संवाददाता
मंगलवार, 30 अप्रैल 2024
दिल्ली हिंदी साहित्य सम्मेलन व लम्हे जिंदगी के संस्था ने मिलकर 'काव्य गोष्ठी का आयोजन किया
सोमवार, 29 अप्रैल 2024
श्री अरविन्द महाविद्यालय (सांध्य), दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित 'साईकेडेलिया-24' कार्यक्रम का आयोजन
संवाददाता
गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
कम मतदान होने का सच वही नहीं जो बताया जा रहा है
अवधेश कुमार
लोकसभा चुनाव के पहले चरण के 102 स्थानों का लोकसभा चुनाव संपन्न होने के कई तरह के आकलन सामने आ रहे हैं । इस दौर में नौ राज्यों तमिलनाडु ,उत्तराखंड, अरुणाचल, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम ,नगालैंड, सिक्किम तथा तीन केंद्र शासित प्रदेशों अंडमान, लक्षद्वीप और पुडुचेरी का मतदान संपन्न हो चुका है। हिंदी भाषी राज्यों के दृष्टि से देखे तो ऐसे 35 स्थान का चुनाव संपन्न हुआ है जिनमें बिहार के चार ,मध्य प्रदेश के 6 ,राजस्थान के 12, उत्तर प्रदेश के आठ और उत्तराखंड के पांच स्थान शामिल हैं। दक्षिण के राज्य तमिलनाडु के सभी 39 स्थानों पर मतदान संपन्न हो चुका है। माना जा रहा था कि देश के एक बड़े क्षेत्र में मतदान के बाद इसकी प्रवृत्तियों का आकलन करना थोड़ा आसान हो जाएगा। लेकिन मतदान के बाद आम टिप्पणी यही है कि प्रवृत्तियों का आकलन कठिन हुआ है। बहरहाल , इसकी सबसे बड़ी विशेषता रही कि पश्चिम बंगाल को छोड़कर कहीं भी किसी तरह की हिंसा की घटना नहीं हुई। यह बताता है कि देश का चुनाव तंत्र बिल्कुल सहज ,सामान्य और सुव्यवस्थित अवस्था में काम कर रहा है। इसका अर्थ यह भी है कि हम कम अवधि और कम चरणों में भी लोकसभा चुनाव को समाप्त कर सकते हैं।
सबसे ज्यादा चर्चा मतदान प्रतिशत कम होने को लेकर है और कई तरह के आकलन किया जा रहे हैं। हालांकि तथ्य नहीं है कि सभी क्षेत्रों में मतदान का प्रतिशत ज्यादा गिरा है। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में ज्यादा मतदान हुए तो बिहार और उत्तराखंड में अत्यंत कम। इन दो राज्यों में भी अलग-अलग क्षेत्र को देखें तो कहीं ज्यादा तो कहीं कम मतदान हुआ है। एक बार राज्य , मतदान प्रतिशत को देखें। उत्तर प्रदेश में 2019 के 63.88 के मुकाबले 60.25% ,उत्तराखंड में 61.88 प्रतिशत के मुकाबले 55.89%, मध्य प्रदेश में 67.08%, छत्तीसगढ़ में 65.80 की जगह 67.56 प्रतिशत, राजस्थान में 63.71 की जगह 57.26 प्रतिशत, बिहार में 53.47% की जगह 48.88%, पश्चिम बंगाल में 83.7 9% की जगह 80.55%, महाराष्ट्र में 63.0 4% की जगह 61.87% तमिलनाडु के सभी 39 क्षेत्र में 69.46 प्रतिशत, असम में 78.23% की जगह ,75.95%, अरुणाचल में 67% की जगह 72.74%, मणिपुर में 78.20% की जगह 72.117%, मेघालय में 67.15% की जगह 74.5 0%, मिजोरम में 63.02% की जगह 56. 6 0%, नागालैंड में 83.12 प्रतिशत की जगह 56.91%, त्रिपुरा में 83.12% की जगह 81. 6 2% सिक्किम में 78.119% की जगह 80.003%, पुडुचेरी में 81. 19% की जगह 78.8 0%, अंडमान निकोबार में 64.85% की जगह 63.99%, लक्षद्वीप में 84.96% की जगह 83.88%, जम्मू कश्मीर में 57.35 प्रतिशत की जगह68 प्रतिशत मतदान हुआ। तो एक- दो स्थान को छोड़कर ज्यादातर जगहों में मतदान गिरा है। उत्तर प्रदेश में 2019 के मुकाबले लगभग 5.30 प्रतिशत कम मतदान हुआ। सबसे अधिक 83.88 प्रतिशत मतदान लक्षद्वीप सीट पर तो बंगाल के जलपाईगुड़ी में 82.15% मतदान हुआ। हिंसा के शिकार मणिपुर में मतदान कम नहीं माना जा सकता है। कुल मिलाकर इन क्षेत्रों में 2019 में औसत मतदान 69.43 % से ज्यादा हुआ था। चुनाव आयोग के अंतिम आंकड़ों के अनुसार यह करीब 68.29 प्रतिशत है। यानी करीब 1.14% कम मतदान हुआ है। तो राष्ट्रीय स्तर पर मतदान में ज्यादा गिरावट नहीं है । 2019 लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा मतदान हुआ था। तो यह माना जा सकता है कि लोकसभा चुनाव में इससे ज्यादा मतदान की संभावना शायद अभी नहीं है।
नागालैंड में इसलिए मतदान प्रतिशत ज्यादा गिरा क्योंकि छह जिलों में ईस्टर्न नगालैंड पीपुल्स फ्रंट (ईएनपीओ) ने अलग राज्य की मांग को लेकर मतदान का बहिष्कार किया था। इन छह जिलों के 20 विधानसभा क्षेत्रों में चार लाख से अधिक मतदाता हैं। जब इतनी संख्या में मतदाता मत डालेंगे नहीं तो उसे गिरना ही है। इसे मतदान की प्रवृत्ति नहीं मान सकते। करीब डेढ़ दशक पहले मतदान घटने का अर्थ सत्तारूढ़ घटक की विजय तथा बढ़ने का अर्थ पराजय के रूप में लिया जाता था और प्रायः ऐसा देखा भी गया। किंतु 2010 के बाद प्रवृत्ति बदली है। मतदान बढ़ने के बावजूद सरकारें वापस आई हैं और घटने के बावजूद गई है। इसलिए इसके आधार पर कोई एक निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। दूसरे, हर जगह मतदान प्रतिशत ज्यादा गिर भी नहीं है। तीसरे, बंगाल में साफ दिखाई दे रहा है कि दोनों पक्षों के मतदाताओं में एक दूसरे को हराने और जीताने की प्प्रतिस्पर्धा है।। संदेशखाली से लेकर अन्य मामलों के कारण वहां हिंदुओं के बड़े समूह के अंदर ममता बनर्जी को लेकर आक्रोश है।
सबसे ज्यादा चर्चा उत्तर प्रदेश की है तो जरा क्षेत्र के हिसाब से देखें कि कहां कितना मतदान हुआ। सहारनपुर में पिछली बार 70.87% हुआ था जबकि इस बार 68.99% , पीलीभीत में 67.41 की जगह 63.70, मुरादाबाद में 65.46 की जगह 62.05, कैराना में 67.45 की जगह 61.5 , नगीना में 63.66 की जगह असर दशमलव 54, मुजफ्फरनगर में 80.42 की जगह 58.5, बिजनौर में 66.022 की जगह 58.21 और रामपुर में 63.01की जगह 55.75% मतदान हुआ। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस इलाके में मतदान प्रतिशत घटना सामान्य स्थिति का परिचायक नहीं है। इस क्षेत्र को जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का विशेषण प्राप्त है। तो यह आकलन करना कठिन है कि जहां मतदान प्रतिशत गिरा वहां किनके मतदाता नहीं आए। पिछले चुनाव में भाजपा के लिए यह चुनौतीपूर्ण क्षेत्र था तथा बसपा सपा ने उसे गंभीर चुनौती दी थी। भाजपा को केवल तीन स्थान मिले थे जबकि बसपा को तीन और सपा को दो। अगर भाजपा विरोधी उसे हराना चाहते थे तो उन्हें भारी संख्या में निकलना चाहिए। कहा भी जा रहा है कि सपा के कोर मतदाता यानी मुसलमान और यादवों का बड़ा समूह आक्रामक होकर मतदान कर रहा था।। विरोधी भारी संख्या में निकलेंगे तो समर्थक भी इसका ध्यान रखेंगे। हालांकि उम्मीदवारों के चयन , दूसरे दलों से आये लोगों को महत्व मिलने तथा कहीं -कहीं,गठबंधन को लेकर भाजपा समर्थकों और कार्यकर्ताओं में थोड़ा असंतोष है तथा एक जाति विशेष ने भी विरोधात्मक रूप अख्तियार किया था। बावजूद यह कहना कठिन होगा कि भाजपा समर्थक मतदाता ही ज्यादा संख्या में नहीं निकले। अभी तक की प्रवृत्ति इसका संकेत नहीं देती। समर्थक कार्यकर्ता थोड़ा असंतुष्ट हों तो इसका असर होता है किंतु विरोधी तेजी से हराने के लिए निकले और इसके बावजूद वो प्रतिक्रिया न दें इस पर विश्वास करना कठिन होता है।
