शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

जम्मू कश्मीर के जनादेश का अर्थ क्या है

अवधेश कुमार

भले जम्मू-कश्मीर में किसी पार्टी को बहुमत नहीं आया, पर वहां खुली आंखों कोई भी बदलाव की समां जलते देख सकता था। पहले और दूसरे चरण में जैसे ही 70 -71 प्रतिशत मतदान ने साफ कर दिया कि लोगों की आस्था भारत के संसदीय लोकतंत्र में बढ़ रही है। सभी 5 चरणों में कुल 65 प्रतिशत मतदाताओं द्वारा अपने मताधिकार का इस्तेमाल करना कई दृष्टियों से असाधारण था। यह पिछले सारे चुनावों का रिकॉर्ड तो तोड़ा ही है, अन्य कई पहलू भी इसे असाधारण बनाते हैं। 2008 में 61.42 प्रतिशत और 2002 में 43.09 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया था। कंपकंपाती ठंड, कोहरे, लगातार आतंकवादी हमलाें, सामने लटकती मौत के खतरे और अपने-अपने क्षेत्र में प्रभाव रखने वाले अलगावादियों के बहिष्कार के बावजूद मतदाताओं का उत्साह अपने आप बहुत कुछ बयान कर रहा था। जम्मू में एक युवती कह रही थी मैंने उस उम्मीदवार को वोट दिया है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ेगा और युवाओं को उनकी प्रतिभा के अनुसार अवसर देगा और जिसका कोई पारिवारिक वंशवाद नहीं है। ध्यान रखिए कि दूसरे चरण के मतदान के बाद हर दिन बड़े छोटे आतंकवादी हमले हुए। उड़ी, त्राल और बारामूला ऐसे क्षेत्र थे जहां बड़े आतंकवादी हमले हुए, आतंकवादियों का यहां प्रभाव भी माना जाता है, पर यहां भी लोगों ने बढ़-चढ़कर वोट डाले। क्या इसे असाधारण नहीं माना जाएगा?

निस्संदेह, माना जाएगा। सैन्य शिविर पर हमला झेलने वाले उड़ी में 79 प्रतिशत मतदान हुआ। इस हमले में 11 सुरक्षाकर्मी और छह आतंकी मारे गए थे। आतंकी गतिविधियों के लिए बदनाम रहे बडगाम के चरार-ए-शरीफ इलाके में रिकॉर्ड 82.74 प्रतिशत मतदान हुआ। निस्संदेह, मतदान के बहिष्कार की अपील करने वाले हुर्रियत कांफ्रेंस के चेयरमैन सैयद अली शाह गिलानी के गृह नगर सोपोर में सबसे कम 30 प्रतिशत मतदान हुआ। पर सन 2008 के चुनाव में इस क्षेत्र में 20 फीसद से भी कम मतदान हुआ था। लोकसभा चुनाव में तो वहां एक प्रतिशत के आसपास ही मतदान हुआ था। तीसरे चरण की 16 सीटों पर जब  58 प्रतिशत मतदान हुआ जो आरंभ के दो चरणों से कम था तो लोगों ने कहा कि कहां गया उत्साह, पर वे भूल गए कि सन 2008 के चुनाव में वहां 49 प्रतिशत ही मतदान हुआ था। इस दौरान कम से कम 20 आतंकवादी हमले हुए जिनमें 18 जवान 22 आतंकी और 9 नागरिक मारे गए। अंतिम तीन चरणों में हर बार एक सरपंच की हत्या हुई। जाहिर है, यह सब मतदाताओं को मतदान से दूर रखने के लिए ही था। लेकिन यहां यह प्रश्न स्वाभाविक ही उठता है कि क्या मतदाताओं के इस उत्साह में किसी पार्टी को बहुमत तक पहुुुंचाने का भाव शामिल नहीं था?

अगर सतही तौर पर परिणामों का विश्लेषण करें तो निष्कर्ष यही आएगा। किंतु हम इस पहलू को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि भाजपा को भले अपेक्षानुरुप सीटें नहीं आईं, पर उसने जम्मू कश्मीर के मतदाताओं को पक्ष और विपक्ष में आलोड़ित किया इसमें संदेह की रत्ती भर भी गंुजाइश नहीं। अलगाववादियों के कारण चुनाव बहिष्कार की राजनीति अगर कमजोर हुई तो भाजपा के कारण। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सभा में उमड़ती भीड़ और लोगों का भाजपा की ओर आकर्षण ने भाजपा विरोधियों के अंदर यह भाव पैदा कर दिया कि अगर वे मतदान नहीं करेंगे तो भाजपा सत्ता में आ जाएगी। इससे आबोहवा बदलने लगी। उदाहरण के लिए त्राल और सोपोर को  लीजिए। त्राल दक्षिण कश्मीर में है और सोपोर उत्तर कश्मीर में। इन दोनों विधानसभा क्षेत्रों में लोकसभा चुनाव में सबसे कम मतदान हुआ था।

