अवधेश कुमार
ए. के. एंटनी ने कांग्रेस की करारी पराजय पर अलग-अलग समयों पर कई वक्तव्य दिए, लेकिन उनकी अध्यक्षता में बनी रिपोर्ट टुकड़ों में नहीं है। उसे पूरी तरह सार्वजनिक भी हीं किया गया है, पर उसके महत्वपूर्ण अंश उनके वक्तव्यों या स्रोतों से बाहर आ गया है। वैसे भी कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा प्रस्ताव पारित करके उसका गठन नहीं हुआ था। अध्यक्ष के नाते सोनिया गांधी ने उसे अनौपचारिक स्वरुप दिया था। इसका अर्थ यह हुआ कि वह रिपोर्ट सिर्फ सोनिया गांधी को ही मिलनी थी। वे उसे पढ़ेंगी और आवश्यकता समझेंगी तो उसे विचार के लिए कांग्रेस की कोर कमेटी या कार्यसमिति में रखेंगी नहीं समझेंगी तो नहीं रखेंगी। अगर उन्हें महसूस होगा कि इस पर विचार एवं कार्य होना चाहिए तो वे स्वयं उस दिशा मंे अध्यक्ष के नाते कदम उठा सकती हैं, पार्टी से भी आग्रह कर सकती हैं। यानी एंटनी समिति रिपोर्ट का पूरा दारोमदार सोनिया गांधी पर निर्भर है या फिर राहुल गांधी को उपाध्यक्ष के नाते मिला दें तो दोनों माता-पुत्र ही इस रिपोर्ट की नियति निर्धारित करेंगे। इसके पूर्व जब 2012 में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की पराजय हुई थी तब भी एंटनी की अध्यक्षता में एक समिति बनी थी। उसकी रिपोर्ट के अंश भी बाहर आए, पर वह कांग्रेस पार्टी के विचार-विमर्श का हिस्सा नहीं बना। तो क्या इस रिपोर्ट की भी यही दशाा होगी?
यह प्रश्न और आरंभ में उपरोक्त विवरण इसलिए दिया जाना आवश्यक है, क्योंकि बहुत सारे कांग्रेसी एवं कांग्रेस के समर्थकों ने इस रिपोर्ट से काफी उम्मीद लगा रखी है। आखिर अपने जीवन के सबसे बुरी पराजय और राजनीतिक संघात के बाद पार्टी के निष्ठावान लोग कम से कम इतना तो अवश्य सोचेंगे कि एंटनी समिति ने जो कारण बताए होंगे और उनसे निपटने के लिए जो अनुशंसायें की होंगी उनके आधार पर पार्टी फिर से पुनर्गठित होकर जन समर्थन पाने की कुव्वत पा सकती है। उत्तराखंड के उपचुनावों में तीनों सीटों पर विजय से ऐसा सोचने वालों की उम्मीदें जगीं है। हम उस रिपोर्ट के मुख्य अंश पर बाद में आएंगे, लेकिन जरा सोचिए, इस समिति में मंें एंटनी के अलावा, मुकुल वासनिक, आरसी खुंटिया और अविनाश पांडेय शामिल हैं। इनमंे से ऐसा कौन व्यक्ति है जो हिम्मत के साथ सोनिया गांधी या राहुल गांधी के सामने एकदम कटु सच बोल सकता हो? इसलिए जब समिति ने 21 जून से काम करना शुरू किया था तभी से यह मान लिया गया था कि इसमें कुछ सतही और अस्पष्ट ऐसे कारणों को ज्यादा फोकस किया जाएगा जिससे संदेश यह निकले कि मुख्य कारण अपने अपने वश में नहीं थे। इससे नेतृत्व पर दोष आने से बच जाएगा। यही आपको इस रिपोर्ट में दिखाई देगा। दूसरे, यह भी विचार करने की बात है कि आखिर इतनी बुरी हार और घक्के के बाद भी यदि पार्टी अध्यक्ष औपचारिक और अधिकार प्राप्त समिति तक के गठन से बचीं तो वे या उनके रणनीतिकार आगे पार्टी को पुनर्गठित करने के लिए कुछ क्रांतिकारी कदम उठाएंगे यह कैसे मान लिया जाए?