अभी तक के चुनाव अभियान में जनता के उदासीनता दिखी है। हालांकि विपक्ष के प्रचार के विपरीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार को लेकर आम जनता के अंदर कहीं व्यापक आक्रोश या भारी विरोधी रुझान बिल्कुल नहीं दिखा है। कल्याण कार्यक्रमों के लाभार्थी तथा विकास नीति की प्रशंसा करने वाले हर जगह दिखाई देते हैं । श्री रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा प्रतिष्ठा से लेकर समान नागरिक संहिता एवं नागरिकता संशोधन कानून आदि पर विपक्ष के रवैये ने भाजपा के समर्थकों और मतदाताओं में प्रतिक्रिया भी पैदा की है। आम प्रतिक्रिया यही है नरेंद्र मोदी को ही होना चाहिए । लोग अगर वोट डालते समय यह विचार करेंगे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही बनाना है तो वो किसका समर्थन करेंगे ? कार्यकर्ताओं नेताओं और समर्थकों के एक समूह के थोड़ा असंतोष का कुछ असर हो सकता है। हालांकि जिनके अंदर असंतोष है उनमें भी यह भाव है कि अगर यह सरकार हार गई तो कहा जाएगा कि हिंदुत्व विचारधारा की हार हो गई है। जिस जाति के विद्रोह की चर्चा हो रही है वहां भी लोगों के अंदर भाजपा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लेकर सहानुभूति का भाव दिखता है। इसलिए यह मानने में भी कठिनाई है कि इन्होंने बिल्कुल एक मस्त आक्रामक होकर भाजपा के विरोध में मतदान किया होगा। ऐसा होने का अर्थ मतदान बढ़ना होना चाहिए। मतदान कम होने को भाजपा विरोधी रचन का संकेत मानना उचित नहीं होगा।
पता- अवधेश कुमार, ई-30,गणेश नगर,पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली -110092 ,मोबाइल -9811027208
सांसद निधि और अन्य फंड है राजनीति में बढ़ते अपराधों की जड़
बसंत कुमार
पिछले दिनों आम चुनाव के अवसर पर चुनाव लड़ने वाले आपराधिक पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशियों के विषय में एक आंकड़े जारी किये गए जिसमें एक आश्चर्यजनक तथ्य सामने यह आया कि चाहे एनडीए हो या इंडिया गठबंधन हो दोनों ही ओर से आपराधिक पृष्ठभूमि और भूमाफिया और कालाबाजारी में लिप्त भावी सांसदों की संख्या 50% से थोड़ा ही कम है।
विगत कुछ वर्षों में संसद, विधानमंडलों और स्थानीय निकायों में प्रवेश पाने वाले करोड़पतियों और अरबपतियों की संख्या 90-95% तक पहुंच गई है। बस कुछ दूरदराज और आदिवासी क्षेत्रों में ही कभी-कभार ऐसे प्रत्याशी मिल जाते हैं जिनकी घोषित आय हजारों या लाखों में हो सकती है, समाज में वंचित व गरीब समाज की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए विधायिका में उनके लिए कुछ सीटें आरक्षित कर दी गई पर अब तो इन सीटों पर भी उन अरबपतियों को टिकट दिये जाते हैं जिनका वंचित समाज के विकास से कोई सरोकार नहीं होता, राजनीति में आने का एक मात्र उद्देश्य अपनी संपत्ति को दुगुना और चौगुना करना होता है। अब तो कुछ दलों में टिकटों का फैसला देश की राजधानी दिल्ली में नहीं बल्कि देश की वाणीज्यिक राजधानी मुंबई में होता है और पार्टी प्रत्याशियों के टिकटों का फैसला संसदीय बोर्ड के और चुनाव समिति के सदस्य नहीं बल्कि मुंबई में बैठे दलाल करते हैं। यहां तक के आर्थिक व सामाजिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में भी प्रत्याशियों को टिकट उस क्षेत्र में रहने वालों को नहीं दिया जाता जो वहां की समस्या से भलीभांति परिचित होते हैं, बल्कि उनको दिया जाता है जो मुंबई और दिल्ली में रहते हैं और उल्टे-सीधे धंधों से अरबों की संपत्ति इकट्ठा कर रखी है।
अब प्रश्न यह उठता है कि राजनीति में ऐसा क्या है कि अब सभी पैसे वाले, आपराधिक छवि वाले, नौकरशाह, डॉक्टर व अन्य पेशे वाले अपना जमा-जमाया धंधा छोड़कर चुनाव लड़ने को आतुर दिखते हैं। एक समय ऐसा था कि उच्च शिक्षा प्राप्त डॉक्टर व इंजीनियर अपना क्षेत्र छोड़कर सिविल सेवा परीक्षा की ओर आकर्षित होते थे इसके पीछे कारण सर्वेंट्स को मिलने वाली सुविधाएं व पॉवर होता था परंतु अब वही क्रेज लोगों के मन में राजनीति में जाने और चुनाव लड़ने में हो गया है, जानकारों की राय में यह क्रेज 90 के दशक में शुरू हुआ जबसे सांसदों और विधायकों को निधि के नाम पर करोड़ों रुपये दिये जाने लगे।
सांसद और विधायक निधि के इस पैसे को बिना किसी एकाउंटबिलिटी के मनमानी खर्च करने लगे, कहा तो यहां तक जाता हैं कि सांसद निधि से जब किसी शिक्षा संस्था या किसी अन्य संस्थान को पैसा दिया जाता है या निधि से छोटा-मोटा निर्माण कराया जाता है तो उसमें 30 से 35% कमीशन पहले ही ले ली जाती है अर्थात यह कहा जा सकता है कि राजनीति के क्षेत्र में उपजा भ्रष्टाचार सांसदों और विधायकों की निधि के फैसले के बाद से ही अधिक फैला है। इस निधि के कारण चुनाव इतने महंगे हो गए हैं।
एक दृष्टि 1980 के दशक के पूर्व के सांसदों और विधायकों की जीवनशैली पर डालें तो पता चलता है कि तब के सांसद अपने क्षेत्र का दौरा करने हेतु जिला प्रसाशन द्वारा उपलब्ध कराई गई गाड़ियां इस्तेमाल करते थे और जब संसद सत्र के दौरान अपने घर से संसद तक संसद द्वारा चलाई गई बस सेवा का उपयोग करते थे, पर जब से सांसद निधि शुरू हो गई है और विधायिका में भ्रष्टाचार का बोलबाला शुरू हो गया है तब से सांसद व विधायक एसयूवी गाड़ियों के काफिले से चलते हैं और इनके काफिले को देखकर ऐसा लगता हैं मानो ये जनता के सेवक नहीं बल्कि पुराने राजवाड़े और उनका काफिला निकल रहा है। जन सेवा के नाम पर राजनीति में आए लोग राजवाड़ों से अधिक आलीशान जीवन जी रहे हैं और सांसदी खत्म होने के पश्चात अच्छी खासी रकम पेंशन के रूप में मिलने से उनकी बेफिक्री और बढ़ा दी है। इसी कारण पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने कई बार सांसद निधि समाप्त करने की बात की थी, उनका मानना था कि जनसेवा के नाम पर चुनकर आये जनप्रतिनिधि देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ बन रहे हैं इसलिए सांसद निधि बंद कर दी जानी चाहिए।
