गुरुवार, 26 नवंबर 2015

म्यांमार का चुनाव परिणाम उम्मीद पैदा करने वाला

 

अवधेश कुमार

म्यान्मार चुनाव परिणाम उस देश के लिए, हमारे लिए और पूरी दुनिया के लिए महत्वपूर्ण है। वैसे म्यान्मार में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव होना ही अपने आपमें एक बड़ी उपलब्धि तथा पड़ोसी होने के नाते हमारे लिए भी राहत का संदेश देने वाली है। वास्तव में वहां पर्यवेक्षक के रुप में काम कर रहे करीब 10 हजार देशी-विदेशी पर्यवेक्षकों ने माना है कि कुछ सामान्य गड़बड़ियों को छोड़कर मतदान बिल्कुल निष्पक्ष एवं शांतिपूर्ण रहा। जो थोड़ी बहुत गड़बड़िया हुईं उसमें भी सरकार की कोई भूमिका नहीं थी। ऐसा एशिया के चुनावों में सामान्य तौर पर होता है। इस तरह हमें वहां के सैन्य नेतृत्व एवं उसके समर्थन से चल रही सरकार को इसका श्रेय देना चाहिए कि उसने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से किया गया अपना वायदा पूरा किया। 25 वर्ष बाद इस तरह का चुनाव यकीनन कई अपेक्षाएं पैदा करतीं हैं। वास्तव में यह उम्मीद की जा सकती है कि यहां से म्यान्मार में संसदीय लोकतंत्र के एक नए दौर की शुरुआत होगी जो इस जन भावनाओं के अनुरुप शासन संचालन करेगी एवं इसके सही भविष्य का निर्माण कर सकेगी। नए दौर की शुरुआत केवल चुनाव की निष्पक्षता एवं भारी संख्या में लोगों की भागीदारी के रुप में ही नहीं हुई, आंग सान सू की की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) को मिली भारी सफलता भी वहां के लिए एक नए दौर के आगाज का ही संकेत है। वहां सैनिक शासकों यानी जुंटा के समर्थन से सत्तारुढ़ यूनियन सॉलिडरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी (यूएसडीपी) के खिलाफ लोगों का असंतोष मतदान के द्वारा साफ उभरकर सामने आया है और उसने पहले दौर में ही अपनी हार स्वीकार कर ली। व्यावसायिक राजधानी और यूएसडीपी के गढ़ माने जाने वाले यंगून में ही 16 सीटों की मतगणना में आए नतीजों में से 15 एनएलडी के पक्ष में आए। यूएसडीपी के कार्यकारी अध्यक्ष भी हिंथादा संसदीय क्षेत्र में हार गए।

 कम से कम अब 1990 की उस स्थिति की पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए जब चुनाव में एनएलडी को मिली सफलता को नकारते हुए सैनिक जुंटा ने उसे खारिज कर अपने हाथों में शासन कायम रखा एवं सू की को जेल में डाल दिया था। सू की 20 वर्षों तक जेल में रहीं। उम्मीद है कि सैन्य तंत्र जनता की आवाज को समझते हुए आसानी से सत्ता का लोकतांत्रिक हस्तांतरण होने देगा और इसे काम भी करने देगा। यूएसडीपी ने सार्वजनिक तौर पर हार स्वीकारते हुए कहा कि हम इस स्थिति के लिए तैयार हैं। विपक्ष की भूमिका के लिए उसकी मानसिक तैयारी लोकतंत्र की सफलता की आशा पैदा करती है। लेकिन करीब आधी सदी तक सैन्य शासन झेलने वाले देश में आशंकाएं पूरी तरह दूर नहीं हो सकतीं। यानी सैनिक शासन के इतिहास को देखते हुए जब तक सत्ता का हस्तांतरण नहीं हो जाता और कुछ वर्ष निर्वाचित सरकार स्वतंत्रतापूर्वक काम नहीं कर लेती हम आश्वस्त नहीं हो सकते। हालांकि सैन्य तंत्र को यह समझ में आ गया है कि देश में लोगों के अंदर लोकतंत्र को लेकर समर्थन व उत्साह दोनों है। आखिर तीन स्तरीय चुनाव में 91 राजनीतिक दलों के 6038 तथा 310 निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरे। यह सामान्य बात नहीं है। यह तो जानी हुई बात थी कि मुख्य मुकाबला एनएलडी एवं यूएसडीपी के बीच ही होगा और वही हुआ। किंतु इतनी अधिक पार्टियों और उम्मीदवारों का उतरना भी म्यान्मार के बदलते राजनीतिक माहौल का प्रमाण है। साफ है कि वहां सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया की स्थिति पिछले पांच वर्षों में कायम हुई है।