वहां एक मतदाता कह रहा था कि यह बीजेपी का डर है। हलमोग हर साल चुनाव का बहिष्कार करते थे। लेकिन इस बार लोग पोलिंग बूथ तक पहुंच रहे हैं। हमलोग डरे हुए हैं कि वोट नहीं किए तो बीजेपी इस सीट को जीत सकती है। बीजेपी की जीत कोई नहीं चाहता। त्राल विधानसभा क्षेत्र दक्षिण कश्मीर के पुलवामा जिले में है। यहां कुछ हजार सिखों के वोट हैं और 1,445 प्रवासी मतदाता हैं। यहां से भाजपा ने सिख उम्मीदवार को उतारा था। लोकसभा चुनाव में त्राल में कुल 1000 से भी कम वोट पड़े थे। इस बार इस विधानसभा क्षेत्र में 37 प्रतिशत मतदान हुआ। उत्तरी कश्मीर के सोपोर की चर्चा हम कर चुके हैं।  यह हुर्रियत चेयरमैन सैयद अली शाह गीलानी का जन्म स्थान है। उम्मीदवारों ने स्थानीय लोगों से मतदान केन्द्र तक आने की अपील की। इन्होंने कहा कि यदि वे मतदान नहीं करेंगे तो भाजपा को मदद मिलेगी। सोपोर में भाजपा ने उम्मीदवार खड़ा नहीं किया। ऐसा भाजपा ने सज्जाद लोन की पार्टी पीपल्स कॉन्फ्रेंस को मदद करने के लिए किया है।
कश्मीर घाटी में विधानसभा चुनाव के अंतिम दौर के जिन इलाकों में चुनाव का सबसे ज्यादा बहिष्कार होता है, वहां आतंकवाद के सिर उठाने के बाद चुनाव में इस बार ज्यादा मतदाता शामिल हुए। श्रीनगर के आठ में चार विधानसभा क्षेत्र में मतदान दोपहर को 2008 का स्तर पार कर गया था। उड़ी में सेना के शिविर पर भयानक आतंकवादी हमले ने भले ही शहर को हिला कर रख दिया हो, लेकिन यह हमला मतदाताओं को अपने मताधिकार का उपयोग करने से रोक नहीं पाया। कश्मीर में नियंत्रण रेखा के पास स्थित इस शहर में सुबह से ही मतदाता अपने मताधिकार का उपयोग करने के लिए मतदान केंद्रों पर आते दिखे। एक ग्रामीण कह रहे थे ,मोहरा में आतंकवादी हमले के पीछे चाहे जो भी कारण रहा हो, हम अपने अधिकारों को छोड़ नहीं सकते। इलाके में कई तरह की समस्याएं हैं और हम हमारे प्रतिनिधियों से उनकी जवाबदेही चाहते हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 8 दिसंबर को श्रीनगर के एसके स्टेडियम में चुनावी रैली को संबोधित किया। हालांकि घोषणा के अनुरुप एक लाख लोग नहीं आए, पर जितनी संख्या आई वह पर्याप्त थी। उसका असर भी वहां हुआ। आज अगर पीडीपी को वहां बढ़त मिली तो इसी कारण। अगर भाजपा वहां मौजूद नहीं होती या उसका भय नहीं होता तो हो सकता था परिणाम कुछ और होता। यह पूछा जा सकता है कि आखिर यह कौन सा बदलाव है जिसमें पुरानी पीडीपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है? तो यह घाटी की सोच और संस्कृति तथा रणनीतिक मतदानों की परिणति है। हालांकि हम सज्जाद लोन की पीपुल्स कॉन्फ्रेंस को दो जिलों में मिले मत एवं भाजपा को घाटी में प्राप्त 2.8 प्रतिशत वोट को न भूलें। नेशनल कॉन्फ्रेंस, कांग्रेस को यदि मत मिला तो इसका कारण रणनीतिक मतदान था।  यानी मतदाताओं के एक बड़े वर्ग ने इस आधार पर अपना निर्णय किया जो भाजपा को हरा सके उसे वोट देे। तो रिकॉर्ड मतदान के बावजूद किसी को बहुमत न मिलने का सूत्र यहां निहित है। कारण बहुमत का निर्धारण तो घाटी से ही मिलता। लेकिन लद्दाख में भाजपा को एक भी सीट क्यों नहीं मिली? वास्तव में भाजपा ने धारा 370 पर, लद्दाख को संघ शासित प्रदेश बनाने के मांग पर तथा पंडितों की पुनर्वापसी सहित अन्य मांगों पर खामोशी धारण करने का भी परिणाम उसे चखना पड़ा है। इनसे उसके अपने मतदाता भी रुठे, अन्यथा उसे ज्यादा सीटें आतीं। अगर ऐसा न होता तो नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस साफ हो गई होती।

