शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

भाजपा की वोट नीति

अवधेश कुमार

जबसे यह साफ हो गया कि नरेन्द्र मोदी भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनेंगे तभी से अपने चुनावी रंगरुप और ढांचे को वह एक श्रेष्ठतम सुप्रबंधित मशीनरी और जीवंत समूहों- योजनाओं में ढालने का कदम उठा रही है। जून में मोदी को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाए जाने के साथ ही भाजपा चुनावी मोड में आ गई थी। 13 सितंबर को उनके प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के साथ उसका एक क्रम पुरा हुआ। 24 दिसंबर को पार्टी की संसदीय बोर्ड और मुख्यमंत्रियों की साझा बैठक तथा उसके बाद चुनाव अभियान समिति की बैठक में जो कुछ हुआ वह उसी कड़ी का अंग था। अगर सामने आए कार्यक्रमों पर सरसरी नजर दौड़ाएं तो यह औपचारिक चुनाव प्रचार अभियान आरंभ होने के पूर्व सम्पूर्ण पार्टी का अंतिम मतदान को छोड़कर उससे संबंधित सारे क्रियाकलापों, जरुरतों के मोर्चे पर सक्रिय हो जाना है। पार्टी प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर ने कहा भी कि आम चुनाव के लिए अब मात्र 120 दिन बचे हैं। इसलिए भाजपा 60 दिन तैयारी और शेष 60 दिन प्रचार में लगाएगी। तो क्या हैं योजनाएं? क्या हैं इनके पीछे की सोच? और क्या हो सकते हैं इनके संभावित परिणाम?

चुनाव की दृष्टि से यह पहली ऐसी बैठक थी जिसमें वे सभी  नेता शामिल थे, जिनकी औपचारिक रुप से महत्वपूर्ण भूमिका होगी। पार्टी की शीर्ष निर्णयकारी ईकाई केन्द्रीय संसदीय बोर्ड, फिर पार्टी शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्री, सभी प्रदेशों के अध्यक्ष व चुनाव अभियान समिति व उप समितियों के प्रमुखों के अलावा उन लोगों को भी बुलाया गया था जिनकी सक्रियता और अनुभव की आवश्यकता पार्टी को होगी। इसके बाद अलग से केंद्रीय चुनाव अभियान समिति ने विचार विमर्श किया और तब जाकर योजनाओं और कार्यक्रमों का ऐलान हुआ। ऐसी बैठकें लगातार नहीं हो सकतीं। इसका अर्थ साफ है कि बैठक के पूर्व एजेंडा आदि पर अनौपचारिक तैयारी चल रही थी और जितने सुझाव व कार्यक्रम आए उन सबको अंतिम रुप देकर सामने लाया गया। निस्संदेह, 25 दिसंबर को पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के जन्म दिवस को ध्यान में रखकर इसका आयोजन किया गया होगा ताकि अगले दिन से ही इसकी शुरुआत हो जाए। तो कहा जा सकता है कि 25 दिसंबर को भाजपा ने सुशासन दिवस के साथ चुनाव अभियान आरंभ कर दिया है। लेकिन स्वाभाविक ही वाजपेयी अब जैविक रुप से जीवित होते हुए भी भाजपा को नेतृत्व या मार्गदर्शन देने की स्थिति में नहीं है। इसलिए  अबकी बारी अटलबिहारी की जगह ‘मोदी फॉर पीएम’ का ही नारा होगा। 

तीन कार्यक्रम चुनाव की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण और लोकसभा चुनाव परिणाम पर प्रभाव डालने वाले साबित हो सकते हैं। उनमें सबसे पहला है, घर-घर जाकर मतदाताओं से वोट के साथ नोट मांगने का अभियान। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार भाजपा कार्यकर्ता कम से कम एक नोट, एक वोट की योजना के साथ 10 करोड़ परिवारों से सीधे संपर्क करेंगे। उन्हें भाजपा की नीतियों के बारे में बताने के अलावा 10 से 1000 रुपये तक का चंदा एकत्र करेंगे। इसी दौरान मतदान केन्द्र स्तर के कार्यकर्ताओं का सम्मेलन भी होगा। ये सम्मेलन फरवरी अंत तक पूरे कर लिए जाएंगे। पार्टी ने इसके लिए लोकसभा की 450 सीटों को लक्ष्य बनाया है। तीसरा कार्यक्रम, जो इसके साथ होते हुए भी अलग से किया जाएगा वह है, जनवरी में नए मतदाताओं से संपर्क करने का। इनमें नए मतदाताओं का पंजीकरण कराना भी शामिल है। नए मतदाताओं में मतदान के प्रति रुचि सबसे ज्यादा देखी जा रही है और राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा कुछ हद तक दिल्ली चुनाव में नए मतदाता कैमरे पर बयान देते देखे गए कि वे मोदी के लिए मत दे रहे हैं। मोदी वैसे भी युवाओं को आकर्षित करने के लिए हरसंभव प्रयास कर रहे हैं। वे युवाओं को न्यू एज वोटर की जगह न्यू एज पावर घोषित करके उनकी तालियां बटोरते हैं।

कोई राजनीतिक अभियान बगैर ठोस आधार और विचार के नहीं हो सकता। निस्संदेह, चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम यदि भाजपा के अनुकूल नहीं आए होते तो पार्टी नेतृत्व का मनोविज्ञान चिंता और निराशा से भरा होता और तब उसका मुख्य लक्ष्य प्रतिकूल परिणामों के प्रभावों से कार्यकर्ताओं और समर्थकों को बाहर निकालना होता। चुनाव परिणामों से उत्साहित भाजपा के संसदीय बोर्ड ने अपने प्रस्ताव में कहा है कि राज्यों के चुनाव परिणाम इस बात का जनमत सर्वेक्षण हैं कि सरकार को काम करके दिखाना चाहिए या हट जाना चाहिए। साफ है कि परिणाम के बाद माहौल उसे अपने पक्ष में लग रहा है और मोदी केन्द्रित अभियान उसे और सुदृढ़ करेगा। विचार के तौर पर जनता को संदेश दिया जाएगा कि देश में इस समय 1975 में कांग्रेस के लगाए गए आपातकाल के बाद जैसे हालात हैं। इसके साथ अपना दृष्टिकोण पत्र, घोषणा पत्र तथा भाजपा शासित राज्यों की उपलब्धियों की प्रचार सामग्रियां साथ होंगी। और मोदी की सभाएं ज्यादा से ज्यादा कराकर माहौल को सशक्त करने की कोशिश होगी। किंतु यह भाजपा का अपना आकलन है। भारत जैसे बहुविध आकांक्षाओं और राजनीतिक अपेक्षाओं वाले देश में कम से कम 300 लोकसभा क्षेत्रों तक अपने पक्ष में बहुमत को मोड़ना कितना कठिन है यह बताने की आवश्यकता नहीं।