संभव था पिछले चुनाव में ही कुछ परिवर्तन हो जाता। लेकिन उस समय तक सैनिक जुंटा ने वैसी स्थिति पैदा नहीं की थी जिससे दूसरी पार्टियां चुनाव की निष्पक्षता को लेकर आश्वस्त हो सके। इसलिए 2010 में सू की की एनएलडी ने चुनाव मंे धांधली सहित कई आरोप लगाते हुए बहिष्कार किया था। जब वह मैदान से ही हट गई तो फिर एकमात्र सशक्त पार्टी यूएसडीपी रह गई थी जिसको बहुमत मिल गया। इसे सेना समर्थित पार्टी माना जाता है। 2011 से म्यान्मार इसके शासन में चल रहा था। हालांकि यह सच भी स्वीकार करना होगा कि इसने किसी लोकतांत्रिक आंदोलन को कुचलने या लोकतांत्रिक गतिविधियों पर अंकुश लगाने की कोशिश नहीं की। इसने सामान्य तौर से शासन का संचालन किया है। कहने का अर्थ यह कि सैन्य समर्थित शासन होते हुए भी वहां लोकतंत्र का माहौल कामय हो चुका है।  अब इसे पीछे ले जाने के विरुद्व प्रतिक्रिया हो सकती है। इसलिए सैन्य नेतृत्व ऐसा करने की चेष्टा नहीं करेगा। वैसे यह ध्यान रखने की बात है कि म्यान्मार के संविधान में वहां की संसद के केवल 75 प्रतिशत सीटों का ही निर्वाचत होता है। शेष 25 प्रतिशत अनिर्वाचित सैन्य प्रतिनिधियों के लिए आरक्षित है जिसका मनोनयन सेना करती है। तो नीतियां बनाने में यानी संसद के फैसलों में इनकी भूमिका रहेगी। इसका वहां अभी तक ज्यादा विरोध नहीं है। आप देखेंगे कि दक्षिण पूर्व एशिया के ज्यादातर देशों में लोकतंत्र का स्वरुप बिल्कुल वैसा नहीं है जो हमारे यहां हैं। अभी राजा का तंत्र है और उनकी भूमिका वहां होती है। इसलिए म्यान्मार को हम अपवाद नहीं मान सकते।

भारत में भी सू की की पार्टी को बहुमत मिलने पर हर्ष प्रकट किया गया है। लेकिन म्यान्मार के संवैधानिक व्यवस्था मेंऐसे पहलू हैं जो भारी बहुमत के बावजूद सू की को सीधे सत्ता संभालने से रोकते हैं। संविधान के अनुसार विदेशों में जन्मे बच्चों के माता-पिता देश के राष्ट्रपति नहीं बन सकते। सू की के दोनों बच्चे विदेशों में पैदा हुए है। दूसरे, वहां राष्ट्रपति बनने के लिए संसद में दो तिहाई स्थान पाना अनिवार्य है। जैसा हमने कहा संसद में एक चौथाई सीटें अगर गैर निर्वाचित सैनिक प्रतिनिधियों के लिए आरक्षित हैं तो एनएलडी के लिए संसद में दो तिहाई बहुमत पाना जरा कठिन लगता है। लेकिन अब साफ है कि वह उस सीमा रेखा को पार कर जाएगी।  इस तरह सत्ता का केन्द्र एनएलडी का बनना निश्चित है। हां, सू की प्रत्यक्ष तौर पर सत्ता का नेतृत्व नहीं कर सकतीं। यह बात अलग है कि भले वो राष्ट्रपति न बने किंतु सत्ता पर उनका प्रभाव कायम रहेगा। उन्होंने इसे स्वीकार किया भी है कि वो नीतियों से लेकर प्रत्येक स्तर पर सत्ता को प्रभावित करेगी। मार्च में राष्ट्रपति का निर्वाचन होना है। वास्तव में एनएलडी की सफलता सू की के समर्थन की सफलता है। इसलिए राष्ट्रपति कोई भी हो उनका प्रभाव कायम रहेगा। म्यान्मार सहित दुनिया को अपेक्षा है कि वो उसे एक शुद्व संतुलित लोकतांत्रिक देश में परिणत करेंगी जहां सेना और नागरिक शासन के बीच मान्य दूरी होगी तथा जाति, संप्रदाय, मजहब के परे सबको समानता के अधिकार हासिल होंगे। यह भारत सहित दूसरे देशों का भी दायित्व है कि नए शासन को पूरा सहयोग दे और सैन्य तंत्र को भी अनावश्यक खलनायक न बनाया जाए।

