-कभी भी कट सकती है आपकी जेब
रविवार, 30 मार्च 2014
सावधान: मेट्रो स्टेशन के एस्कलेटर भी सुरक्षित नहीं
गुरुवार, 27 मार्च 2014
यह कैसी राजनीति है
वाराणसी में अरविन्द केजरीवाल का रोड शो और रैली जिस तरह आयोजित हुई उसे किस रुप में विश्लेषित किया जाए? वाराणसी में इसके पूर्व भी रैलियां हुईं, आगे भी होंगी...उनमें संख्या भी इससे ज्यादा हो सकती है.....लेकिन इतना तापमान और पूरी मीडिया का ऐसा संकेन्द्रण....शायद ही हो। तो फिर इसमें ऐसा क्या था जिस कारण यह इतनी बड़ी घटना बन गई? इसके पूर्व नरेन्द्र मोदी की यहां बहुत बड़ी रैली हो चुकी है, सपा ने भी यहां बड़ी रैली की......सबकी खबरें हमारे पास आईं, लेकिन अरविन्द की रैली के साथ ऐसा माहौल बना हुआ था मानो कोई अभूतपूर्व या किसी नए युग के निर्माण की परिघटना घटित हो रही है। आप देख लीजिए, तमाम प्रचारों के बावजूद अपेक्षा के अनुरुप लोग तो नहीं ही पहुुचे, केजरीवाल या उनके साथियों के भाषणा में भी ऐसा कुछ नहीं था जिसे नया कहा जाए या जिससे कोई विशेष संकेत मिले। वह मूलतः उनकी नरेन्द्र मोदी का विरोध करने, कांग्रेस को विरोध करने, उन्हें झूठा साबित करने वाले पूर्व वक्तव्यों की प्रतिध्वनि मात्र थी। केजरीवाल द्वारा वहां उपस्थित लोगों से हाथ उठवाकर वाराणसी से मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने की घोषणा अपेक्षित थी। उन्हेें ऐसा करना ही था। हां, लोगों ने उनको गंगा स्नान करते और मंदिर में आराधना कर कपाल पर चंदन लगाए जरुर पहली बार देखा। इतने मात्र से इसकी ऐसी स्थिति नहीं हो जाती कि हम ऐतिहासिक घटना मान लें।
यहीं पर अरविन्द और आम आदमी पार्टी की रणनीतियोे की दाद देनी पड़ती है। इवेंट प्रबंधन की कूट कला में इनकी सानी नहीं। अन्ना अनशन अभियान से लेकर आम आदमी पार्टी के अब तक के प्रयाण में जन सरोकारों पर संघर्ष, मुद्दों पर जन शक्ति के निर्माण और उसके आधार पर संगठन के ठोस विस्तार की जगह इवेंट प्रबंधन, आत्मप्रचार, नरम लक्ष्य पर हल्लाबोल और अभिनय जैसे चार अनैतिक पायदान उनके स्तंभ रहे हैं। ये चारों बिन्दु अरविन्द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी का चरित्र और पहचान हो चुके हैं। किसी साधारण और सामान्य घटना को इस ढंग से पेश करना मानो वे बहुत बड़ा दुस्साहसी काम कर रहे हैं, जिसे केवल वे ही कर सकते हैं तथा यह युगांतकारी और देश के लिए सबसे महत्वपूर्ण घटना है। फिर उस घटना को अंजाम देने के पूर्व बार-बार प्रतिध्वनित करना, उसके साथ अनेक प्रकार की आशंकाएं और भय पैदा करना मानो उनका ऐसा करना राजनीतिक प्रतिष्ठान को नागवार गुजर रहा है और वे डर से उनके साथ कुछ भी कर सकते हैं। यह मुख्यतः होता सफेद झूठ है। वाराणसी के उनके कार्यक्रम में ये सारे तत्व मौजूद थे। जरा सोचिए, न मैदान में उपस्थित लोगों से यह पूछना आखिर नाटक नही तो और क्या था कि क्या मुझे नरेन्द्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ना चाहिए? आम आदमी पार्टी ने पूरे देश से अपने लोगों को वाराणसी बुलाया था। पता नहीं उनमें वाराणसी के कितने लोग थे। अगर केवल वाराणसी के लोगों से ही पूछना था तो बाहर के लोगों को बुलाना राजनैतिक ईमानदारी और नैतिकता का प्रमाण नहीं हो सकता। जिनने जगह-जगह केजरीवाल का विरोध किया उनके मत का भी महत्व है।
आप राजनीति में आ गए हैं तो आपको पूरा अधिकार है कि आप नरेन्द्र मोदी या किसी का विरोध करिए, उसके खिलाफ चुनाव मैदान में उतरिए। वहां से सपा, बसपा मैदान में है और कई छोटी पार्टियां हैं जिनका जनाधार अभी तक आम आदमी पार्टी से ज्यादा है। वे भी मोदी के विरुद्ध प्रचार कर रहे हैं। किसी के खिलाफ चुनाव लड़ना ऐतिहासिक या युगांतकारी घटना नहीं हो सकती। ऐसी सोच अरविन्द और उनके साथियों की राजनीतिक परिवर्तन, आंदोलन, संघर्ष आदि के संदर्भ में नासमझी या फिर उनके पाखंड को ही प्रमाणित करता है। इस समय देश में किसी एक पार्टी या एक नेता के शासन का आपातकाल नहीं है कि आप लोकतंत्र स्थापना के हीरो हो गए। जब