शुक्रवार, 27 जून 2025

तीसरी बार निर्विरोध डे्सू मजदूर संघ के अध्यक्ष चुने गए किशन यादव

संवाददाता

नई दिल्ली। भारतीय मजदूर संघ से सम्बद्ध डेसू मजदूर संघ जिसका पंजीकरण संख्या 1336 है। इसके चुनाव 26 जून, 2025 को डे्सू मजदूर संघ के रविदास मंदिर, आरके पुरम, दिल्ली  के कार्यालय में हुए। इस चुनाव से पहले पुरानी कार्यकारिणी को भंग करके नई कार्यकारिणी का गठन किया गया और नए पदाधिकारी को जिम्मेदारी दी गई। इसमें किशन यादव को पुन: निर्विरोध तीसरी बार अध्यक्ष चुना गया। किशन यादव के अलावा विनोद कुमार वरिष्ठ कार्यकारी अध्यक्ष, अजीत कुमार उपाध्यक्ष, बीवाईपीएल के सरवन कुमार यादव उपाध्यक्ष, बीआरपीएल के हरीश कुमार वासने उपाध्यक्ष, डीटीएल सुभाष चंद्र महामंत्री, इम्तियाज अहमद सचिव, दीपचंद संगठन मंत्री, रामकुमार ऑफिस सचिव, दिलराज लीगल सचिव, सुभाष पाल कोषाध्यक्ष चुना गया।

इस चुनाव के बाद बैठक में कुछ प्रस्ताव पास किये गए जैसे 1. दिल्ली की पाँचो कंपनियों में काम करने वाले सभी डे्सू मजदूर संघ यूनियन की सदस्यता ग्रहण कर सकता है जिसमें एएमसी के कर्मचारी, आऊटसोर्स के कर्मचारी, एचआरएमएस के कर्मचारी, एसएलए के कर्मचारी, डाइवर कर्मचारी, सफाई कर्मचारी, जीपीए कर्मचारी। 2. पांचों बिजली कंपनियों में काम करने वाले ठेका कर्मचारियों को पक्का किया जाए, इसकी पूरी कोशिश की जाएगी। 3. करूण मूलक आधार पर आश्रितों के बच्चों को नौकरी पर रखा जाए। 4. जिस कर्मचारी को मिनियम वेज नहीं मिल रहा है उस कर्मचारी को मिनियम वेज दिलाना है आदि।

इस मौके पर बीएसईएस यमुना पावर लिमिटेड कंपनी के लिए भी जनरल बॉडी के पदाधिकारी रूप में अशोक कुमार अध्यक्ष, दिनेश कुमार उपाध्यक्ष, ऋषिपाल महामंत्री, सेन्तुल त्यागी संगठन मंत्री, अब्दुल रज़्ज़ाक़ नॉर्थ ईस्ट दिल्ली सचिव, नसरुद्दीन सेंट्रल दिल्ली सचिव, निरंजन धरोहर कोषाध्यक्ष, विनोद कुमार सह कोषाध्यक्ष चुना गया।

बीआरपीएल यमुना पावर लिमिटेड कंपनी के लिए जनरल बॉडी बृजेश उपाध्यक्ष, ओमपाल उपाध्यक्ष, प्रदीप कुमार महामंत्री, चंद्र केतु मिश्रा संगठन मंत्री, रमेश कुमार सचिव, इकबाल खान कोषध्यक्ष, बुद्धपाल ऑफिस सचिव बनाया गया और दीपेंद्र तिवारी के लिए पद छोड़ दिया गया है।

इस मौके पर किशन यादव ने सभी को शुभकामनाएं देते हुए कहा कि हमारा संगठन मजदूरों की आवाज को उठाता रहेगा और सभी चुने गए पदाधिकारियों से भी मैं यही आशा करता हूं कि वह अपना काम ईमानदारी से करेंगे।
















बुधवार, 25 जून 2025

प्रधानमंत्री द्वारा ट्रंप से दो टूक बात के बाद झूठा नैरेटिव ध्वस्त हुआ

अवधेश कुमार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जी 7 के लिए कनाडा, उसके पहले साइप्रस और फिर क्रोएशिया तक की यात्रा अनेक अनेक अर्थों में विदेश नीति, समर-नीति से लेकर रक्षा, आंतरिक सुरक्षा तथा नैरेटिव के संदर्भ में जबरदस्त उपलब्धियों एवं परिणामों वाली मानी जाएगी। भारत के अंदर और बाहर विरोधियों को भी इस तरह सफलता को प्रतिध्वनित करने वाली यात्रा की कल्पना नहीं रही होगी। शायद इन शब्दों में किसी को अतिवाद दिखे किंतु क्या आपने कल्पना की थी कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ बातचीत में सीधे ऑपरेशन सिंदूर और भारत पाकिस्तान सैनिक टकराव रुकने संबंधी अमेरिकी दावे का ऐसा खंडन किया जाएगा? ऐसा नहीं है कि डोनाल्ड ट्रंप आगे भारत पाकिस्तान के संदर्भ में श्रेय लेने के लिए मध्यस्थता करने का दावा नहीं करेंगे। उन्होंने किया भी है। किंतु विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने दोनों नेताओं के बीच टेलीफोन पर 35 मिनट की हुई बातचीत का जो ब्यौरा दिया उसका ट्रंप प्रशासन द्वारा खंडन न किया जाना ही बताता है कि वक्तव्य पूरी तरह सच है। दो नेताओं की बातचीत में सामने वाले को कहा जाए कि आपने जो दावा किया वैसी बातचीत हमारे आपके बीच कभी हुई नहीं तो उस पर क्या गुजरेगी? 

