गुरुवार, 26 सितंबर 2024

जम्मू कश्मीर चुनाव से चिंताजनक संकेत: स्थानीय मुख्य पार्टियां कट्टरवाद, अलगाववाद और हिंसा उभारने की भाषा बोल रही हैं


 अवधेश कुमार


जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव के दो चरण समाप्त हो चुके हैं, परिणाम जो भी आये, वहां से काफी चिंताजनक और भविष्य की दृष्टि से डरावने संकेत मिल रहे हैं। लंबे समय से वहां की राजनीति में स्थापित प्रमुख पार्टियां नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी तथा हाल में खड़ी जम्मू कश्मीर अपनी पार्टी आदि द्वारा उठाए जा रहे विषय और मुद्दे देश की एकता - अखंडता और जम्मू कश्मीर में शांति व्यवस्था की दृष्टि से बिल्कुल अस्वीकार्य होना चाहिए। नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने अब संसद हमले के अभियुक्त अफजल गुरु की फांसी को भी चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की है। उन्होंने कहा है कि अफजल गुरु की फांसी में जम्मू सरकार की मंजूरी की जरूरत पड़ती तो हम नहीं देते। वे यही नहीं रुके और कहा कि मुझे नहीं लगता कि उसे फांसी देने से कोई उद्देश्य पूरा हुआ है। ….. हमने कई बार देखा है कि फांसी की सजा दे दी जाती है और बाद में यह पता चलता है कि व्यक्ति निर्दोष था। यह भारत की न्याय व्यवस्था के साथ संपूर्ण सत्ता के विरुद्ध बयान है। अफ़ज़ल गुरु के भाई एजाज अहमद गुरु ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा करते ही पार्टियों ने यह राग अलापना शुरू कर दिया। महबूबा मुफ्ती अफजल गुरु की फांसी को अन्याय बताती रही हैं और उनकी प्रतिक्रिया भी यही है। ज्यादातर नेता जम्मू कश्मीर और इंडिया शब्द बोलने लगे हैं। यानी जम्मू कश्मीर और इंडिया या भारत दो अलग-अलग एंटायटी हैं। मेहबूबा मुफ्ती ने जमात ए इस्लामी से प्रतिबंध हटाकर उसे चुनाव लड़ने की अनुमति देने की मांग की है। जैसी जानकारी है प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी के सदस्य निर्दलीय नामांकन कर रहे हैं। ये सारी पार्टियां पाकिस्तान के एक पक्ष होने से लेकर धारा 370 हटाने के पूर्व स्थिति बहाली के साथ भारत से स्वायत्त और अनेक मामलों में स्वतंत्र अवस्था में होने का वायदा कर रहे हैं। नेशनल कांफ्रेंस के घोषणा पत्र में इन बातों के साथ शंकराचार्य पर्वत को तख्त ए सुलेमान और हरी पर्वत को कोहे मारन नाम देने की घोषणा है। नेशनल कांफ्रेंस की चर्चा इसलिए कि देश में ऐसी छवि बनाई गई कि यह पार्टी और अब्दुल्ला परिवार अन्यों से ज्यादा लिबरल और भारत समर्थक है। आप पार्टियों के घोषणा पत्र, उनके भाषणों के स्थानीय समाचार पत्रों ,वेबसाइटों आदि से जानकारी लें तो पता चल जाएगा कि चुनाव में क्या हो रहा है। 

