किसा शीर्ष नेता के मुंह से नहीं सुनी। कल्पित आंकडे देकर यह जरूर बता रहे थे कि विदेशों में काला धन आने पर हर व्यक्ति के हिस्से कितना आयेगा। लेकिन बांटने की बात आज उपहास के रूप में कह जा रही है। समानांतर कुछ लोग दुष्प्रचार कर रहे हैं कि उच्चतम न्यायालय की पीठ में 10 जनपथ यानी सोनिया गांधी से जुड़े न्यायाधीश हैं, जो मोदी सकरार की छवि खराब कर रहे हैं। यह घटिया दर्जे का आरोप है। इसमें 10 जनपथ की किसी भूमिका को खोचने से ओछी बात कुछ नहीं हो सकती। अगर आज भी 10 जनपथ का इतना प्रभाव है तो इस सरकार को शासन में रहने का अधिकार ही नहीं है। सोशल मीडिया पर उच्चतम न्यायालय के खिलाफ दुष्प्रचार में कहा जा रहा है कि अगर उसे नामों का खुलासा करना ही नहीं था तो फिर उसने नाम लिया क्यों? अगर सिट के पास नाम था ही तो दुबारा ऐसा करने का मतलब क्या है? यह सब बाल की खाल निकालना है। उच्चतम न्यायालय यदि नामो ंका खुलासा नहीं कर रहा है तो यही उसकी परिपक्वता का परिचायक है। कुछ लोग दोहरे कराधान संधि को इस मामले में अप्रासंगिक बता रहे हैं। वे यह भूल रहे हैं विदेशों में कालाधन की पूरी जांच कर चोरी पर टिकी है। यानी आपने कर न देने के इरादे से अपना धन विदेश में छिपा दिया। दूसरे देशों की आपत्ति यही है कि अगर किसी का हमारे देश में खाता है और वह वैध है तो उसकी निजता का हनन नहीं होना चाहिए।
वास्तव में विदेशांे में कालाधन के मामले में आरंभ से ही अतिवादी विचार प्रस्तुत किये जाते रहे हैं। पहले न जाने कितने लोग आंकड़े लेकर आते थे और यह साबित करने की कोशिश करते थे कि विदेशों में इतना काला धन भारत का जमा है कि वह आया नहीं कि हम अमीर देश हुए। इसमें कुछ विदेशी संस्थान भी शामिल हैं। उनमें ज्यादातर आंकड़े काल्पनिक गणनाओं पर आधारित रहे हैं। भाजपा ने ही अपना एक टास्क फोर्स बनाया था जिसने भी ऐसे ही बड़े आंकड़े दिए थे। स्वामी रामदेव का आंकड़ा भी ऐसा ही था। एक स्विस बैंक एसोसिएशन की 2006 की रिपोर्ट के हवाले आंकड़े सामने लाए गए, जिसका कहीं कोई आधार आज तक नहीं मिला। दुनिया के किसी देश में किसी का खाता है तो वह अवैध नहीं हो सकता, यदि उसने बाजाब्ता इसकी सूचना यहां अपने आयकर विवरण में दिया हुआ है। जिन्हें टैक्स हेवेन देश कहा जाता है वहां खाते खुलवाने आसान रहे हैं, लेकिन वहां भी इतनी अधिक राशि की बिल्कुल संभावना नहीं है।
इसकी जटिलताओं को भी समझना होगा। आज के एप्रोच में आपको कोई देश केवल उन्हीं खातों से संबंधित जानकारी देगा जिसमें आपके कर विभाग ने कर चोरी की जांच की हो और कुछ ठोस प्रमाण हासिल किए हों। ऐसे में अगर सरकार इसी रास्ते विदेशों के कालाधन की जांच करती रहीं तो बहुत कुछ हासिल नहीं होगा। हालांकि जो नाम हैं उनमें दोषियों की जानकारी हमारे पास आएगी यह निश्चित है, पर शेष नाम कैसे आयेंगे? यह तो हमें बिना परिश्रम के मिले हुए नाम हैं। इसलिए सरकार को गंभीरता से विचार कर अपना एप्रोच बदलना होगा। सिट अभी तक इसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंच सका है कि हम किस तरीके से इसका पता लगाएं, देशों से किन आधारों पर भारतीय खातेदारों की सूची मांगे और किस तरह उसे काला धन साबित करें...आदि आदि। यहां सरकार के इरादे पर प्रश्न नहीं है लेकिन इस तरीके से तो बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती। वित्त मंत्रालय और महाधिवक्ता ने न्यायालय में जो रुख अपनाया वह एप्रोच अस्वीकार्य है।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208
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