भारत ने म्यान्मार चुनाव प्रक्रिया एवं परिणाम दोनों का स्वागत किया है। हमारे पर्यवेक्षक भी वहां उपस्थित थे। हाल के वर्षों में म्यान्मार से हमारे संबंध बेहतर हुए हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दक्षिण पूर्व एशिया के सम्मेलन में वहां गए थे और वहां के नेताओं से मुलाकात कर बातचीत की। सू की का वैसे भी भारत से गहरा लगाव रहा है। उनकी आरंभिक पढ़ाई भारत में ही हुई। उनके जेल में रहने के दौरान लोकतंत्र के संघर्ष का प्रमुख केन्द्र भारत ही था। भारत ने कभी भी लोकतांत्रिक संघर्ष के लिए भारत में आत्मनिर्वासित जीवन जीने वालों के सामने बाधाएं उत्पन्न नहीं कीं। जेल से रिहा होने के बाद सू की स्वयं कई बार भारत आ चुकीं हैं। इसलिए यह उम्मीद करनी चाहिए कि भारत के साथ म्यान्मार के संबंध प्रगाढ़ होंगे। वहां गैस पाइप लाइन सहित कई परियोजनाओं को लेकर भारत के सामने समस्याएं पैदा हुई जो दूर होंगी। साथ ही पूर्वोत्तर में आतंकवादी समूहांें ने म्यान्मार के जंगलों को अपने लिए जिस तरह शरणगाह बनाया हुआ है उसका भी अंत हो सकेगा।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

 

गुरुवार, 19 नवंबर 2015

कहां तक जाएगा भाजपा का ये बवण्डर

 

अवधेश कुमार

भाजपा एक बार फिर आंतरिक बवण्डर का शिकार हो रही है। 2004 के बाद से भाजपा में ऐसे बवण्डर कई बार उठे लेकिन इस समय यह अकल्पनीय था। कारण, बिहार में भले पार्टी को करारी पराजय मिली है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता अभी असंदिग्ध है। पार्टी में अभी उनकी तुलना मेें कोई ऐसा कोई नेता नहीं जो कि अपनी बदौलत कोई जीत  दिला सके। मोदी की लोकप्रियता की आभा में इतनी चमचमाहट दिखती थी कि उनके धूर विरोधी भी उसमें चौंधिया जाते थे। लेकिन इस समय लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार और यशवंत सिन्हा ने जो तेवर दिखाया है उसका अर्थ कई प्रकार से निकाला जा सकता है। इनके पूर्व बेगूसराय से सांसद एवं बिहार के वरिष्ठ नेता भोला सिंह ने तो नाम लेकर प्रधानमंत्री एवं अध्यक्ष अमित शाह को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। हो सकता है कुछ और बयान सामने आ जाए। प्रश्न है कि ये बवण्डर आखिर किसी सीमा तक जाएंगे? क्या इससे पार्टी में हम कुछ ईमानदार आत्मचिंतन की उम्मीद कर सकते हैं? क्या ये नेता इतनी हैसियत रखते हैं कि जो कुछ इनने अपने बयान में लिखा है उसे तार्किक परिणति तक ले जाने के लिए दृढ़ संकल्प के साथ खड़े हो सकें और इनको पार्टी के अंदर नेताओं-कार्यकर्ताओं का समर्थन मिले?