अफजल गुरु 13 दिसंबर, 2001 को संसद पर हमले के दो दिनों बाद 15 दिसंबर को गिरफ्तार हुआ। 18 दिसंबर, 2002 को अफजल गुरु, एसआर गिलानी और शौकत हसन गुरु को फांसी की सजा दी गई तथा एक आरोपी अहसान गुरु को बरी किया गया। 4 अगस्त, 2005 को उच्चतम न्यायालय ने अफजल गुरु की सजा को बनाए रखा तथा शौकत हसन गुरु की फांसी की सजा 10 साल कठोर कारावास में परिणत कर दिया। न्यायिक प्रक्रिया के अनुसार दिल्ली उच्च न्यायालय ने 26 सितंबर , 2006 को अफजल गुरु को फांसी देने का आदेश दिया। अफजल गुरु की ओर से सुप्रीम कोर्ट में अंतिम दया याचिका भी 12 जनवरी, 2007 को खारिज हो गई। काफी समय तक उसे फांसी नहीं चढ़ाने पर आम लोगों और  भाजपा ने इसे बड़ा मुद्दा बनाया और काफी बहस चली। 23 जनवरी, 2013 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अफजल गुरु की दया याचिका खारिज कर गृह मंत्रालय को वापस भेज दिया। यह इतना बड़ा मुद्दा बन गया था कि कांग्रेस को लगा कि चुनाव में लेने के देने पड़ सकते हैं। तब 9 फरवरी, 2013 को तिहाड़ जेल में सुबह अफजल को फांसी दे दी गई। इनका जिक्र इसलिए जरूरी है कि देश के ध्यान में रहे कि न्यायिक प्रक्रिया के सारे विकल्प अपनाने के बावजूद लंबे समय बाद वह फांसी पर चढ़ा। उसे आज अगर जम्मू कश्मीर में पार्टियां मुद्दा बना रही हैं तो कल्पना कर सकते हैं कि वहां ये किस तरह का माहौल बना रहे हैं। क्या यह संसद हमले को सही ठहराना नहीं है? क्या यह आतंकवादी के कृत्य का समर्थन नहीं है?इन सबसे परे मुख्य प्रश्न यह है कि आखिर इससे जम्मू कश्मीर का वातावरण कैसा बनाने की कोशिश हो रही है?

 वैसे इसमें आश्चर्य की भी कोई बात नहीं है क्योंकि जम्मू कश्मीर की ये पार्टियां तभी से अफजल गुरु की फांसी का विरोध करती रही है। उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे और विधानसभा में चर्चा में अफजल को निर्दोष कहा गया तथा फांसी के विरुद्ध प्रस्ताव पारित हुआ। जम्मू कश्मीर को हिंसा में झोंकने की कोशिश हुई   सरकार मूकदर्शक बनी रही। आश्चर्य की बात है कि कांग्रेस का नेशनल कांफ्रेंस के साथ चुनावी गठजोड़ है और उसी के कार्यकाल में फांसी की सजा हुई पर वह इसके विरुद्ध वक्तव्य देने से भी बच रही है। कांग्रेस ने नेशनल कांफ्रेंस की उन घोषणाओं का भी विरोध नहीं किया जो इस्लामी कट्टरवाद और अलगाववाद को आक्रामक रुप से उभारने की चेष्टा है। जमात ए इस्लामी के चुनाव लड़ने की मांग तथा पाकिस्तान से वार्ता या फिर 370 के पूर्व स्थिति या हिंदू धार्मिक स्थानों के नाम बदलने आदि की घोषणाएं इसी को प्रमाणित करतीं हैं।  कश्मीर में पाकिस्तान या आजादी समर्थकों का मूल तर्क यही रहा है कि मुस्लिम बहुल होने के कारण इस्लाम के रूप में इसकी अलग पहचान है और उसी रूप में इसका अस्तित्व बना रहना चाहिए। धारा 370 हटाने के बाद कश्मीर में विधायी व प्रशासनिक से लेकर आंतरिक राजनीतिक संरचना आदि में व्यापक परिवर्तन हुए हैं। इसका असर वहां की अर्थव्यवस्था, लोगों के जनजीवन पर अत्यंत सकारात्मक हुआ है। इसमें आम आदमी सोचने लगा है कि क्या अभी तक हमें गफलत में रखा गया? इसमें इन पार्टियों की खतरनाक सोच है कि कश्मीर की इस्लामी राज्य के रूप में पहचान तथा विशेष अधिकार के साथ स्वायत्तता बड़े वर्ग के अंदर पुराने दौर की ओर लौटने कासमर्थक बनाएगा जिसका चुनावी लाभ मिलेगा। इस पर नेशनल कौन्फ्रेंस और पीडीपी में प्रतिस्पर्धा है। जमात ए इस्लामी को लेकर जब उमर अब्दुल्ला ने कहा कि पहले वे चुनावों को हराम यानी निषिद्ध मानते थे और अब हलाल यानी स्वीकार्य मानने लगे हैं तो मेहबूबा ने उन पर हमला करते हुए कहा कि 1987 में  जमात ए इस्लामी और अन्य समूहों ने चुनावों में भाग लेने की कोशिश की, तो एनसी ने बड़े पैमाने पर अनियमितताएं कीं क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि कोई तीसरी ताकत उभरे। उनके कारण ही आखिर में जेईआई और अन्य समूहों ने चुनाव का बहिष्कार किया। महबूबा ने कहा कि उमर की पार्टी ने ही चुनाव के संबंध में हराम और हलाल की यह कहानी शुरू की थी। उनकी पंक्तियां देखिए '1947 में जब दिवंगत शेख अब्दुल्ला पहली बार जम्मू-कश्मीर के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी बने थे और  मुख्यमंत्री बने, तो चुनाव हलाल थे। जब उन्हें पद से हटा दिया गया, तो 22 साल तक चुनाव हराम हो गए। 1975 में जब वे सत्ता में लौटे, तो चुनाव अचानक फिर से हलाल हो गए। 