विदेश सचिव विक्रम मिश्री की इन पंक्तियों को देखिए–, “ प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को स्पष्ट रूप से कहा है कि ऑपरेशन सिंदूर के संबंध में कभी भी और किसी भी स्तर पर भारत-अमेरिका ट्रेड डील या अमेरिका की ओर से भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता जैसे विषयों पर बात नहीं हुई थी। सैन्य कार्रवाई रोकने की बात सीधे भारत और पाकिस्तान के बीच हुई। दोनों सेनाओं की बात मौजूदा चैनल्स के माध्यम से हुई थी। पाकिस्तान के ही आग्रह पर ये बातचीत हुई थी।” ट्रंप ने क्या उत्तर दिया यह सामने नहीं है। जरा सोचिए, अगर ट्रंप जी 7 बैठक बीच में छोड़ अमेरिका नहीं लौटे होते और आमने-सामने बातचीत होती तो कैसा दृश्य होता? कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तेवर का आभास ट्रंप को हो और उन्होंने वहां से तत्काल निकल जाने में नहीं उचित समझा। 

निश्चित रूप से देश में कांग्रेस सहित सारी पार्टियों और झूठे नैरेटिव से नकारात्मक इकोसिस्टम खड़ा करने वाले समूहों को धक्का पहुंचा होगा। भारत-पाकिस्तान के सैनिक टकराव रुकने के संबंध में ट्रंप के लगातार वक्तव्यों को आधार बनाकर संकुचित राजनीति के लिए जिस तरह का उपहास प्रधानमंत्री, भारतीय विदेश नीति व रक्षा नीति का उड़ाया जा रहा था उन सब पर तुषारापात हुआ है। सामान्य शिष्टाचार है कि ट्रंप अंकल का एक फोन आते ही मोदी ने युद्ध रोकने का आदेश दे दिया का नैरेटिव चलाने वाले कम से कम अफसोस प्रकट करें।  किसी ने नहीं सोचा कि जब भारत की वर्षों पुरानी नीति कश्मीर को द्विपक्षीय मामला मानने तथा तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप न करने देने की है तो सरकार इससे परे नहीं जा सकती। वैसे भी नरेंद्र मोदी सरकार ने तो पाकिस्तान की सीमा में घुसकर आतंकवादी हमलों का प्रतिकार किया और नीतिगत बयान यही है कि केवल पाक अधिकृत कश्मीर को सुलझाना ही बचा हुआ है। प्रधानमंत्री ने अपने भाषणों में ही पाकिस्तान से किसी स्तर की बातचीत या तीसरे पक्ष की मध्यस्थता को सीधे-सीधे नकारा। विदेश सचिव के वक्तव्य से यह धारणा भी खंडित हुआ कि इस बीच मोदी और ट्रंप के बीच कोई बातचीत हुई। वे कह रहे हैं कि उसके बाद दोनों नेताओं की पहली बातचीत थी। पूरे घटनाक्रम की स्थिति में यह तथ्य काफी महत्वपूर्ण है। यानी  9 मई को केवल अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस के साथ बातचीत हुई जिन्होंने पाकिस्तान द्वारा भारत पर बड़े हमले की जानकारी दी थी और जवाब में प्रधानमंत्री ने कहा था कि भारत उससे बड़ा जवाब देगा और दिया गया।  यानी युद्धविराम की उसमें भी कोई बात नहीं। 

साफ है कि ऑपरेशन सिंदूर पर विरोधियों द्वारा बनाया नैरेटिव शर्मनाक तौर पर झूठा था।  ट्रंप को भी सीधे प्रधानमंत्री से यह सुनने के बाद कि भारत अब आतंकवाद को प्रॉक्सी वार नहीं, युद्ध के रूप में ही देखता है और “ऑपरेशन सिंदूर” अभी भी जारी है, हमारी नीति और तैयारी का स्पष्ट आभास हो गया होगा। यानी आप क्या सोचते और चाहते हैं वह नहीं हमारी सुरक्षा हमारे लिए महत्वपूर्ण है और यही नीति का मुख्य आधार है।

सामान्य तौर पर यह व्यवहार भी हैरत भरा है कि एक ओर ट्रंप पाकिस्तान के फिल्ड मार्शल जनरल असीम मुनीर को रात्रि भोज दे रहे हैं और प्रधानमंत्री मोदी से अमेरिका आने का आग्रह कर रहे हैं। यह अमेरिका की कैसी रणनीति है? मोदी सरकार ने ट्रंप प्रशासन के साथ सही रणनीति अपनाया और दूसरी प्रतिबद्धताओं की बात कह मोदी ने ट्रंप के निमंत्रण को ठुकरा दिया। यह भी ट्रंप और उनके प्रशासन के लिए सामान्य धक्का नहीं था। कनाडा से अमेरिका जाकर कुछ घंटे बातचीत करते हुए क्रोशिया जा सकते थे। इसका आभास भी ट्रंप और उनके प्रशासन को होगा कि प्रधानमंत्री मोदी ने ऐसा कर भारत की नाराजगी प्रकट कर दिया है।  मोदी को ट्रंप का आज्ञाकारी और न जाने क्या-क्या शब्द देने वाले कभी यह भी नहीं सोचते कि वह किसी व्यक्ति का नहीं 140 करोड़ भारतीयों के नेता और इस नाते भारत को छोटा दिखा रहे हैं। विचार इस पर होना चाहिए कि ट्रंप के व्यवहार में बदलाव आया क्यों? सब कुछ जानते हुए डोनाल्ड ट्रंप और उनका प्रशासन पाकिस्तान के साथ सम्मानजनक और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार कैसे करने लगा?

तत्काल ऐसा लगता है कि अमेरिका ने ईरान के अयातुल्लाह खामेनेई की सत्ता समाप्त करने की रणनीति काफी पहले बना ली। पाकिस्तान किसी स्तर पर ईरान की ठोस मदद न कर सके इसकी तैयारी के तहत उसे पुचकारा गया । मुद्रा कोष से कर्ज दिलाने में मदद की, फिर भारत के साथ समानता का व्यवहार करते हुए उसे भी महान देश बताया और अब पहलगाम आतंकवादी हमले के मुख्य खलनायक तथा सरेआम मुसलमान को विशेष संस्कृति बताने वाले जनरल को इतना महत्व। इसके पहले किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने अन्य जनरलों को ऐसा महत्व नहीं दिया।  पाकिस्तान ईरान की सीमा लगभग 900 किलोमीटर मिलती है। ईरान के रक्षा मंत्री का वह बयान उपलब्ध है कि आवश्यकता पड़ने पर पाकिस्तान अपना न्यूक्लियर हथियार मदद में देगा। इस्लाम के नाम पर ऐसी भयानक स्थिति पैदा न हो इसका ध्यान रखते हुए ट्रंप प्रशासन ने पाकिस्तान से संपर्क बढ़ाया होगा। संभव है इसी से आत्मविश्वास बढ़ा और पाकिस्तान भारत के विरुद्ध भौंहें टेढ़ी किया हो। पाकिस्तान के रक्षा मंत्री को इसका खंडन करना पड़ा।