हालांकि इसके बावजूद बदलाव की शुरुआत कश्मीर में हो गई है। भाजपा दूसरी सबसे बड़ी शक्ति के रुप में उभरी है जो उसके 44 प्लस से कम है, पर यह उपलब्धि और बदलाव भी छोटी नहीं है। हां, यह साफ है कि नरेन्द्र मोदी बाढ़ में लोगों के साथ खड़े होने, लगातार हर महीने की कश्मीर यात्रा और लोगांें को विश्वास मेें लेने की कोशिशों के बावजूद अभी घाटी में ठोस आधार बनाने में सफल नहीं रही। परिणाम के आधार पर सरकार गठन और उसकी स्थिरता पर समस्यायें साफ दिख रहीं हैं। पर दुनिया ने देख लिया कि वहां के बहुमत में लोकतंत्र के प्रति आस्था है, वे न आतंकवादियों के साथ हैं, न अलगाववादियों के। यह ऐसा पहलू है जो कश्मीर में बदलाव का सबसे ठोस स्तंभ के रुप में हमारे सामने दिख रहा है। भाजपा को घाटी में मत मिलना, सज्जाद लोन की ओर आकर्षण, लोगों का रणनीतिक मतदान करने को मजबूर होना......मोदी की श्रीनगर सभा की भीड़......आदि इस बदलाव के ही संदेश हैं। देखना होगा यह आगे सुद्ढ़ होता है, या फिर किसी दूसरी दिशा में मुड़ता है।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

धर्म बदलाव पर बावेला

अवधेश कुमार

आगरा ने संसद से लेकर मीडिया तक भूचाल ला दिया है। इसमें अस्वाभाविक कुछ नहीं है। हमारे नेताओं को तो अपनी संकीर्ण राजनीति के लिए मुद्दा चाहिए। यह हमारी राजनीति की विडम्बना है और त्रासदी भी कि वे किसी समस्या की तह तक जाने, उसमें विवेक और संतुलन से विचार कर प्रतिक्रिया देने, अपनी भूमिका निभाने की बजाय संकुचित राष्ट्रीय हित से विचार करते हैं। जिन नेताओं ने आगरा के 57 परिवारों के करीब 387 मुसलमानों के हिन्दू बनाए जाने या बन जाने को लेकर संसद से बाहर तक बावेला खड़ा किया हुआ है, बहिर्गमन कर रहे हैं उनमें से किसी एक ने भी वहां जाकर सच्चाई जानने और वहां यदि इस कारण सांप्रदायिक तनाव बढ़ा है तो उसे रोकने की जहमत नहीं उठाई। यही नहीं कुशीनगर में और भागलपूर में कई हिन्दू परिवारों के ईसाई बनने की खबर सुर्खियों में है पर उसे लेकर कोई बावेला नहीं। आगरा धर्म परिवर्तन, परावर्तन या घर वापसी जो भी कहिए, उसके प्रमुख आरोपी पुलिस गिरफ्त में है। बावजूद हंगामा नहीं रुक रहा। आज की राजनीति में सबसे बड़ा कर्म मीडिया में बयान दे देना है और उपग्रह की कृपा से चैनल उसे 24 घंटे दिखाते हैं। लेकिन सच तो यही है कि इनकी आक्रामक शब्दावलियों से मामला सुलझने के बजाय उलझता है, जटिल होता है। ऐसा ही इस मामले में हुआ है।

भारत विविधताओं से भरा देश है और इसमें हमारे पूर्वजों ने एकता के तंतु तलाशकर इसको एक राष्ट्र के रुप में कायम रखने का सूत्र दिया। किसी भी स्थिति में यदि विविधता के एकता का वह सूत्र टूटता है तो उससे देश की आंतरिक शांति और स्थिरता को खतरा पहुंचेगा। यहां हर मजहब, पंथ को अपने अनुसार उपासना पद्धत्ति अपनाने, उसके अनुसार जीने का अधिकार है और उस पर किसी प्रकार का अतिक्रमण या उसके निषेध की कोशिश हमारी एकता के तंतु को तोड़ना आरंभ कर देगा। लेकिन इस समय जिस ढंग का बावेला मचा है उसमें सच तक पहुंचना आसान नहीं है। अगर हमें सच को समझना है, सही निष्कर्ष तक जाना है, झूठ और सच के अंतर को अलग करना है तो फिर जरा इस शोर से बाहर निकलकर विचार करना होगा। 