इस समय लोकसभा चुनाव प्रगति पर है और सभी सांसद अपने क्षेत्र में पिछले पांच सालों में की गई उपलब्धियों को गिना रहे हैं और इनकी उपलब्धियों में परिवहन एवं सड़क यातायात मंत्री नितिन गडकरी और रेल मंत्री की उपलब्धियां गिनाई जाती हैं अर्थात जन प्रतिनिधियों द्वारा द्वारा अपने सांसद अपनी सांसद निधि को कहां खर्च किया उसका ठीक से ब्यौरा नहीं दे पाते। अभी कुछ दिन पहले एक रिपोर्ट आई थी कि अधिकांश सांसद ठीक तरीके से अपनी निधि खर्च नहीं कर पाते और यदि करते हैं तो वह भी अपने चाटुकारों को मनमाने तरीके से दस-दस हैंड पंप और सोलर लाइट दे देते हैं और क्षेत्र के जरूरतमन्दों को पानी के लिए हैंड पंप और सोलर लाइट नहीं मिल पाती। अब जब प्रधानमन्त्री ने अगले कुछ वर्षों में हर घर को पानी का कनेक्शन और हर घर को बिजली का कनेक्शन का लक्ष्य निर्धारित कर दिया है और सिर्फ हैंड पंप और सोलर लाइट लगाने के उद्देश्य इन सांसद निधि के नाम पर अरबों रूपये खर्च किये जाएं। इसलिए अब समय आ गया कि सांसद निधि बन्द करके सांसदों और विधायकों को अपने विधायी कार्यों पर अपना ध्यान करने दिया जाए।
जबसे विधायिका के लोगों को क्षेत्र के विकास के नाम पर करोड़ों रुपये की निधि का विधान आया है तब से विधायिका में हिस्ट्रीशीटरो, अपराधियों और सत्ता के दलालों का प्रवेश बढ़ गया है या यूं कह लें इन लोगों ने विधायिका में अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है और चुनावों के दौरान टिकट पाने से लेकर चुनाव जितने तक इन लोगों के धनबल और बाहुबल का बोलबाला दिखाई देता है और दुर्भाग्य पूर्ण यह है कि मतदाता भी इन्ही बाहुबली करोड़पतियों के पीछे भागना पसंद करते हैं। अब तो शरीफ, चरित्रवान व सभ्य लोग चुनाव में भाग लेने के बजाय इसे दूर से प्रणाम कर लेते हैं। यदि देश में स्वस्थ लोकतंत्र को स्थापित करना है कि हर राजनीतिक दल को जिताऊ प्रत्याशी के नाम पर आपराधिक और बाहुबली छवि वाले करोड़पतियो का प्रवेश बन्द करना पड़ेगा अन्यथा कुछ समय बाद हमारी संसद और विधानमंडल इन अपराधियों की शरणार्थी बन जाएगी।
शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024
चुनावों में धर्म और जाति का उपयोग गलत परंपरा
अभी हाल ही में चल रहे लोकसभा चुनावों के समय गुजरात के एक वरिष्ठ नेता पुरुषोत्तम रुपाला ने ब्रिटिश काल में राजपूतों की नीति और स्थिति के बारे में एक विवादित बयान दे दिया, जिसके कारण उन्हें देश के क्षत्रिय समाज का विरोध झेलना पड़ रहा है, हो सकता है कि उन परिस्थितियों में मजबूरी के कारण कुछ क्षत्रियों को ऐसा करना पड़ा हो पर पूरे क्षत्रिय समाज के लिए ऐसी धारणा बनाना सरासर गलत था। यहां तक इतिहास जानता है कि मुगलों और उसके पूर्व के अक्रांताओं के विरुद्ध मेवाड के राजपूतानाओं ने जिस साहस का परिचय दिया वह हिंदुत्व की रक्षा के लिए ऐतिहासिक त्याग व बलिदान माना जाएगा। 7वीं सदी में बप्पा रावल से लेकर 17वीं सदी तक महाराणा प्रताप और उनके बेटे अमर सिंह तक यह संघर्ष कायम रहा।
यही नहीं मेवाड के पर्वतीय वन प्रदेशों में बसने वाले भील, जो धनुष विद्या में प्रवीण और अचूक निशाने बाज होते थे तथा पहाड़ों और जंगलों के बीहड़ रास्तों के जानकर होते थे, ने मुस्लिम आक्रमणकारियों के विरुद्ध लडाई में अपने राजपूत राजाओं के साथ संघर्ष किया और बलिदान दिया। संक्षिप्त रूप में यह कहा जा सकता है कि अपनी सनातनी संस्कृति की रक्षा के लिए सभी हिंदुओं ने राजपूत राजाओं के नेतृत्व में कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया। यही कारण है कि लगातार 9 सदियों तक मुस्लिम आक्रांताओं के अत्याचार और लूटमार के बावजूद हिंदू सनातनी संस्कृति विनष्ट होने से बची रही।
मगर वर्तमान समय में क्षत्रीय परिवारों में जन्म लेने वाले कुछ युवा जिन्हें राजपूताना संघर्ष के बारे में कुछ नहीं पता वे राजपूताना संघर्ष को सभी हिंदुओं का संघर्ष मानने के बजाय सिर्फ क्षत्रियों का संघर्ष मानते हैं और निम्न जातियों में पैदा होने वालों को सनातनी संघर्ष का हिस्सा नहीं मानते और कभी कभी तो शुद्रों और भीलों को हिंदू धर्म का हिस्सा भी नहीं मानते और अपने वर्ग को अन्य जातियों से श्रेष्ठ समझते हैं। उनकी यही सोच हिंदू समाज और सनातनी संस्कृति को तार-तार कर रही है। उन लोगों को यही बड़बोलापन राष्ट्रवाद और हिंदुत्व में आस्था रखने वाले रुपाला जैसे नेता को भी स्वाभिमानी राजपूत समाज के लिए अवांछित टिप्पणी करने के लिए उकसाया, जिसका परिणाम यह है कि पूरे राजपूत समाज द्वारा जगह-जगह पर रुपाला का विरोध हो रहा है और जो राजपूत समाज भाजपा का कैडर वोट माना जाता रहा है वह अपनी ही पार्टी के विरोध में खड़ा हो गया है।
इसी कड़ी में उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ सपा नेता जो तीन बार सांसद रह चुके हैं और वर्तमान में विधायक तूफानी सरोज ने यह कहकर विवाद पैदा कर दिया कि हमारी जीत में सवर्ण, ब्राह्मण, ठाकुरों का कोई योगदान नहीं है अब यह प्रश्न उठता है कि भारत जैसे लोकतंत्र में चुनाव के दौरान धर्म और जाति का उपयोग कितना जायज है जबकि चुनाव जाति व धर्म के बजाय शिक्षा, स्वास्थ, रोजगार और आर्थिक विकास के मुद्दों पर लड़े जाने चाहिए परंतु इस समय चुनाव पूर्ण रूप से धर्म और जाति के आधार पर लड़े और जीते जाते है।
सनातन संस्कृति वाले इस देश में भगवान राम त्रेता युग से पूजे जाते रहे हैं और लगभग 9 शताब्दियों तक देश बाहरी मुस्लिम आक्रांताओं के कब्जे में रहा फिर भी देश में न सनातन खत्म हुआ और न ही लोगों के मन में भगवान राम के प्रति श्रद्धा ही कम हुई और युगों से लोगों के दिल में भगवान राम का वास रहता है पर कुछ स्वयंभू सनातन के ठेकेदार अयोध्या में भगवान राम की जन्म भूमि पर बन रहे भव्य मन्दिर के निर्माण का श्रेय स्वयं लेने का प्रयास कर रहे है और इसके लिए हमारे साधु-संतों और महान नेताओं की कुर्बानियों को नजरअंदाज कर रहे हैं और चुनावी फायदे के लिए भगवान राम का उपयोग कर रहे हैं जो अनैतिक भी है और सनातनी मान्यताओं के विरुद्ध भी है।
धर्म को चुनाव में इस्तेमाल करने के मामले में 1995 में सर्वोच्च न्यायालय की बेंच जिसकी अध्यक्षता जस्टिस जीएस वर्मा कर रहे थे। उन्होंने निर्णय दिया कि हिंदुत्व धर्म नहीं है अपितु यह जीवन शैली है और यह कहा हिंदुत्व को एक धर्म तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय की इस गहन व्याख्या ने यह तो स्थापित कर दिया कि हिंदुत्व भारत में जीवन के सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं को शामिल करता है पर उन्होंने कहीं भी चुनाव में धर्म के इस्तेमाल को जायज नहीं ठहराया। नतीजन हिंदू और हिंदुत्व के उपयोग को भले ही असंवैधानिक न करार दिया जाए पर चुनाव में इसका उपयोग अनैतिक है और सनातनी मान्यताओं के खिलाफ है। यह फैसला दूसरी ओर धार्मिक अपीलों और सामाजिक व सांस्कृतिक मान्यताओं से जुड़ी अभिव्यक्ति के बीच अंतर को स्पष्ट कर दिया था और चुनावी प्रक्रिया की अखंडता बनाये रखने के लिए जाति और धर्म से संबंधित संवेदनशील मुद्दों को संबोधित करते समय राजनेताओं को सावधानी बरतनी चाहिए।