एंटनी समिति ने कांग्रेस और संप्रग के खिलाफ वातावरण बनाने के लिए मीडिया और कुछ कॉरपोरेट घरानों की ओर उंगली उठाई है। रिपोर्ट में बाजाब्ता चार ऐसी कंपनियों का नाम भी लिया गया है। यह असाधारण स्थिति है। संभवतः भारत के राजनीतिक इतिहास में यह पहली ही घटना होगी जब किसी मुख्यधारा की पार्टी ने अपनी पराजय का ठिकरा मीडिया और कॉरपोरेट घराने पर फोड़ा है। कांग्रेस से यह पूछा जाना चाहिए कि क्या मीडिया और कॉरपोरेट के पास इतनी शक्ति है कि वह देश भर में कांग्रेस का मत 28.8 प्रतिशत से 19 प्रतिशत पर ला दे और 206 सीटों को घटाकर 44 कर दे? अगर ऐसा हो जाए तो फिर इस देश को कॉरपोरेट अपने अनुसार चलानो लगेंगे और आज मीडिया के अधिकांश हिस्से में उनका धन लगा ही हुआ है। समिति लिखती है कि पार्टी मीडिया को मैनेज करने में सफल नहीं रही। मीडिया को मैनेज कैसे किया जाता है? कांग्रेस के बड़े-बड़े विज्ञापन अखबारों, चैनलों पर आते रहे, सरकार की तथाकथित उपलब्धियों का बखान करने वाले विज्ञापन चलते रहे.......। लेकिन मीडिया किसी सरकार और पार्टी का भोंपू तो नहीं हो सकती। कांग्रेस यह भूल गई कि यही मीडिया 2002 से 2012 तक नरेन्द्र मोदी के खिलाफ जितनी टिप्पणियां होतंीं थीं करता रहा और वे चुनाव जीतते रहे। हालांकि चुनाव सर्वेक्षणों में उनके समर्थन के आंकड़े आते थे तो मीडिया को उसे प्रकाशित प्रसारित करना था। उनके समाचार उसी रुप में आते थे जैसे आने चाहिए, पर एक सामूहिक स्वर मीडिया का मोदी को खिलाफ होता था जिसके सामने समर्थन वाला स्वर थोड़ा कमजोर हो जाता था। कांग्रेस को यह सोचना चाहिए कि आखिर मीडिया का सामूहिक स्वर कांग्रेस व सरकार के विपरीत कैसे गया?
मीडिया की भूमिका जनता की आवाज को प्रतिबिम्बित करना है। अगर लोग नरेन्द्र मोदी की ओर आकर्षित हैं, लाखों की संख्या में उन्हें सुनने आ रहे हैं, शुल्क देकर भी लाखों की संख्या आ रही है तो फिर मीडिया का स्वर क्या हो सकता था? सच तो यह है कि कांग्रेस के नेतृत्व और उनके रणनीतिकारों ने इस स्वर को सुनकर अपनी रीति-रणीनीति में बदलाव की कोशिश ही नहीं की। बल्कि मीडिया पर सच बोलने वालों को भाजपा का प्रवक्ता तक कहकर हमला करने लगे। इसके विरुद्ध तीखी प्रतिक्रिया होती थी। एंटनी समिति ने भ्रष्टाचार के आरोपों के संदर्भ में जनता के सामने सही परिप्रेक्ष्य न रख पाने को हार का कारण बताया है और यहां भी मीडिया को कठघरे में खड़ा किया है। उसने 2 जी से लेकर, कोयला घोटाला, राष्ट्रमंडल घोटाला आदि की चर्चा की है। मीडिया ने तो वही लिखा, बोला और दिखाया जो खबर आती थी। अगर कैग कह रहा है कि इसमें भ्रष्टाचार हुआ है, सीबीआई की रिपोर्ट इसमें सरकार और संप्रग नेताओं की संलिप्तता बताती है तो हमारे पास चारा क्या है? अगर इतने बड़े-बड़े घोटाले होंगे तो मीडिया उस पर बहस करेगी, उसका सच दिखाएगी। ऐसा नहीं था कि उन बहसों में कांग्रेस के लोग नहीं होते थे लेकिन वे जिस अख्खड़ता से प्रतिहमला करते थे उससे उनका पक्ष कमजोर होता था।