वास्तव में इसके कुछ दूसरे पक्ष हैं उन्हें भी देखना होगा। मसलन, संविधान के मौलिक अधिकार के अनुच्छेद 25 में हर व्यक्ति को अपने धर्म को मानने, उसके प्रचार करने का अधिकार है। इसलिए यदि कोई अपने धर्म का बिना सांप्रदायिक भावना फैलाये प्रचार करता है तो वह संविधान का पालन करता है। उसे आप रोक नहीं सकते। उसी तरह यदि कोई व्यक्ति अपना मजहब, पंथ कुछ भी बदलता है तो उसे उसका अधिकार है। अगर कोई ऐसा करता है तो उसके पीछे कुछ प्रेरणा हो सकती है, वह प्रेरणा कोई व्यक्ति भी दे सकता है। इसलिए किसी को अपना मजहब बदलने के लिए प्रेरित करना भी अपराध नहीं हो सकता। यहां तक यदि हमारे राजनेता और मीडिया के पुरोधा समझने की कोशिश नहीं करेंगे तो फिर समस्या और जटिल होगी। समस्या तब आएगी, संविधान और कानून विरुद्ध तब होगा जब आप किसी को प्रेरणा देने में लालच लोभ का उपयोग करते हैं, उसे बरगलाते हैं, या भयभीत करते हैं। यदि व्यक्ति भय से, लालच से या गलत बात बताने से अपना मजहब बदलने को प्रेरित होता है तो वह संविधान एवं कानून दोनों की दृष्टि से अमान्य है। कई राज्यों ने अपने-अपने यहां धर्म परिवर्तन पर कानून बनाया हुआ है और उसके अनुसार वह कार्रवाई करती है।

अब इन कसौटियों पर आगरा की घटना को देखें। वहां मुसलमान से हिन्दू बनने वाले अत्यंत ही गरीब तबके के हैं। वे पता नहीं बंगलादेशी हैं या पश्चिम बंगाल के हैं। कहा गया कि उनके पूर्वज कुछ ही दशक पूर्व हिन्दू से मुसलमान बने। यह सच है या झूठ इसकी जांच हो सकती है। लेकिन इससे कोई अंतर नहीं आता। मूल प्रश्न यह है कि क्या बजरंग दल या धर्म जागरण मंच ने उनको बरगलाकर, प्रलोभन देकर या डराकर ऐसा किया? पहली नजर में ही यह असंभव लगता है कि एक साथ इतने परिवारों को कोई भय, प्रलोभन या बरगलाकर मजहब छोड़ने को बाध्य कर देगा। यह भी साफ है कि जो हुआ वो खुले में हुआ। उस कार्यक्रम के समाचार स्थानीय समाचार पत्रों में घटना के पहले ही आ गये थे। दूसरे, जिस दिन परिवर्तन का कार्यक्रम था उस दिन भी मीडिया को बुलाया गया था। उसकी पूरी वीडियो फुटेज हमारे पास उपलब्ध है। बाजाब्ता बैनर लगा था बुद्धि शुद्धि कार्यक्रम, पुरखों की घर वापसी। यानी छिपकर गोपनीय तरीके से कुछ नहीं हुआ। वे सारे स्नान करके आए, पुरुषों ने जनेउ पहने, उनको कलेवा पहनाया गया, फिर गंगाजल का पान और सबने मिलकर हवन किया। उस हवन में सबने अपनी टोपी डाली। सारा कार्यक्रम आर्य समाज की परंपरागत पद्धति से हुआ, इसलिए शपथ पत्र पर उनके हस्ताक्षर कराए गए। 

इन सारे तथ्यों को देखने के बाद यह मानना मुश्किल है कि उनको यह पता ही नहीं हो कि वे मुसलमान से हिन्दू बन रहे हैं। यह हो सकता है कि उनने कहा हो कि हमारे पास राशन कार्ड नहीं हैं, मतदाता पहचान पत्र या आधार कार्ड नहीं है और ऐसा करने वालों ने सब बनवा देने का वचन दिया हो। यह समाचार भी मिला है कि आयोजकों में से कुछ बात कर रहे थे कि अब इनका हिन्दू नामकरण करके मतदाता बनवाना है और आघार कार्ड भी बनवा देना है। यहां तक तो सच लगता है। पर क्या यह प्रलोभन की श्रेणी में आएगा? क्या इतने के लिए कोई व्यक्ति या व्यक्ति समूह अपना मजहब बदल लेगा? जाहिर है, इसको गले उतारना संभव नहीं है। इसके अलावा कोई ऐसी बात सामने नहीं आई है जिससे यह जबरन, प्रलोभन वश या बरगालकर किया गया कार्यक्रम लगे। तब प्रश्न है कि उनमें से कुछ लोग क्यों कह रहे हैं कि उन्हें बताया ही नहीं गया उनको मुसलमान से हिन्दू बनाया जा रहा है? कुछ महिलाओं की आंखों से निकलते आंसू बता रहे हैं कि जो कुछ हुआ उससे उनके अंदर पीड़ा है। वो पीड़ा किन कारणों से है यह बात अलग है।

