गुरुवार, 27 मार्च 2014

यह कैसी राजनीति है

अवधेश कुमार

वाराणसी में अरविन्द केजरीवाल का रोड शो और रैली जिस तरह आयोजित हुई उसे किस रुप में विश्लेषित किया जाए? वाराणसी में इसके पूर्व भी रैलियां हुईं, आगे भी होंगी...उनमें संख्या भी इससे ज्यादा हो सकती है.....लेकिन इतना तापमान और पूरी मीडिया का ऐसा संकेन्द्रण....शायद ही हो। तो फिर इसमें ऐसा क्या था जिस कारण यह इतनी बड़ी घटना बन गई? इसके पूर्व नरेन्द्र मोदी की यहां बहुत बड़ी रैली हो चुकी है, सपा ने भी यहां बड़ी रैली की......सबकी खबरें हमारे पास आईं, लेकिन अरविन्द की रैली के साथ ऐसा माहौल बना हुआ था मानो कोई अभूतपूर्व या किसी नए युग के निर्माण की परिघटना घटित हो रही है। आप देख लीजिए, तमाम प्रचारों के बावजूद अपेक्षा के अनुरुप लोग तो नहीं ही पहुुचे, केजरीवाल या उनके साथियों के भाषणा में भी ऐसा कुछ नहीं था जिसे नया कहा जाए या जिससे कोई विशेष संकेत मिले। वह मूलतः उनकी नरेन्द्र मोदी का विरोध करने, कांग्रेस को विरोध करने, उन्हें झूठा साबित करने वाले पूर्व वक्तव्यों की प्रतिध्वनि मात्र थी। केजरीवाल द्वारा वहां उपस्थित लोगों से हाथ उठवाकर वाराणसी से मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने की घोषणा अपेक्षित थी। उन्हेें ऐसा करना ही था। हां, लोगों ने उनको गंगा स्नान करते और मंदिर में आराधना कर कपाल पर चंदन लगाए जरुर पहली बार देखा। इतने मात्र से इसकी ऐसी स्थिति नहीं हो जाती कि हम ऐतिहासिक घटना मान लें। 

यहीं पर अरविन्द और आम आदमी पार्टी की रणनीतियोे की दाद देनी पड़ती है। इवेंट प्रबंधन की कूट कला में इनकी सानी नहीं। अन्ना अनशन अभियान से लेकर आम आदमी पार्टी के अब तक के प्रयाण में जन सरोकारों पर संघर्ष, मुद्दों पर जन शक्ति के निर्माण और उसके आधार पर संगठन के ठोस विस्तार की जगह इवेंट प्रबंधन, आत्मप्रचार, नरम लक्ष्य पर हल्लाबोल और अभिनय जैसे चार अनैतिक पायदान उनके स्तंभ रहे हैं। ये चारों बिन्दु अरविन्द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी का चरित्र और पहचान हो चुके हैं। किसी साधारण और सामान्य घटना को इस ढंग से पेश करना मानो वे बहुत बड़ा दुस्साहसी काम कर रहे हैं, जिसे केवल वे ही कर सकते हैं तथा यह युगांतकारी और देश के लिए सबसे महत्वपूर्ण घटना है। फिर उस घटना को अंजाम देने के पूर्व बार-बार प्रतिध्वनित करना, उसके साथ अनेक प्रकार की आशंकाएं और भय पैदा करना मानो उनका ऐसा करना राजनीतिक प्रतिष्ठान को नागवार गुजर रहा है और वे डर से उनके साथ कुछ भी कर सकते हैं। यह मुख्यतः होता सफेद झूठ है। वाराणसी के उनके कार्यक्रम में ये सारे तत्व मौजूद थे। जरा सोचिए, न मैदान में उपस्थित लोगों से यह पूछना आखिर नाटक नही तो और क्या था कि क्या मुझे नरेन्द्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ना चाहिए? आम आदमी पार्टी ने पूरे देश से अपने लोगों को वाराणसी बुलाया था। पता नहीं उनमें वाराणसी के कितने लोग थे। अगर केवल वाराणसी के लोगों से ही पूछना था तो बाहर के लोगों को बुलाना राजनैतिक ईमानदारी और नैतिकता का प्रमाण नहीं हो सकता। जिनने जगह-जगह केजरीवाल का विरोध किया उनके मत का भी महत्व है।