इसे भारतीय विदेश नीति की विफलता करार देना भी अनुचित है। भारत की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो हैसियत है वह  बनी हुई है। ऐसा नहीं होता तो जी7 के देश ही मांग नहीं करते कि सम्मेलन में भारत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति होनी ही चाहिए। प्रधानमंत्री ने वहां आतंकवाद पर खड़ी-खरी सुनते हुए कहा भी आतंकवाद पर हमारा रवैया नहीं बदला तो इतिहास हमें माफ नहीं करेगा। एक ओर तो हम अपने अनुसार किसी पर प्रतिबंध  हैं और दूसरे आतंकवाद के मुख्य केंद्र को समर्थन करते हैं। अमेरिका , यूरोप पाकिस्तान की भूमिका के बारे में पूरी जानकारी रखते हैं। किंतु  उनकी सोच है कि पाकिस्तान अलग-थलग होकर पूरी तरह चीन के पाले में चला जाएगा और एक उग्रवादी अराजकतावादी देश बन जाएगा।  ये नहीं चाहते कि पाकिस्तान को अलग-थलग कर उसे पूरी तरह चीन के पाले में जाने और उग्रवादी अराजकतावादी देश बनने की ओर धकेल दें।  एक समय पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय जेहादी आतंकवाद का मुख्य केंद्र था। आज वह उसी रूप में उनके लिए खतरा नहीं है जैसा भारत के लिए है। अमेरिका की उसके पड़ोसी अफगानिस्तान और ईरान से उपस्थिति भी खत्म है।

भारत को इसका ध्यान रखते हुए ही नीतियां बनानी है और बना भी रहा है। आतंकवादी हमले होंगे तो सब साथ होने का बयान देंगे, लेकिन पाकिस्तान पर हमले में साथ नहीं मिलेगा। तो सबक यही है कि विरोधी मोदी विरोध के नाम पर भारत को छोटा दिखाने के लिए इस तरह झूठ नैरेटिव से बचें।


गुरुवार, 19 जून 2025

यह युद्ध किधर जा रहा है

अवधेश कुमार

इजरायल ईरान युद्ध संपूर्ण विश्व को प्रभावित करने वाला है और भारत इसके परिणामों से किसी दृष्टि से अप्रभावित नहीं रह सकता। यह केवल तेल जैसे आर्थिक क्षेत्र में ही नहीं अन्य क्षेत्रों में भी इसके परिणाम दिखाई देंगे। 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद ईरान और इराक युद्ध से इस समय भीषण युद्ध खाड़ी के अंदर चल रहा है। ईरान इराक युद्ध के परिणाम देखा जाए तो कुछ नहीं आए किंतु इजरायल ईरान युद्ध के परिणाम केवल अरब या खाड़ी क्षेत्र में ही नहीं पूरे विश्व में बड़े वैचारिक, रणनीतिक , राजनीतिक बदलाव के कारण बन सकेंगे। इस समय युद्ध से परस्पर विरोधी रिपोर्ट हमारे सामने है। युद्ध के दौरान दोनों पक्ष और उनके समर्थक अलग-अलग तरीके से अपने पक्ष की सूचनायें प्रसारित करते हैं और यही हो रहा है। विश्व के एक बड़े वर्ग में सामान्य धारणा है कि इजरायल इतने लंबे समय तक अरब में अपनी सैनिक क्षमता, संकल्प और लड़ने की अंतिम सीमा तक की भावना के साथ टिका हुआ है तथा अनेक बार अरब देशों को झुकाया है, समझौते करने को भी विवश किया है तो ईरान की भी यही दशा होगी। दूसरी ओर पूरे मुस्लिम जगत का एक बहुत बड़ा वर्ग  मान रहा है कि अयातुल्लाह खामेनेई के नेतृत्व में इस्लामी क्रांति के पीछे जो दृश्य अदृश्य शक्तियां हैं वो ईरान को कभी पराजित नहीं होने देंगी। ईरान के हमले से तेल अबीब सहित कई जगह कुछ विध्वंस देखे गए। सर्वाधिक सुरक्षित हाइफा बंदरगाह के भी क्षति पहुंचाने के समाचार आए। यह भी सूचना हमारे बीच है कि इजरायल के मिसाइल को कई जगह ईरान ने रोकने में सफलता पाई तथा उसके मिसाइलों ने इजरायल की मिसाइल रक्षा प्रणाली तक को भी कई बार भेदा है। तो फिर इस युद्ध का सच क्या है और इसके परिणाम क्या हो सकते हैं?

भूगोल आबादी और संसाधन की दृष्टि से देखें तो ईरान का क्षेत्रफल इजरायल से 10 गुना ज्यादा तथा आबादी इससे भी ज्यादा है। दोनों के सुरक्षा बलों की संख्या में भी कोई तुलना नहीं है। कहां 90 लाख का देश और कहां 10 करोड़ की आबादी। उस आबादी में भी एक बड़े वर्ग के अंदर इस्लामी क्रांति के तहत जिहाद और मजहब के विजय की भावना भरी हुई। दूसरी ओर 1979 के बाद चाहे अयातुल्लाह खोमैनी हों या अयातुल्लाह खामेनेई या फिर वहां के निर्वाचित राष्ट्रपति, सबने धरती से इजरायल के नामोनिशान मिटाने की बार-बार घोषणा की और ईरान राष्ट्र का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य भी बना दिया। इसके बावजूद आज तक कुछ नहीं कर सके। उल्टे जितने युद्ध अरब में हुए इजरायल सबमें व्यावहारिक रूप से विजेता बनकर उभरा और कैंप डेविड से लेकर अभी तक सारे समझौतों में इजरायल के सामने बहुत कुछ खोने की नौबत नहीं आई। दूसरे,  वर्तमान युद्ध में ईरान का सक्रिय साथ देने वाला एक भी देश इस समय नहीं है। जिस चीन, रुस, उत्तर कोरिया या कुछ इस्लामी देशों से उसे उम्मीद थी किसी ने भी इजरायल के विरुद्ध संघर्ष करने की तो छोड़िए, आक्रामक बयान तक नहीं दिया है। एकमात्र पाकिस्तान ने ही मुखर होकर ईरान का समर्थन किया । पाकिस्तान की हैसियत स्वयं इस्लामी जगत में ही इतनी बड़ी नहीं कि वह अपने साथ किसी देश को युद्ध के लिए खड़ा कर सके। ईरान के लिए यह हतप्रभ करने वाली स्थिति है कि संकट की इस घड़ी में कोई देश उसके साथ सक्रिय रूप से आगे नहीं आया। शांति की बात करने वाले कुछ देश जरूर हैं।