स्व. राजनारायण ने 1977 में इंदिरा गांधी के खिलाफ लड़ा था तो वह अवश्य ऐतिहासिक घटना थी, उसके पूर्व राजनारायण ने उनकी विजय के खिलाफ तमाम धमकियों के विरुद्ध मुकदमा लड़ा और न्यायालय से चुनाव परिणाम रद्द करना भारतीय राजनीति की ऐतिहासिक घटना बन गई। राजनारायण या वैसे हजारों नेता आजादी के पूर्व से बाद तक भारत को जन सरोकारों का संवेदनशील देश बनाने के लिए राजनीतिक संघर्ष करते रहे थे। केजरीवाल और उनके साथी बिना कुछ किए केवल इवेंट प्रबंधन, प्रचार, हल्लाबोल एवं अभिनय से जन आकर्षण का केन्द्र बनने की अनैतिक रणनीति पर चल रहे हैं और स्थापित राजनीतिक दलों के क्षरण तथा उनसे असंतोष के कारण इन्हें कुछ समर्थन भी मिला है। परंतु ये इस तरीके से धीरे-धीरे पूरी राजनीति को नाटक या प्रहसन में परिणत कर रहे हैं। आप नई राजनीति की बात करते हैं। गंगा मंे डुबकी लगाने और मंदिर में पूजा आदि में समस्या नहीं है, पर इसे प्रचारित करने को किस राजनीतिक संस्कृति का प्रतीक कहा जाएगा? यानी मोदी ने पूजा किया तो हम भी करेंगे....। यही न।
विवेकशील व्यक्ति अवश्य इसे समझ रहा है और उनके प्रति जो सम्मोहन पैदा हुआ था उसका ग्राफ उतार पर है। उनके पूर्व साथी ही उनके खिलाफ जगह-जगह विरोध, काले झंडे दिखाने, चेहरे पर स्याही पोतने .... आदि का कौतूक कर रहे हैं। संभव है उसके पीछे विरोधियों की भी भूमिका हो, पर जितना सामने आ रहा है उसमें बाहरी राजनीतिक विरोधियों की भूमिका कम और उनके स्वयं के पूर्व साथियों और समर्थकों का ज्यादा है। वाराणसी एक संवेदनशील शहर है। कोई भी संवेदनशील नेता वहां इस तरह से तनाव पैदा करने से बचेगा। जैसा वातावरण उनने बनाया था उसकी प्रतिक्रिया न हो यह कैसे संभव है और उनकी मंशा भी निश्चय ही कुछ नकारात्मक प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करने की थी ताकि उसे मुद्दा बनाकर स्वयं को क्रांतिवीर साबित कर सकें। यह तो संभव नहीं कि आप किसी का तीखा विरोध करिए और उसके समर्थक आपको जवाब न दें। वाराणसी मस्त मौलों का बसेरा है, वहां लोग दिल में अपनी बात नहीं छिपाते, पार्टियां रोकना भी चाहें तो वे अपनी मस्ती में प्रतिक्रिया अवश्य देंगे। इसलिए अरविन्द के स्टेशन पर उतरने के साथ ही विरोध आरंभ और वे जहां गए उनका पूरा विरोध हुआ। हाल के दिनों में इतना तगड़ा विरोध किसी नेता का होते नहीं देखा गया। केजरीवाल और उनके साथियों को सोचना चाहिए कि आप किस तरह की राजनीतिक शैली पैदा कर रहे हैं जिसमें तनाव और घृणा बढ़ा है।
काला रंग गिराना या अंडे फेंकने जैसे अभद्र तरीके लोकतंत्र में निंदनीय हैं, लेकिन ऐसा हो क्यों रहा है? दूसरे नेताओं के साथ इस तरह लगातार तो ऐसा नहीं होता। लोकतांत्रिक तरीके से विरोध करने का सबका अधिकार है और विरोध प्रदर्शन का पेटेंट केवल आम आदमी पार्टी के पास नहीं है। मजे की बात देखिए कि उत्तर प्रदेश में शासन सपा का है और वे मोदी के आंतक या शहंशाही से वहां मुक्ति दिलाने की बात कर रहे थे। भाजपा का वहां शासन होता तो बात समझ में आ सकती थी कि प्रशासन ने छूट दे दी।..सपा ऐसा क्यों करेगी। उसके लिए तो अच्छा ही है कि मोदी का कोई विरोध कर रहा है। बहरहाल, भारत की राजनीति की दृष्टि से वाराणसी की घटना के दो महत्वपूर्ण संकेत है जिन्हें समझा जाना चाहिए। आम आदमी पार्टी के साथ कुछ लोग हर जगह हैं, लेकिन स्थापित पार्टियों के विरुद्ध असंतोष के बावजूद सक्रिय लोगों में उनके विरुद्ध खीझ बढ़ रहा है। यह कभी खतरनाक मोड़ भी ले सकता है। दूसरे, केजरीवाल के पास इस देश के लिए विकल्प में देने को कुछ नहीं है। जिस एनजीओ शैली में उनका विकास हुआ है उससे परे न उनके पास राजनीतिक विचार है और न राजनीतिक शैली। जितना वाराणसी को उनने महत्व दिया था उससे अगर कुछ लोगों को फिर थोड़ी उम्मीद जगी होगी, तो उनके स्टेशन उतरने से लेकर भाषण के समापन तक अवश्य ही उस पर तुषारापात हो गया होगा।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208
एयरसेल पर बिना इंटरनेट पैक के भी चलेगा फेसबुक!