पर भाजपा के दोनों संपर्क अभियानों को एक साथ मिलाकर देखिए तो इसका महत्व साफ हो जाएगा। ध्यान रखिए 2014 के लोकसभा चुनाव तक देश में पहली बार मतदान करने वाले युवा मतदाताओं की संख्या करीब 12 करोड़ होगी। 10 करोड़ लोगों तक चंदे और मतदान के लिए पहुंचना तथा 12 करोड़ नए मतदाताओं से संपर्क करने का अर्थ चुनावी गणित के आलोक में सामान्य बात नहीं हैं। 2009 के लोस चुनाव में कांग्रेस को सबसे ज्यादा 11 करोड़ 91 लाख 11 हजार 19 मत मिला था। भाजपा को 7 करोड़ 84 लाख 35 हजार 381 मत मिले थे। पिछले लोस चुनाव में करीब 10 करोड़ वोटर ऐसे थे, जिन्हें पहली बार मतदान करना था। इनमें भी 2 करोड़ की वृद्धि है। अभी तक की स्थिति के अनुसार करीब 400 लोकसभा स्थानों पर भाजपा उसके सहयोगियों और कांग्र्रेस के बीच ही टकराव होना है। भाजपा को यदि 272 का आंकड़ा पार करना है तो उसे 13 से 14 करोड़ के बीच मत चाहिए होगा। यानी 2009 से 6 करोड़ ज्यादा। यह कार्य आसान नहीं है। इसलिए भाजपा ने नोट और वोट, नए मतदाताओं एवं मतदान स्तर के सम्मेलनों का निर्धारिण उचित ही किया है। इसी नोट और वोट योजना से जनसंघ एवं बाद में भाजपा आगे बढ़ी थी। 1977 में जनता पार्टी इसी की बदौलत चुनाव लड़ने के लिए संसाधन पा सकी थी एवं जनमत निर्माण संभव हुआ था। इसलिए यह बिल्कुल व्यावहारिक और संसदीय लोकतंत्र के लिए सर्वथा उचित राजनीतिक आचरण होगा।

किंतु प्र्रश्न तो यही है कि क्या जैसी योजनाएं बनाईं गईं हैं जमीन पर भी वैसे ही उतर जाएंगी? क्या भाजपा में इतनी संख्या में चारों ओर निष्ठावान, ईमानदार और अनुशासित कार्यकर्ता बचे हैं जो पार्टी की योजनानुसार इसे जमीन पर अंजाम दे सकेंगे? अगर ऐसा है तो फिर कांग्रेस के प्रति असंतोष, अन्य दलों को लेकर आकर्षण में क्षीजन के दौर में मोदी का नाम चमत्कार कर सकता है और मोदी फॉर पीम का लक्ष्य हासिल हो सकता है। लेकिन भाजपा भी धीरे-धीरे कांग्रेस की तरह कार्यकर्ताओं की पार्टी नहीं रह गई है। पार्टी में स्वाभाविक नेतृत्व की जगह लद गए या लादे गए नेताओं की प्रबंधन शैली के कारण कार्यकर्ताओं की जगह भाजपा में निहित स्वार्थियों का वर्चस्व हो चुका है। आज विवेक से कौन निष्ठावान और कौन निहित स्वार्थी है इसकी पहचान करने वाले अत्यंत कम बचे हैं। इसीलिए उम्मीदवारों के रुप में भी वैसे लोगों का नाम सामने आ रहा है जिन्हें ईमानदार और निष्ठावान कार्यकर्ता आसानी से स्वीकार नहीं कर सकते। हां, मोदी का नाम उनके अंदर एक उम्मीद जरुर पैदा कर रहा है और युवाओं की बड़ी तादाद उनके नाम पर काम करने के लिए आगे आ रही है। पर इनका भी उचित उपयोग करने वाले ईमानदार और विवेकशील लोग चाहिए। इसलिए भाजपा को सबसे पहले ऐसे लोगों को तलाशकर जिम्मेवारी देनी होगी जो इस योजना को ईमानदारी से अमल में लाने के कार्यक्रम को अंजाम दिलवा सकें, अन्यथा योजनाएं और कार्यक्रम अपेक्षानुरुप साकार नहीं होंगी।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः110092, दूर.ः 011 22483408, 09811027208
 