कुछ अन्य कारक भी ईरान के विरुद्ध और इजरायल के पक्ष में जाते हैं। इजरायल ने अभी तक ईरान के तीनों सेना  प्रमुखों, अनेक शीर्ष सैन्य अधिकारियों और सबसे एलिट माने जाने वाले इस्लामी क्रांति के बाद उत्पन्न ईरान रिवॉल्यूशनरी गार्ड के प्रमुख को एक ही हमले में समाप्त कर दिया। उसके साथ अनेक शीर्ष परमाणु नाभिकीय वैज्ञानिक भी मौत के घाट उतार दिए गए। उसके इंटेलिजेंस चीफ यानी खुफिया प्रमुख भी मारे जा चुके हैं । स्वयं अयातुल्लाह खामेनेई और उनके बेटे मोजताबा दोनों के बारे में इतनी जानकारी है कि वे कहीं छिपे हुए हैं।  ध्यान रखिए , ईरान ने इन पंक्तियों के लिखे जाने तक इजरायल के किसी बड़े सैन्य अधिकारी व नाभिकीय वैज्ञानिक आदि को मारने में सफलता नहीं पाई है। ईरान के मिसाइल इजरायल पर अंधाधुंध हमले कर रहे हैं और उसे ज्यादातर नागरिक स्थल ही ध्वस्त हुए हैं।‌ इस्लामी क्रांति के बाद आयतुल्लाह खोमैनी और खामेनेई ने ईरान को इस्लाम का नेता बनाने के लिए फिलिस्तीन मुद्दे को सबसे आगे किया। उन्होंने जिस तरह के भाषण दिए उससे विश्व भर के मुसलमानों के एक बड़े वर्ग के अंदर फिलिस्तीन की जज्बाती मजहबी समर्थन का भाव भी पैदा हुआ। सीधे संघर्ष की जगह ईरान ने लेबनान में हिजबुल्ला, यमन में हुती विद्रोही पैदा किया तो सुन्नियों के समर्थन के लिए इस्लामिक ब्रदरहुड के भाग के रूप में फिलिस्तीन में हमास। इन्हीं के माध्यम से वह इजरायल को लगातार घाव देता रहा है।

इजरायल ने ईरान पर निर्णायक हमले के पूर्व जो कुछ किया वह हमारे सामने है। उसने हिज्बुल्ला को नेस्तनाबूत किया और उसके प्रमुख नसीरूल्लाह सहित सारे शीर्ष कमांडरों को समाप्त कर दिया। लेबनान को इस स्थिति में नहीं छोड़ा कि वह ईरान के साथ खड़ा हो सके। हमास को भी विनाश के कगार पर पहुंचा दिया और उसके प्रमुख इस्माइल हानियां तक को पिछले साल  खत्म कर दिया। हूती को अमेरिका के साथ कमजोर किया। हालांकि इस समय हुती लाल सागर में गतिविधियां दिखा रहे हैं लेकिन उन पर भी जबरदस्त मार पड़ रही है। इसके साथ इजरायल धीरे-धीरे ईरान के प्रमुख शीर्ष सैन्य रणनीतिकारों और नाभिकीय वैज्ञानिकों तक को मौत के घाट उतारता रहा। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल की पश्चिम एशिया यात्रा के दौरान सीरिया के सत्ता पर काबिज पूर्व आतंकवादी अहमद अल शराब उर्फ अबू मोहम्मद अल जुलानी से हाथ मिलाया तो उसके पीछे भी रणनीति थी कि वह इब्राहिम अकॉर्ड यानी समझौता पर हस्ताक्षर करे जिसमें इसराइल को मान्यता देने की बात है। वे जिन देशों में गए वहां उन्होंने ईरान के विरुद्ध इजरायल के पक्ष में वातावरण बनाया। इसका परिणाम देखिए कि हमास के समर्थक कुछ पत्रकारों को अरब देशों के अंदर ही गिरफ्तार कर सजा दी गई या उन्हें मार डाला गया। इनमें सऊदी अरब भी शामिल है जो कट्टर सुन्नी देश है। आज स्थिति यह है कि मोहम्मद पैगंबर साहब के वंशजों के शासन के अधीन वाला देश जॉर्डन इजरायल के विमान को जाने की अनुमति दे रहा है लेकिन ईरानी मिसाइल को इंटरसेप्ट कर रहा है। दूसरी ओर अमेरिका पूरी तरह इजराइल के साथ खड़ा है और अगर ईरान का पलड़ा कहीं से मजबूत दिखा तो वह कभी भी हस्तक्षेप करेगा। डोनाल्ड ट्रंप ने रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से बात की तो उसके पीछे भी निश्चित रूप से उन्हें इस युद्ध से दूर रहने के लिए तैयार करना रहा होगा। भारत की दृष्टि से देखें तो ईरान से हमारे संबंध अच्छे माने जाते हैं। पश्चिम एशिया से तेल आपूर्ति से लेकर अन्य रणनीतिक मामलों में ईरान के समुद्री मार्गों की हमें आवश्यकता है । दूसरी ओर ईरान से संबंधों की सीमाएं रही है। पिछले वर्ष अयातुल्लाह खामेनेई ने भारतीय मुसलमान की फिलिस्तीन से तुलना करते हुए पोस्ट लिखा था। कश्मीर मामले पर उसका बयान भारत विरुद्ध रहा है। पाकिस्तान में उसका लक्ष्य केवल सुन्नी मुसलमानों के शासन को मजबूत नहीं होने देना है अन्यथा उसकी नीति कहीं भी भारत के पक्ष में नहीं है। बलूचिस्तान के एक भाग पर उसका कब्जा है तथा वह भी पाकिस्तान की तरह ही बलूचियों का दमन कर रहा है। ईरान का पूरा इतिहास देखें तो कभी भी कठिन परिस्थिति में वह भारत के समर्थन में खड़ा नहीं हुआ।