2004 और 2009 में भाजपा ने अपनी पराजय के लिए मीडिया और कॉरपोरेट को दोषी नहीं माना था। यह बात अलग है कि पार्टी ने अपने में बदलाव नहीं किया, अन्यथा हार के कारणों का सही विश्लेषण किया था और उससे उबरने के उपाय भी बताये गए थे। 2004 में बाजाब्ता एक बड़ी रिपोर्ट भाजपा ने भविष्य के कार्य के रुप में प्रकाशित की थी। डॉ. मनमोहन सिंह एवं पी चिदम्बरम हमेशा कॉरपोरेट के दुलारे रहे हैं। अगर रिपोर्ट को स्वीकार कर लें जिसे वास्तव में स्वीकार करना कठिन है तो भी यह प्रश्न तो उठता ही है कि उनके खिलाफ अगर नाराजगी हुई तो क्यों? इस पर कांग्रेस को विचार करना चाहिए। राहुल गांधी ने बाजाब्ता अपने भाषण में एक कॉरपोरेट का नाम लेकर मोदी के साथ सांठगांठ का आरोप लगाया था। सच कहें तो रिपोर्ट में उसी को स्थान दिया गया है। उस समय कांग्रेस की सरकार थी वे चाहते तो जांच करा सकते थे। साफ है कि एंटनी समिति असली वजहों को या तो समझने से वंचित रह गई या जानबूझकर उन्हें वर्णित करने की हिम्मत नहीं कर पाई। समिति कह रही है कि चुनाव लड़ने के लिए धन की कमी पड़ गई। हालांकि अगर कांग्रेस एवं भाजपा की अंकेक्षण रिपोर्ट देखी जाए तो उसमें कांग्रेस की आय भाजपा से करीब 100 करोड़ रुपया ज्यादा है। जवाब में कांग्रेस कहती है कि भाजपा ने प्रच्छन्न रुप से काफी धन खर्च किया है। तो इसके खिलाफ उनको चुनाव आयोग के पास जाना चाहिए।
इन कुछ कारणों का उल्लेख आरंभ में इसलिए किया गया क्योंकि इससे यह स्पष्ट होता है कि कांग्रेस नेतृत्व की सोच वास्तविकता की जगह दोषारोपण की ओर जा रही है। और जब आप दोषारोपण की ओर बढ़ जाते हैं तो फिर ईमानदार और निष्पक्ष आत्मचिंतन नहीं कर पाते। कांग्रेस की यही त्रासदी है। कांग्रेस नेतृत्व यह समझने की कोशिश क्यों नहीं कर रही कि पराजय के बाद से कई जगहों से जिस प्रकार की भाषा राहुल गांधी और सोनिया गांधी के लिए प्रयोग हो रहे हैं, उनके खिलाफ आवाजें उठ रहीं हैं वे भी कुछ संदेश दे रहे हैं। कहीं से भी मीडिया के खिलाफ, या कॉरपोरेट के खिलाफ आवाज नहीं उठ रही है। एंटनी समिति को अपनी जाचं के दौरान कई राज्यों में व्यापक विरोध का सामना करना पड़ा। कई जगह राहुल गांधी के खिलाफ नारे लगाए गए, कई जगह राहुल और उनकी टीम को हाईफाई कहकर उसे पराजय के लिए जिम्मेवार बताया गया, सोनिया गांधी को दस जनपथ में घिरा कहा गया, समाचारों में वह सब आया, विरोध की तस्वीरें तक छपीं, पर एंटनी रिपोर्ट में उन सबका जिक्र ही नहीं है। एंटनी ने कहा भी कि पराजय के लिए राहुल गांधी को जिम्मेवार मानना गलत होगा। बेशक, एक व्यक्ति को जिम्मेवार नहीं होना चाहिए।