शीर्ष अदालत का यह फैसला अभिवयक्ति की स्वतंत्रता और चुनाव के दौरान भ्रष्ट आचरण को रोकने के लिए आवश्यकताओं के बीच नाजुक संतुलन को दर्शाता है। यह रचनात्मक राजनीतिक बहस के महत्व पर जोर देते हुए देश में जाति और धर्म के आधार पर होने वाले सामाजिक विघटन को रोकने का मार्ग प्रशस्त करता है पर दुर्भाग्यवश देश में राजनीतिक पार्टियां धर्म और जाति के नाम पर सत्ता प्राप्त करना चाहती है।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में परोक्ष रूप से स्वीकार कर लिया कि राजनीतिक फायदे के लिए विशेषकर चुनाव के लिए धर्म के इस्तेमाल को बिलकुल ही सही माना और फैसला दे दिया कि हिंदुत्व धर्म नहीं एक जीवन शैली है अर्थात इस फैसले ने यह साफ कर दिया कि जाति और धर्म के नाम पर मतदाताओं को बर्गलाना पूरी तरह से लोकतंiत्रिक मर्यादाओं के के विरुद्ध है पर देश के राजनीतिक दल इसे अनदेखा करके धर्म और जाति के नाम पर अशिक्षित मतदाताओं को लामबंद कर रहे है जो एक स्वस्थ लोकतंत्र के प्रतिकूल है। इस विषय में चुनाव आयोग और न्यायालय को कड़े कदम उठाने की अवश्यकता है।
बुधवार, 17 अप्रैल 2024
लोकसभा चुनाव की कैसी बन रही है तस्वीर
अवधेश कुमार
इस समय लोकसभा चुनाव को लेकर कई तरह के मत हमारे सामने आ रहे हैं। सबसे प्रबल मत यह है कि भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अपने सहयोगी दलों के साथ तीसरी बार भारी बहुमत से सरकार में लौट रही है। कुछ लोग प्रधानमंत्री के 370 भाजपा के और सहयोगी दलों के साथ 400 सीटें मिलने तक की भी भविष्यवाणी करने लगे हैं। दूसरी और विपक्ष इसे खारिज करते हुए कहता है कि भाजपा चुनाव हार रही है और वह 200 सीटों से नीचे चली पाएगी। विपक्ष भाजपा की आलोचना करती है, नरेंद्र मोदी पर सीधे प्रहार भी करती है, पर अपने समर्थकों और भाजपा विरोधियों के अंदर भी विश्वास नहीं दिला पाती कि वाकई वह भाजपा से सत्ता छीनने की स्थिति में चुनाव लड़ रहे हैं। आईएनडीआईए की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस से नेताओं के छोड़कर जाने का कायम सिलसिला इस बात का प्रमाण है कि पार्टी के अंदर कैसी निराशा और हताशा का सामूहिक मनोविज्ञान व्याप्त है। इसमें आम मतदाता और विश्लेषक स्वीकार नहीं कर सकते कि वाकई विपक्षी दल भाजपा और राजग को सशक्त चुनौती देने की स्थिति में है। तो फिर इस चुनाव का सच क्या हो सकता है? आखिर 4 जून का परिणाम क्या तस्वीर पेश कर सकता है?
इस चुनाव की एक विडंबना और है। भाजपा के नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों का एक वर्ग स्वयं निराशाजनक बातें करता है। व्यक्तिगत स्तर पर मेरी ऐसे अनेक लोगों से बातें हो रही हैं जो चुनाव में जमीन पर हैं या वहां होकर लौट रहे हैं। इनमें ऐसे लोगों की संख्या बड़ी है जिनमें उत्साह या आशावाद का भाव न के बराबर मिलता है। वे बताते हैं कि जैसी दिल्ली में या बाहर हवा दिखती है धरातल पर वैसी स्थिति नहीं है। जब उनसे प्रश्न करिए कि धरातल की स्थिति क्या है तो सबके उत्तर में कुछ सामान बातें समाहित होती हैं, गलत उम्मीदवार के कारण लोगों के अंदर गुस्सा या निराशा है, गठबंधन को सीट देने के कारण अपने लोगों के अंदर निराशा है, गठबंधन ने ऐसे उम्मीदवार खड़े किए हैं जिनका बचाव करना या जिनके लिए काम करना भाजपा के कार्यकर्ताओं के लिए कठिन हो गया है आदि। कुछ लोग अनेक क्षेत्रों में जातीय समीकरण की समस्या का उल्लेख भी करते हैं। एक समूह यह कहता है कि आम कार्यकर्ताओं और नेताओं की सरकार में उपेक्षा हुई है, उनके काम नहीं हुए हैं, उनको महत्व नहीं मिला है और अब लोगों का धैर्य चूक रहा है। यहां तक कि जिस तरह के लोगों को पुरस्कार, पद, प्रतिष्ठा या टिकट दिया गया है उनसे भी लोग असहमति व्यक्त करते हैं। भाजपा कार्यकर्ताओं समर्थकों के साथ विपक्ष की बातों को मिला दिया जाए तो निष्कर्ष यही आएगा कि भले भाजपा 400 पर का नारा दे लेकिन यह हवा हवाई ही है। किंतु क्या यही 2024 लोकसभा चुनाव की वास्तविक स्थिति है?
यह बात सही है कि अनेक राज्यों , जिनमें उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार ,झारखंड, राजस्थान, पश्चिम बंगाल आदि को शामिल किया जा सकता है वहां पार्टी के अंदर कई जगह उम्मीदवारों को लेकर विरोध है। कुछ उपयुक्त लोगों को टिकट न मिलना तथा ऐसे सांसदों को फिर से उतारना जिनको लेकर कार्यकर्ता नाराजगी प्रकट करते रहे हैं विरोध का एक बड़ा कारण है। साथी दलों ने भी भाजपा के लिए समस्याएं पैदा की है। इन सबमें विस्तार से जाना संभव नहीं, पर कुछ संकेत दिए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए बिहार में लोजपा ने ऐसे उम्मीदवार उतारे जो परिवारवाद का साक्षात प्रमाण है और भाजपा के लोगों के लिए इनका बचाव करना कठिन है। कुछ साथी दलों ने प्रभाविता और साक्षमता की जगह व्यक्तिगत संबंध और परिवार को टिकट देने में प्रमुखता दिया। बिहार के जमुई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं प्रचार के लिए गए और वहां भाजपा के लोगों ने पूरी ताकत लगाई। इसका असर भी हुआ। बावजूद यह प्रश्न किया जा रहा है कि किसी नेता के बहनोई या 26 साल की एक लड़की को, जिसके पिता साथी दल में नेता हैं उनको हम अपना नेता या प्रतिनिधि मानकर कैसे काम करें? स्वर्गीय रामविलास पासवान की राजनीति परिवार के इर्द-गिर्द सिमटी रही। जद- यू की ओर से भी ऐसे कई उम्मीदवार हैं जिन्हें भाजपा और राजग के परंपरागत कार्यकर्ता और समर्थक स्वीकार नहीं कर रहे। भाजपा के भी कुछ ऐसे उम्मीदवार हैं जिनके बारे में नेता कार्यकर्ता कह रहे हैं कि हम पर उन्हें थोप दिया गया है। झारखंड में भी बाहर से लाकर टिकट देने और ऐसे उम्मीदवार को खड़ा करने, जिनको भाजपा पहले नकार चुकी हो समस्या पैदा कर रही है।