कांग्रेस से लेकर विरोधी पार्टियों का बयान इसकी गवाह है कि वो ऐसे अवसर की प्रतीक्षा में थे। पार्टी के बाहर से तो इनको समर्थन मिल रहा है लेकिन उसका कारण केवल इतना है कि ये भाजपा में आंतरिक संघर्ष को और तेज होने देखना चाहते हैं ताकि मोदी की आभा मलीन हो। मोदी इनके सत्ता तक जाने के मार्ग की अब भी बड़ा बाधा हैं। बहरहाल, पहले यह देखें कि इनने अपने लिखित बयान में जो कुछ कहा है कि उसका अर्थ क्या है? इन्होंने मुख्यतः चार बातें कहीं हैं। एक पार्टी ने दिल्ली में मिली हार से कुछ नहीं सीखा। दो, बिहार में जो हार हुई है उसकी  जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। तीन, हार के कारणों की पूरी समीक्षा हो। और चार, इस समीक्षा में वो लोग ना शामिल हों जो बिहार चुनाव प्रबंधन में शामिल थे। गहराई से देखें तो ये चारों बातें एक ही हैं। इसमें मुख्य बात यही है कि हार की ईमानदार समीक्षा हो ताकि जो जिम्मेवार हैं उनको चिन्हित किया जाए। जाहिर है, यदि समीक्षा वही लोग करेंगे जो कि चुनाव की व्यवस्था में शामिल थे तो उसमें ईमानदारी नहीं होगी इसलिए अलग के लोग करें? तो कौन करे? क्या किसी एजेंसी से इसे कराया जाएगा? या ये लोग स्वयं इसकी समीक्षा करना चाहते हैं ताकि अपने अनुसार उसका निष्कर्ष लाकर वर्तमान नेतृत्व को कठघरे में खड़ा कर दिया जाए। वैसे देखा जाए तो यशवंत सिन्हा के हस्ताक्षर से भेजे गए इस बयान में पूरे शीर्ष नेतृत्च यानी संसदीय बोर्ड की ईमानदारी पर प्रश्न खड़ा कर दिया गया है। जो लोग चुनाव पंबंधन में शामिल थे वे समीक्षा न करें, इसका अर्थ आखिर क्या है? फिर इसी बयान में आगे कहा गया है कि इस हार के लिए सब को जिम्मेदार बताना खुद को बचाना है। ध्यान रखिए 9 नवंबर को पार्टी की संसदीय बोर्ड की बैठक के बाद अरुण जेटली ने पत्रकार वार्ता में यही कहा कि जीत और हार दोनों सामूहिक होते हैं। निस्संदेह, ऐसे बयानों का कोई अर्थ नहीं है। यह पार्टी की दुर्दशा का आवश्यक निर्ममता से पोस्टमार्टम करने से बचना है। जब आप पूरी निर्ममता से पोस्टमार्टम ही नहीं करेंगे, समीक्षा ही नहीं करेंगे तो फिर न आप सही कारण तक पहुंच पाएंगे और जब कारण तक ही नहीं जाएंगे तो फिर सुधार एवं बदलाव कहां से हो सकेगा। इसलिए संसदीय बोर्ड के निष्कर्ष पर बिना नाम लिए इन बुजूर्ग नेताओं ने जो प्रश्न उठाए उसे एकबारगी खारिज नहीं किया जा सकता।

लेकिन ये लोग अपना निष्कर्ष भी दे रहे हैं। मसलन, इनने यह भी कह दिया कि पिछले एक साल में पार्टी को प्रभावहीन किया गया। लेकिन ये बयान बिल्कुल अस्पष्ट श्रेणी का है। इनके समानांतर भोला सिंह ने तो सीधा कह दिया कि भाजपा ने हार नहीं की आत्महत्या की है और उसके लिए नेतृत्व जिम्मेवार हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री भी उसमें शामिल हैं तो उन्होंने कहा बिल्कुल। क्या उनको त्यागपत्र देना चाहिए तो उनका उत्तर था उनकी नैतिक शक्ति पर निर्भर है। उनका कहना था कि प्रधानमंत्री किसी की बेटी-बेटा पर प्रश्न उठाएगा, तंत्र मंत्र की बात करेगा यह प्रधानमंत्री का स्तर है नेता बोल सकता है प्रधानमंत्री नहीं। यह बुजूर्ग नेताओं के  अस्पष्ट बयानों से परे एकदम सीधा-सपाट है। भोला सिंह पुरानी पीढ़ी के नेता है जब भाजपा के नेताआंे की पहचान उनके संयमित और संतुलित बयानों से होती थी और दूसरी पार्टियां भी उनके सामने निरुत्तर हो जाते थे। वे ऐसा बोल सकते है। उस तरह बोलने का साहस आसानी से आज के समय कोई नहीं करता। बुजूर्ग नेताओं में आडवाणी और जोशी मार्गदर्शक मंडल के सदस्य भी हैं।