हालांकि समिति ने कुछ बातंे ठीक कहीं है। मसलन, कई राज्यों में गठबंधन न करना, राज्यों की ईकाइयों में गुटबाजी, बेपरवाह मंत्रियों से निराश पार्टी कार्यकर्ता, उम्म्ीदवारों का गलत चयन, राज्यों की समस्याओं को लेकर समन्वय का अभाव और इसके फलस्वरुप प्रचार का दिशाहीन और प्रभावहीन होना.... आदि। ये सब सच हैं। पर इन सबके लिए आप किसे जिम्मेवार किसे कहेंगे? जो विरोध या विद्रोह हो रहा है वह इन्हीं सब कारणों से था। राहुल गांधी के हाथों पूरे चुनाव की कमान थी और सोनिया गांधी मार्गदर्शक के रुप में थीं। राहुल गांधी ने सारे निर्णय किए या उनके सलाहकारों व टीम के सदस्यों ने......। कुछ राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्यों सहित अन्य राज्यों आदि के प्रभारियों की भूमिका पर भी सवाल खड़े किए गए हैं। इनके प्रभारियों की नियुक्तियां किसने कीं थीं? अगर राज्यों में प्रभावी नेताओं की कमियां थीं तो क्यों? प्रभावी नेता क्यों कांग्रेस की मुख्यधारा से बाहर चले गए हैं? ये सारे ऐसे प्रश्न हैं जिन पर समिति को गहराई से विचार करके अपनी बात रखनी चाहिए थी लेकिन वह नहीं रख पाई।
सबसे बढ़कर एंटनी ने स्वयं अपने बयान में कहा था कि कांग्र्रेस की संप्रदाय विशेष के प्रति उदार होने की छवि ने काफी नुकसान पहुंचाया। यह रिपोर्ट में भी शामिल है। एंटनी ने कहा कि समाज के एक वर्ग को ऐसा लगने लगा है कि कांग्रेस केवल एक खास समुदाय को ही आगे बढ़ाने का काम करती है। यानी वह मुसलमानों को खुश करने मे लगी रहती है। पार्टी नेता इसके लिए खासकर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उस बयान को उद्धृत करते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है। इन नेताओ का मानना है कि यूपीए सरकार की ओर से अल्पसंख्यकों के मसले पर जरूरत से ज्यादा जोर दिये जाने से बहुसंख्यक वर्ग व गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों में नाराजगी बढ़ी। यह सच है लेकिन इसके लिए क्या केवल मनमोहन सिंह को जिम्मेवार ठहराया जा सकता है? सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली केन्द्रीय सलाहकार बोर्ड की सिफारिशें देख लीजिए। जाहिर है, इस पहलू को उभारकर या सरकार के मंत्रियों की कार्यशैली, अच्छे कार्य का ठीक प्रचार न कर पाना आदि का उल्लेख कर अप्रत्यक्ष रुप से मनमोहन सिंह को हार का खलनायक बनाने से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस सच को स्वीकार करने को तैयार ही नहीं है। आज भी आप क्या कर रहे हैं? संसद में सांप्रदायिकता पर मोदी सरकार को बहस के लिए विवश करते हैं और उसका संदेश क्या निकल रहा है? कांग्रेस यह समझ ही नहीं रही है कि इस एकपक्षीय भूमिका से दूसरा वर्ग उसके खिलाफ विद्रोह करके भाजपा के पाले में चला जाता है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है, पर हमें तत्काल यह मानकर चलना होगा कि एंटनी समिति की रिपोर्ट एक औपचारिक खानापूर्ति भर थी.....कांग्रेस के नेतृत्व, नीति और रणनीति में संभ्रम से बाहर निकलने की संभावना अभी नहीं दिख रही है।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208
शुक्रवार, 22 अगस्त 2014
एंटनी राग से कांग्रेस को क्या मिलेगा
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