किंतु इसका यह अर्थ नहीं की 4 जून का परिणाम भी इसी के अनुरूप आएगा। यह सही है कि अगर भाजपा और राजग में उम्मीदवारों के चयन में ज्यादा सतर्कता बरती जाती, स्थानीय नेतृत्व के चॉइस की सही तरीके से जांच होती तो स्थिति पूरी तरह वैसी ही उत्साहप्रद होती जैसी चाहिए। बावजूद देशव्यापी व्याप्त अंतर्धारा क्या है? 10 वर्षों की नरेंद्र मोदी सरकार का प्रदर्शन, प्रधानमंत्री की स्वयं की छवि, वर्षों तक संगठन परिवार द्वारा हिंदू समाज के बीच किए गए सकारात्मक कार्य, 22 जनवरी को रामलाल की प्राण प्रतिष्ठा, विरोधियों द्वारा हिंदुत्व को लेकर उपेक्षा या प्रहार का व्यवहार तथा अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों का वोट लेने के लिए विपक्षी दलों की प्रतिस्पर्धा भाजपा के पक्ष में ऐसा आधार बनाती है जिसका कोई विकल्प नहीं। भाजपा के समर्थकों में एक बड़ा वर्ग विचारधारा के कारण जुड़ाव रखता है और पिछले कुछ वर्षों के कार्यों के कारण हिंदुओं के अंदर हिंदुत्व एवं भारतीय राष्ट्रभाव की चेतना प्रबल हुई है। वह बहस करते हैं कि आखिर भाजपा नहीं होती तो क्या अयोध्या में राम मंदिर बनता और ऐसी प्राण प्रतिष्ठा होती? वे धारा 370 से लेकर समान नागरिक संहिता, तीन तलाक कानून, नागरिकता संशोधन कानून आदि की चर्चा करते हैं। नागरिकता संशोधन कानून का तो आईएनडीआईए के ज्यादातर दलों ने विरोध किया है। उन्हें लगता है कि घातक अल्पसंख्यकवाद पर अगर किसी पार्टी की सरकार द्वारा नियंत्रण लगा है तो भाजपा ही है। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार के प्रभावों के कारण जिन माफियाओं पर सरकारें उनके समुदाय के कारण हाथ डालने से बचतीं थी वे मटियामेट हुए हैं,सड़कों पर नमाज पढ़ना बंद हुआ है। देश के कई राज्यों ने बाद में इसका अनुसरण किया। स्वाभाविक ही उन्हें लगता है कि आने वाले समय में कोई पार्टी अगर इन सब पर काम कर सकती है तो वह भाजपा ही है। दूसरी ओर सामाजिक न्याय एवं विकास को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार ने जिस तरह से व्यावहारिक रूप दिया है उसका बड़ा आकर्षण समाज के हर वर्ग में है। पहले नेता बाबा साहब अंबेडकर का नाम लेते थे जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में उनसे जुड़े पांच प्रमुख स्थलों का ऐसा विकास किया गया जिसकी कल्पना नहीं थी और उन्हें एक बड़े तीर्थ और पर्यटन स्थल में बदलने की कोशिश हुई। दलित और आदिवासियों के बीच आप जाएंगे तो नरेंद्र मोदी का समर्थन का एक बड़ा वर्ग आपको खड़ा मिलेगा। प्रधानमंत्री ने 2047 तक भारत को विकसित देश बनाने और अगले 5 वर्षों में विश्व की तीसरी अर्थव्यवस्था बनने का जो नारा दिया है वह भी लोगों के दिलों को छू रहा है। विपक्ष की आलोचना के विपरीत नरेंद्र मोदी की विकास संबंधी नीति तथा समाज के हर वर्ग के आत्मनिर्भर और विकसित होने के लिए दिए गए कार्यक्रमों ने सामान्य गरीबों महिलाओं किसने उद्योगपतियों व्यापारियों छात्रों शिक्षकों कर्मचारियों के बड़े वर्ग के बीच सकारात्मक प्रभाव डाला है। इन सबको लगता है कि तुलनात्मक रूप में भाजपा और नरेंद्र मोदी सरकार ही सही है। यह पहली बार है जब भारत के बाहर भारत विरोधी आतंकवादी दनादन मारे जा रहे हैं और दुनिया के प्रमुख देशों के विरोध के बावजूद ऐसा हो रहा है। यद्यपि सरकार इसे नकारती है पर आम लोगों को लगता है कि यह सब नरेंद्र मोदी सरकार के कारण ही हो रहा है अन्यथा पूर्व की सरकारें उनके समक्ष किंकर्तव्यविमूढ़ रहती थी। स्वयं विपक्ष ने ही ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जिनसे लोगों के सामने इसमें ही चयन करने का विकल्प है कि आपको प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी चाहिए या नहीं? ऐसी स्थिति में मतदाता किस ओर जाएंगे इसकी कल्पना ज्यादा कठिन नहीं है। तमिलनाडु जैसे राज्य में प्रधानमंत्री की रोड शो में उमड़ी भीड़ बता रही है कि किस तरह पिछले 10 वर्षों में भारतीय जनमानस की सोच और व्यवहार में बदलाव आया है।
बसपा ने तीसरे चरण के लिए मायावती-आकाश आनंद सहित 40 स्टार प्रचारकों की लिस्ट की जारी
संवाददाता
लखनऊ। लोकसभा चुनाव के लिए यूपी में सात मई को तीसरे चरण के मतदान के लिए बसपा ने मायावती-आकाश आनंद सहित 40 स्टार प्रचारकों की लिस्ट की जारी की है। इसमें सबसे ऊपर बसपा प्रमुख मायावती का नाम है। इसके बाद आकाश आनंद सतीश चंद्र मिश्रा और
विश्वनाथ पाल का नाम शामिल है। बसपा ने मुनकाद अली उमा शंकर सिंह राजकुमार गौतम और समसुद्दीन राईम को भी स्टार प्रचारकों की लिस्ट में शामिल किया है।
मंगलवार, 16 अप्रैल 2024
उलेमाओं को सक्रिए राजनीति में आना चाहिए
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संसदीय चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। पूरे देश का सियासी पारा दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। मौजूदा केंद्र सरकार सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल अपने पक्ष में कर रही है, लेकिन ऐसा तो हमेशा से होता आया है, अब कुछ ज्यादा ही बेग़ैरती के साथ किया जा रहा है। जिस तरह से विपक्षी दलों और उनके नेताओं पर ईडी की छापेमारी हो रही है उससे पता चलता है कि बीजेपी को छोड़कर बाकी सभी भ्रष्ट और भ्रष्टाचारी हैं। इस माहौल से डरकर भ्रष्टाचारी गण भाजपा के चरणों में शरण लेने को मजबूर हैं। देश में विपक्षी गठबंधन आशा की किरण है। यदि देश की न्यायप्रिय जनता भावनाओं के बजाय तर्क से निर्णय ले तो अच्छे दिन वापस आने की प्रबल आशा है।
हर संसदीय चुनाव की तरह इस बार भी मुसलमानों की स्थिति बेहद नाजुक है। हर राजनीतिक दल उनका वोट मांग रहा है, लेकिन उनके लिए कोई दल संजीदा नहीं है। मुस्लमान जिसे अपना मसीहा समझते हैं वही उनकी पीठ में छुरा घोंप देता है। इसी बीच हमेशा की तरह मुस्लिम नेतृत्व (अपनी क़यादत )की भी बात उठ रही है। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि देश में फासीवादी पार्टियों का गठबंधन "एनडीए" है, तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का गठबंधन" इंडिया" है, मगर मुस्लिम राजनीतिक दलों का कोई गठबंधन नहीं है। जब इस प्रकार की एकता की बात की जाती है तो कहा जाता है कि 15 प्रतिशत मुसलमानों की एकता 85 प्रतिशत हिंदुओं को एकजुट कर देगी। अर्थात इसलिए हम एकजुट नहीं हो रहे हैं' ताकि दूसरा एकजुट न हो जाए ।
मुसलमानों की सबसे बड़ी समस्या राजनीति को लेकर उनकी संकुचित मानसिकता है। उनके दृष्टिकोण से, राजनीति का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। इस दृष्टिकोण ने मुस्लिम उम्माह को सत्ता से वंचित करने में प्रमुख भूमिका निभाई है। मुझे नहीं पता कि यह सिद्धांत क़ुरआन और हदीस के किस पाठ से लिया गया है। मैं तो बस इतना जानता हूं कि पैगंबर मुहम्मद (सल्ल.) के मिशन का उद्देश्य अत्याचारी राजनीतिक व्यवस्था को न्याययिक व्यवस्था से बदलने के अलावा कुछ नहीं था। जो लोग राजनीति को गंदा मानकर हजरत उमर जैसी हुकूमत की उम्मीद करते हैं, वे खुद तो इससे दूर हैं ही और दूसरों की भी हिम्मत तोड़ रहे हैं। जब तक शराफ़त और नैतिकता हाशिए पर रहेगी और लोग पैसे लेकर या बिरयानी खाकर वोट देते रहेंगे, तब तक न कोई क्रांति होगी और न ही कोई मंजर बदलेगा।