इसलिए जो लोग भी ईरान को लेकर छाती पीट रहे हैं उन्हें भारत के साथ संबंधों में इजरायल और ईरान के व्यवहार की निष्पक्षता और ईमानदारी से तुलना करनी चाहिए। कोई नहीं कहता कि आयतुल्लाह खामेनेई का ईरान अचानक घुटने टेक देगा। उसके पास मिसाइल, ड्रोन, लड़ाकू विमानों से लेकर बड़े शस्त्रागार हैं । किंतु वह इजरायल या उसके साथ देने वाले अमेरिका के मुख्य सामरिक स्थलों को ध्वस्त कर उन्हें हमला न करने की स्थिति में लाने की क्षमता नहीं दिखा पाया है। तो इस युद्ध के परिणाम ईरान के पक्ष में नहीं जा सकते। इसमें अगर अयातुल्लाह खामेनेई का पतन होता है तो यह 1979 के इस्लाम के नाम तथाकथित क्रांति द्वारा सत्ता कब्जाने तथा उसके बाद पैदा हुए संपूर्ण अरब में कट्टरपंथ के दौर के बाद का एक नया चरण आरंभ होगा। इसका प्रभाव विश्व एवं भारत पर निश्चित रूप से पड़ेगा।


गुरुवार, 12 जून 2025

प्रतिनिधिमंडल ने पाकिस्तान के साथ आतंक विरोधी वैश्विक युद्ध की भी आधारभूमि तैयार की

  • ऑपरेशन सिंदूर के साथ नेतृत्व भारत के हाथों हो सकेगा

अवधेश कुमार 

सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल की सातों टीमें विदेश यात्रा समाप्त कर लौट चुकी है। हमारे देश में ऐसे कदमों की हमेशा भूतकाल की घटनाओं से तुलना की जाती है। इसके बारे में भी सामान्य प्रतिक्रिया थी कि पहले भी विदेश में प्रतिनिधिमंडल भेजे गए हैं। भारत छोड़िए, क्या आधुनिक विश्व के इतिहास में किसी देश ने एक साथ इतना बड़ा प्रतिनिधिमंडल 33 देश की यात्राओं पर इतने कम समय में अपने देश का पक्ष रखने के लिए भेजा था? वास्तव में केवल भारत नहीं संपूर्ण विश्व की दृष्टि से यह अभूतपूर्व कदम था। चूंकि कि हर मुद्दे व नीतियों की संकुचित राजनीतिक वैचारिक दृष्टि से मूल्यांकन करने का घातक चरित्र भारत में विकसित है इसलिए गहराई से सोचने का माद्दा धीरे-धीरे क्षीण हो रहा है। इस कदम की भी देश के अंदर जितनी व्यापक आलोचना हुई वह सामने है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने तो इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 11 वर्षों की कूटनीति और विदेश नीति के मोर्चे पर विफलता का प्रतिबिंब बता दिया। किसी ने नहीं सोचा कि पाकिस्तान के दो समर्थक देशों को छोड़कर भारत के विरुद्ध दुनिया से एक स्वर नहीं आया।  तो फिर विदेश में इतने बड़े कूटनीति का अभियान की आवश्यकता क्या थी?

आप पहलगाम हमले के बाद भारत की संपूर्ण प्रतिक्रियाओं और ऑपरेशन सिंदूर तथा उनसे जुड़ी हुई रक्षा व राजनयिक गतिविधियों , विदेश की प्रतिक्रियाओं तथा इस समय संपूर्ण विश्व की स्थितियों को एक साथ मिलाकर देखें तो निष्कर्ष वही नहीं आएगा जैसा हमारे देश में तात्कालिक तौर पर निकाला गया है। मोदी सरकार विरोधी नेता विशेषकर कांग्रेस की पूरी बुद्धि इसमें लगी है कि ऑपरेशन सिंदूर में भारत की क्षति को सामने लाया जाए या लोगों के अंदर भाव पैदा किया जाए कि हमारा नुकसान बहुत ज्यादा हुआ। कोई भी युद्ध बगैर नुकसान के नहीं लड़ा जा सकता इतनी बात मोटी बुद्धि में भी आ जाएगी। मुख्य बात अपने संकल्प और प्राप्ति की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संकल्प साफ दिखता है -चाहे जितनी क्षति हो , कूटनीतिक ,रक्षा एवं आर्थिक मोर्चे पर संपूर्ण चुनौतियों का सामना करते हुए हर हाल में आतंकवाद से मुक्ति पाना है। ऐसा अभूतपूर्व प्रतिनिधिमंडल इसलिए नहीं भेजा गया कि केवल पाकिस्तान के विरुद्ध औपरेशन सिंदूर कि कार्रवाई के बारे में दुनिया को बताना है। भारत का मत बिल्कुल स्पष्ट है, आतंकवाद की हर घटना युद्ध मानी जाएगी और प्रधानमंत्री ने साफ कर दिया है कि कि  केवल आतंकवादियों की नहीं,  सत्ता और सेना की कार्रवाई मानकर ही कदम उठेगा इसमें जिसको साथ देना है दे, नहीं देना है नहीं दे। निश्चित रूप से दीर्घकालीन योजना बन चुकी है। सुनने में भले सामान्य लगे लेकिन यह बहुत बड़ा लक्ष्य है और इसके आयाम पाकिस्तान से निकलकर विश्वव्यापी हैं। विदेश गए प्रतिनिधिमंडल ने पाकिस्तान पर फोकस करते हुए उसकी आंतरिक कलह , आतंकवाद की वैश्विक स्थिति, जम्मू कश्मीर की संपूर्ण स्थिति, जिसमें पाक अधिकृत कश्मीर के भाग को चीन को दिया जाना भी शामिल है, रखा है। विश्व को बताया है कि अनेक देशों के आतंकवाद की जड़ पाकिस्तान में है और यह समाप्त नहीं हुआ है। भारत ने आतंकवाद पर अपना मत दंभी देशों के समक्ष रखा। स्वाभाविक ही प्रकारांतर से इसमें यह भी निहित है कि आतंकवाद विरोधी युद्ध पहले से  ज्यादा कठिन और अपरिहार्य हो चुका है।