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

राजनीतिक रणनीति हैं आप की सरकार बनाने की शर्तें

अवधेश कुमार

भारत की राजनीति में यह दृश्य पहली बार दिखा है जब समर्थन देने वाली पार्टी कोई शर्त्त नहीं रख रही है और जिसे समर्थन दिया जा रहा है उसका कहना है कि मैं समर्थन लेने की शर्त रख रहा हूं। जबसे भारत में विखंडित राजनीति का दौर आरंभ हुआ, सामान्यतः गठबंधन की सरकारें समर्थन देने वालों की शर्त्तों से दबीं होतीं थीं और उनके लिए काम करना कठिन होता था। आम आदमी पार्टी कह रही है कि कांग्रेस ने उनको बिना शर्त्त समर्थन देने का पत्र दिया तो उसने कहा कि वह स्वीकार कर रही है, लेकिन हमारी जो शर्त्तें हैं यदि उन्हें ये मंजूर हैं तो हम सरकार बनाएंगे। फिर कांग्रेस ने पत्र से बता दिया कि उनकी शर्तें सरकार को स्वीकार है। यह अब तक अनुभव से बिल्कुल उल्टी स्थिति है। समर्थन देने वाले आगे और जिसे समर्थ दिया जा रहा है वह पीछे। दिल्ली में लटकी हुई विधानसभा के परिणाम के बाद किसी पार्टी की सरकार अपने-आप तो बन नहीं सकती। या तो मिलीजुली सरकार बन सकती है या बाहर के समर्थन पर या फिर नहीं बन सकती है। सबसे बड़ी पार्टी होेने के बावजूद भाजपा ने बहुमत न होने की बात कहकर अस्वीकार कर दिया तो उप राज्यपाल नजीब जंग के पास दूसरी सबसे बड़ी पार्टी होने के कारण आप को ही बुलाने का विकल्प था। चूंकि कांग्रेस ने राज्यपाल के यहां आप को समर्थन का पत्र दे दिया, इसलिए उनको विधानसभा में बहुमत भी प्राप्त है। सामान्य स्थिति में सरकार आराम से बन सकती थी। यह आप की राजनीति है, जो परंपरागत तरीके से बिल्कुल अलग है।
कुछ बड़ी पार्टियों को इसका आंशिक अनुभव हो सकता है, क्योंकि सरकार बनाते समय वे भी अपने सथियों और समर्थकों के बीच यह बात रखते थे कि हम फलां फलां काम सरकार के एजेंडा में रखेंगे। पूरा अनुभव तो किसी को नहीं होगा। अगर आप की 18 शर्तों को देखें तो उसे किसी भी पार्टी के लिए स्वीकार करना आसान नहीं है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी एवं भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह को पत्र भेजने के बारे में राज्यपाल के आवास से बाहर आते समय आप के संयोजक अरविन्द केजरीवाल ने जो बातें कहीं वे दोनों पार्टियों को उत्तेजित करने के लिए पर्याप्त थीं। मसलन, भाजपा को केवल चार विधायक चाहिए, जिसे वह आसानी से खरीद सकती थी, क्योंकि न जाने कितने विधायकों एवं सांसदों को उनके द्वारा खरीदे जाने का रिकॉर्ड है। भाजपा की तीखी प्रतिक्रियाओं से जाहिर हो जाता है कि उन्हें यह नागवार गुजरा है। यह स्वाभाविक भी है। किसी पार्टी पर आरोप लगेगा तो उसकी प्रतिक्रिया ऐसी ही होगी। अरविन्द केजरीवाल ने अपनी राजनीति और रणनीति के तहत ऐसा बोला है। आम आदमी पार्टी सभी दलों को भ्रष्ट, पाखंडी बताते हुए ही राजनीति में उतरी है। वैसे आप को जो मत मिला है उसका कारण इतना तो है ही कि कांग्रेस से असंतुष्ट व नाराज बड़े तबके का भाजपा पर भी विश्वास नहीं है। अगर आप को इस समर्थन को बनाए रखते हुए उसका विस्तार करना है तो उसे दोनों पार्टियों को आक्रामक तरीके से कठघरे में खड़ा करना ही होगा।
यही वे कर रहे हैं। अगर आप आप पार्टी द्वारा दोनों पार्टियों के अध्यक्षों को भेजे गए प्रश्नों के सभी 18 विन्दुओं को देखें तो उसका स्वर भी यही है। यानी शीला दीक्षित के मंत्रिमंडल के सदस्यों के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच होगी तब भी आपका समर्थन जारी रहेगा। इसी तरह 7 वर्ष से दिल्ली की स्थायी नगर ईकाई पर भाजपा का कब्जा है। उनके पार्षदों के खिलाफ जांच होगी तब भी क्या उनको स्वीकार होगा। वे पूछ  रहे हैं कि कोई मंत्री, विधायक, अधिकारी सुरक्षा नहीं लेगा... आदि आदि। यह सब जनता को यह बताने के लिए हम क्या चाहते हैं, हम कैसी शासन व्यवस्था लाना चाहते हैं और कांग्रेस व भाजपा कैसी व्यवस्था की समर्थक है। देखा जाए तो आम आदमी पार्टी ने राज्यपाल से मिलने के बाद पत्र लिखने और प्रश्न पूछने के बहाने अपना अगला चुनाव प्रचार आरंभ कर दिया है। इन 18 प्रश्नों मंे दिल्ली की लगभग वो सारी समस्याएं हैं, जिनसे लोग परेशान हैं। बिजली, पानी, झुग्गी झोंपड़ी, शिक्षा, स्वास्थ्य.... आदि सारी बातें हैं और सबमंे राज्य सरकार के नाते कांग्रेस तथा नगर निमम एवं नगरपालिकाओं मेें होने के कारण भाजपा को कठघरे में खड़ा किया गया है। इसमें सभी वर्गों के लिए वे बातें हैं जो उनको सीधे प्रभावित करती है। मसलन, व्यापारी के लिए वैट का मामला है। यह आम आदमी पार्टी की सरकार का एजेंडा है। अरविन्द ने कहा भी कि सोनिया गांधी और राजनाथ सिंह का जो जवाब आएगा उसे हम जनता के बीच लेकर जाएंगे। जाहिर है, जनता के बीच जाने का अर्थ वे चुनाव प्रचार आरंभ कर चुके होंगे। वे रामलीला मैदान में विधानसभा बुलाकर जन लोकपाल यानी लोकायुक्त पारित करना चाहते हैं और सभी पार्टियों से उसमें सहमति चाहते हैं।
यह बात ठीक है कि समर्थन देने का कांग्रेस का अतीत अत्यंत स्याह है। कांग्रेस ने 1979 में चौधरी चरण सिंह को समर्थन देकर उनके संसद में जाने तक का अवसर नहीं दिया और समर्थन वापस ले लिया। चन्द्रशेखर, एचडी देेवेगौड़ा, इन्दरकुमार गुजराल तक को भी उसने नहीं बख्सा। इसलिए कांग्रेस के समर्थन पत्र को स्थायी समर्थन की वचनबद्धता नहीं माना जा सकता। कांग्रेस नेता कह भी रहे हैं कि हमने समर्थन दिया है कि आपने जो लोगों से झूठे वायदे किए उन्हें पूरा करिए। यानी उनकी भी आप को जनता के सामने नंगा करने की रणनीति है बिना शर्त समर्थन का पत्र देना। आप इसे उठा सकती थी और फिर अपने रुख को दोहरा सकती थी। इस प्रकार पत्र देकर आप ने उन दलों को स्वाभाविक ही यह कहने का अवसर दे दिया है कि ये जिम्मेवारी से भाग रहे हैं। ये अपने वायदे के अनुरुप जिम्मेवारी नहीं निभा सकते, इसलिए वे बहाना बना रहे हैं। कांग्रेस ने अपने जवाब मंे एक प्रकार से आप को घेरने की रणानीति ही अपनाई है। उसने जवाब में कहा है कि इनमें से 16 मांगों पर समर्थन की आवश्यकता ही नहीं, क्योंकि ये प्रशासनिक मामले हैं, दो मामले लोकायुक्त और पूर्ण राज्य का तो यदि लोकायुक्त कानून में वे संशोधन करना चाहते हैं तो हम सहयोग देंगे यदि केन्द्र के लोकपाल कानून के अनुरुप हो तथा राज्य की मांग के लिए पहल का भी समर्थन करेंगे। कांग्रेस की ओर से दिल्ली के प्रभारी शकील अहमद ने कहा कि उनको अनुभव की कमी है, इसलिए ऐसा पत्र लिख दिया। यह आसानी से समझने वाली बात है कि सरकार जैसे ही प्रशासनिक कदम उठाएगी जो उनके विरुद्ध जाएगा वे समर्थन वापस ले सकते हैं। वैसे विचार करने वाली बात है कि आम आदमी पार्टी का जो घोषणा पत्र है उसे लागू करने का वचन दूसरी पार्टियां कैसे दे सकतीं हैं। यह बात भी सही है कि इन 18 शर्तों में ऐसी अनेक बाते हैं जो भाजपा के चुनाव घोषणा पत्र में भी हैं। आप ने इसका जिक्र नहीं किया। अगर आप की ओर से यह कहा जाता कि हम सबसे सहयोग लेकर कुछ मुद्दों पर काम करना चाहते हैं और एक आम एजेंडा बनाने की अपील करतीं तो उसका सकारात्मक संदेश जाता।
कोई भी देख सकता है कि यह और कुछ नहीं, बल्कि अन्य पार्टियोे से स्वयं को बिल्कुल अलग शासक की मानसिकता से परे केवल आम आदमी को समर्पित, ईमानदारी, शुचिता और पारदर्शिता के प्रति प्रतिबद्ध पार्टी साबित करना है। हालांकि अभी तक आप के प्रमुख नेताओं की प्रतिबद्धता को संदेह में लाने का कोई कारण नहीं दिखा है। लेकिन यह रवैया विशुद्ध राजनीतिक रणनीति ही है। आप के संयोजक अरविन्द केजरीवाल ने चुनाव परिणाम के ठीक बाद साफ कर दिया था कि वे न किसी से समर्थन लेंगे न देंगे। वे राज्यपाल को यही बता सकते थे। 18 शर्तों की सूची देना और 10 दिनों का समय लेना रणनीति के अनुसार तो ठीक है, आपको दूसरे दलों को पटखनी देनी है तो यह भाव भंगिमा उचित है, लेकिन यह पारदर्शी और निष्कपट राजनीतिक व्यवहार नहीं है। यह जैसे को तैसा तो है, किंतु इसमें पवित्रता अनुपस्थित है। यह रवैया आने वाले समय में आप को भी अन्य दलों की उस कतार में खड़ी करेगी जहां जन समर्थन के लिए एक दूसरों को निचा दिखाने और स्वयं को महान साबित करने की छलपूर्ण कोशिशें ही प्रबलतम होतीं हैं। इसकी कोई आवश्यकता नहीं थी। वह सीधा कह सकती थी कि जिन दलों के आचरण के खिलाफ हम बदलाव के लिए राजनीति में आए हैं और जिनके लिए जन समर्थन मिला है उनको साकार करना तभी संभव है जब हम पूर्ण बहुमत की सरकार बनाएं।
अवधेश कुमार, ई: 30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाष : 01122483408, 09811027208


गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

देश की राजनीति के लिए क्या संकेत हैं

अवधेश कुमार

निश्चय ही लोकसभा चुनाव पूर्व के इन विधानसभा चुनावों के बाद हमारा ध्यान 2014 की ओर जा रहा है। सामान्यतः यह कहा जाता है कि राज्य विधानसभा चुनाव परिणामों को लोकसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में नहीं देखा जाना चाहिए। चार राज्यों के चुनावों के संदर्भ में भी कुछ हलकों से यही तर्क दिया जा रहा है। किंतु इसे हम आंशिक सच के रुप में ही स्वीकार कर सकते हैं। यह चुनाव यकीनन प्रदेश का चुनाव था जिनके परिणामों के निर्धारण में स्थानीय समस्याएं, स्थानीय मुद्दे, स्थानीय नेतृत्व, स्थानीय राजनीतिक समीकरणों की मुख्य भूमिका रही है। किंतु इसे हम राष्ट्रीय राजनीतिक परिपे्रक्ष्य से अलग होकर नहीं देख सकते हैं। इन परिणामों का असर राष्ट्रीय राजनीति पर नहीं होगा और लोकसभा चुनाव इससे बिल्कुल अप्रभावित रहेगा ऐसा मानना बेमानी होगा। सामान्य तौर पर विचार करने से भी यह स्पष्ट हो जाएगा कि इसका यकीनन राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य है और भविष्य की राजनीति के लिए कुछ साफ संदेश भी। अगर इन परिप्रेक्ष्यों और संदेशों को हम ठीक प्रकार से पढ़े ंतो फिर कुछ निश्चित निष्कर्ष निकाल सकते हैं।

कांग्रेस या अन्य कुछ पार्टियां इसे जिस रुप में लें, पर भाजपा ने राज्यों के चुनावों को लोकसभा चुनाव के पूर्व सेमिफाइनल का नाम दिया था। इसमें कांगे्रस बुरी तरह पराजित हुई है तो उसके द्वारा लोकसभा चुनाव को फाइनल कहकर इससे जोड़ते हुए प्रचारित करना एकदम स्वाभाविक है। इन चार राज्यों के 72 लोकसभा स्थानों में कांग्रेस के पास 41 तथा भाजपा के पास 30 थे। दिल्ली को छोड़कर ऐतिहासिक रुप से तीन राज्यों में विधानसभा एवं लोकसभा चुनावों के प्रदर्शनों में समानता रही है। यानी जिस पार्टी को विधानसभा चुनाव मंे सफलता मिलती है उसी को लोकसभा में भी। इससे भाजपा अपना प्रदर्शन काफी बेहतर करने की उम्मीद कर सकती है। अगले लोकसभा चुनाव के लिए बढ़े हुए आत्मविश्वास का महत्व आसानी से समझा जा सकता है। मध्यप्रदेश में पिछली बार से ज्यादा सीटें, राजस्थान में रिकाॅर्ड विजय, दिल्ली में सबसे बड़ी पार्टी तथा छत्तीसगढ़ में भी संतोषजनक प्रदर्शन.......के बाद उसका आत्मविश्वास बढ़ना स्वाभााविक है। इसके समानांतर यह कांग्रेस के लिए हर पहलू से आत्मविश्वास गिराने वाला तथा भविष्य की चिंता में डुबोने वाला परिणाम है। नरेन्द्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितीज पर आविर्भाव तथा भाजपा के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदार बनने के बाद राजनीतिक तापमान बढ़ा हुआ है। उनकी सभाओं से वैसे ही लोकसभा चुनाव जैसा वातावरण बन चुका है। इस कारण भी इन चुनावों पर राष्ट्रीय माहौल का असर था। मध्यप्रदेश में 73 प्रतिशत लोगांे ने एक सर्वेक्षण में स्वीकार किया कि उनके मतदान करने के निर्णय में नरेन्द्र मोदी भी कारक हैं। राजस्थान में इससे ज्यादा लोगों का जवाब ऐसा ही था। इसके आधार पर इन चुनावों पर राष्ट्रीय राजनीति के प्रभाव को स्वीकार करने में समस्या नहीं है।

कांग्रेस कह रही है कि यह चुनाव नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी था ही नहीं। इसके विपरीत भाजपा ने इन चुनावों को नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी में परिणत करके इसे राष्ट्रीय प्रकृति से आच्छादित करने की रणनीति अपनाई थी। मोदी ने दिल्ली एवं राजस्थान की अपनी रैलियों में स्थानीय सरकारों के साथ केन्द्र सरकार, राहुल गांधी, सोनिया गांधी को ज्यादा निशाना बनाया। उनने प्रदेश चुनावों को भी कांग्रेस से देश को मुक्त करने के अपने विचार से जोड़ा। वे कहते थे कि पहले प्रदेश से कांग्रेस को खत्म करेंगे उसके बाद देश से। कांग्रेस भी प्रदेश नेतृत्व के साथ मोदी पर हमला करती थी। हालांकि राहुल गांधी एवं सोनिया गांधी ने कभी मोदी का नाम नहीं लिया, लेकिन उनका इशारा साफ होता था। राहुल गांधी को जिस भाषण के लिए चुनाव आयोग का नोटिस मिला, उसमें उनने मुजफ्फरनगर दंगे के लिए बिना नाम लिए भाजपा को जिम्मेवार ठहराया था। इस प्रकार दोनों पक्षों ने इसे एक राष्ट्रीय चरित्र दिया था। कांग्रेस ने केन्द्र सरकार की खाद्य सुरक्षा कानून से लेकर अन्य कल्याणकारी योजनाओं को लगातार प्रचारित किया। प्रदेश के नेताओं ने भी हर स्तर पर नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाया। सच यह है कि आज यदि भाजपा का प्रदर्शन खराब हुआ होता तो कांग्रेस सहित दूसरी पार्टियां भी इसे मोदी की अस्वीकृति कहकर उन पर हमला करते।