मेरी राय है कि सबसे पहले मुस्लिम उम्माह के धार्मिक नेताओं को इस गलत दृष्टिकोण को सुधारना चाहिए जिसका उल्लेख उपरोक्त पंक्ति में किया गया है। उन्हें हर मंच से कहना चाहिए कि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में भाग लेना और सरकार और सत्ता में आना उन की मूलभूत आवश्यकता है और देश के उज्ज्वल भविष्य के लिए अपने वोट के अधिकार का उपयोग करना और सफल होना उन का मौलिक अधिकार है उलेमाओं के एक समूह को व्यावहारिक राजनीति में भाग लेना चाहिए और यह सिद्ध करना चाहिए कि इस्लाम धर्म में राजनीति अपराध नहीं है। यद्यपि उलेमा अब भी भाग ले रहे हैं, परंतु वे राजनीति में भाग लेने को धर्म का विषय नहीं मानते। मौलाना तौकीर रज़ा खान, मौलाना बदरुद्दीन अजमल कासमी, मौलाना महमूद असद मदनी, आदि व्यावहारिक राजनीति में सक्रिय हैं, मौलाना तौकीर रज़ा खान, मौलाना बदरुद्दीन अजमल कासमी की अपनी पार्टियाँ भी हैं। यदि ये सज्जन अपने मंच से मुस्लिम उम्मा को यह विश्वास दिला दें कि वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायपूर्ण क्रांति लाने के लिए राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदारी धर्म की सटीक आवश्यकता है तो यह असम्भव बात नहीं है कि लोगों का मन बदल जाएगा और ग्राम प्रधान से लेकर सांसद तक उलेमा प्रमुखता से भाग लें । आख़िर वो शख्स जो क़ाज़ी शहर हो सकता है। जो हमें परलोक का मार्गदर्शन कर सकता है वह हमारे सांसारिक जीवन का मार्गदर्शक क्यों नहीं हो सकता? वास्तव में इंसानों को खुदा से दूर करने और पृथ्वी को भ्रष्टाचार से भरने के लिए, शैतान ने धर्म और राजनीति को अलग करके और दुनिया की बागडोर अपने हाथों में लेकर यह चाल चली है। पूरी दुनिया में शैतानी व्यवस्था को डर है कि अच्छे, ईमानदार, नेक और धार्मिक लोग सरकार और सत्ता में आकर उनकी मेहनत पर पानी न फेर दें ।इसलिए इबलीस ने अपने कार्यकर्ताओं को अल्लामा इक़बाल के शब्दों में यह सलाह दी है।
मस्त राखो जिक्र-ओ-फिकर-ए-सुभागही में इसे
पुख्ता तर कर दो मिज़ाजे ख़ानक़ाहि में इसे
यह भी जरूरी है कि मुसलमान जिस पार्टी में हों, वहां मुसलमानो की नुमाइन्दगी करें । जब जब वे ऐसा नहीं करते हैं तो क़ौम को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। मुस्लिम लीडरशिप को याद रखना चाहिए कि मुसलमानों ने ही उन्हें नेता बनाया है। कुर्सी मिलने के बाद उन्हें मुसलमानों की समस्याओं से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए, उन्हें अपनी क़ौम के मुद्दों को राजनीतिक पार्टियों के मंच पर पूरी ताकत से उठाना चाहिए। जब एक यादव ,एक दलित ,एक ठाकुर अपनी जाति की समस्यायें उठा सकता है तो मुस्लमान कियों नहीं उठा सकते। इस संबंध में देश के अन्य अल्पसंख्यकों से भी सीख लेने की जरूरत है। मुस्लिम प्रतिनिधि अत्यधिक धर्मनिरपेक्षता और दलीय निष्ठा दिखाते हैं यदि हमारे प्रतिनिधि हमारी आवाज नहीं उठाएंगे तो लोकतांत्रिक संस्थाओं में क़ौम के मुद्दे कौन उठाएगा।
सवाल यह है कि वोट किसे दिया जाए? जाहिर है इसके लिए कोई नियम बनाना मुश्किल है। हर संसदीय क्षेत्र की परिस्थितियां अलग-अलग हैं। वोट आप की अपनी धरोहर है आप अपने मत का इस्तेमाल अपनी इच्छा से करें किसी दबाव व प्रलोभन में न करें, जो लोग मौजूदा सरकार की संकीर्ण मानसिकता को समझते हैं और बदलाव की इच्छा रखते हैं वे इंडिया गठबंधन की ही हिमायत करेंगे। मेरी राय है कि जो पार्टियाँ सभी बाधाओं के बावजूद एनडीए के साथ सहयोग करने से बचती रही हैं, उनके उम्मीदवारों को वोट दिया जा सकता है। जिन पार्टियों ने अतीत में एनडीए के साथ मिलकर सरकार बनाई है, उन्हें किसी भी हालत में वोट नहीं दिया जाना चाहिए, भले ही उनके उम्मीदवर मुसलमान ही क्यों न हों। ऐसे निर्दलीय उम्मीदवारों को वोट न दें जिनका चरित्र संदिग्ध हो और वे स्वार्थी साबित हो सकते हों।
मैं अपने उन मुस्लिम भाइयों से एक बात कहना चाहता हूं जो चुनाव में भाग लेते हैं या भाग लेना चाहते हैं। उन्हें चुनाव और राजनीति में तभी कदम रखना चाहिए जब उनके पास देश और क़ौम के लिए कोई विजन और योजना हो। अन्यथा, किसी और की टांग खींचने या अपनी नाक ऊंची करने की कोशिश में पैसे बर्बाद न करें। आमतौर पर सेवा के नाम पर एक सीट के लिए कई कई मुसलमान खड़े हो जाते हैं, हालांकि उनमें से कुछ जानते हैं कि वे हार जाएंगे, लेकिन अपने अहंकार को संतुष्ट करने के लिए चुनावी मैदान में कूद पड़ते हैं। अंधाधुंध पैसा खर्च किया जाता है, मुस्लिम मतदाता भ्रमित हो जाते हैं और कुछ जगहों पर जहां गैर-एनडीए उम्मीदवार को जीतना चाहिए था, वह हार जाता है।
वर्तमान सरकार ने पिछले दस वर्षों में जुमलेबाज़ी और धार्मिक नफरत बढ़ाने के अलावा कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया है। बेरोजगारी बढ़ गई है, महंगाई दर में वृद्धि हुई है, किसानों की समस्याएं जस की तस हैं । मुसलमान तो दूर की बात है सरकार से देश का कोई भी वर्ग संतुष्ट नहीं है सिवाय उन लोगों के जो मुस्लिम विरोधी कीटाणुओं से संकर्मित हैं। वे न केवल एनडीए को वोट देने के लिए बल्कि अपनी जान देने के लिए भी तैयार हैं। पिछले संसदीय चुनाव में बीजेपी को 37.76% वोट और उसके गठबंधन एनडीए को 45% वोट मिले थे। यानी उनके ख़िलाफ़ वोट ज़्यादा थे। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि बीजेपी की जीत में वोटों के बिखराव ने अहम भूमिका निभाई थी।
शनिवार, 13 अप्रैल 2024
डॉ. आंबेडकर की विरासत के संवाहक नरेंद्र मोदी
गुरुवार, 11 अप्रैल 2024
अपराधियों को नायक बनाने की खतरनाक प्रवृत्ति
अवधेश कुमार
मुख्तार अंसारी के घर नेताओं के जाने का सिलसिला जारी है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने गाजीपुर में मुख्तार अंसारी के घर जाकर उसे महान और मसीहा साबित करने की उसे कोशिश को आगे बढ़ाया जो उसकी मौत के समय से ही चल रहा है। उन्होंने कहा कि जनता ने जेल में रहते हुए मुख्तार को पांच बार विधायक बनाया तो इसका मतलब है कि वह जनता के दुख दर्द में शामिल रहे और उसी का परिणाम है की जनाजे में इतनी अधिक भीड़ उमड़ी । उन्होंने बांदा जेल में मुख्तार की मृत्यु पर सरकार को घेरा तथा उसकी तुलना रूस में विपक्ष के नेता एलेक्सी नवलनी की जेल में हुई मृत्यु से कर दी। उसकी मौत को राजनीतिक दलों, कुछ नेताओं, संगठनों आदि के द्वारा विवादास्पद बनाया जा