इसे देखने का दो नजरिया हो सकता है। एक नजरिया यह है कि पार्टियों में खुलकर अपनी बात कहने की सामान्य लोकतांत्रिक प्रवृृत्ति का लोप हो गया है जो केवल पार्टी के लिए ही नहीं हमारे लोकतंत्र के लिए भी विनाशकारी परिणामों वाला साबित हो रहा है। उसमे ंयदि भोला सिंह जैसे लोग इस तरह स्पष्ट शब्दों में अपने नेतृत्व की जिन बातों को वे गलत मानते हैं उनको सुस्पष्ट ढंग से मुखर होकर रख रहे हैं तो इसे अच्छा संकेत मानना चाहिए। हम आप उनसे सहमत हो या नहीं, पर सभ्य भाषा में इस तरह की आंतरिक आलोचना को प्रोत्साहन मिलना चाहिए। इससे पार्टी में खुलापन आएगा, शीर्ष नेताआंे की निचले स्तर के नेताओं और कार्यकर्ताओं से दूरियां घटेंगी, पार्टी में खुलकर बहस की स्थिति पैदा होगी जो पार्टी एवं पार्टी आधारित हमारे लोकतंत्र को ज्यादा स्वस्थ व मजबूत बनाएगा। यह देखना होगा भाजपा नेतृत्व भोला सिंह के साथ क्या व्यवहार करता है। लेकिन बुजूर्ग नेताओं के बयानों को इसी श्रेणी का नहीं माना जा सकता। मुरली मनोहर जोशी के घर हुई बैठक में अरुण शौरी भी शामिल थे जिनने पिछले दिनों एक कार्यक्रम में मोदी की नीतियों की आलोचना करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इशारा किया एवं कहा कि देश डॉ. साहब यानी इनकी प्रतीक्षा करने लगा है। उनका निशाना कहीं और है। शौरी कभी संगठन के आदमी रहे भी नहीं और भाजपा पार्टी के लिए कभी कोई काम नहीं किया। उस बैठक में के. एन. गोविन्दाचार्य भी उपस्थित थे। यह हैरत मेें डालने वाला है, क्योंकि वो सक्रिय राजनीति से अपने को दूर कर चूके हैं तथा जब वे भाजपा में थे जोशी से उनका रिश्ता छत्तीस का था।