कहने की आवश्यकता नहीं कि मजहबी अलगाववाद, आतंकवाद और पाकिस्तान को अभी भी ये अपने राजनीतिक हैसियत के लिए आवश्यक मानते हैं। धारा 370 हटाने और मोदी सरकार की परवर्ती नीतियों से यह स्थिति लगभग समाप्त है,  तो अस्तित्व का ध्यान रखते हुए फिर पुरानी स्थिति लाने की कुचेष्टा है, जिससे जम्मू कश्मीर अन्य राज्यों से अलग सोच वाला हिंसा और अलगाववाद से ग्रस्त तथा तीसरी पार्टी यानी पाकिस्तान के मान्य अधिकारों की भावना वाला प्रदेश बने। चुनाव में पार्टियों का राजनीतिक स्वार्थ है किंतु देश की दृष्टि से इस तरह के  विचार और व्यवहार का सभी पार्टियों, नेताओं और बुद्धिजीवियों को एक स्वर में विरोध करना चाहिए। अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली -110092 ,मोबाइल-9811027208

शनिवार, 21 सितंबर 2024

राहुल गांधी की अमेरिका यात्रा : एक भारतीय ऐसी गतिविधियों को स्वीकार नहीं कर सकता

अवधेश कुमार

राहुल गांधी की अमेरिका यात्रा पर मचा बवंडर बिलकुल स्वाभाविक है। तीन दिनों की अमेरिका यात्रा में उनके द्वारा दिए गए वक्तव्य और मुलाकातों के अनेक अंश ऐसे थे जिन पर सम्पूर्ण भारत को आपत्ति होनी चाहिए। विपक्ष का नेता बनने के बाद राहुल गांधी की यह पहली विदेश यात्रा थी। उन्हें, उनके रणनीतिकारों और कार्यक्रम के मुख्य आयोजक सैम पित्रोदा को इसका भान था। राहुल गांधी के लिए देश के हितों के प्रति सतर्क एवं उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार करने वाले नेता के रूप में स्वयं की छवि निर्मित करने का उनके लिए महत्वपूर्ण अवसर था। ओवरसीज कांग्रेस ऑफ इंडिया के प्रमुख सैम पित्रोदा ने कह दिया था कि राहुल गांधी की विपक्ष के नेता के रूप में नहीं निजी यात्रा है। क्या लोकसभा में विपक्ष का नेता या संवैधानिक दायित्व निभाने वाला कोई व्यक्ति अपने सार्वजनिक वक्तव्यों के बारे में कह सकता है कि उस पद के द्वारा नहीं मेरा निजी विचार है क्योंकि मैं अपने अंदर दो चरित्र लेकर चलता हूं? राहुल गांधी ने अमेरिका में जो कुछ बोला उसे लेकर कांग्रेस के परंपरागत नेताओं के अंदर भी असहजता और परेशानी पैदा हुई है।  कार्यक्रमों में दिए गए वक्तव्य हों या प्रश्नोत्तर या फिर मुलाकातें ..