चुका है। जेल में किसी भी कैदी की मृत्यु हो कानून के अनुसार उसकी न्यायिक दंडाधिकारी से जांच आवश्यक है। यह अंसारी के मामले में भी है और जांच रिपोर्ट आनी बाकी है। बांदा मेडिकल कॉलेज ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मृत्यु का कारण हार्ट अटैक बताया है। बांदा जेल से भी समाचार यही था कि मुख्तार अंसारी को हार्ट अटैक आया और उसे अस्पताल ले जाया गया। मुख्तार अंसारी ,पिछले लंबे समय से जब भी वीडियो में आया काफी कमजोर दिखता था। ह्वील चेयर पर ही उसके बाहर निकलने या अंदर जाने की तस्वीरें आईं थीं। उसकी मेडिकल रिपोर्ट में अनेक बीमारियां लिखी हुई है। इतनी बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति की कभी भी किसी कारण से मृत्यु हो सकती है।स्वयं को बाहुबल और धनबल की बदौलत बादशाहत कायम करने की मानसिकता में जीने वाले व्यक्ति को जेल में आम अपराधी की तरह व्यवहार से मानसिक आघात लगना बिलकुल स्वाभाविक है। मानसिक तनाव, दबाव, हताशा मनुष्य को अनेक बीमारियों से ग्रस्त करती है। योगी आदित्यनाथ सरकार के कारण बांदा जेल में वह आम सजा प्राप्त कैदी की तरह ही था। हमारे देश के कुछ बुद्धिजीवी, संगठन, नेता, राजनीतिक पार्टियों आदि के लिए पोस्टमार्टम रिपोर्ट का कोई मायने ही नहीं है। प्रचारित यह किया जा रहा है कि उसे मारा गया है। जिस तरह कुछ दिनों से उसके परिवार और वकील यह खबर फैला रहे थे कि उनको धीमा जहर दिया जा रहा है वह रणनीति का अंग था। ऐसा लगता था जैसे उसे जमानत देने या मन मुताबिक किसी जेल में शिफ्ट करने का आधार बनाया जा रहा था। मृत्यु से कुछ दिनों पहले अपने बेटे से बातचीत का उसका ऑडियो वायरल हुआ है जिसमें उसके काफी कमजोर होने का आभास मिल रहा था। वह कह रहा था कि काफी दिनों से उसे मोशन नहीं हुआ और यह भी कि शरीर चला जाएगा लेकिन रुह रहेगा। अंसारी का बेटा उसे दिलासा देते हुए कहता है कि पापा आपका शरीर रहेगा और आप हज भी करेंगे। हम अदालत से गुहार कर रहे हैं और अनुमति मिलते ही आपसे मिलने आएंगे। उसके काफी अस्वस्थ व कमजोर होने के साथ गहरी निराशा में डूबे होने का पता भी ऑडियो से चलता है।
सपा, बसपा ,अन्य पार्टियों ,मजहबी नेताओं आदि ने जिस ढंग का माहौल बनाया है उसने फिर देश के आम व्यक्ति को उद्वेलित किया है। जितनी संख्या में उसके नमाज ए जनाजा में लोग शामिल हुए वह किसी भी समाज के सामान्य अवस्था का द्योतक नहीं है। हमारे देश में कानून सबके लिए बराबर है और सजा देने का काम न्यायालय का ही है। जेल नियम के अनुसार किसी भी कैदी की हर प्रकार से देखभाल कानूनी तौर पर अपरिहार्य है। ऐसा कोई कारण नहीं दिखता जिससे प्रशासन या जेल या सरकार उसे तत्काल अवैध तरीके से मारने का कदम उठाए। इस समय उसकी मृत्यु से किसी को कुछ भी प्राप्त नहीं होने वाला था। ठीक इसके उलट लगातार उसे सजा मिल रही थी और अंतिम समय तक वह जेल में छटपटाते रहता तो इसका संदेश अन्य माफियाओं, बाहुबलियों, अपराधियों के बीच जाता कि ऐसे लोगों के साथ यही होना है। योगी आदित्यनाथ सरकार की दृष्टि से यह स्थिति ज्यादा अनुकूल थी। मृत्यु के बाद उसे गरीबों का मसीहा और नायक बनाया गया वह वाकई भय पैदा करता है। मुख्तार अंसारी न्यायालय द्वारा सिद्ध माफिया, हत्यारा, अपहरणकर्ता , सांप्रदायिक दंगा करने वाला बाहुबली था। 65 से ज्यादा मुकदमे उसके नाम पर थे जिनमें से आठ में उसे सजा दी जा चुकी थी। इनमें दो में उम्र कैद की सजा थी। यानी न्यायालय ने उसे अंतिम सांस तक जेल में रखने की सजा दी थी। तो न्यायालय द्वारा घोषित सजाप्राप्त अपराधी को मुसलमानों का नायक, गरीबों का मसीहा बताया जा रहा है तथा राजनीतिक पार्टियां और नेता उसके पक्ष में बयान दे रहे हैं इससे ज्यादा डरावना किसी देश के लिए कुछ नहीं हो सकता। वे सरकार और पुलिस प्रशासन के साथ न्यायपालिका पर भी प्रश्न उठा रहे हैं। किसी उदारवादी, समाज हितैषी, हिंदू मुस्लिम एकता के लिए काम करने वाले मुसलमान की मृत्यु पर न ऐसी प्रतिक्रियाएं आतीं हैं न इतने लोग इकट्ठे होते हैं और न उनमें किसी तरह की भावविह्वलता और आक्रामकता देखी जाती है। इसके विपरीत चाहे मुख्तार अंसारी हो, बिहार का बाहुबली सैयद सहाबुद्दीन, अतीक अहमद या मुंबई बम विस्फोटों का आतंकवादी टाइगर मेनन …उनके जनाजे में इतने बड़े जन समूह का उभरना मुस्लिम समाज के अंदर बढ़ती ऐसी प्रवृत्ति है जिससे डरने और जिसको हर हाल में रोके जाने की आवश्यकता है।
2013 में मुंबई बम विस्फोटों के अपराधी टाइगर मेनन के जनाजे में मुंबई में उमड़ी भीड़ ने पहली बार देश को हैरत में डाला था। उस समय से यह एक स्थापित प्रवृत्ति दिख रही है। अतीक अहमद हत्या पुलिस की सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्न था और उसका उत्तर देना कठिन था। लेकिन उसकी मृत्यु पर विशेष नमाज जगह-जगह अदा कर जन्नत की दुआ करना किस बात का द्योतक था? डॉ एपीजे अब्दुल कलाम की मृत्यु पर इस तरह का दृश्य नहीं था। वस्तुतः उनके जनाजे में हिंदुओं की संख्या सर्वाधिक थी।
राजनीति के अपराधीकरण के भयावह दौर में ऐसी अपराधी और बाहुबली हमारे नीति नियंता बने जिन्हें उस समय भी जेल में होना चाहिए था। यह राजनीतिक तंत्र की विफलता थी कि जिन्हें जेल में होना चाहिए वो हमारे माननीय विधायक और सांसद बनकर नीति-नियंता बन गए। अतीक,अंसारी या शहाबुद्दीन जैसों की एकमात्र योग्यता यही थी कि वो अपने अपराध के बल पर साम्राज्य कायम कर चुके थे तथा चुनाव जीतने जिताने में सक्षम थे। इसी कारण सपा-बसपा दोनों ने उन्हें महत्व दिया और कांग्रेस पार्टी का भी उन्हें समर्थन था। सैयद शहाबुद्दीन को भी अपराधी होने के बाद ही राजद ने सांसद बना दिया। माना जाता है कि इनके कारण इन पार्टियों को कुछ क्षेत्रों में मुसलमानों के बड़े वर्ग का वोट मिलता था। सांसद और विधायक बनने के बाद इनका अपराध तंत्र ज्यादा फैला और प्रशासन के लिए उनके विरुद्ध कार्रवाई हमेशा कठिन रही। आप सोचिए, भाजपा विधायक कृष्णानंद राय की हत्या मुख्तार ने जेल में रहते हुए कराई और उनकी चुटिया तक काट वाली। एक हिंदू की टिक काटने से ज्यादा सांप्रदायिकता क्या हो सकती है?