अमेरिकी नेतृत्व में नाटो और पश्चिमी देशों द्वारा आरंभ आतंकवाद विरोधी वैश्विक शुद्ध शर्मनाक रूप से विफल हो चुका है। स्वयं अमेरिका अफगानिस्तान से लेकर इराक, लीबिया, सीरिया ….से भाग चुका है। सीरिया में अमेरिका ने अपने ही द्वारा घोषित आतंकवादी को सत्ता कब्जाने में मदद की और वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप उससे हाथ मिलाने चले गए। परिणामत: आतंकवादी समूहों तथा उनको प्रश्रय देने वाले देशों का हौंसला बुलंद है , वे निर्भय हैं तथा पीड़ित देश डरे सहमे और किंकर्तव्यविमूढ़ हैं। इसमें पाकिस्तान जैसे नाभिकीय संपन्न देश के विरुद्ध कार्रवाई तथा आर्थिक एवं कूटनीतिक घेरेबंदी विश्वव्यापी आतंकवाद विरोधी युद्ध का भारत के नेतृत्व में नये सिरे से आगे बढ़ाया जाना है। भारत ने 1996 से आतंकवाद की परिभाषा के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रस्ताव लपेश किया हुआ है। आतंकवाद के विरुद्ध बोलने वाले देश भी उसे पारित कर एक परिभाषा तय करने को तैयार नहीं। ये आतंकवाद को विश्व स्तर से समाप्त करने के लिए या हमारे लिए लड़ेंगे ऐसी कल्पना ही बेमानी है। इसलिए भारत का लक्ष्य अपने आर्थिक व रक्षा क्षमताओं का विस्तार करते हुए आतंकवाद के वैश्विक केंद्र पाकिस्तान को इस स्थिति में लाना है जिससे भविष्य में वह इसे प्रायोजित करने की अवस्था में ही न रहे। आप देखेंगे पीओके यानी पाक अधिकृत कश्मीर पर केवल विपक्ष प्रश्न नहीं उठा रहा प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री, गृह मंत्री, विदेश मंत्री सब आक्रामक और मुखर वक्तव्य देकर उसे हासिल करने का संकल्प दोहरा रहे। यह भी बहुआयामी नीति है। इसमें पाकिस्तान के भौगोलिक और राजनीतिक विखंडन की गति को तेज करने की रणनीति शामिल दिखती है। यानी इस समय पाकिस्तान जिस अवस्था में है इसके रहते हुए जम्मू कश्मीर की समस्या ही नहीं इस्लाम मजहब प्रेरित आतंकवाद का अंत संभव नहीं। तो जब प्रधानमंत्री ऑपरेशन सिंदूर को अखंड प्रतिज्ञा बताते हुए कहते हैं कि यह केवल स्थगित हुआ है, हमारी सेना के शीर्ष अधिकारी इसे जारी रखने की बात कहते हैं और रक्षा मंत्री इसे पूरी फिल्म का केवल ट्रेलर बताते हैं तो यह केवल लोगों की भावनाओं का दोहन नहीं है। गहराई से देखें तो ऑपरेशन सिंदूर का लक्ष्य अंग्रेजी में ‘नो मोर पाकिस्तान ‘ यानी पाकिस्तान का विखंडन या इसके भौगोलिक एवं वर्तमान राजनीतिक अस्तित्व को खत्म करना दिखेगा। 

हमें इसमें अतिवादी सोच की गंध आ सकती है। थोड़ी गहराई से देखिए तो पाकिस्तान इस्लाम की जिस अतिवादी अवधारणा पर पैदा हुआ उसमें अंतर्निहित दोष हैं और इस कारण वह कभी पूरी तरह शांत , स्थिर और एकजुट देश नहीं बन सका । बलूचिस्तान, सिंध और खैबर पख्तूनख्वा में अहिंसक , हिंसक विखंडन अभियान चरम पर है । पीओके में भी पाकिस्तान के विरुद्ध असंतोष व्यापक है। हालांकि इन सबका मजहब इस्लाम है और इस नाते हम ऐसा नहीं मानते कि भारत के प्रति उनकी व्यापक सहानुभूति होगी। किंतु बलूचिस्तान और काफी हद तक सिंध में हिंसक अहिंसक दोनों अभियान चलाने वाले भारत से मदद मांगते हैं। आप देखिए पिछले ढाई सालों में भारत में वांछित आतंकवादी, जिसे पाकिस्तान सौंपने को तैयार नहीं था, लगातार उसकी भूमि पर मारे जा रहे हैं और उसे समझ नहीं आ रहा कि कौन शक्तियां ऐसा कर रही है। इसके कुछ तो मायने हैं। 

वर्तमान फील्ड मार्शल जनरल आसिम मुनीर मोहम्मद साहब द्वारा स्थापित रियासत ए तैयबा के बाद पाकिस्तान को दूसरा शुद्ध इस्लाम यानी कलमा पर आधारित देश बताते हुए हिंदुओं सहित अन्य पंथों के विरुद्ध नफरत और हिंसा को प्रोत्साहित करने की रणनीति का दोहरा असर होगा।  दूसरी ओर यह आचथण विद्रोह को भी आगे बढ़ाएगा। 1948 से अभी तक के अनुभव बताते हैं कि पाकिस्तान से किसी तरह के ईमानदार शांतिकारी कदमों को क्रियान्वित करने की उम्मीद आत्मघाती ही साबित होगा। इसलिए मोदी सरकार की मानसिकता प्रधानमंत्री के ही वक्तव्य से बिल्कुल स्पष्ट दिखाई पड़ती है। अगर विपक्ष या किसी को इसमें संदेह है तो समस्या उनकी है। भारत उस मानसिकता और व्यवहार से निकल कर आगे बढ़ चुका है, विपक्ष और मोदी सरकार विरोधी अभी तक उसी सीमित परिधि में सोचते तथा व्यवहार करते हैं। वे कल्पना ही नहीं कर सकते कि भारत विश्व स्तर पर नए सिरे से आतंकवाद विरोधी युद्ध के नेतृत्व के लिए अपनी क्षमताओं का ध्यान रखते हुए भी अग्रसर हो चुका है और यह रास्ता न केवल पाकिस्तान और चीन के साथ समस्याओं के स्थायी समाधान का मार्ग प्रशस्त करेगा, भारत की एकता अखंडता को सुरक्षित करेगा तथा भारतीय सोच के अनुसार नई विश्व व्यवस्था निर्धारित होने की आधारभूमि बनेगी। भारत को बाह्य समस्याओं से मुक्त करते हुए जब बिना घोषणा किये विश्व का नेतृत्व करने तथा भारी संख्या में देशों को अपने साथ लाने के व्यापक कल्पनातीत लक्ष्य पर अग्रसर हों तो किसी देश के नेतृत्व द्वारा दिये प्रतिकूल वक्तव्य पर भी त्वरित उग्र प्रतिक्रिया नहीं देते। इतने बड़े लक्ष्य के लिए देश को भी काफी कुछ परित्याग के लिए तैयार रहना होगा। 