कोई आयोजन ऐसा नहीं था जिसे सामान्य सहज रूप में स्वीकार किया जाए? भारत का नेता विदेश की भूमि पर जाकर यह कहे कि हमारे देश में चारों ओर भय का माहौल है, धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला है, एक संगठन समूह को छोड़कर अन्यों को अपने मजहब, पंथ, संप्रदाय , भाषा के अनुसार और वेशभूषा के साथ निकालने या महत्वपूर्ण जगहों पर प्रवेश करने तक पर खतरा है अल्पसंख्यकों तथा समाज के पिछड़ों व वंचित वर्गों के विरुद्ध हिंसा हो रही है विरोधी राजनेताओं को जेल में डाला जा रहा है तथा भारत की विविधताओं को समाप्त किया जा रहा है तो इसका अर्थ क्या लगाया जाए?

जब उनका कार्यक्रम पहले से तय था तो उन्हें क्या बोलना है इनका निर्धारण भी पहले हो गया होगा। यही बात मुलाकातों के संदर्भ में भी है। हालांकि 2017 से उनकी राजनीतिक विदेश यात्राएं हो रही हैं और अभी तक के उनके वक्तव्य को देखें तो आपको हैरत नहीं होगी। हर यात्रा में उन्होंने विश्व समुदाय के समक्ष भारत की एक झूठी डरावनी तस्वीर पेश की है। वे लगातार कहते रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद आरएसएस का सारी संस्थाओं पर कब्जा है , हम विविधता को मानते हैं वे एकरूपता के लिए सत्ता की ताकत का उपयोग कर रहे हैं। इसी में वे जोड़ते रहे हैं कि समाज में दलितों , पिछड़ों , अल्पसंख्यकों और उनके विचार से असहमत होने वालों को हिंसा, प्रताड़ना और अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग कर विरोधी नेताओं को जेल में डाला जा रहा है। संपूर्ण मीडिया पर कब्जा है और हमारे पास अपनी बात रखने के मंच नहीं हैं। लगभग ये ही बातें थोड़ी अलग या समान शब्दावलियों में उन्होंने इस बार भी बोला है। पिछले चुनाव में मोदी सरकार संविधान खत्म कर देगी आरक्षण समाप्त कर देगी का असर उन्हें दिखा इसलिए ये विषय भी प्रमुखता से उठाया। पिछले वर्ष की अमेरिका यात्रा में उन्होंने भारत जोड़ो यात्रा के बारे में कहा था कि जब हमारे पास अपनी बात रखने या जनसंवाद करने का कोई माध्यम नहीं बचा तो हम जनता के बीच यात्रा पर निकल पड़े। इस बार भी उन्होंने इसकी चर्चा की। इस बार अंतर इतना था कि उन्होंने बताया कि लोगों ने समझा है और चुनाव परिणाम ने इसे साबित किया है। अब नरेंद्र मोदी से लोग डर नहीं रहे , सवाल पूछ रहे हैं और उनका आत्मविश्वास विश्वास खत्म गया है। वैसे यह बात भारत में वह बोल चुके थे।