बहरहाल, ये कहते हैं कि एक साल में पार्टी को प्रभावहीन कर दिया गया तो इसका यह अर्थ निकलता है कि एक साल पहले पार्टी बिल्कुल सही रास्ते पर चल रही थी एवं प्रभावहीन नहीं थी। तो फिर 2004 की बुरी पराजय क्यों हुई? 2009 में पराजय क्यों हुई? पार्टी में 2004 से लेकर 2009 तक लगातार विद्रोह क्यों होते रहे? अनके राज्यांे के चुनाव भाजपा क्यों हारी? एक समय तो आडवाणी और वाजपेयी ही पार्टी के मुख्य निर्णायक थे और उसी दौर में पार्टी सत्ता तक पहंुंची फिर ढलान पर भी आ गई और नेताओं ने विद्रोह किया, कई को पार्टी से निकालना पड़ा। वास्तव में यह सच है कि पार्टी का सांगठनिक ढांचा आम कार्यकर्ताओं के लिए अलोकतांत्रिक है,पर पार्टी की आंतरिक दुर्दशा पुरानी है जिसमें आडवाणी की भूमिका सर्वप्रमुख है, क्योंकि वाजपेयी और उनकी जोडी जो चाहती कर सकती थी। इन पर कोई प्रश्न उठाने वाला नहीं था। सच यह है कि 2014 में आकर मोदी ने अपने अभियानों से जो आलोड़न पैदा किया उसने भाजपा की आंतरिक जड़ता, निरपेक्ष हो चुके कार्यकर्ताओं-समर्थकों को आलोड़ित किया जा सका तथा फिर ऐतिहासिक जीत प्राप्त की। आडवाणी, जोशी, शांताकुमार एवं यशवंत सिन्हा सबको प्रश्न उठाने एवं नेतृत्व से कुछ मांग करने का अधिकार है, लेकिन छायावादी शैली में बात करने की जगह वो सीधे अपनी बात क्यों नहीं कहते कि पार्टी किस तरह और क्यों प्रभावहीन हुई, वे इसके लिए किसे जिम्मेवार मानते हैं, किस तरह की समीक्षा चाहते हैं, उनकी नजर में पराजय के क्या कारण हैं, इसके लिए क्या और कौन-कौन दोषी है....आदि पर खुलकर बात करते। जब ये खुलकर इतनी बात नहीं कर सकते तो फिर ये अपनी बातों को किसी तार्किक परिणति तक ले जाएंगे इसका कोई विशेष असर होगा ऐसा मानने का कोई कारण नहीं होगा। भविष्य का नहीं कह सकते लेकिन इस समय तो यही लगता है कि यह केवल मीडिया और आम लोगों के बीच चर्चा तक सीमित बवण्डर बनकर रह जाएगा। पार्टी की ओर से तीन पूर्व अध्यक्ष वेंकैया नायडू, राजनाथ सिंह एवं नितीन गडकरी ने बयान जारी कर साफ कर ही दिया है कि सामूहिक जिम्मेवारी अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की परंपरा है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

यह मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने का जनादेश नहीं है

 

अवधेश कुमार

चुनाव में जय और पराजय होती है और पराजित होने वाले की राजनीति, मनोदशा पर उसका बहुआयामी असर पड़ना स्वाभाविक है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार जिस अवस्था में है उसमें उनके लिए बिहार विजय बहुत जरुरी था। राज्य सभा में सरकार को आवश्यक विधेयकों को पारित कराने में जिस ढंग की समस्याओं का सामना करना पड़ा है, जिस तरह कांग्रेस ने कठोर रणनीति अपना ली है कि हमको सरकार के काम के रास्ते बस बाधा डालनी है उसमें यह बहुत बड़ा धक्का है। राज्य सभा में अगले दो वर्षों में बहुमत की संभावना का एक आधार बिहार हो सकता था जो नहीं हुआ। दूसरे, इसका मनोवैज्ञानिक असर कांग्रेस सहित राजनीतिक विरोधियों के हौंसला बढ़ने के रुप में आया है तथा मीडिया सहित अन्य क्षेत्रों में मोदी एवं भाजपा के प्रति वितृष्णा ग्रंथि से ग्रसित वर्ग को लग रहा है कि अगर संयुक्त होकर हमला बोला जाए तो मोदी को परास्त किया जा सकता है। तो वे सरकार के विपक्ष में ज्यादा आक्रामक एवं असहिष्णु होंगे। मोदी सरकार एवं भाजपा को इसका सामना करना पड़ेगा। ऐसी और भी समस्याएं और चुनौतियां मोदी सरकार एवं भाजपा के सामने है जिससे निपटने में उनको पहले से ज्यादा कठिनाइयां पेश आएंगी। किंतु कुल मिलाकर विरोधी इस चुनाव परिणाम को जरुरत से ज्यादा खींचकर उसका अर्थ ऐसे निकाल रहे हैं जैसे मोदी सरकार एवं भाजपा के लिए कायमत के दिन आ गए हैं एवं जनता ने उन्हें उसे कयामत तक पहुंचाने का जनादेश दे दिया है।