आप राजनीति में आ गए हैं तो आपको पूरा अधिकार है कि आप नरेन्द्र मोदी या किसी का विरोध करिए, उसके खिलाफ चुनाव मैदान में उतरिए। वहां से सपा, बसपा मैदान में है और कई छोटी पार्टियां हैं जिनका जनाधार अभी तक आम आदमी पार्टी से ज्यादा है। वे भी मोदी के विरुद्ध प्रचार कर रहे हैं। किसी के खिलाफ चुनाव लड़ना ऐतिहासिक या युगांतकारी घटना नहीं हो सकती। ऐसी सोच अरविन्द और उनके साथियों की राजनीतिक परिवर्तन, आंदोलन, संघर्ष आदि के संदर्भ में नासमझी या फिर उनके पाखंड को ही प्रमाणित करता है। इस समय देश में किसी एक पार्टी या एक नेता के शासन का आपातकाल नहीं है कि आप लोकतंत्र स्थापना के हीरो हो गए। जब स्व. राजनारायण ने 1977 में इंदिरा गांधी के खिलाफ लड़ा था तो वह अवश्य ऐतिहासिक घटना थी, उसके पूर्व राजनारायण ने उनकी विजय के खिलाफ तमाम धमकियों के विरुद्ध मुकदमा लड़ा और न्यायालय से चुनाव परिणाम रद्द करना भारतीय राजनीति की ऐतिहासिक घटना बन गई। राजनारायण या वैसे हजारों नेता आजादी के पूर्व से बाद तक भारत को जन सरोकारों का संवेदनशील देश बनाने के लिए राजनीतिक संघर्ष करते रहे थे। केजरीवाल और उनके साथी बिना कुछ किए केवल इवेंट प्रबंधन, प्रचार, हल्लाबोल एवं अभिनय से जन आकर्षण का केन्द्र बनने की अनैतिक रणनीति पर चल रहे हैं और स्थापित राजनीतिक दलों के क्षरण तथा उनसे असंतोष के कारण इन्हें कुछ समर्थन भी मिला है। परंतु ये इस तरीके से धीरे-धीरे पूरी राजनीति को नाटक या प्रहसन में परिणत कर रहे हैं। आप नई राजनीति की बात करते हैं। गंगा मंे डुबकी लगाने और मंदिर में पूजा आदि में समस्या नहीं है, पर इसे प्रचारित करने को किस राजनीतिक संस्कृति का प्रतीक कहा जाएगा? यानी मोदी ने पूजा किया तो हम भी करेंगे....। यही न।  

विवेकशील व्यक्ति अवश्य इसे समझ रहा है और उनके प्रति जो सम्मोहन पैदा हुआ था उसका ग्राफ उतार पर है। उनके पूर्व साथी ही उनके खिलाफ जगह-जगह विरोध, काले झंडे दिखाने, चेहरे पर स्याही पोतने .... आदि का कौतूक कर रहे हैं। संभव है उसके पीछे विरोधियों की भी भूमिका हो, पर जितना सामने आ रहा है उसमें बाहरी राजनीतिक विरोधियों की भूमिका कम और उनके स्वयं के पूर्व साथियों और समर्थकों का ज्यादा है। वाराणसी एक संवेदनशील शहर है। कोई भी संवेदनशील नेता वहां इस तरह से तनाव पैदा करने से बचेगा। जैसा वातावरण उनने बनाया था उसकी प्रतिक्रिया न हो यह कैसे संभव है और उनकी मंशा भी निश्चय ही कुछ नकारात्मक प्रतिक्रियाएं उत्पन्न करने की थी ताकि उसे मुद्दा बनाकर स्वयं को क्रांतिवीर साबित कर सकें। यह तो संभव नहीं कि आप किसी का तीखा विरोध करिए और उसके समर्थक आपको जवाब न दें। वाराणसी मस्त मौलों का बसेरा है, वहां लोग दिल में अपनी बात नहीं छिपाते, पार्टियां रोकना भी चाहें तो वे अपनी मस्ती में प्रतिक्रिया अवश्य देंगे। इसलिए अरविन्द के स्टेशन पर उतरने के साथ ही विरोध आरंभ और वे जहां गए उनका पूरा विरोध हुआ। हाल के दिनों में इतना तगड़ा विरोध किसी नेता का होते नहीं देखा गया। केजरीवाल और उनके साथियों को सोचना चाहिए कि आप किस तरह की राजनीतिक शैली पैदा कर रहे हैं जिसमें तनाव और घृणा बढ़ा है।

काला रंग गिराना या अंडे फेंकने जैसे अभद्र तरीके लोकतंत्र में निंदनीय हैं, लेकिन ऐसा हो क्यों रहा है? दूसरे नेताओं के साथ इस तरह लगातार तो ऐसा नहीं होता। लोकतांत्रिक तरीके से विरोध करने का सबका अधिकार है और विरोध प्रदर्शन का पेटेंट केवल आम आदमी पार्टी के पास नहीं है। मजे की बात देखिए कि उत्तर प्रदेश में शासन सपा का है और वे मोदी के आंतक या शहंशाही से वहां मुक्ति दिलाने की बात कर रहे थे। भाजपा का वहां शासन होता तो बात समझ में आ सकती थी कि प्रशासन ने छूट दे दी।..सपा ऐसा क्यों करेगी। उसके लिए तो अच्छा ही है कि मोदी का कोई विरोध कर रहा है। बहरहाल, भारत की राजनीति की दृष्टि से वाराणसी की घटना के दो महत्वपूर्ण संकेत है जिन्हें समझा जाना चाहिए। आम आदमी पार्टी के साथ कुछ लोग हर जगह हैं, लेकिन स्थापित पार्टियों के विरुद्ध असंतोष के बावजूद सक्रिय लोगों में उनके विरुद्ध खीझ बढ़ रहा है। यह कभी खतरनाक मोड़ भी ले सकता है। दूसरे, केजरीवाल के पास इस देश के लिए विकल्प में देने को कुछ नहीं है। जिस एनजीओ शैली में उनका विकास हुआ है उससे परे न उनके पास राजनीतिक विचार है और न राजनीतिक शैली। जितना वाराणसी को उनने महत्व दिया था उससे अगर कुछ लोगों को फिर थोड़ी उम्मीद जगी होगी, तो उनके स्टेशन उतरने से लेकर भाषण के समापन तक अवश्य ही उस पर तुषारापात हो गया होगा।   

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

http://mohdriyaz9540.blogspot.com/

http://nilimapalm.blogspot.com/

musarrat-times.blogspot.com

http://naipeedhi-naisoch.blogspot.com/

http://azadsochfoundationtrust.blogspot.com/