अवधेश कुमार
कवर्धा में आयोजित धर्म संसद, उसमें हुई बहस, और पारित प्रस्तावों को लेकर देश में बहस और विवाद दोनों साथ आरंभ हो गए हैं। ज्योतिष एवं द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानंद जी से उनके राजनीतिक विचारों को लेकर भारी संख्या में लोगों को एलर्जी है। हमारे मन पर दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से राजनीति इतनी हाबी हो चुकी है और अपने या अपने द्वारा समर्थित दल के अलावा दूसरों के प्रति विरोध का इतना गहरा भाव भरा है कि उसके पक्ष में एक बयान देने वाले तक को हम खलनायक मानने के लिए तैयार हो जाते हैं। राजनीतिक दलों और नेताओं के आचरणों ने इतनी असहिष्णुता पैदा कर दी है। शंकराचार्य स्वामी से कई मुद्दों पर सहमति असहमति हो सकती है, लेकिन धर्म के इतने उंचे पायदान पर और इतने अधिक दिनों से वे विराजमान हैं, उनके जीवन के ऐसे अनेक पहलू हैं जो कि गौरवपूर्ण भी हैं, पर उनके द्वारा आहूत धर्मसंसद को कुछ लोग केवल इस कारण खारिज कर रहे हैं कि वे कांग्रेस के समर्थक हैं। आश्चर्य की बात है कि उनमें अब ऐसे लोग भी शामिल हो गए हैं जो स्वयं साधु वेश धारण कर चुके हैं, आश्रम चलाते हैं और कांग्रेस की ओर से चुनाव भी लड़ चुके हैं। लेकिन क्या शंकराचार्य जी का धर्म संसद बुलाना धर्म की दृष्टि से सम्मत कदम नहीं है? क्या वहां जो निर्णय लिए गए वे मान्य नहीं होंगे?
हम पत्रकारों की अपनी समस्या है। हम हर घटना मंे विवाद तलाशते हैं और उसे अपनी सोच के अनुसार नमक मीर्च लगाकर परोसते हैं। खैर पहले विवाद पर आएं। दिल्ली से तीन साईं समर्थक अशोक कुमार, जितेंद्र कुमार और मनुष्यमित्र मंच पर पहुंचे। हालांकि सिरडी साईं ट्रस्ट की ओर से इनको अधिकृत नहीं किया गया था, फिर भी उन्हें बात रखने का मौका दिया गया। उनने कहा कि वे साईं को भगवान मानते हैं। वे सिद्ध आत्मा थे, इसलिए उनकी पूजा करने का सभी को अधिकार है। मनुष्यमित्र ने कहा कि धर्म संसद हिंदुओं को बांटने का काम कर रही है। कोई भी साधु आज गौहत्या को रोकने के लिए अनशन करने को तैयार नहीं है। जब मनुष्यमित्र ने सनातन धर्म के साधुओं से गौहत्या बंद होने तक अन्न त्यागने का प्रस्ताव रखा, तो एक साधु आए और शंकराचार्य के सामने अन्न त्यागने को तैयार हो गए। इसके बाद साधुओं के समूह ने मनुष्यमित्र को घेर लिया। बाद में साधु संतों के बीच से मनुष्यमित्र को निकाला गया और पुलिस अपने साथ ले गई। जिस साधु को टीवी चैनलों पर माइक लेकर चिल्लाते हुए दिखाया गया उन्हांेने कहा कि मैं शंकराचार्य जी के चरणों के सामने यह संकल्प लेता हूं कि मैं अन्न जल ग्रहण नहीं करुंगा, तुम आओ। यह कहीं से धर्म संसद का विरोध नहीं था, पर इसे जिस तरह प्रस्तुत गिया गया मानो वहां विद्रोह हो गया है। यह सच नहीं था। और ऐसी कौन सी बहस होगी या संसद होगी जहां विरोध, मतभेद न उभरे।
धर्म संसद में देश के तेरह अखाड़ों और चार शंकराचार्यों का प्रतिनिधित्व हुआ। नरेन्द्र गिरी जी महाराज की अध्यक्षता में हुई सभा में सभी इस बात पर एकमत थे कि साईं भगवान नहीं हैं। उनकी पूजा नहीं की जानी चाहिए। अन्य दो शंकराचार्य स्वामी भारती तीर्थ महाराज (श्रृंगेरी पीठ), स्वामी निश्चलानंद जी महाराज (पुरी पीठ) ने भी अपने-अपने प्रतिनिधियों के जरिए स्पष्ट किया कि साईं में भगवान होने की योग्यता नहीं है। संसद ने बाजाब्ता प्रस्ताव पारित करके कहा कि साईं भगवान नहीं है, साईं पूजा शास्त्र सम्मत नहीं है, साईं कोई अवतार भी नहीं हैं और न ही हिंदू सनातन धर्म में उनका कोई उल्लेख है। मंदिरों से साईं की मूर्तियां हटाये संबंधी प्रस्ताव में कहा गया कि अगर साईं भक्त ऐसा नहीं करेंगे तो संत खुद मंदिरों से मूर्तियों को हटा देंगे। देखा जाए तो इन पंक्तियों में एक टकराव का भाव है। यानी किसी तरह मूर्तियां हटानी ही है चाहे कोई रोके या विरोध करे। लेकिन चार पीठों के शंकराचार्यों ने एकमत होकर कह दिया है कि साईं भगवान नहीं हैं। धर्म संसद ने एक निर्णय ले लिया है, जिसमें इतने अखाड़े, शंकराचार्यों की सहमति है और काशी विद्वत परिषद की मुहर है। शंकराचार्य को धर्म संसद बुलाने का अधिकार है। जो सहमत थे वे आए लेकिन जो नहीं आए वे सहमत नहीं ही थे ऐसा नहीं है। र्साइं को भगवान माने या नहीं इस पर मतभेद की गुंजाइश है, पर धर्मक्षेत्र में इसका निर्णय कौन करेगा? सरकार, मीडिया, कानून और संसद तो कर नहीं सकती। अगर धर्म संसद ने निर्णय कर दिया तो उसका खंडन कौन करेगा? साईं को भगवान माना जाए या नहीं, उनकी पूजा की जाए की नहीं, की जाए तो किस रुप में....