यह बिहार प्रदेश के विधानसभा चुनाव का परिणाम है जहां विरोधियों की एकजुटता और जातीय गोलबंदी के अनुरुप अपनी रणनीति बनाने में विफलता ने भाजपा को पराजित किया है। क्या बिहार की जनता ने नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव एवं कांग्रेस को केन्द्र मे मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने या उनको काम न करने देने का जनादेश दिया है? क्या इनने कहा था कि हमें आप इसलिए वोट दीजिए कि हम मोदी सरकार को केन्द्र से खत्म करना चाहते हैं, हम उसे किसी सूरत में काम नहीं करने देना चाहते? बहुत सामान्य सी बात है कि यह चुनाव समाजिक-सांप्रदायिक समीकरणों का चुनाव था। एक उदाहरण लीजिए। मोटा मोटी मुसलमान एवं यादव यानी एमवाई संयोग वाली करीब 70 सीटें हैं जिनमें से करीब 55 सीटंें जद यू, राजद एवं कांग्रेस के गठबंधन ने जीता। लालू यादव ने 48 यादवों को टिकट दिया जिसमें से तीन चौथाई से थोड़ा कम जीते हैं। भाजपा की पराजय एवं नीतीश के नेतृत्व वाले गठबंधन की जीत हुई है यह सच है लेकिन इसको इससे ज्यादा समझ लेना गलत होगा और राजनीतिक रुप से भी सही नहीं होगा। लालू यादव कह रहे हैं कि नीतीश अब यहां सरकार चलाएंगे और हम देश भर में मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए निकल पड़ेंगे। देश में लालू यादव का बिहार के अलावा और कहां जनाधार है? उत्तर प्रदेश में यदि मुलायम सिह आपके साथ होते तो भाषण और पत्रकार वार्ता का मंच मिल सकता था। पूर्वी उत्तर प्रदेश में दो चार सभाए हो सकतीं हैं....पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी अजीत सिंह, कांग्रेस के सहयोग से कुछ हो सकता है, लेकिन इससे मोदी सरकार के सेहत पर असर होगा ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है।

दूसरे, जो मोदी विरोधी पार्टियां हैं उनमें से कितने लालू यादव के नेतृत्व में ऐसे किसी अभियान का साथ देंगे? ममता बनर्जी मोदी सरकार के खिलाफ हो सकतीं हैं, पर उनके सामने चुनाव है वो चुनाव देखेंगी या लालू यादव के एजेंडा पर काम करेंगी? वैसे भी ममता का स्वभाव किसी के नेतृत्व को आसानी से स्वीकार करने का नहीं है। कांग्रेस और लालू यादव में वैसे भी रिश्ते तल्ख हैं। क्या जो राहुल गांधी लालू यादव के साथ मंच साझा करने से बच रहे थे वे उनके साथ मंच साझा करेंगे?क्या वे लालू का नेतृत्व स्वीकार करेंगे? लालू यादव अभी सजायाफ्ता हैं। जब तक उनको न्यायालय बरी नहीं कर देता, या फिर उनको सजा नहीं हो जाती, तब तक वे बैठकर चुपचाप रह नहीं सकते। संसद में उनके जाने का रास्ता बंद है तो वो कोई अभियान चलाने का विचार कर सकते हैं, केन्द्र में मोदी और भाजपा विरोधी एकजुटता होगी इसमें भी दो राय नहीं। कुछ पहले से ही है। लेकिन हम न भूलें कि भाजपा विरोधी ध्रुवीकरण सन 1990 के दशक से है और भारतीय राजनीति ने उसके सारे दौर देखें हैं। 1996 में सबसे बड़ी पार्टी होते हुए भी भाजपा को बाहर रखने के नाम पर डेढ़ वर्ष की संयंुक्त मोर्चा सरकार चली जिसमें दो प्रधानमंत्री हुए। संप्रग सरकार का 2004 में गठन ही भाजपा विरोधी ध्रुवीकरण के कारण संभव हुआ। अगला आम चुनाव 2019 में होना है। उस समय तक भारत की राजनीति की क्या परिस्थितियां होती हैं तब तक बिहार सरकार का प्रदर्शन कैसा रहता है, लालू और नीतीश कुमार के संबंध कैसे रहते हैं, सबसे ज्यादा सीटें पाने के बाद लालू यादव नीतीश को मुक्त हस्त से काम करने देते हैं या नहीं........इन सब पर बहुत कुछ निर्भर करेगा।