गुरुवार, 5 जून 2025

देश को छोटा दिखाने का अपकर्म न करें

अवधेश कुमार 

हमारे सामने ऑपरेशन सिंदूर को लेकर देश के दो परस्पर विरोधी दृश्य हैं। विदेश गया सर्वदलीय सांसदों के प्रतिनिधिमंडल ने इस तरह भारत का पक्ष प्रस्तुत किया जैसे देश पाकिस्तान केंद्रित सीमा पार आतंकवाद, जम्मू कश्मीर तथा ऑपरेशन सिंदूर को लेकर पूरी तरह एकजुट है और कोई विपक्ष है ही नहीं। दूसरी ओर आप पहलगाम हमले से लेकर ऑपरेशन सिंदूर और उसके बाद देश के अंदर विपक्ष की भूमिका देखिए, किसी भी देशभक्त और सच्चाई का ज्ञान रखने वाले निष्पक्ष व्यक्ति का दिल दहल जाएगा या फिर उसको गुस्सा आएगा। ऐसा कोई दिन नहीं जब विपक्ष के बड़े नेता ऑपरेशन सिंदूर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार को घेरने की कोशिश नहीं कर रहे। लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी पहले दिन से प्रश्न उठा रहे हैं कि हमारे कितने लड़ाकू विमान को नुकसान हुआ। लगभग यही स्वर कांग्रेस के अध्यक्ष एवं राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे का है। जयराम रमेश ने तो लगता है जैसे ऑपरेशन सिंदूर को ही अपने सोशल मीडिया का मुख्य विषय बना दिया है। सबसे अंतिम हमला सिंगापुर शांग्रीला सम्मेलन में चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ सीडीएस अनिल चौहान के भाषण और ब्लूमबर्ग को दिए साक्षात्कार पर है। सभी नेता एक साथ टूट पड़े हैं कि अब सरकार बताये कि कितने राफेल नष्ट हुए इस पर संसद का विशेष सत्र बुलायें तथा रिव्यू कमेटी यानी पुनरीक्षण समिति बनाया जाये।

इसमें यहां विस्तार से जाने की आवश्यकता नहीं है। सीडीएस का पूरा इंटरव्यू सबके सामने है। उसमें कहीं नहीं है कि पाकिस्तान ने हमारे कितने लड़ाकू विमान गिराये या हमें कोई बड़ी क्षति हुई। यह सामान्य बात है कि कोई भी युद्ध या लड़ाई एकपक्षीय क्षति वाली नहीं होती। यही सीडीएस ने कहा है। किसी को ज्यादा क्षति होगी किसी को कम। मूल बात यह है कि भारत ने पाकिस्तान के सैन्य दुस्साहस का ऐसा करारा प्रत्युत्तर दिया जिससे उसकी हुई व्यापक क्षति के बारे में दुनिया के विशेषज्ञ बता रहे हैं और उनसे संबंधित उपग्रह के चित्र आदि सामने ले जा चुके हैं।

 कई बार लगता है कि हम सरकार को घेर रहे हैं सेना और देश को नहीं। किंतु इसका दूसरा पहलू यही है कि सरकार निर्णय करती है क्रियान्वित सेना करती है। सेना सरकार के लिए नहीं देश के लिए सैन्य कार्रवाई करती है। ऑपरेशन सिंदूर में सरकार ने यह तय नहीं किया होगा कि सेना कैसे कार्रवाई करे कि हथियार , लड़ाकू विमान , मिसाइल, रडार आदि का प्रयोग करें या कितने जवान उनमें लगें। जिस तरह पहलगाम हमले के बाद प्रधानमंत्री चीफ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ, तीनों सेना के प्रमुखों से लेकर विदेश मंत्री, उनसे जुड़े मंत्रालय ,रक्षा मंत्री, मंत्रालयों के अधिकारी एवं अन्य अलग-अलग आवश्यक क्षेत्र के शीर्ष लोगों से मिल रहे थे उससे साफ था की रणनीति पर गहराई से विचार हो रहा है। निश्चित रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चरित्र के अनुरूप एक-एक पहलू समझने की कोशिश की होंगी। उदाहरण के लिए उनके कौन-कौन से ऐसे प्रमुख आतंकवादी अड्डे हैं, जिन्हें ध्वस्त करने से न केवल प्रतिशोध पूरा होगा, बल्कि पाकिस्तान की सेना और सत्ता को प्रत्युत्तर मिलेगा तथा सीमा पार से आतंकवादी गतिविधियां वर्षों तक संभव नहीं हो पाएगी। उन्हें कैसे ध्वस्त करेंगे , कैसे ध्वस्त करेंगे, कहां से करेंगे, उनका सीमा पर क्या असर होगा तथा पाकिस्तान किस तरह की प्रतिक्रिया दे सकता है और उसकी प्रतिक्रिया के प्रत्युत्तर में हमें किस तरह की तैयारी रखनी है ताकि उसमें भी हम उसे पस्त कर सकें। निश्चित रूप से सैन्य रणनीतिकारों ने अपनी पूरी स्थिति से अवगत कराते हुए उन्हें आश्वस्त किया होगा या फिर उनकी जो आवश्यकता होगी उसके बारे में बात की होगी। 