वस्तुतः इन परिणामों को कांग्रेस के विरुद्ध जनादेश स्वीकार करने में किसी को समस्या नहीं होगी। स्वयं कांग्रेस को भी नहीं। इसमें भ्रष्टाचार, महंगाई, असुरक्षा केन्द्र सरकार से जुड़े मुदृदे थे। साफ है कि इससे जनता में व्याप्त व्यापक असंतोष ही इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन से बाहर आया है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की आशातीत सफलता के पीछे यदि जन लोकपाल को लेकर केन्द्र सरकार के विरुद्ध अन्ना के अनशन अभियानों से जोड़कर देखें तो यह केवल मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की नीतियों की नहीं केन्द्र एवं राज्य दोनों की सम्मिलित नीतियों के विरुद्ध परिणाम है। साफ है कि अगर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में वहां की भाजपा सरकारों के संदर्भ में सत्ता विरोधी रुझान को कमजोर करने में कामयाब न हुए और केन्द्र के विरुद्ध असंतोष हाबी रहा तो फिर लोकसभा चुनाव में वे इससे परे परिणाम लाने में कामयाब होंगे इसकी उम्मीद कठिन है। यह राहुल बनाम मोदी की प्रतिस्पर्धा में कांग्रेस के विरुद्ध जाने वाली राजनीतिक परिणति है। मोदी छत्तीसगढ़ एवं दिल्ली में भाजपा को श्रेष्ठतम सफलता दिलाने में सफल नहीं हुए, लेकिन कांग्रेस की राजधानी दिल्ली और राजस्थान में जैसी दुर्गति हुई उसे कांग्रेसजन याद भी नहीं करना चाहेंगे। इससे बचे-खुचे संप्रग के अंदर निराशा बढ़ रही है। राकांपा द्वारा कांग्रेस को आत्ममंथन करने की नसीहत को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।

तो इन चुनाव परिणामों के कुछ संदेश और संकेत साफ हैं। सबसे पहले कांग्रेस के लिए। एक, मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार की नीतियों के विरुद्ध जनता में गुस्सा कायम है और भाजपा व मोदी तथा दूसरे दल भी उसे और बढ़ाने में सफल हो रहे हैं। दूसरा, पूरा कांग्रेस नेतृत्व इस गुस्से के शमन का सूत्र तलाशने में विफल है। राहुल गांधी एवं सोनिया गांधी का करिश्मा गुस्से की अग्नि के सामने कमजोर पड़ रही है। तीसरा, इससे कांग्रेस के अंदर निराशा बढ़ेगी। इसका चैथा संकेत यह है कि राहुल एवं सोनिया की महिमा कमजोर होने के कारण आगामी चुनाव में उसे सहयोगी मिलना कठिन हो जाएगा। कोई भी बगैर मजबूरी ऐसी पार्टी के साथ चुनाव लड़ना नहीं चाहेगा जिसके विरुद्ध जनता में गुस्सा हो। यानी कांग्रेस पर अपने साथियों का दबाव बढ़ेगा। इसके समानांतर भाजपा के लिए पहला संदेश यह है कि नरेन्द्र मोदी का प्रभाव मतदाताओं पर है। इन चुनावों ने साबित कर दिया कि उनमें गुजरात से बाहर वोट पाने की क्षमता है। प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होने के बाद उनके लिए यह पहला परीक्षण था। इसमें वे डिस्टिंग्शन यानी विशिष्टता से भले उत्तीर्ण नहीं हुए, लेकिन अच्छे अंक अवश्य पाए हैं। दूसरा, यह बढ़ा हुआ आत्मबल भाजपा और मोदी को कांग्रेस, केन्द्र सरकार, राहुल गांधी, सोनिया गांधी के खिलाफ और आक्रामक बनने को प्रेरित करेगा। इससे उनके समर्थकों का उत्साह बढ़ सकता है। तीसरा, मोदी द्वारा व्यंग्यात्मक लहजे में राहुल गांधी को शहजादा एवं सोनिया गांधी को मैडम कहने की हम आप जितनी आलोचना करें लेकिन इन चुनावों के दौरान उनकी सभाओं में इसका असर देखा गया है। यह राजनीति के लिए उचित भाषा है या अनुचित इस पर सहमति असहमति हो सकती है, पर जब वे शहजादा बोलते थे तो लोगों की तालियां ज्यादा बजतीं थीं। इसलिए आगे इसके कम होने के संकेत नहीं हैं। इस प्रकार रजनीति का तापमान और बढ़ेगा।
इस प्रकार इसका राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य और संकेत बिल्कुल स्पष्ट है। इसके अनुसार कुल मिलाकर यह स्वीकार करने में समस्या नहीं है कि कांग्रेस अपना चेहरा, चिंतन, चित्त, चरित्र और आचरण में बदलाव लाने के लिए व्यापक पैमाने पर कदम नहीं उठाती तो केन्द्र से उसकी सत्ता का जाना निश्चित है। दूसरी ओर भाजपा को भी अपनी राष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से यह विचार करना होगा कि दिल्ली में वह कांग्रेस विरोधी माहौल का पूरा लाभ उठाने में सफल क्यों नहीं हुई? क्यों नवजात आम आदमी पार्टी इसका लाभ उठाने में कामयाब हो गई? इस प्रश्न का अगर वह ईमानदारी से उत्तर तलाशेगी तो फिर यह समझ आएगा कि उसे भी जनता का सकारात्मक विकल्प बनने के लिए काफी कुछ करने की आवश्यकता है। मोदी का असर वोट में योगदान तो कर सकता है, लेकिन आधार तो उसकी रीति-नीति ही होगी।
अवधेश कुमार, ई.ः30, ्रगणेश नगर, पांडव नगर काॅम्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208      

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

नई पीढ़ी-नई सोच संस्था ने लवली को जन्मदिन पर बधाई दी

संवाददाता

नई दिल्ली। नई पीढ़ी-नई सोच संस्था के प्रतिनिधि मंडल ने अरविंदर सिंह लवली (विधायक, गांधीनगर) का उनके निवास पर उन्हें जन्मदिन की बधाईं दी। इस प्रतिनिधि मंडल के साथ संस्था के सरपरस्त व बिहार समाज समिति के संस्थापक श्री अब्दुल खालिक व कालोनी के कुछ जिम्मेदार मौजूद थे। इस प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्व संस्था के संस्थापक व अध्यक्ष श्री साबिर हुसैन ने किया।
संस्था के संस्थापक व अध्यक्ष श्री साबिर हुसैन ने श्री अरविंदर सिंह लवली को फूलों का गुलदस्ता देकर उनको जन्मदिन व भारी बहुमत से गांधीनगर का विधायक चुने जाने पर बधाईं दी व कहा कि उनकी आयु सौ वर्षो से अधिक हो और वह इसी प्रकार जनता की सेवा करते रहें।
उन्होंने कहा कि लवली जी ने जिस भी मंत्रालय को संभाला उसमें चार चांद लगा दिया और उम्मीद करते हैं कि भविष्य में भी उन्हें जो जिम्मेदारी दी जाएगी वह उस पर उसी तरह काम करेंगे।
श्री अब्दुल खालिक ने कहा कि लवली जी ने जो काम बुलंद मस्जिद के लिए किया है वह पहले नहीं हुआ था। हम उम्मीद करते हैं कि भविष्य में भी उसी तरह काम करेंगे जिस तरह काम करते आए हैं।
इस प्रतिनिधि मंडल में श्री अब्दुल खालिक (सरपरस्त), साबिर हुसैन (संस्थापक व अध्यक्ष), मो. रियाज़ (उपाध्यक्ष), अंजार (सचिव), शमीम हैदर (महासचिव), डा. आर अंसारी (कोषाध्यक्ष), मो. यामीन (ब्लॉक अध्यक्ष बुलन्द मस्जिद) और सज्जाद, नियामत आदि (सदस्य) व कालोनी के जिम्मेदार हाजी जाबिर हुसैन, जुबैर आज़म, मो. शोएब, मो. अंसार आदि लोग शामिल थे।



गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

भारी संख्या में मतदान मशीन का बटन दबने का अर्थ

अवधेश कुमार

राज्य विधानसभा के चुनावों में जिस तरह मतदाताओं ने भारी संख्या में घरों से निकलकर इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीनों का बटन दबाने का रिकाॅर्ड कायम किया है उससे संसदीय लोकतंत्र में आस्था रखने वालों का उत्साह यकीनन बढ़ा होगा। छत्तीसगढ़ के दूसरे दौर में कुल 74.7 प्रतिशत मतदान हुआ। जिस बस्तर क्षेत्र के 19 विधानसभाओं में माओवादियों ने उंगली काटने से लेकर अन्य सजाओं की धमकी दी थी वहां भी आश्चर्यनक रुप से 75.53 प्रतिशत मतदान हुआ था। 2008 में कुल 71.09 प्रतिशत मतदान हुआ था। मध्यप्रदेश में 71.24 प्रतिशत मतदान 2008 के 69.78 प्रतिशत से 1.46 प्रतिशत ज्यादा है। यहां भी नक्सल प्रभावित बालाघाट में तो 80 प्रतिशत मतदान की खबरें आईं। मिजोरम में भी 83 प्रतिशत से ज्यादा होने की संभावना जताई जा रही है। हालांकि वहां 2008 में भी 82.35 प्रतिशत मतदान हुआ था। राजस्थान में 75.2 प्रतिशत मतदान हुआ। 2008 में 66.39 प्रतिशत मतदान हुआ था। यनी 8.63 प्रतिशत अधिक। यह असामान्य वृद्धि है। जैसलमेर में रिकाॅर्ड 85.26 प्रतिशत तो हनुमानगढ़ में 84.93 प्रतिशत मतदान हुआ। 2008 की तुलना में राजस्थान के 33 जिलों में से 31 में मतदान वृद्धि हुई। दिल्ली में पिछली बार 57.8 प्रतिशत मदान हुआ था। जाहिर है अगर 69 प्रतिशत के आसपास मतदान हुआ है तो यह 11 प्रतिशत से ज्यादा की बढ़ोत्तरी है। दिल्ली के राज्य बनने के बाद 1993 के पहले मतदान में 61.8 प्रतिशत मतदान हुआ था। तो इस बढ़ते मतदान प्रतिशत का क्या अर्थ लगाया जाए?

पिछले तीन सालों में रिकाॅर्ड मतदान भारत की प्रवृत्ति बन चुकी है। आप याद करिए पिछले वर्ष उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड एवं पंजाब में कड़ाके की ठंढ के बीच भारी संख्या में मतदाता मतदान करने बाहर आए थे। उत्तराखंड में 67 प्रतिशत मतदान 2007 के 59.45 प्रतिशत से करीब 8 प्रतिशत अधिक था। पंजाब में भी रिकाॅर्ड 76.63 प्रतिशत मतदान हुआ है। यह 2007 के रिकाॅर्ड 75.47 प्रतिशत से 1.16 प्रतिशत अधिक था। उत्तरप्रदेश के मतदाताओं ने भी आजादी के बाद सभी रिकाॅर्ड घ्वस्त करते हुए 59.50 प्रतिशत मतदान किया। यह अन्य राज्यों की तुलना में कम लगता है, लेकिन 2007 से करीब 14 प्रतिशत ज्यादा था। 14 प्रतिशत का अर्थ उत्तरपदेश के लिए औसत से करीब 2 करोड़ 40 लाख ज्यादा मतदाताओं द्वारा मत प्रयोग करना था। इसके पूर्व भी विधानसभा एवं स्थानीय चुनावों में मतदान बढ़ने की ही प्रवृत्ति थी। प. बंगाल में 84 प्रतिशत तमिलनाडु में 80 प्रतिशत तथा पुड्डुचेरी में 86 प्रतिशत मतदान का रिकाॅर्ड कायम हुआ। असम में भी 76 प्रतिशत एवं केरल में 75 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का रिकाॅर्ड कायम किया। तमिलनाडु के मतदान ने 1967 के 75.67 प्रतिशत के रिकाॅर्ड को ध्वस्त कर दिया तो केरल में 2006 के ही 72.38 प्रतिशत के। तमिलनाडु के करुर जिला में 86 प्रतिशत से ज्यादा तो केरल के कोझिकोड में 81.30 प्रतिशत तथा असम के धुबरी में 85.65 प्रतिशत मतदान हुआ। यही नहीं पिछले वर्ष जम्मू कश्मीर के स्थानीय चुनावों में भी अगल-अलग क्षेत्रों में 76 प्रतिशत से 82 प्रतिशत के बीच मतदान हुआ। इस पृष्ठभूमि में यह कहा जा सकता है कि छत्तीसगढ़ से लेकर राजस्थान तक मतदाताओं ने मत डालने का जो रिकाॅर्ड बनाया है वह अब भारतीय चुनाव का स्थापित संस्कार बन रहा है। किंतु इसके कुछ तो अर्थ हैं।

हमने देखा है कि पिछले कुछ सालों से चुनाव आयोग से लेकर मीडिया, नागरिक संगठन आदि मतदाता जागरुकता अभियान चला रहे हैं। राजनीतिक दलों के नेता भी अपने भाषणों के अंत में घरों से निकलकर मतदान करने की अपील करने लगे हैं। भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी तो पहले मतदान फिर जलपान का नारा लगवाते रहे। चुनाव आयोग का सुरक्षा संबंधी सख्त कदम भी लोगों के अंदर से भय का अंत करने में योगदान कर रहा है। मत डालने के संकल्प के बावजूद नक्सली क्षेत्रों में सुरक्षा का माहौल नहीं होता तो मतदान करने के लिए इतनी संख्या में आगे आने की संभावना कायम नहीं होती। यह भी ध्यान रखें की 2006 के बाद मतदाता बने युवाओं की संख्या 21 प्रतिशत से ज्यादा है। संपूर्ण भारत में 40 प्रतिशत से ज्यादा मतदाता 35 वर्ष की आयु सीमा के नीचे हैं। हमने मतदान केन्द्रोें पर युवाओं की संख्या देखी है। यही बात महिलाओं के साथ भी है। अब महिलाएं भी ज्यादा संख्या में निकलने लगीं हैं।  मतदान करने वालों में युवा वर्ग एवं महिलाओं की संख्या काफी देखी जाती है। इन सबके साथ कुछ नेताओं के प्रति विशेष आकर्षण भी लोगांे को बाहर आने को प्रेरित करता है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की उपस्थिति ने यकीनन मदतान को रोचक बनाया है और अन्ना अनशन अभियान की ओर आकर्षित लोगों के एक समूह ने भी कुछ क्षेत्रों में मतदाताओं की संख्या बढ़ाने में भूमिका दी गी है। अगर संक्षेप में कहना हो तो यही कहा जाएगा कि लोगों  के अंदर मतदान से सत्ता निर्माण का भाव तीव्र हो रहा है। पर क्या इतने मात्र से मतदान की बढ़ती प्रवृत्ति की व्याख्या पूरी हो जाती है?