मो. रियाज़
बुधवार, 26 मार्च 2014
मतदाताओं को मतदाता पर्ची का वितरण 4 से
मंगलवार, 25 मार्च 2014
चुनाव आयोग की तैयारी- मतदाता फोटो वाली स्लिप से भी डाल सकेंगे वोट
-15 दिन में मतदाता पहचान पत्र घर-घर पहुंचाना मुश्किल
-घर-घर भेजी जाएगी मतदाता स्लिप
- लोग मतदान वाले दिन मतदान केंद्र से भी अपनी स्लिप लेकर वोट डाल सकेंगे
सोमवार, 24 मार्च 2014
टी. बी. व मतदाता जागरुकता कैम्प का आयोजन किया
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डॉ. आर. अंसारी, कोषाध्यक्ष |
रविवार, 23 मार्च 2014
संस्था किसी भी पार्टी के प्रचार नहीं करेगी: साबिर हुसैन
बिना जांच के ही फार्म हुआ कैंसिल
मो. रियाज़
संस्था किसी भी पार्टी का प्रचार नहीं करेगी: साबिर हुसैन
मो. रियाज़
विजय चैरसिया को पुलिस ने गिरफ्तार किया
हालांकि नामांकन के बाद विजय चौरसिया को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. पुलिस ने बताया कि उन पर सरकारी कार्य में बाधा उत्पन्न करने का मामला जमुआ थाना में दर्ज है. इनके अलावा समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी जयदेव चौधरी, निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में शिवनाथ साव, मुस्तकीम अंसारी व मनोज कुमार, बहुजन मुक्ति पार्टी के प्रत्याशी महेंद्र रविदास एवं नेशनल लोकतंत्र पार्टी के प्रत्याशी मो. जलील अंसारी ने परचा दाखिल किया.
गुरुवार, 20 मार्च 2014
आडवाणी की इस दशा के संकेत क्या हैं
निस्संदेह, लालकृष्ण आडवाणी द्वारा गांधीनगर से चुनाव लड़ने की घोषणा से भाजपा नेताओं ने राहत की सांस ली है। किंतु इससे यह मान लेना कि पार्टी का अंतर्द्वंद्व समाप्त हो गया, गलत होगा। वास्तव मे आडवाणी की उम्मीदवारी प्रसंग वर्तमान चुनाव में किसी दल के अंतर्द्वंद्व की सबसे बड़ी चिंताजनक राजनीतिक घटना हो गई है। उनके कद, चरित्र और पार्टी में योगदान को ध्यान रखा जाए तो उन्हें भाजपा मे अपने लिए इस बात की आजादी होनी चाहिए थी कि वे जहां से चाहें चुनाव लड़ें और अगर वे किसी उम्मीदवार को कहीं से लड़ाने की इच्छा रखते हैं तो उसे पार्टी स्वीकार कर ले। होना तो यह चाहिए था कि पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी पहले चरण के टिकट वितरण के पूर्व स्वयं उनसे उनकी चाहत पूछ लेते। ऐसा नहीं हुआ तो उन्होंने अपनी मंशा व्यक्त कर दी। उनने पहले यह कहा कि वे लोकसभा चुनाव लड़ेंगे, फिर गांधीनगर से ही लड़ने का विचार व्यक्त किया। शालीनता और सभ्य व्यवहार का तकाजा था कि अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने जो बयान अब दिया है वही पहले देना चाहिए। अगर पार्टी नेतृत्व तत्क्षण यह कहते हुए प्रतिक्रिया दे देता कि आडवाणी जहां से चाहें लड़ेेंगे तो यह नौबत ही नहीं आती। हुआ इसके उलट। 301 उम्मीदवारों के नाम जारी हो गए, पांच बार संसदीय बोर्ड बैठा लेकिन आडवाणी के नाम की घोषणा नहीं हुई। इसका अर्थ क्या है? अगर इसके बाद वे गांधीनगर से चुनाव न लड़ने पर अड़े थे तो इसे सर्वथा उचित व्यवहार मानना होगा।
प्रश्न किया जा सकता है कि आखिर गुजरात प्रदेश संसदीय बोर्ड की बैठक ही बाद में हुई तो उनका नाम पहले कैसे आ जाता? सच यह है कि पार्टी की ओर से आडवाणी को यह संकेत दिया गया कि वे लोकसभा चुनाव लड़ने की जगह राज्य सभा में जाने पर विचार करें। ऐसा लगा जैसे उन्हें चुनाव लड़ने से रोका जा रहा है। तुरत आडवाणी ने चुनाव लड़ने की मंशा सार्वजनिक की। इसके बाद उनके नाम और क्षेत्र पर विचार न करने को किस राजनीतिक व्यवहार की श्रेणी में रखा जाएगा? इस संकेत के बाद मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बिना देर लगाए उन्हें अपने प्रदेश से लड़ने का प्रस्ताव दे दिया और कैलाश जोशी ने बयान दिया कि आडवाणी जी उनके संसदीय क्षेत्र भोपाल से लड़ें। जोशी उस दौर के नेता हैं जब जनसंघ या भाजपा में सत्ता और पद से परे रहकर काम करने को सम्मान देने का भाव और माहौल था। वे आडवाणी के हमउम्र हैं और उनके प्रति उनके मन मंे सम्मान भाव तथा उनकी देनों की तस्वीर निश्चय ही कायम होगी। सच कहेें तो भोपाल से प्रस्ताव मिलने के बाद गुजरात संसदीय बोर्ड ने गांधीनगर से उनके नाम का प्रस्ताव भेजा। जो सूचना है उनके अनुसार आडवाणी को मनाने के लिए स्वयं मोदी ने उनसे फोन पर बात की, पर वे नहीं माने। लेकिन इतना होने के बाद संसदीय बोर्ड और केन्द्रीय चुनाव समिति के पास गांधीनगर से उनके नाम की घोषणा के अलावा अपने बचाव के लिए कोई विकल्प नहीं बचा था। इस प्रकार निष्कर्ष यह कि भाजपा नेतृत्व ने मजबूरी में या हारकर आडवाणी को गांधीनगर से उम्मीदवार बनाया।