राहुल गांधी के रणनीतिकार, सलाहकार, थिंक टैंक सब प्रफुल्लित होंगे क्योंकि जैसा वे चाहते थे राहुल गांधी पूरी तरह तैयार होकर देश के साथ विदेश में भी उतर चुके हैं। किंतु यह भूल गए कि एक बार आपने  देश की छवि विदेशों में खराब कर दी तो यह केवल मोदी सरकार के लिए नहीं संपूर्ण भारत के लिए समस्या और चुनौती बनेगा। कल्पना करिए, जो संस्थाएं उभरते और खड़ा होते हुए भारत को रोकने के लिए झूठी रिपोर्ट के आधार पर विश्व के निरंकुश, अभिव्यक्ति और धार्मिक स्वतंत्रता का दमन करने वाले देशों की सूची में डालने की वकालत कर रहे हैं उनके लिए तो राहुल गांधी को उद्धृत कर अपनी बात की पुष्टि करना ज्यादा आसान हो जाएगा। उनकी मुलाकातों की सूची में हमने भारत विरोधी और यहां तक कि भारत के विरुद्ध अमेरिकी कांग्रेस में मतदान करने वाली इलाहान उमर की चर्चा है किंतु पूरी सूची में ऐसे ही लोग थे जो अल्पसंख्यकों, मुसलमानों , मानवाधिकारों आदि के नाम पर भारत विरुद्ध अभियान चलाते रहे हैं। इनमें पाकिस्तान समर्थक हैं। जरा सोचिए, कोई विदेशी नेता पाक अधिकृत कश्मीर को भारत का भाग नहीं मानता, कश्मीर में जनमत संग्रह की आवाज उठाता है तथा अमेरिका में  भारतीयों के लिए वीजा नियमों को आसान करने वाले विधायक के विरुद्ध मतदान करता है उसका हमारे देश के किसी नेता के साथ खड़ा होने का अर्थ क्या है ? यह मोदी सरकार का विरोध है या भारत का?

यह कल्पना नहीं की जा सकती कि कोई नेता अपने कार्यक्रम में इस सीमा तक चला जाएगा कि एक सम्मानित सिक्ख को उठाकर बोलेगा कि लड़ाई इस बात की है कि एक सिख पगड़ी या कड़ा पहनकर कहीं आ जा सकते हैं या नहीं। यह सिर्फ एक रिलिजन के लिए नहीं बल्कि सभी रिलिजन के लिए है। हालांकि जिस सिख व्यक्ति का नाम पूछ कर उन्होंने यह टिप्पणी की उन भालेंद्र सिंह वीरमानी ने कहा कि इस मुद्दे में कोई भी तथ्य मौजूद नहीं है। मैं इसे पहनकर बेझिझक भारत जा सकता हूं। वहां आज तक ऐसा नहीं हुआ कि उसे पगड़ी और कड़ा पहनने का हक नहीं मिला हो। सभी को यह हक हमेशा मिला है, जो हमारे धार्मिक चिन्ह है उसे पहन कर हम लोग गुरुद्वारा, मेट्रो स्टेशन पर जा सकते हैं। बलिंदर सिंह ने कहा कि राहुल गांधी 15 20 मिनट बोलने के बाद बाहर चले गए और हमें उनसे प्रश्न करने का मौका नहीं मिला अन्यथा मैं पूछना चाहता था कि आखिर आपसे किसने कहा है कि ऐस आजादी नहीं है। उनके अनुसार मैं जानना चाहता था कि आखिर राहुल से किसने ऐसा कहा? क्या वजह, कोई खास एजेंसी है या खास लोग हैं जिन्होंने बातें बताई है? तो जिस अमेरिकी सिख बंधु से उन्होंने सवाल किया वहीं असहज हो गया। सिख सामुदाय के कुछ मुट्ठी भर अलगाववादी अराजक तत्व इस समय दुनिया भर में यही बात फैला रहे हैं। खालिस्तान की मांग सिखों की धार्मिक आजादी की मांग से जोड़ कर अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम जैसे देशों में सिख फॉर जस्टिस या ऐसे दूसरे समूह बीच-बीच  भारत को परेशान करने वाली गतिविधियां करते हैं। क्या राहुल गांधी को पता नहीं कि इन तत्वों ने ही भारतीय दुतावास आदि पर हमले किए और  महात्मा गांधी तक की मूर्ति को अपमानित किया? लंदन स्थित उच्चायोग में भारतीय तिरंगे को अपमानित किया। सिख फॉर जस्टिस का संचालक और भारत में वांछित आतंकवादी गुरपतवंत सिंह पन्नू ने राहुल गांधी के बयानों को हाथों-हाथ लिया और कहा कि यही तो हम कह रहे थे, आज राहुल गांधी ने इसकी पुष्टि कर दी। दुनिया भर के सिख अलगाववादी समूह राहुल के इस वक्तव्य का उपयोग कर उन देशों से अपनी बात को सही साबित करने की कोशिश करेंगे। भारत सरकार सभी देशों के साथ कड़ाई से इन तत्वों पर अंकुश लगाने की बात करती रही है। राहुल गांधी ने भारत का पक्ष इस कमजोर किया। इसका डरावना पहलू यह है कि इसका किंचित भी लाभ उठाकर इन तत्वों ने पंजाब में कोई गड़बड़ी पैदा कर दी तो क्या होगा? हाल के समय में पंजाब के अंदर अलगाववादी गतिविधियों के साथ हिंसा फैलाने के प्रमाण मिले हैं, उग्रवादी गिरफ्तार हुए हैं।