अगर कोई शासन मतदान पर ही निर्मित या विघटित होता है तो फिर उसमें अधिकाधिक लोगों की भागीदारी अपरिहार्य है। हमारी संसदीय व्यवस्था की एक प्रमुख कमजोरी यही रही है कि चाहे केन्द्र हो या राज्य कुल मतों के बहुमत से बहुत कम पर सरकारें सत्तासीन हो जातीं हैं। लोकसभा चुनाव में औसत मतदान 58 प्रतिशत रहा है। इसमें 27-28 प्रतिशत मत पाने वाला दल यदि सरकार गठित कर सकता है तो वह करीब 15 प्रतिशत मत की सरकार हुई। राज्यों में उदाहरण के लिए मध्यप्रदेश को लीजिए।  2008 के विधानसभा चुनाव में 3 करोड़ 62 लाख 66 हजार 969 मतदाता थे। इनमें से 2 करोड़ 51 लाख 27 हजार 120 ने वोटिंग की। यानी कुल 69.28 प्रतिशत मतदताओं ने मताधिकार का उपयोग किया। भाजपा ने इसमें से केवल 94 लाख 93 हजार 641 मत पाया। यानी केवल 37.64 प्रतिशत मत। अगर कुल मतदान के अनुसार देखें तो यह 26-27 प्रतिशत के आसपास है। तो सरकार बहुमत की कहां हुई। अगर अधिकाधिक संख्या में मतदाता बाहर आते हैं तो फिर वास्तविक बहुमत की सरकार कायम हो सकती है। मतदान है तो आंकड़ों का गणित, लेकिन इसके सामाजिक, राजनीतिक,सांस्कृतिक, आर्थिक सारे निहितार्थ होते हैं। कम मतदान से आम जनता चाहती क्या है यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो सकता। इसलिए भी ज्यादा से ज्यादा मतदाताओं का मत प्रयोग जरुरी है। अगर आपकों राजनीतिक दलों या उम्मीदवारों से कोई उम्मीद नहीं हैं तो आप कोई नहीं का भी बटन दबा सकते हैं। यह हमारे पास असंतोष प्रकट करने का एक नया विकल्प है। इसका असर चुनाव पर हो या न हो, पर इससे विश्लेषकों को यह अनुमान लगाने में सुविधा होगी कि हमारे राजनीतिक तंत्र से असंतुष्ट लोगों की संख्या कितनी है। यह बढ़ रही है या घट रही है।

इस प्रकार मतदान करने के विस्तारित होते संस्कार के कारक और उसके निहितार्थों के बारे में और भी बातें कहीं जा सकतीं हैं। पर इससे अभी यह मान लेना उचित नहीं होगा कि लोगों की अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास पहले से ज्यादा सुदृढ़ हुआ है, राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के प्रति उनकी वितृष्णा कम हुई है। सामान्यतः मतदान बढ़ने के साथ ही सरकार की विदाई तय हो जाती थी। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड , प. बंगाल, तमिलनाडु, केरल एवं पुड्डुचेरी इसके उदाहरण हैं। लेकिन पंजाब, बिहार और असम जैसे अपवाद भी हैं। वस्तुतः कई जगह मतदान बढ़े, लेकिन शासन नहीं बदली। हां, किसी के काम से खुश होकर भारी संख्या में मतदान करने की प्रवृत्ति अभी सामने नहीं आई है। इस बार का परिणाम इसे थोड़ा और स्पष्ट कर सकता है। कई बार कुछ नेता लोगों को प्रेरित करने में सफल हो जाते हैं और उम्मीद से लोग मतदान करने निकलते हैं। आप देख लीजिए, दिल्ली को छोड़कर किसी राज्य में नेतृत्व, नीति के स्तर पर कोई नया विकल्प जनता को नहीं मिला है। लेकिन उन्हें वोट देना है तो वे किसी को तो देंगे ही। यह संभव है कि आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी में से किसी के प्रति उम्मीद की किरण भी इन्हें खींच ला रही हो। किंतु यह किसी दृष्टि से राजनीतिक तंत्र के प्रति असंतोष के कम होने का प्रमाण नहीं हो सकता। अगर आप विभिन्न सर्वेक्षणों पर नजर दौड़ाएं तो लोगों ने अपने विधायकों से वैसी उम्मीदें बताईं या उन कामों के न किए जाने पर निराशा जताई जो कि पंचायतों और नगर निकायों या प्रशासनिक अधिकारियों, कर्मचारियों के जिम्मे है। यह सामूहिक अपरिपक्ता का परिचायक है। इसलिए भारत में अभी सही समझ वाले जनमत निर्माण का कार्य ही अधूरा है। ऐसा जनमत निर्माण हो, फिर चुनाव इतने व्यापक सुरक्षा तामझाम और खर्चों से परे आयोजित हों, उनमें मतदाता भारी संख्या में निकलें तो उसे परिपक्व जनमत से उभरे स्वस्थ लोकतांत्रिक या राजनीतिक व्यवस्था का प्रमाण माना जा सकता है। अगर चुनाव आयोग के नेतृत्व में कठोर सुरक्षा व्यवस्था के तहत हम मतदान के लिए बाहर आते हैं तो यह किसी दृष्टि से स्वस्थ स्थिति नहीं हो सकती। वैसे भी हमें लोकसभा चुनाव की प्रतीक्षा करनी चाहिए।  

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर काॅम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः22483408, 09811027208

 


सोमवार, 2 दिसंबर 2013

नई पीढ़ी-नई सोच संस्था के पदाधिकारी व सदस्य घर-घर जाकर कर रहे हैं मतदाताओं को जागरुक