आडवाणी को अपनी उम्र के अनुसार सक्रिय सत्ता राजनीति से दूर रहकर अभिभावक की भूमिका में आ जाना चाहिए था यह सोच संघ की थी और उसने अभिव्यक्त भी किया था। लेकिन उसी संघ ने आडवाणी को 2009 में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने को हरि झंडी भी दी। कुछ ही दिनों पूर्व उनकी पुस्तक के विमोचन कार्यक्रम में संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि आडवाणी जी को राजनीति में ही रहना है, क्योंकि उनके रहने मात्र से एक नैतिक दबाव बना रहता है। आडवाणी की भाजपा, राजनीति, चुनाव एवं सत्ता समीकरण संबंधी सभी विचारों से सहमत नहीं हुआ जा सकता। आज उनकी और भाजपा की जो दशा है उसकी जिम्मेवारी से वे स्वयं भी मुक्त नहीं हो सकते। भाजपा को विचारधारा से परे सत्ता की राजनीति करने वाला दल बनाने के लिए उनने जो किया, इस उद्देश्य से जैसे लोगों को उनने बढ़ावा दिया और इस कारण जो लोग हाशिए पर गए या पार्टी से बाहर चले गए...उनकी ही परिणति है आज की भाजपा। जिस प्रकार के उनने अपने साथ सहयोगी और सलाहकार खड़े किए उसका परिणाम था पाकिस्तान मेें जिन्ना की मजार पर दिया गया उनका बयान, जिसके पूर्व उनने पार्टी के अंदर सलाह तक नहीं की। उसके बाद से उनकी आभा संगठन के अंदर कमजोर हो गई। रणनीतिक दृष्टि से देखें तो उन्होंने पिछले जून में गोवा कार्यकारिणी की बैठक में न जाकर जीवन की संभवतः सबसे बडी राजनीतिक भूल की। उससे संदेश यह गया कि जब भाजपा एवं संघ परिवार के सारे कार्यकर्ता, नेता मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीवार बनाना चाहते हैं तो आडवाणी रास्ते की बाधा बन रहे हैं। अंततः राजनाथ सिंह ने उनकी अनुपस्थिति में मोदी को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष घोषित कर दिया। सभी पदों से त्यागपत्र देना और फिर कई दिनों की मान मनौव्वल के बाद उसे वापस लेने के कदम का संकेत भी अच्छा नहीं गया। इस समय भी यही हुआ है। आडवाणी को यह समझना चाहिए था कि उनकी पीढ़ी के या वो लोग, जिनने उनके निर्देश को ब्रह्मवाक्य मानकर काम किया या तो काल कवलित हो गए, पार्टी से बाहर चले गए या निष्प्रभावी हो चुके हैं। इस नाते वे लगभग अकेले है। जो नेता उनके साथ दिखते हैं उनके भी कारण दूसरे हैं।
बावजूद इन सबके भाजपा में आडवाणी के योगदान को देखते हुए यह निर्णय करने का अधिकार भी उन्हें ही मिलना चाहिए था कि वे कब स्वयं को किस भूमिका में लाएं। यह स्थिति तो होनी ही चाहिए थी कि जो भी महत्वपूर्ण निर्णय हों, उसमें उन्हें विश्वास में लिया जाए। अगर आडवाणी कई निर्णयों के सामने अड़े तो उनसे व्यवहार करने का ऐसा तरीका हो सकता था जिससे उनका सम्मान कायम रहता। साफ है कि ऐसा नहीं हुआ। अगर वे मोदी से नाखुश हुए या उनके अंतर्मन में मोदी को लेकर असंतोष पैदा हुआ तो इसका कारण कम से कम वे स्वयं नहीं हो सकते। जो लोग भाजपा पर नजर रख रहे हैं उन्हें 2007 तक के मोदी और 2012 13 14 के मोदी में बदलाव दिख सकता है। 2007 के शपथग्रहण समारोह में मोदी ने आडवाणी का चरण स्पर्श कर सार्वजनिक आशीर्वाद लिया था, जबकि 2012 में उन्होंने अन्य नेताओं के समान ही हाथ मिलाकर उनका अभिवादन किया। आडवाणी मोदी के विरोधी होंगे ऐसा सोचना गलत होगा। जिस मोदी की उन्होंने कठिन समय में रक्षा की उसके विरुद्ध वे क्यों होंगे? दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय परिषद के समापन संबोधन में उन्होंने कहा कि आज मोदी के भाषण में उन्हेें विवेकानंद की छवि दिखाई दी। साफ था कि आडवाणी दिल से उनके प्रति कोई कुंठा नहीं रखते हैं, पर राजनीति में साधु व्यवहार की कल्पना हम क्यों करें!!