एक व्यक्ति इस्माइल, जिसका नाम राजकुमार रखा गया था उसके द्वारा थाना में प्राथमिकी दर्ज कराई गई। कोई भी देख सकता है कि यह भी दबाव में हुआ। जिस ढंग से मुसलमान समुदाय के लोग सड़कों पर उतरे, वे लोग पहले उस बस्ती में गए, वहां बातचीत की और फिर आम तौर पर जैसा हमारे समाज में होता है जैसे पहले उनको मुसलमान से हिन्दू बनने के लिए समझाया बुझाया गया उसी तरह उनको इसे अस्वीकारने के लिए समझाया बुझाया गया। इस समय मुस्लिम नेताओं, उलेमाओं, की गतिविधियां उस मुहल्ले में तेज हो चुकी है, उन्हें अक्षर ज्ञान और कुरान शरीफ पढ़ाये जा रहे हैं। ऐसा नहीं किया जाता तो वो गरीब लोग, जिनके पास अपनी पहचान साबित करने के लिए कोई एक दस्तावेज तक नहीं, वो कहां से प्राथमिकी की हिम्मत करते। लेकिन अब प्राथमिकी दर्ज हो गई है तो फिर जांच निष्पक्ष और दबावरहित हो। ऐसे अधिकारी जिसका रिकॉर्ड बेदाग हो उसे जांच का जिम्मा दिया जाए। जांच और कानूनी कार्रवाई पूरी तरह राज्य का मामला है। राज्य में समाजवादी पार्टी की सरकार है। तो फिर उस जांच की प्रतीक्षा क्यों नहीं की जानी चाहिए।  

वैसे यह सच है कि कई हिन्दू संगठन लंबे समय से घर वापसी के नाम पर इस प्रकार का आयोजन कर रहे हैं। आर्य समाज, हिन्दू महासभा, शंकराचार्यों के संस्थान.......लेकिन वो इतनी शांति और सहमति से होती है कि उसे लेकर शायद ही हंगामा होेता है। संघ परिवार के घटक भी करते हैं, पर हर बार ऐसा नहीं होता। संघ का संगठन धर्म जागरण मंच यह कार्य करता है। जो सब आर्य समाज के तरीके से होता है। वैसे ईसाई या मुसलमान बनना जितना आसान है उतना हिन्दू बनना नहीं। यहां जाति है। हिन्दू एक जातिविहीन समाज नहीं कि बस आप हिन्दू बन गए। इसलिए इस प्रश्न का निदान कठिन है कि किसी को हिन्दू बनना है तो वह किस जाति का होगा। अगर किसी को धर्म जागरण मंच, या बजरंग दल हिन्दू बना दे और घोषित कर दे कि ये अमुक जाति के हो गए तो वो जाति उसे स्वीकार कर ही ले यह आवश्यक नहीं। जहां तक मैंने इसे समझने की कोशिश की है इन लोगों ने जगह-जगह उनके पूर्वजों के इतिहास को खंगाला है और उससे जानने की कोशिश की है कि परिवर्तन के पहले ये किस जाति के थे। कई जगह ये उस जाति का सम्मेलन बुलाते हैं, उनमें उन मुसलमानों को भी बुलाते हैं जिनको हम धर्म परिवर्तन कहते हैं और ये परावर्तन या घर वापसी। उन्हें बताया जाता है कि आप इस जाति के थे और यदि आप वापस आते हैं तो आपकी रोटी बेटी का संबंध इस जाति के लोग करने को तैयार हैं। इस तरह कोशिश तो योजना पूर्वक हो रही है। किंतु, भारत में जाति की जटिलता को देखते हुए यह आसान नहीं है। इसलिए कई घटनायें ऐसी भी हुईं कि वे समझाने पर तैयार तो हुए लेकिन उनकी परेशानी बढ़ गई। इसलिए हिन्दू संगठनों के लिए सबसे ज्यादा जरुरी है हिन्दू समाज के अंदर जाति की खाई, उंच नीच छूताछूत....के अंत के लिए अभियान चलाना। अगर कोई हिन्दू से धर्म बदला तो उसका सबसे बड़ा कारण यह जातिभेद ही रहा है। लेकिन जो नेता चीत्कार कर रहे हैं उनको इन सबसे कोई लेना देना होगा ऐसा लगता नहीं।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

श्रीनगर की सभा का संदेश

अवधेश कुमार
सामान्यतः चुनाव में किसी पार्टी के बड़े नेता रैलियां करते हैं। यह एक सामान्य घटना होती है। पर श्रीनगर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रैली इस श्रेणी से कई मायनों में भिन्न थी। इसलिए इसका महत्व अलग है। सबसे पहले तो शेर ए कश्मीर स्टेडियम में रैली करने का साहस करना ही महत्वपूर्ण है। 30 वर्ष में किसी नेता की यहां रैली नहीं हुई। इसके बगल के स्टेडियम में अवश्य रैलियां हुईं। अटलबिहारी वाजपेयी की हुई, मनमोहन सिंह की भी हुई। पर वो भी चुनावी रैलियां नहीं थी। नरेन्द्र मोदी ने यहां चुनावी रैली करके एक साथ कई संदेश दिए हैं। हालांकि उन्होंने एक बार भी पाकिस्तान का नाम नहीं लिया, पर सीधा संदेश उसके लिए था कि वह यह समझने की भूल न करे कि अब भी उसके पिट्ठुओं के हाथों घाटी का नियंत्रण है। भाजपा जैसी पार्टी यहां अगर रैली कर पा रही है तो इसका सीधा अर्थ यह है कि अलगावावादी हाशिये पर धकेले जा चुके हैं। इससे दुनिया में भी भारत के अनुकूल ठोस संकेत गया है। इस रैली को कवर करने के लिए दुनिया के महत्पूर्ण समाचार संस्थानों के संवाददाता वहां उपस्थित थे और उनने देखा कि कितनी भारी संख्या में लोग आए।