 इस बीच कई राज्यों के चुनाव हो चुके होंगे। अगले वर्ष तमिलनाडु, असम, पश्चिम बंगाल पुड्डुचेरी के चुनाव है। उसमें असम में कांग्रेस पार्टी टूट चुकी है। भारी संख्या में विधायक एवं नेता भाजपा में शामिल हो रहे हैं। असम के 14 लोकसभा में से 7 भाजपा ने जीती और उसका मत प्रतिशत कांग्रेस से 7 प्रतिशत ज्यादा रहा। तो वहां कांग्रेस के लिए बड़ा खतरा मंडरा रहा है। लगातार तीन बार का सत्ता विरोधी रुझाान है सो अलग। वहां लालू और नीतीश की बैसाखी कांग्रेस को मिल पाएगी क्या? लालू यादव वहां क्या कर पाएंगे? तमिलनाडु में कांग्रेस की सफलता की गुंजाइश शून्य है तथा लालू, नीतीश या मोदी के दूसरे विरोधी वहां ज्यादा कुछ कर नहीं सकते। पश्चिम बंगाल में भाजपा कमजोर है तो कांग्रेस भी मजबूत नहीं है। वाम मोर्चा मोदी विरोधी अभियान में केन्द्र में तो कांग्रेस या लालू का साथ दे सकता है, लेकिन वहां के चुनाव में वह इनके साथ गठबंधन नहीं कर सकता। बिहार में भी वाम मोर्चा ने अपना अलग वजूद बनाने की कोशिश की। केरल में स्थानीय निकाय के चुनाव में भाजपा ने पहली बार रेखांकित करने वाला प्रदर्शन किया है। विधानसभा चुनाव में वह कितना कर पाएगी कहना कठिन है, पर वहां लालू का तो कुछ नहीं है। कांग्रेस को वहां उनकी आवश्यकता भी नहीं है। वहां कांग्रेस सरकार के जाने की संभावना है। तो जरा इन चुनावों के बाद के माहौल की कल्पना करिए। क्या इस समय ये नेतागण जो माहौल बना रहे हैं वही माहौल इन राज्यों के चुनावों के बाद रह सकेगा? फिर 2017 में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर, हिमाचल प्रदेश एवं गुजरात के चुनाव हैं। सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में कांग्रेस आज कहां है और जहां है वहां से आगे बढ़ने के लिए वह क्या कर रही है? मान लीजिए भाजपा का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा, बसपा और सपा के बीच ही मुकाबला हुआ तो उससे कांग्रेस, लालू को क्या मिलने वाला है? उ. प्र. में कांग्रेस का संभावित कमजोर प्रदर्शन उसे उस मानसिक अवस्था में कुछ समय नहीं रहने देगा कि वह मोदी सरकार पर आज की तरह हमला कर सके। हां, अगर उसने पंजाब में सरकार बना ली तो कुछ कहने की हालत में होगी। हिमाचल में हर बार सत्ता बदलती है। अगर यह परंपरा नहीं टूटी तो 2017 में बारी भाजपा की है। गुजरात में कांग्रेस अभी उस अवस्था में नहीं है कि भाजपा से सत्ता छीन सके। उसके बाद 2018 में राजस्थान, छत्तीसगढ़ एवं मध्यप्रदेश का चुनाव आएगा?

इन सबका जिक्र यहां इसलिए आवश्यक है कि एक प्रदेश के चुनाव से उत्साहित होने वालों को जरा भविष्य के दृश्य की याद आ जाए। भारत इतना छोटा देश नहीं है कि एक प्रदेश के चुनाव में विजय से आप केन्द्र सरकार के विरुद्ध एकदम ऐसा वातावरण बना देंगे कि उसका काम करना कठिन हो जाए या उसके अस्तित्व पर खतरा हो जाए। मोदी सरकार के पास लोकसभा में पूर्ण बहुमत है तो उसे कार्यकाल पूरा करना ही है। बिहार में नीतीश कुमार ने जनता से जो सात सूत्री वायदे किए, 2 लाख 70 हजार करोड़ की योजना रखी और जो दूसरे वायदे किए उनके पूरा करने के लिए जनादेश मिला है। बिहार सरकार को ठीक से चलाएं, वहां की आर्थिक-सामाजिक समस्या को दूर करने के लिए काम करें और लालू यादव उसमें साझेदार होने के नाते सहयोग करे। इस जनादेश को इससे ज्यादा समझना उनके लिए भी आत्मघाती साबित हो सकता है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027207

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