अतीक भी जेल से अपना पूरा तंत्र चलता था और पुलिस की तरह ही उसके पास इंटेरोगेशन जान देने के ढांचे बने हुए थे। शहाबुद्दीन की भी ऐसी ही स्थिति थी। मऊ दंगे में डीएसपी शैलेंद्र सिंह ने जब मुख्तार को गिरफ्तार किया तो उनका कहना था कि तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने हर तरह उसे छुड़ाने की कोशिश की और उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा। अपने त्यागपत्र में उन्होंने इसकी सार्वजनिक चर्चा की। गाजीपुर जेल में मुख्तार के साथ स्थानीय प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों के बैडमिंटन खेलने तक के प्रमाण हैं। अगर उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार नहीं होती तो अतीक अहमद, मुख्तार अंसारी, बाबू बजरंगी जैसे लोगों का कानून की गिरफ्त में इस तरह आना, मारा जाना या सजा देना कतई संभव ही नहीं होता। जरा सोचिए, मुख्तार अंसारी ने उत्तर प्रदेश के वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय के बड़े भाई अवधेश राय की सरेआम हत्या करवाई और आज कांग्रेस पार्टी उसे अपने एक भी वक्तव्य में अपराधी तक कहने के लिए तैयार नहीं है। ऐसी पार्टियों के होते क्या उसे सजा मिल सकती थी? लेकिन ये पार्टियों भूल रही हैं कि देश ने राजनीति के अपराधीकरण के दौर को पीछे छोड़ दिया और जिन पार्टियों ने ऐसा किया उनकी जगह जहां भी दूसरी पार्टीयों और नेताओं ने जीत का विश्वास दिलाया उन्हें मत दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की केंद्र या फिर राज्यों में सरकार गठित होने के पीछे हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, विकास, जन कल्याण के साथ अपराध और भय मुक्त माहौल की उम्मीद भी बहुत बड़ा कारण रहा है। योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में 2022 में भाजपा सरकार की वापसी का सबसे बड़ा कारण यही था कि अपराधी और माफिया के विरुद्ध कार्रवाई हुई है। योगी आदित्यनाथ केवल उत्तर प्रदेश नहीं, बल्कि देश में आम लोगों के बीच अपराधियों व माफियाओं के विरुद्ध किसी भी दबाव से परे अडिग रहते हुए कठोरता से कार्रवाई करने वाले नायक के रूप में खड़े हुए हैं तो इसी कारण। उप्र में सभी समुदायों का आम आदमी कहता है कि हम अब निर्भय होकर सड़कों पर चल सकते हैं। इसलिए बसपा, सपा या कांग्रेस या अन्य पार्टी अगर मानती है कि ऐसे नेताओं के पक्ष में खड़ा होकर वे मुस्लिम वोटो से फिर विजय प्राप्त कर सत्ता पा लेंगे तो यह सपना अब पूरा नहीं होने वाला। इस व्यवहार के कारण सांप्रदायिक तत्वों द्वारा फैलाया गया खतरनाक झूठ कि मुसलमानों की चुन-चुन कर हत्याएं हो रही हैं- देश में सांप्रदायिक तनाव का वातावरण पैदा कर रहा है। इस तरह की राजनीति और एक्टिविज्म भयभीत करनेवाली है। ऐसे अपराधियों ने न जाने कितने परिवार नष्ट किये, कितनों का जीवन बर्बाद किया और कहां-कहां, कौन-कौन इनसे प्रतिशोध लेने की फिराक में हो कोई नहीं जानता। इनमें से कोई अगर जेल में या जेल के बाहर उनकी हत्या कर दे, हमले कर दे तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। प्रशासन उनकी रक्षा करे यह आवश्यक है किंतु इनके पाप और अपराध इनका पीछा छोड़ देंगे यह संभव नहीं। ऐसे लोग समाज के हीरो नहीं खलनायक हैं। खलनायक को नायक बनाने की सांप्रदायिक और विभाजनकारी प्रवृत्ति के व्रत कर खड़ा होने की आवश्यकता है। हमारे देश में न्याय का शासन है। माफियाओं और अपराधियों को सजा देना न्यायिक प्रक्रिया का अंग है। यह जितना मुसलमान पर लागू होता है उतने ही हिंदू, सिख , जैन, बौद्ध , पारसी , ईसाई सभी पर।
अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली- 110092, मोबाइल 98110 27208
बुधवार, 10 अप्रैल 2024
राष्ट्रवादी चिंतक व वरिष्ठ भाजपा नेता बसंत कुमार को चुनाव लड़ाना चाहती है बसपा
संवाददाता
जौनपुर। जौनपुर जनपद की मछली शहर लोकसभा सीट से भाजपा ने एक बार फिर अपने मौजूदा सांसद बीपी सरोज पर दांव लगाया है। अगर हम लोकसभा चुनाव 2019 की बात करें तो इस सीट से भाजपा के बीपी सरोज ने मात्र 181 वोटों से जीत हासिल की थी। इन्हें इस चुनाव में 4,88,397 वोट मिले थे, जबकि बसपा के त्रिभुवन राम 4,88,216 वोटों के साथ दूसरे स्थान पर रहे और एसबीएसपी के राज नाथ 11,223 वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रहे थे। मोदी लहर में भी इन्हें बसपा के प्रत्याशी त्रिभुवन से कड़ी की टक्कर मिली थी और बीपी सरोज हारते-हारते बच थे। इस बार फिर भाजपा ने इन पर दांव लगाया है पर इनसे मजबूत दावेदारी पेश कर रहे राष्ट्रवादी चिंतक व वरिष्ठ भाजपा नेता बसंत कुमार को टिकट न देकर भाजपा ने सबको चौंका दिया है।
वरिष्ठ भाजपा नेता व राष्ट्रवादी लेखक बसंत कुमार जिन्होंने उप सचिव पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद वर्ष 2011 में भाजपा जॉइन की और विगत 14 वर्षों में बड़े मनोयोग से सेवा की और राष्ट्रवाद और हिंदुत्व पर दर्जनों किताबे लिखी हैं। इन्होंने सांसद कलराज मिश्र के चुनाव प्रचार से लेकर उनके सलाहकार तक का काम किया। भाजपा ने उन्हें जातीय समीकरण की आड़ में कभी भी लोकसभा का टिकट नहीं दिया।
अब ऐसी खबर मिल रही है कि बसपा उन्हें अपना टिकट देकर जौनपुर या मछली शहर से मैदान में उतार सकती है क्योंकि 2019 के चुनाव में बसपा ने जौनपुर सीट पर कब्जा कर लिया था पर मछली शहर सीट सिर्फ 181 वोटों से हार गई थी। ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि बसपा के कुछ वरिष्ठ नेता चाहते हैं कि किसी तरह से बसंत कुमार की सुश्री मायावती से मुलाकात करवाई जाए ताकि वह बहनजी की बात मानकर बसपा जॉइन कर लें। अगर वह किसी तरह से बसपा में आ जाते हैं तो बसपा उन्हें जौनपुर या मछली शहर से अपना प्रत्याशी बनाकर मैदान में उतार सकती है क्योंकि बसपा पिछले लोकसभा चुनाव में मछली शहर सीट पर करीबी हार को इस बार वह जीत में बदलना चाहती है।
यह सर्व विदित है कि बसंत कुमार पुराने भाजपाई हैं और भाजपा कार्यकर्ता उन्हें बहुत सम्मान भी देते हैं। अगर किसी तरह से बसपा के वरिष्ठ नेताओं ने सुश्री मायावती से उनकी मुलाकात करवाकर बसपा जाइन करवा दी तो बसपा उन्हें मछलीशहर या जौनपुर से अपने टिकट पर चुनाव लड़ा सकती है जिससे भाजपा और मछली शहर से सांसद बीपी सरोज की मुश्किल बढ़ सकती है।
आपको बता दें कि जौनपुर की सीट वर्ष 2019 में भी बसपा के खाते में गई थी और मछली शहर सीट पर बीपी सरोज भी बसपा के प्रत्याशी से मात्र 181 मतों से जीत हासिल कर पाए थे। अबदेखना यह है कि बसपा के वरिष्ठ नेता बसंत कुमार को अपने पाले में लाने में सफल हो पाती हैं या नहीं। अगर सफल हो गए तो जौनपुर व मछली शहर में भाजपा व उनके प्रत्याशियों के लिए मुश्किलें बढ़ जाएंगी।
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