तो इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन नहीं है कि आडवाणी अगर दुखी होकर या रणनीति के तहत ही सही, कोई चारा न देखकर भोपाल से चुनाव न लड़ने पर अड़े और उसका जो गलत संदेश गया उसके लिए किसे दोषी ठहराया जाएगा। वे सारे लोग इसमें शामिल माने जाने जाएंगे जो निर्णय प्रक्रिया में भागीदार होते हुए पार्टी मेे अपनी स्थिति बनाए रखने की सोच से इस विषय को उठाने से बचते रहे। पूरे चुनाव में और आगे भी विरोधी इस प्रसंग को उठाते रहेंगे और भाजपा के लिए बचाव करना कठिन होगा। लेकिन यहां प्रश्न केवल विरोधियों का नहीं है। आखिर भाजपा कैसी राजनीतिक संस्कृति पैदा कर रही है जिसमें पार्टी के सक्रिय वरिष्ठतम नेता तक को विश्वास में नहीं लिया जा सकता? यानी उनका सम्मान नहीं रखा जा सकता। कल्पना करिए, आज के नेताओं और कार्यकर्ताओं पर इसका कैसा मनोवैज्ञानिक असर होगा! कल वे भी ऐसा ही व्यवहार करेंगे। अगर इसे विस्तारित करें तो हमारी पूरी भारतीय राजनीति पर इसका नकारात्मक असर हो सकता है। दूसरी पार्टियों के बुजूर्ग नेता आशंकित होंगे और मौका आने पर नई पीढ़ी के नेता इसका अनुसरण कर सकते हैं। आडवाणी भारतीय राजनीति के उन गिने-चुने लोगों में हैं जिनने यद्यपि चुनावी विजय या अन्य ऐसे अनेक अवसरों पर रणनीतियां तो अपनाईं, पर अपने परिवार या रिश्तेदारों को कभी राजनीति में भूमिका नहीं दी, न कभी अपने लिए संपत्ति अर्जित की। वे चाहते तो भाजपा में जिस तरह उनका और अटल बिहारी वाजपेयी का एकच्छत्र नियंत्रण था, परिवार, रिश्तेदार या चहेतों को मुख्य स्थान पर लाकर अपने लिए आजीवन नेतृत्व सुरक्षित रख सकते थे। उनने ऐसा नहीं किया, अन्यथा आज दूसरे लोग टिकट और पद के लिए उनके सामने समर्पित होते। ऐसे व्यक्ति के साथ इस व्यवहार का संदेश पूरी राजनीति के लिए घातक होगा। वास्तव में यह भाजपा की और हमारी पूरी राजनीति की वर्तमान अमानवीय, संवेदनहीन माहौल का परिचायक है।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208
गुरुवार, 13 मार्च 2014
माओवादी ऐसी हिंसा करने में क्यों सफल हो रहे हैं
अवधेश कुमार
अंतर केवल एक है। 25 मई 2013 को छत्तीसगढ़ में सुकमा जिले के झीरम घाटी में जहां चारांे ओर से घिरे कांग्रेस के नेता कार्यकर्ता और उनके सुरक्षा गार्ड थे वहां इस बार सुरक्षा बलों के जवान थे। तोंगपाल थाना क्षेत्र के अंतर्गत तकबाड़ा गांव के करीब माओवादियानें ने सुरक्षा बलों पर घात लगाकर ठीक उसी तरह हमला कर दिया जिस तरह उनने पहले किया था। पहले से योजना बनाकर एके 47 समेत अन्य अत्याधुनिक हथियारों से लैस 200 से ज्यादा नक्सली आसपास के खेतों, पेड़ों के ऊपर और उनके पीछे छिपे हुए थे और उनने आसपास के क्षेत्रों में बारुदी सुरग भी बिछा रखा था। कुछ गोली से मरे तो कुछ बारुदी सुरंग की विस्फोट में उड़ गए। सरकार कह रही है कि तोंगपाल और झीरम गांव के करीब जो सड़क निर्माण का कार्य चल रहा है उसको माओवादियों से सुरक्षा दिया जाना अपिहार्य था। इसलिए केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल और जिला बल के लगभग 50 जवानों को वहां तैनात किया गया था। माओवादियों ने सामने चल रहे 15 जवानों की टीम पर हमला किया। माओवादियों ने पहले धमाका किया और फिर ताबड़तोड़ गोलियां बरसाने लगे। दूसरी टीम करीब 50 मीटर पीछे थी, जिसे माओवादियों की दूसरी पार्टी ने फायरिंग करके रोके रखा। इनने जवानों पर हमले से पहले एक पोकलेन मशीन में भी आग लगा दी, ताकि उस क्षेत्र में आवाजाही रोकी जा सके। पूर्व की घटना में भी उनने सड़क बाधित करने के लिए पेंड़ गिरा दिए थे।
इसमें पहली नजर में ऐसा लग सकता है कि ज्यादा संख्या में होने तथा पहले से पूरी तैयारी के कारण इतने जवानों और निर्दोष ग्रामीणों की बलि चढ़ गई। स्थिति देखिए। 25 मई को कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमला करके इनने 30 लोगों का मौत की नींद सुला दिया लेकिन एक भी माओवादी हताहत नहीं हुआ। ठीक वैसे ही वर्तमान हमले में भी हुआ। तब भी माओवादी पेड़ों और पत्थरों की आड़ में छुपकर बैठे थे। वे यात्रा को देख सकते थे, लेकिन दूसरी ओर से उन्हें देख पाना संभव नहीं था। आज हुए हमले में भी वैसी ही स्थिति थी। पूरे इलाके में घना जंगल होेने के कारण माओवादी हमला करके आसानी से भाग जाते हैं। यह जिला इसलिए भी माओवादियों के लिए मुफिद है, क्योंकि यहां तीन राज्यों की सीमा लगती है, और उन्हें एक राज्य से दूसरे राज्य में आने-जाने में परेशानी नहीं होती। दरभा घाटी जोनल कमेटी माओवादियों की सबसे माओवादियों की सबसे सक्रिय कमेटी मानी जाती है। प्रश्न है कि आखिर माओवादी इस तरह की खूनी पुनरावृत्ति करने में सफल कैसे हो गए? क्या 80 किलोमीटर का वह क्षेत्र माओवादियों का सबसे सशक्त गढ़ है यह बताने की आवश्यकता है? क्या माओवादी वहां किसी प्रकार के निर्माण कार्य के विरुद्ध हैं यह सूचना प्रशासन को पहले से नहीं थी? क्या वे सुरक्षा बलों के खिलाफ बड़ी कार्रवाई की योजना बना रहे हैं इसकी सूचना भी सरकार को नहीं थी?