वास्तव में जिस तरह जम्मू कश्मीर के लिए अन्य राज्यों की तरह ही यह तो महत्वपूर्ण है कि वहां किस पार्टी को बहुमत या सबसे ज्यादा सीटें मिलतीं हैं, पर उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि वहां कितनी संख्या में लोग मतदान कर रहे हैं ठीक उसी तरह इस रैली में मोदी ने क्या कहा इसका महत्व तो है पर शांतिपूर्वक इतनी बड़ी रैली कर लेना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।  इससे यह साबित हो जाता है कि आतंकवादियों के लगातार हिंसा करने की कोशिशों, मतदान न करने की धमकियों तथा अलगाववादियों के बहिष्कार के बावजूद लोगों ने रैलियों में भागीदारी की और भारी संख्या में मतदान किया। आखिर मोदी की रैली में आने से रोकने के लिए तीन दिनों पूर्व से ही आतंकवादी हमलों का जो सिलसिला आरंभ हुआ वह रैली के पूर्व तक जारी था। सच कहें तो एक दिन में चार आतंकवादी हमला प्रदेश के हाल के वर्षों का सबसे बड़ा हमला था। बावजूद इसके रैलियों में लोग आए और मोदी को पूरी तरह सुना। विरोधी यह आरोप लगा रहे हैं कि भीड़ आई नहीं लाई गई थी। सामान्यतः यह आरोप विरोधी हमेशा लगाते हैं। इसलिए इस बहस में पड़ने की आवश्यकता नहीं हैं कि लाए गए थे, आए थे, किस तरह के लोग आए थे, क्यों आए थे..... आदि आदि। श्रीनगर की दृष्टि से यह बहुत बड़ी भीड़ थी, इसलिए इसे एक सफल सभा मानी जाएगी। अभी तक घाटी में किसी नेता की इतनी बड़ी सभा नहीं हुई।

चूंकि यह चुनावी सभा थी इसलिए मुख्य फोकस पार्टी को वोट दिलाने पर होना था। घाटी में बदलती सोच के बीच इस चुनावी सभा में मोदी ने जो कुछ कहा उसके कुछ विन्दुओं पर सहमति-असहमति स्वाभाविक है। लेकिन उनके भाषण का मुख्य थीम क्या था? यही न कि हम कश्मीर में बिना भेदभाव के विकास और शांति के लिए प्रतिबद्ध हैं, लोगों की पीड़ा और दुख को अपनी पीड़ा और दुख समझते हैं और हमने शासन में आने के समय से अपने कार्यों द्वारा यह प्रमाणित किया है।

अगर हम पूरे भाषण का संक्षिप्त सिंहावलोकन करें तो इसे मुख्य नौ विन्दुओं में बांट सकते हैं। सबसे पहले इसमें कश्मीर के लोगों को यह विश्वास दिलाना था इस प्रदेश में इतनी क्षमता है कि यहां के नवजवानों को शिक्षा या रोजगार के लिए बाहर जाने की आवश्यकता नहीं, बल्कि बाहर के लोग यहां आ सकते हैं। दूसरे, यह इसलिए नहीं हुआ कि अब तक के शासन ने विकास और शांति के लिए ईमानदारी और संकल्प से काम नहीं किया। तीसरे, कश्मीर के लोगों की समस्या का समाधान एक ही है, विकास। मोदी विकास तथा सबका साथ सबका विकास का नारा हर जगह उछालते हैं। इसके द्वारा उन्होंने यह संदेश दिया कि हम यहां किसी के बीच भेदभाव नहीं करते। चौथा, विकास के लिए सड़कों सहित आधारभूत संरचना के विस्तार तथा पन्न बिजली उत्पादन के कारखाना लगाने की बात की। यानी एक साथ पर्यटन एवं ठोस विकास की आधारशाीला रखने के वायदे। पांच, पुलिस और सेना को खलनायक मानने की जगह उनके बलिदान को याद कीजिए। यानी हमारी आपकी रक्षा में यहां 33 हजार पुलिस ने अपनी जान दी है। छठा, सेना ने बाढ़ में स्वयं जान देकर हमारी जान बचायी, लेकिन यदि गलती करेंगे तो सजा भी मिलेगी। उनने साफ किया कि दो युवकों को गोली मारने के मामले में पहली बार सेना ने गलती मानी और उन पर मुकदमा दर्ज किया। यह आगे भी होगा। सातवां, कश्मीर के प्रति अपना लगाव दिखाना। यानी लगाव ऐसा है कि मैं हर महीने यहां आया हूं और आगे भी आउंगा। बाढ़ के समय आया और 1000 करोड़ की घोषणा की, दीपावली मनाने की जगह आपके बीच आया। आठवां, कश्मीर के लिए अटल जी ने जम्हूरियत, इन्सानियत एवं कश्मीरियत की जो बात की उसी रास्ते चलकर कश्मीर के आन बान शान को वापस लाउंगा। नौवां, मुसलमानों के प्रति भेदभाव का मेरा चरित्र नहीं। इसके लिए कच्छ में बहुसंख्य मुस्लिम आबादी के होते हुए भकंप से नष्ट जिले को सबसे विकसित जिला बनाने का उदाहरण दिया।