संवाददाता
नई दिल्ली। चुनावी मैदान में कूदे उम्मीदवार मतदाताओं को अपने हक में मतदान करने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं। कोई उन्हें विकास कराने की बात कह रहा तो कोईं मूलभूत समस्याओं से निजात दिलाने की बात कह रहा है।
वहीं मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए चुनाव आयोग ने पूरी तरह से मेहनत की है। उसने भी अपनी तरफ से वह सारी तैयारी कर रखी हैं जो मतदान के दिन मतदाताओं को मतदान केंद्र पर जाने के लिए प्रेरित कर रही हैं। मतदाताओं को किसी प्रकार की कोई परेशानी न हो उसके लिए भी चुनाव आयोग ने अपनी ओर से मतदाताओं को मतदाता पर्ची घर-घर भेज दी है।
इसी अभियान में नई पीढ़ी-नई सोच संस्था के पदाधिकारी व सदस्य लोगों को मतदान के लिए प्रेरित कर रहे हैं वह घर-घर जाकर लोगों को बता रहे हैं कि मतदान नहीं करने से क्या नुकसान है और मतदान करने से उनका व उनके क्षेत्र आदि को क्या फायदा होगा। संस्था के अध्यक्ष साबिर हुसैन ने बुलंद मस्जिद, शास्त्री पार्क (गांधीनगर विधानसभा-61) में अपने पदाधिकारी व सदस्यों के साथ लोगों को जागरुक किया। साबिर हुसैन लोगों को मतदान के दिन ज्यादा से ज्यादा मतदान करने के लिए कहा व लोगों को मतदान के फायदे नुकसान से अवगत कराया।
श्री साबिर ने बताया कि जो लोग मतदान नहीं करते वह लोग अपने आपको होशियार समझते हैं वह होशियार नहीं बेववूफ हैं क्योंकि उनकी भागीदारी नहीं होने से ही सही लोग चुनकर नहीं आ पाते। श्री हुसैन ने लोगों से अपील की कि वह मतदान करने जरूर जाएं। सही लोगों का चुनाव करें व अपने क्षेत्र के विकास में भागीदार बनें।
इस अवसर पर डॉ. आर अंसारी, अंजार, मो. रियाज़, मो. यामीन, मो. सज्जाद, मो. मुन्ना अंसारी, गुलजार अख्तर, मो. सेहराज, नईम, विनोद, संजय, अब्दुल रज्जाक, आजाद, शकीला, शान बाबू, रजी अहमद आदि पदाधिकारी, सदस्य व आम जनता शामिल थी।

 

 

रविवार, 1 दिसंबर 2013

नई पीढ़ी-नई सोच संस्था ने एड्स व मतदाता जागरुकता कैम्प का आयोजन किया

संवाददाता

नई दिल्ली। पूर्वी दिल्ली के गांधी नगर विधानसभा में स्थित शास्त्री पार्क में नई पीढ़ी-नई सोच(पंजी) संस्था ने एड्स व मतदाता जागरुकता अभियान कार्यक्रम का आयोजन किया। यह कैम्प कोषाध्यक्ष डॉ. आर. अंसारी की जनता क्लीनिक में लगाया गया। कैम्प में एड्स से बचाव, मतदान करने व सही उम्मीदवार चुनने के लिए प्रेरित किया गया जिसमें सभी ने बढ़-चढ़कर भाग लिया।

कार्यक्रम की अध्यक्षता संस्था के संस्थापक व राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री साबिर हुसैन द्वारा की गई उन्होंने कार्यक्रम में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हमारी संस्था का उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा मतदाताओं को जागरुक कर मतदान प्रतिशत बढ़ाना है जिससे मतदान के दिन मतदाता घर पर छुट्टी का आनंद लेने के बजाय अपने अधिकारों का प्रयोग कर सही उम्मीदवार चुन सके नहीं तो 5 वर्ष तक हमें अपनी भूल का एहसास होता रहेगा कि हमने मतदान क्यों नहीं किया, क्योंकि सही उम्मीदवार चुनने में भाग नहीं लिया और यही मतदान प्रतिशत कम होने का कारण भी है जबकि दिल्ली में यह 100 प्रतिशत होना चाहिए।

डॉ. आर. अंसारी ने कहा कि यदि हम जागरुक हैं तो एड्स की संभावना कम होती है व सही मतदान से हम सही उम्मीदवार को चुन सकते हैं नहीं तो हम 5 साल तक अपनी भूल का एहसास करते रहते है कि सही समय पर अगर हमने सुरक्षा अपनाई होती तो यह दिन देखने को नहीं मिलता। यह बात दोनों पर लागू होती है
1. एड्स-मौजूदा समय में एड्स तेजी से फैल रहा है। इसके सबसे ज्यादा युवा शिकार हो रहे हैं। युवा अपने दोस्तों की गलत संगत को ग्रहण करते हैं और जब वह ज्यादा बीमार हो जाते हैं तो फिर डाक्टरों व अस्पताल के चक्कर लगाते हैं। जब उनकी जांच आदि होती है तो पता चलता है कि वह एड्स (एचआईवी पॉजिटिव) से ग्रस्त हैं। लोग अभी भी एड्स की जांच कराने से घबराते हैं। वह सोचते हैं कि यदि मुझे एड्स हुआ तो मुझे समाज किस नजर से देखेगा।
2. मतदान-यदि हम वोट डालने नहीं जाते हैं तो गलत व्यक्ति चुनकर आ जाता है। जब गलत व्यक्ति चुनकर आ जाता है तो हम कहते हैं कि यह व्यक्ति गलत है। हमें उसे गलत कहना का अधिकार नहीं क्योंकि अगर हमने अपने मत का प्रयोग किया होता तो सही गलत व्यक्ति चुनकर आ सकता था।
डॉ. अंसारी ने कहा कि युवा आगे आकर एड्स व सही मतदान की जानकारी हासिल करें व इससे होने वाले नुकसान से अपने आपको बचाएं व दूसरों को भी बचाने की कोशिश करें।
संस्था के उपाध्यक्ष श्री मो. रियाज ने कविता के माध्यम से कहा कि एक रास्ता खराब है तो दूसरा रास्ता अपना लेंगे, बाहर सुरक्षा का डर लगे तो छुट्टी घर पर बिता लेंगे, घर पर पानी नहीं आया तो पड़ोसी का दरवाजा खटखटा लेंगे, रात में बिजली चली गई तो कैंडिल लाइट डिनर का बहाना बना लेंगे, महंगाईं की मार पड़ी तो एक सब्जी से गुजारा कर लेंगे, सरकारी दफ्तर के चक्कर लगाने पड़े तो रिश्वत देकर काम निकाल लेंगे, बड़े अजीब है ना हम हर मुसीबत उठाएंगे फिर भी वोट करने नहीं जाएंगे। लेकिन एक दिन की मुसीबत से बचने के लिए 5 साल की मुसीबत मत पालो, अपनी बात मनवानी है तो वोट जरूर डालो। सुनाकर सभी से मतदान करने की शपथ दिलवाई कि मैं, 04 दिसम्बर 2013 दिन बुधवार को मतदान करने जरुर जाउंगा व अपने साथ औरों को भी मतदान केंद्र लेकर जाउंगा तथा सभी को कार्यक्रम में भाग लेने व समय देने के लिए धन्यवाद दिया तथा कार्यक्रम में सहयोग देने वाले श्री अब्दुल खालिक, श्री जुबैर आजम, हनीफ प्रधान, मो. इलियास, मौलाना हुसैन साहब, हाजी जाबिर हुसैन, मो. शुएब, मो. उमर व संस्था के पदाधिकारी-सदस्यों व अन्य जनों का रहा है।

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