गृह मंत्रालय ने कहा है कि घटना के चार दिनों पूर्व ही प्रदेश सरकार को आगाह किया गया था। ध्यान रखिए कि यह हमला लोकसभा चुनाव के पहले हुआ है। माओवादी विधानसभा चुनाव में कोई बड़ी वारदात नहीं कर पाए थे इसकी टीस उनके अंदर रही होगी। उन्होंने चुनाव बहिष्कार और नोटा का इस्तेमाल करने के लिए फरमान जारी किया था। उनकी धमकियों के बावजूद राज्य में 77 प्रतिशत मतदान हुआ था। इसे लेकर माओवादियों के अंदर एक खीझ थी और वह पिछले कुछ समय से किसी बड़ी वारदात को अंजाम देने की फिराक में थे। इतनी सूचना के बावजूद यदि माओवादियों ने सुरक्षा देने वालों को ही मार डालने की क्रूर योजना को साकार कर दिया तो इसे उनकी सफलता कहें या प्रशासन की विफलता? पिछले 28 फरवरी को भी माओवादियों ने दंतेवाड़ा जिले के बचेली में इसी तरह पुलिस पार्टी पर हमला कर पांच जवानों को मारा था। उनके लिए तो यह ऐसी विजय है जिसे वे बराबर अपने लड़ाकों का हौंसला बढ़ाने और आगे की हिंसक योजना की रणनीति बनाते समय चर्चा करेंगे। हमले में शहीद सारे जवानों के हथियार, वायरलेस सेट और बाकी सामान लूट लिया। लूटे गए हथियारों में एके 47 से अलावा अंडरबैरल ग्रेनेड लांचर और लाइट मशीनगन जैसे हथियार हैं। यानी सुरक्षा बलों का खून बहाने का सफल कारनामा और बोनस में इतने ज्यादा हथियार...! उनके लिए तो उन्मादित होने का समय है। निस्संदेह, जिस तरह उनने मई में कांग्रेस नेताओं को मारने के बाद हथियार लेकर नृत्य किया था वैसे ही कर रहे होंगे। इन सारी स्थितियों को समझने के बावजूद यदि वे इस तरह सफल हमला करने और बिना किसी खरोंच के बच निकले हैं तो यह हमारी विफलता ज्यादा है।
वास्तव में यह दुःखद और क्षोभ पैदा करने वाला सच स्वीकारने में कोई समस्या नहीं है कि मई में एक पार्टी के समस्त नेतृत्व को गंवाने के बावजूद जितनी तैयारी और चौकसी होनी चाहिए थी उतनी नहीं है। जब हम जानते हैं कि एक छोटी चूक उनके लिए भयानक सफलता का कारण बन सकता है तो फिर ऐसा क्यों नहीं किया गया। गृह मंत्रालय ने छत्तीसगढ़ सहित नौ राज्यों को जो अडवाइजरी भेजी थी, उसमें माओवादी हमले की आशंका जाहिर करते हुए अर्धसैनिक बलांें पुलिस को सुरक्षा बढ़ाने का निर्देश दिया गया है। करीब चार वर्ष पूर्व 6 अप्रैल 2010 को दंतेवाड़ा के ताड़मेटला में पहली बार माओवादियों ने ने गश्त करने निकले जवानों पर ऐसे ही हमला कर दिया था जिसमें 76 जवान शहीद हुए थे और तीस से ज्यादा जवान घायल हुए थे। उस घटना के बाद संख्या में तो ये जवानों को मौत के घाट उतारने में सफल नहीं हुए, लेकिन यह ऐसी दूसरी वारदाता है जिसका स्थान दूसरे नंबर पर आएगा। हां, 12 जुलाई 2009 को राजनांदगांव में तीन हमलों में इनने 30 जवानों की हत्या कर दी थी। सुरक्षा बल माओवादियों के निशाने पर हमेशा से रहे हैं। 2010 में सबसे ज्यादा 168 जवान और पुलिसकर्मी मारे गए। उस संख्या को वे पार करने की कोशिशें लगातार करते हैं।
ध्यान रखिए माओवादियों ने 6 अप्रैल 2010 के हमले को बड़ी उपलब्धि बताते हुए हमले की सीडी भी जारी की थी जिसमें जवानों को घेरकर उन पर हमला करने, शहीदों के शवों को ले जाते सुरक्षा बल के जवानों की क्लिपिंग शामिल की गई थी। ऐसा ही उनने कांग्रेस नेताओं के हमलों का भी किया था और संभव है इसकी भी वे इसी तरह सीडी बनाएं। वास्तव में ऐसी एक सफलता उनका हौंसला और संगठन की आयु बढ़ाने में बहुत बड़ा योगदान कर देता है। यदि वे हिंसा की योजना में सफल नहीं हों तो उनका अंत हो जाएगा, क्योंकि साथी ही निराश होकर भाग खड़े होंगे एवं नए लोग उनके साथ न आएंगे न समाज उनसे डरेगा। इसलिए ऐसे हमले का परिणाम केवल जवानों के खून बहने तक सीमित नहीं होता, माओवादियों की ताकत बढ़ाने का मुख्य आधार बन जाता है। अगर इस दृष्टि से देखें तो यह समझते देर नहीं लगेगी कि लगातार कार्रवाइयों के बावजूद उनकी ताकत बनी रहने और नए लड़ाकों के उनके साथ जुड़ने का कारण हम स्वयं हैं। माओवादी चाहे जो भी दावा करें, उनकी उत्पत्ति के पीछे समाज के निचले तबके को आर्थिक व राजनीतिक ताकत देने का भाव भले रहा होगा, उनकी हिंसा को अब समाज में आम स्वीकृति नहीं है। पिछले विधानसभा चुनाव में लाख कठिनाइयां झेलकर और जान पर खेलकर भी लोगों का मतदान के लिए निकलना वस्तुतः उनका नकार ही था। किंतु इसको प्रशासनिक चुस्ती और सतर्कता से जितना सुदृढ़ किया जाना चाहिए था, नहीं किया गया है। यह समझ से परे है कि लगातार प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, गृह सचिवों.... द्वारा आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताने और हर संभव सुरक्षा व्यवस्था के दावों के बावजूद वे ऐसे हमले करने में सफल क्यों हो पा रहे हैं!