इस पर देशव्यापी बहस और विवाद स्वामी स्वरुपानंद जी के स्टैण्ड लेने के बाद ही आरंभ हुआ। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ही स्वरुपानंद जी से सहमत नहीं है। वैसे देश भर में आम सनातनी देवताओं के मंदिरों में जिस तरह साईं बाबा की मूर्तियां लगीं उनके खिलाफ माहौल आम विवेकशील धर्मावलंबियों में भी देखा गया।
लेकिन ध्यान रखिए वहां कुल छः प्रस्ताव पारित किए गए जिनमें साईं को भगवान न मानने वाला प्रस्ताव एक था। इन प्रस्तावों मे कहा गया है कि गोहत्या को बंद करना चाहिए और गंगा को निर्मल अविरल धारा में प्रवाहित करने के लिए प्रयास करना होगा, विश्वविद्यालयों में गीता, रामायण, महाभारत की पढ़ाई अनिवार्य होना चाहिए, नकली संतों का बहिष्कार करना चाहिए, क्योंकि ये हिंदु धर्म का नाम लेकर सनातन धर्म को क्षति पहुंचा रहे हैं, नारी का सम्मान बढ़ाना होगा। कानून से कोई हल नहीं निकलने वाला, इसके लिए धर्म जागरण अभियान चलाना होगा। आखिरी प्रस्ताव अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण का था। सरकार को राम मंदिर निर्माण में आ रहे सभी अवरोध को दूर करने का प्रस्ताव भेजा गया है। वहां सनातन धर्म की कमियों पर भी चर्चा हुई। उदाहरण के लिए पूर्व गृहमंत्री चिन्मयानंद स्वामी ने कहा कि सनातन धर्म को भी अपनी कमियों पर विचार करना होगा। आदिवासी और जंगलों में रहने वाले लोग सनातन धर्म से दूर हो गए। साधुओं की सभा में इस बात का चिंतन करना चाहिए कि सनातन धर्म के लोग मुसलमान, ईसाई और साईं की ओर क्यों झूक रहे हैं। इसके बाद देश में धर्म की रक्षा के लिए सनातन संघर्ष समिति का गठन किया गया। यह समिति सनातन धर्म के विरोध में उठने वाले मुद्दों पर जवाब देगी। इसके अध्यक्ष नरेद्र गिरी और मंत्री हरिगिरी को बनाया गया है। समिति देश में अलग-अलग स्थानों पर धर्म संसद का आयोजन करेगी और नकली साधुओं को समाप्त करने के लिए अभियान चलाएंगे।
तो कुल मिलाकर इस धर्म संसद ने ऐसे कार्य नहीं किए जिससे इसे इतना विवादास्पद या विफल बता दिया जाए। इसमें सार्थक प्रस्ताव हैं और धर्म के प्रति सचेतन का प्रयास है। हां, साईं बाबा के भक्त यकीनन धर्म संसद के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करेंगे। साईं ट्रस्ट इसका समुचित जवाब दे। हमारा मानना है कि वे अपनी आस्था भले बनाए रखें, पर सनातन धर्म के मंदिरों में उनकी मूर्तियां लगाने से परहेज करें। सनातन धर्म के मंदिरों का जिस तरह हाल के वर्षों में साईंकरण हुआ है वह अभद्र और अशालीन प्रक्रिया है। इसे रोका जाए ताकि टकराव न हो। दूसरे, वेद मंत्रों के आधार पर जो मंत्र उनने तैयार किए हैं उन पर पुनर्विचार करें। वैसे साईं का साहित्य पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि बहुत गहरा आध्यात्मिक दर्शन का आधार वहां नहीं है। लेकिन मनुष्य की आस्था है, वह किसी में भी हो सकती है। हम उस आस्था को जबरन रोक नहीं सकते हैं। पर धर्म के शीर्ष संत होने के कारण शंकराचार्य एवं अन्य संतों को भी यह अधिकार है कि अगर उन्हें कोई पंथ अपने सनातन धर्म के विरुद्ध लगता है तो वे उसके विरुद्ध आवाज उठाएं और निर्णय दें। यह निर्णय पर किसी पर थोपा नहीं जा सकता। हम अपने विवेक अविवेक से निर्णय करें। लेकिन इसको निरर्थक कहना, या सतही शब्दों से इसे तुच्छ साबित करना उचित नहीं है।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्ली-110092, दूर.ः01122483408, 09811027208
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