ध्यान रखिए जैसा मैंने आरंभ मे कहा कि मोदी ने न तो पाकिस्तान का नाम लिया और न ही यहां पर आतंकवादियों, अलगाववादियों के बारे में कोई बात की। यही बात वे झारखंड की सभाओं में बोल चुके थे। आम धारणा यही थी कि जिस तरह पिछले कई दिनों से भयानक आतंकवादी हमले हुए हैं तथा उन हमलों में पाकिस्तान की सामग्रियां, सेना द्वारा उपयोग की जाने वाली वस्तुएं, अस्त्र मिले हैं उसके मद्दे नजर मोदी अवश्य इसे अपने भाषण के मुख्य अंशों में शामिल करेंगे। पर उनका भाषण इस धारणा के विपरीत था। साफ है कि यह एक रणनीति थी और इसक उद्देश्य भी साफ था। हालांकि कच्छ का उदाहरण देकर उन्होंने बता दिया कि पाकिस्तान का दोष है तो भी मैं यहां उनका नाम न लेकर केवल आपके और आपके हित की बात करुंगा और उसे पूरा करुंगा। कुल मिलाकर मोदी ने यह स्वीकार किया कि कश्मीरी अवाम की समस्यायें बढ़ी हैं, दुख बढ़े हैं लेकिन आपका दुख मेरा दुख है, आपकी पीड़ा ये मेरी पीड़ा है, आपकी मुसीबत मेरी मुसीबत है....यह कहकर उन्होंने मरहम लगाने एवं अविश्वास की खाई को पाटने का काम किया। और संकल्प यह कि हमें कश्मीर को नई उंचाइयों पर ले जाना है। पर्यटन की चर्चा करते हुए यह कहने का उद्देश्य क्या हो सकता है कि हिन्दुस्तान के पास दुनिया को दिखाने के लिए कश्मीर से बढ़िया और क्या है.?

चुनावी सभा थी तो अपनी पार्टी को बहुमत देने की अपील होगी ही। मोदी की इन पंक्तियों पर ध्यान दीजिए...,‘ जम्मू कश्मीर के भाइयों, जो बुरे थे उनसे मैं आपको बाहर निकालने आया हूं। ...... कश्मीर में आपने कांग्रेस की सरकार देखी, बाप बेटे की सरकार देखी, बाप बेटी की सरकार देखी......। आपको क्या दिया? इनने अपना तो कल्याण किया, आपको कुछ नहीं दिया। एक बार मुझे मौका दीजिए। आतंकवाद तो लगभग खत्म हुआ, भ्रष्टाचार खत्म नहीं हुआ। भ्रष्टाचार नहीं जाएगा तो कश्मीर का विकास नहीं।’ यानी जो भी सरकारें आईं सबने भ्रष्टाचार किया है, अगर वे ठीक से काम करते तो कश्मीर इस समय दुनिया का स्वर्ग होता। यही तीनों पार्टियों पर सबसे तीखा हमला था और इसका राजनीतिक विरोध स्वाभाविक है। उन्होंने कहा कि नेपाल में दक्षेस बैठक के दौरान मैने कहा कि हम जो पड़ोस के देश है। हम किस बात के लिए लड़ रहे हैं, किसके लिए लड़ रहे हैं? आओ हम कंधे से कंधा मिलाएं और गरीबी के खिलाफ लड़ाई लड़ें, हमें लड़ना है बेरोजगारी, के खिलाफ, भ्रष्टाचार के खिलाफ.....। तो यही नारा कश्मीर के लिए है। यहां आपस में लड़ने की जगह हम भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, गरीबी के खिलाफ लड़ेंगे और कश्मीर को भारत का स्वर्ग फिर से बनाएंगे। इसलिए अपील कि मैं आपकी सेवा करने आया हूं। आप हमें सेवा करने का मौका दीजिए। पूरे विश्व में आज हिन्दुस्तान की जय जयकार क्यों हो रही है? इसलिए कि 125 करोड़ देशवासियों ने पूर्ण बहुमत की सरकार चुनी है। मोदी को कोई देखता है तो सोचता है कि इसके पीछे 125 करोड़ लोग हैं, इसलिए सीना तानकर खड़ा हो जाता है। इसलिए सीना तानकर खड़ा होना है तो पूर्ण बहुमत की भाजपा की सरकार बनाइए और कंधे से कंधा मिलाकर भ्रष्टाचार से बेरोजगारी से मुक्ति दिलाए, कश्मीर को नई उंचाइयों पर ले जाएं...।
तो इस तरह अंतिम वोट की अपील को अलग कर दें जो स्वाभाविक था कि मोदी ने एक सुस्पष्ट थीम की तरह श्रीनगर सभा को संबोधित किया।  इसकी प्रभाव की परीक्षा तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही होगा। पर इस समय यह मानने में कोई समस्या नहीं कि मोदी ने इस सभा के द्वारा कश्मीर के अवाम, सम्पूर्ण भारत, सीमा पार पाकिस्तान, आतंकवादियों तथा विश्व समुदाय को कश्मीर की एक साकार तस्वीर और उसकी बदलती हुई फिजां का दर्शन कराया है। इसका असर आने वाले समय में और मुखर रुप में देखने को मिलेगा।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