भारत की एकता-अखंडता तथा विश्व में इसके प्रभाव बढ़ने , सम्मान मिलने के प्रति समर्पित कोई नेता विदेशी भूमि पर इस तरह की बातें नहीं कर सकता। आपको आरएसएस , बीजेपी से मतभेद है तो देश के अंदर प्रकट कर सकते हैं। उसमें भी राहुल गांधी जी अतिवाद की सीमा तक जा रहे हैं जो हमारे अंदर ही तनाव और हिंसा बढ़ाने तथा उथल-पुथल मचाने की पर्याप्त क्षमता रखता है। साफ है कि राहुल गांधी का एजेंडा देश की सामान्य राजनीति में कांग्रेस को मजबूत करना या स्वयं सरकार बनाने तक सीमित नहीं है। अपने देश के बारे में ऐसे दुष्प्रचार पुराने समय में उथल-पुथल और हिंसा के द्वारा सत्ता पर कब्जा करने वाले वामपंथी किया करते थे। चूंकि वह देश व राज्य की भौगोलिक सीमाओं या आंतरिक एकता जैसे राष्ट्रवाद , राष्ट्रीय भाव आदि को ही खारिज करते थे और संपूर्ण विश्व को केवल एकवर्गीय  व्यवस्था का सपना देखते थे, इसलिए ऐसा करते थे। कम्युनिस्ट देशों में उन्हें शरण मिलती था और वहां से अपने देश के विरुद्ध अभियान चलाते थे, लोगों को सत्ता के विरुद्ध हिंसक विद्रोह के लिए भड़काते थे। राहुल गांधी संसदीय लोकतंत्र के अंदर क्या लक्ष्य चाहते हैं इसे समझने के लिए शोध की आवश्यकता है। संसदीय व्यवस्था में राजनीतिक- वैचारिक मतभेद देश की भौगोलिक सीमाओं के अंदर है। देश की सीमा से निकलते ही हर व्यक्ति भारतीय है और उससे भारत राष्ट्र के पक्ष में खड़े होने की अपेक्षा है। यह व्यवहार हर दृष्टि से अस्वीकार्य है तथा इसका विरोध होना ही चाहिए। वैसे उनके सारी बातों का तथ्यों से खंडन संभव है और यह जहां जो भी हो अपने देश से प्रेम करने वाले को इसके विरोध में आना चाहिए।

 अवधेश कुमार,  ई-30, गणेश नगर , पांडव नगर कंपलेक्स , दिल्ली -110092, मोबाइल -98110 27208

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