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208
गुरुवार, 6 मार्च 2014
यह राजनीतिक आचरण भयभीत करता है
अवधेश कुमार
जरा स्थिति देखिए। आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल गुजरात के अहमदाबाद हवाई अड्डे पर उतरते हैं, वहां से मेहसाणा होते पाटन और भुज जाते हैं, फिर आगे की यात्रा करते हैं, लगातार पत्रकारों से बातचीत करते हैं, लेकिन उनकी पार्टी दिल्ली से लेकर कई स्थानों पर इस तरह उत्तेजना में प्रदर्शन करने लगती है मानो उनके साथ कुछ अनहोनी हो गई। यह क्या है? जिस तरह से आम आदमी पार्टी ने भाजपा कार्यालयों के सामने हिंसक और उग्र प्रदर्शन किया वह हर दृष्टि से अस्वीकार्य है। हां, भाजपा के लोगों को भी जितना संयम और धैर्य दिखाना चाहिए नहीं दिखा पाए। उनकी ओर से भी आप के लोगांे पर हमला किया जाना असभ्य आचरण ही है। किंतु आप के नेताओं कार्यकर्ताओं ने जो कुछ किया और जिस तरह किया वह वाकई भयभीत करने वाला अचारण है। यह अराजनीतिक रवैया है जिसके लिए लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं। विरोध में नारा लगाना और प्रदर्शन करना, धरना देना.....सामान्य बात है। हालांकि उसमें भी मान्य राजनीतिक आचरण यही है कि यदि आपको पुलिस रोकती है तो रुक जाएं। इसके विपरीत आम आदमी पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं के उग्र काफिले ने जिस तरह वहां बैनर फाड़े, गेट तोड़कर घुसने की कोशिश की उसे हम मान्य विरोध प्रदर्शनों की श्रेणी में नहीं रख सकते।
दिल्ली पुलिस मामले की छानबीन कर रही है, लखनऊ में भी प्राथमिकी दर्ज हुई। पुलिस अपने तरीके से कार्रवाई करती है, करेगी। दिल्ली पुलिस का कहना है कि आप के लोगों ने पुलिस की पूर्व सूचना दिए बिना जिस तरह से भाजपा कार्यालय के बाहर बैनर फाड़े, दरवाजे के नुकसान पहुंचाने की कोशिश की,
पत्थरबाजी की वह सब आपराधिक कृत्य है और उसके अनुसार कार्रवाई होगी। लेकिन इस पूरे प्रकरण मंे मुख्य बात कानूनी प्रक्रिया या कानून का उल्लंघन नहीं, राजनीतिक आचरण है। जिनने भी वो दृश्य देखा होगा उनके अंदर अवश्य ही सिहरन पैदा हो जाएगी कि आखिर हमारे देश में कैसी राजनीतिक संस्कृति विकसित हो रही है। आप के नेता कह रहे हैंं कि वे शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने गए थे। वह किसी भी दृष्टि से शांतिपूर्ण प्रदर्शन नहीं था। दूसरे, आप क्यों गए थे? किसी पार्टी के कार्यालय पर उस तरह का विरोध होने का ठोस कारण भी तो चाहिए। केवल यह कहने से कि विरोध हमारा लोकतांत्रिक अधिकार है, इसका औचित्य साबित नहीं हो जाता। वहां स्थिति नियंत्रण से बाहर इन्हीं के कारण हुई और पुलिस को पानी की बौछार करनी पड़ी। आप के कार्यकर्ता को उस गाड़ी पर चढ़कर पानी की दिशा को भाजपा कार्यालय के अंदर मोड़ते देखा जा सकता है। अरविन्द केजरीवाल कहते हैं कि वे क्षमा मांगते हैं क्योंकि उनके कुछ कार्यकर्ता ने एक दो पत्थर चाल दिया। जहां पूरी भीड़ंत की स्थिति है वहां आप एक दो पत्थर की बात कर रहे हैं! वहा!