सरकार यानी राजनीतिक नेतृत्व की भूमिका साहसपूर्वक निर्णय करने के साथ सेना को करवाई और रणनीति की संपूर्ण स्वतंत्रता देना तथा अपने व्यवहार एवं कदमों से आश्वस्त करना कि कार्रवाई में किसी तरह की आवश्यकता में कमी नहीं होगी। कहने का तात्पर्य कि पाकिस्तान की सैन्य प्रतिक्रियाओं का उत्तर हमारी सेना दे रही थी। यह भी सच है कि टकराव शुरू होने के बाद विदेश के प्रमुख नेताओं ने राजनीतिक नेतृत्व से ही संपर्क किया होगा। सरकार की ओर से अमेरिकी उपराष्ट्रपति , विदेश मंत्री , राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार आदि ने कब-कब किसे कॉल किया इसका भी विवरण देश के सामने रखा जा चुका है। कहीं से ऐसा न एक संकेत है और न कोई कारण दिखता है जिससे डोनाल्ड ट्रंप युद्ध रोकने का दबाव बनाएं और भारत उसे स्वीकार कर ले। उनके भी वक्तव्य में क्या है? .. हमने दोनों देशों को समझाया …….. उन्हें कहा कि आपके साथ पूरा ट्रेड करेंगे….. दोनों देश के नेताओं ने बुद्धिमता का परिचय दिया….हमने दो न्यूक्लियर यानी नाभिकीय संपन्न देशों के बीच नाभिकीय टकराव रोका आदि आदी। इसी में एक जगह उन्होंने किसी तटस्थ स्थान पर मध्यस्थता में बातचीत कराने का भी वक्तव्य दे दिया। यह बात अलग है कि अपनी मध्य पूर्व यात्रा के दौरान उन्होंने बोल दिया कि हमने कोई मध्यस्थता नहीं की। सामान्य तौर पर भी जिन्होंने भारत के वक्तव्यों पर ध्यान दिया होगा उन्हें स्पष्ट है कि हमारे स्टैंड में किंचित भी अस्पष्टता नहीं थी। 10  मई को ही भारत ने साफ कर दिया कि किसी तरह की आतंकवादी घटना युद्ध मानी जाएगी। दूसरे, प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्र के नाम संबोधन, फिर आदमपुर और बीकानेर के भाषणों में एक-एक बिंदु रख दिया कि आतंकवाद और बातचीत, व्यापार और आतंकवाद नहीं चलेगा। यहां तक कि पानी और खून भी एक साथ नहीं बहेगा। यह भी कहा कि अब अगर आतंकवादी घटना हुई तो सेना को सीधा नुकसान उठाना पड़ेगा। हम इसे केवल आतंकवादियों की नहीं मानकर पाकिस्तान सरकार और सेना की कार्रवाई मानेंगे और उसी प्रकार प्रत्युत्तर देंगे। सबसे बढ़कर पाकिस्तान से बातचीत होगी तो केवल पाक अधिकृत कश्मीर पर। 

बावजूद आप लगातार प्रश्न उठा रहे हैं तो इसे भारत या सेना का कतई समर्थन नहीं कहा जाएगा। यह सेना व देश दोनों का विरोध है। विडंबना देखिए कि अमेरिका भी नहीं कह रहा है कि हमने दबाव डालकर युद्धविराम कराया या रुकवाया, मध्यस्थता शब्द भी कहीं से नहीं आ रहा। अमेरिका गए प्रतिनिधिमंडल को भी ट्रंप प्रशासन के लोगों ने ऐसा नहीं कहा, हमारा दुश्मन और पाकिस्तान का समर्थन करने वाला चीन तक नहीं कह रहा कि भारत ने दबाव में युद्ध रोका और भारत-पाक के बीच बातचीत होगी। अब देश को पूछना चाहिए कि राहुल गांधी, खड़गे, जयराम रमेश ,अखिलेश यादव आदि को यह जानकारी कहां से मिल गई? दूसरे, अगर हमारी सेना ने वीरतापूर्वक पाकिस्तान को पस्त किया तो फिर आप युद्ध में क्षति का प्रश्न किससे पूछ रहे हैं? जब आप किसी सैन्यबल वाले शत्रु देश को सबक सिखाने गए हैं तो माना गया होगा कि हमारी भी क्षति हो सकती है। भारी क्षति उठाकर भी सबक सिखाने की मानसिक तैयारी से ही कार्रवाई हुई होगी। युद्ध में क्षति हुई या विमान ही नष्ट हो गये तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। क्या आतंक विरोधी युद्ध में अमेरिका और नाटो को सैनिक क्षति नहीं हुई? क्या छोटे से गाजा के विरुद्ध कार्रवाई में इजराइल को कोई क्षति नहीं हुई? क्या यूक्रेन के साथ युद्ध में रुस को क्षति नहीं हुई ? ऐसी कौन सी सैन्य करवाई है जिसमें क्षति नहीं होगी? क्या कांग्रेस के शासनकाल में 1971 की विजय में भी भारत को सैन्य सामग्रियों के अलावा जवानों के संदर्भ में क्षति नहीं हुई? क्या1965 का युद्ध बिना क्षति के हुई? 1962 के भारत चीन युद्ध में तो ऐसी क्षति हुई जिसकी चर्चा तक में आज भी शर्म आती है।

आप अपनी संकुचित राजनीति के लिए नरेंद्र मोदी सरकार को पराजित या छोटा दिखाने के हल्ला बोल अभियान में सीधे-सीधे देश और सेना को छोटा दिखा रहे हैं। आपको अगर पाकिस्तान जैसे शत्रु से सुरक्षित होना है तो हर स्तर पर अपनी क्षति उठाने, बलिदान देने के लिए भी तैयार रहना होगा। यह संभव नहीं कि आप कार्रवाई करेंगे और प्रत्युत्तर न मिले तथा कोई क्षति नहीं हो। मुख्य बात यह होती है कि हमारी क्षति और हमारे बलिदान का पूरा मूल्य हमें प्राप्त हुआ या नहीं। इस मायने में देखें तो जैसी कार्रवाई भारत ने की, जिस ढंग का प्रत्युत्तर दिया संपूर्ण विश्व में उसका लोहा माना गया और हमारे स्वदेशी तकनीक से निर्मित हथियारों की मांग पूरी दुनिया में बढ़ी है।

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स,  दिल्ली- 110092 ,मोबाइल-9811027208

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