जाहिर है, क्षमा मांगना आप की राजनीतिक रणनीति का ही हिस्सा है। आम आदमी पार्टी का आरोप था कि उनके संयोजक अरविन्द केजरीवाल को गुजरात के पाटन के राधनपुर में गिरफ्तार किया गया। अरविन्द केजरीवाल चार दिनों के दौरे पर गुजरात पहुंचे। संयोग से उनके पहुंचने के साथ चुनाव आयोग ने चुनाव की तिथि घोषित कर दी और आचार संहिता लागू हो गया है। आचार संहिता लागू होने के बाद प्रशासन चुनाव आयोग के निर्देशों के अनुसार काम करता है। आयोग ने आचार संहिता के तहत राजनीतिक दलों के रोड शो, जुलूस, सभाओं आदि के बारे में कुछ नियम बनाएं हैं और सभी दलों की उसमें सहमति रही है। एक साथ गाड़ियों का उतने लंबे काफिले के बाद पुलिस प्रशासन पूछताछ करेगी। अरविन्द को यह कहते सुना जा सकता है कि आप हमें कोड ऑफ कन्डक्ट मत समझाइए। वे राधनपुर थाने से आधे घंटे में बाहर आ गए थे। पुलिस ने केजरीवाल को हिरासत में लेने तक से इनकार किया है, गिरफ्तारी तो दूर की बात है। स्वयं अरविन्द थाना से निकलते समय यह कहते सुने जा रहे हैं कि मैंने पुलिस को समझा दिया है कि आचार संहिता का उल्लंघन नहीं है। उसके बाद इतने बावेला का क्या औचित्य था? किंतु उन्होंने अपनी ओर से यह जोड़ दिया कि नरेन्द्र मोदी जी के इशारे पर ऐसा किया गया वंे घबरा गए हैं।
पुलिस के आम व्यवहार में परिवर्तन होना चाहिए इसकी आवाज लंबे समय से उठ रही है। पुलिस वहां दूसरा रास्ता भी अपना सकती थी। यह पहली बार नहीं है जब किसी नेता को रोका गया है। पिछले लोकसभा चुनाव में ही पटना गांधी मैदान में लालकृष्ण आडवाणी के भाषण को वहां के जिलाधिकारी, जो कि चुनाव अधिकारी भी था, दो मिनट से ज्यादा नहीं चलने दिया, क्योंकि आचार संहिता के अनुसार किसी सभा के लिए रात की समय सीमा खत्म हो चुकी थी। आडवाणी ने उसका पालन किया। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। वस्तुतः राजनीतिक जीवन में यह आम घटना है। आचार संहिता लागू हो जाने के बाद तो बड़े-बड़े नेताओं के जुलूसों, सभाओं को रोक दिया जाता है। कई बार नेताओं के जुलूस को रोककर उन्हें थाने ले जाया जाता है। आम आदमी पार्टी का व्यवहार सबसे अलग है। उसे लगता है कि केवल उसके नेता के साथ ही ऐसा हुआ है तो इसका कोई जवाब नहीं दिया जा सकता है। दूसरी पार्टियों के नेताओं को रोके जाने पर कार्यकर्ता उसका विरोध भी करते हैं, पर इस तरह नहीं कि आप किसी पार्टी के कार्यालय पर हमले की स्थिति पैदा कर दें। गुजरात पुलिस का कहना है कि वे बिना इजाजत रोड शो कर रहे थे। टीवी चैनलों में यह दिख रहा था कि उनके जुलूस से यातायात पूरी तरह जाम हो गया था। यह बहस का विषय हो सकता है कि आचार संहिता का उल्लंघन है कि नहीं? केजरीवाल का तर्क है कि उनकी गाड़ियों पर कहीं झंडा और पोस्टर नहीं था, अंदर भी एक स्टिकर तक नहीं था। उनके अनुसार वे चुनाव प्रचार में नहीं, बल्कि मोदी का विकास ढूंढने आए हैं।
इस तर्क से कौन सहमत हो सकता है। संभव है चुनाव तिथियों की घोषणा होने के बाद अचार संहिता के उल्लंघन से बचने के लिए ऐसा किया गया हो। केजरीवाल की पूरी गतिविधि अपनी पार्टी के प्रचार और मोदी को कठघरे में खड़ा करने वाली है। यह चुनाव प्रचार नही ंतो और क्या है? भले आप नाम जो भी दे दीजिए। कहने का तात्पर्य यह है कि केजरीवाल या उनकी पार्टी नैतिकता, पारदर्शिता की भले जितनी बातें करें, उनके ये सारे आचरण पाखंडपूर्ण हैं। यह तो संभव नहीं कि गुजरात सरकार जानबूझकर केजरीवाल को रोकने की कोशिश करेगी। वह क्यों चाहेगी कि आम आदमी पार्टी को अनावश्यक प्रचार मिले। यही आप की कार्यशैली है। किसी न किसी बहाने कुछ ऐसा घटित कराने की कोशिश करो जिससे स्वयं को उत्पीड़ित एवं उसके विरुद्ध क्रांतिकारी होने की छवि प्राप्त हो। उस घटना पर ऐसी प्रतिक्रिया दो कि फिर कई दिनों तक सुर्खियां मिलतीं रहे। यही उनने किया है।
किंतु इस रणनीति में आप जिस तरह की उग्र और आक्रामक राजनीतिक संस्कृति पैदा कर रही है वह डरावनी है। शेष पार्टियों का क्षरण एक बात है, लेकिन सबको दुश्मन मानकर व्यवहार करने से घृणा और हिंसा बढ़ती है। आम आदमी पार्टी अब सत्ता की दलीय राजनीति में आ गई है तो उसे आम राजनीतिक व्यवहार भी सीखनी होगी। वो गांधी और जेपी का नाम लेती है। न गांधी ने कभी किसी के कार्यालय पर हमला करवाया, न जेपी ने। उनके अंादोलन में सात्विक अहिंसा का भाव था। आप में सात्विकता का रंच मात्र भी नहीं है। वह बिना लाठी गोली चलाए ही हिसंक दिखती है। इससे पूरा राजनीतिक वातावरण दूषित और विकृत होगा। निस्संदेह, भाजपा का रवैया भी अनुचित था, उसे पुलिस पर निर्भर रहना चाहिए था। अगर इस तरह हमले का जवाब प्रतिहमला से दिया जाएगा तो फिर राजनीति का दृश्य कैसा होगा! इसलिए यह घटना सभी पार्टियों के लिए सबक बनना चाहिए और कभी ऐसे प्रदर्शन या हमलें हों तो उसका जवाब हिंसा से नहीं दिया जाए।
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