पश्चिम बंगाल का राजनीतिक टकराव

अवधेश कुमार

कोई भी महसूस कर सकता है कि पश्चिम बंगाल ममता बनर्जी एवं भाजपा के बीच राजनीतिक टकराव का एक नया और सबसे बड़ा मोर्चा बन गया है। संसद में हमने देखा कि किस तरह तृणमूल कांग्रेस के सांसदों ने सहारा की कथित लाल डायरी का मामला उछालकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को कठघरे में खड़ा करने की रणनीति अपनाई। यह एक दिन पहले कोलकाता रैली में अमित शाह द्वारा ममता बनर्जी पर किए गए हमले और पश्चिम बंगाल को तृणमूल कांग्रेस मुक्त करने की घोषणा के बाद आया है। मामला कहां तक पहुंच गया है इसका प्रमाण है ममता द्वारा प्रधानमंत्री की आदर्श ग्राम योजना से अपने सांसदों को हटने का निर्देश। अब तृणमूल के सांसद एक भी गांव गोद नहीं लेंगे। दोनों पार्टियों का जैसा तेवर है और हमने ममता बनर्जी का जो राजनीतिक आचरण आज तक देखा है उसमें इस संघर्ष का आगे और उग्र और आक्रामक होना निश्चित है। हमने दोनों पार्टियों के बीच हिसंक टकराव देख रहे हैं, लोगों को मरते और घायल होते भी देख रहे हैं। जाहिर है, यदि टकराव इस दिशा में बढ़ता है तो राजनीति और स्वयं पश्चिम बंगाल के लिए काफी चिंताजनक स्थिति होगी।

हालांकि ममता बनर्जी को इस संघर्ष में ज्यादातर भाजपा विरोधी पार्टियों का समर्थन नहीं मिला है। इसका कारण साफ है। इस समय उन्होंने सारधा चीट फंड घोटाले में पार्टी नेताओं की गिरफ्तारी एवं उनके घर छापेमारी को लेकर अपना तेवर कड़ा किया है। इस मामले में वो जिस सीमा तक चलीं गईं वह राजनीति के किसी मापदंड के तहत नहीं आता। राजनीतिक विरोध अपनी जगह है, पर बगैर ठोस कारण के किसी नेता की रैली पर आप कैसे रोक लगा सकते हैं? ममता बनर्जी ने अमित शाह की प्रस्तावित रैली को प्रतिबंधित कर दिया। जिस ढंग से ममता रैली न होेने देने पर अड़ गईं थीं वह लोकतंत्र के किसी दायरे में नहीं आता था। जिस वामपंथी शासन को ममता लोकतंत्र विरोधी, फासीवादी, विरोधियों का दमन करने वाला करार देतीं थीं खुद उनका व्यवहार उसी तरह का हो गया। हालांकि वामपंथी सरकार ने अनावश्यक कभी किसी की रैली प्रतिबंधित करने का कदम नहीं उठाया। आप रैली के समानांतर रैली से उसका उत्तर दीजिए, लेकिन बिना किसी कारण के आप किसी नेता की सभा को कैसे रोक सकते हैं?

कोलकाता के विक्टोरिया हाउस के सामने अमित शाह की रैली आयोजित हो या न हो यह राज्य में भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच राजनीतिक संघर्ष का विषय हो गया था। भाजपा स्प्लैनेड स्क्वेयर में शाह की रैली करना चाहती थी, उसी अनुसार तैयारी कर रही थी, किंतु कोलकाता पुलिस और फिर सिटी कॉर्पाेरेशन ने इजाजत नहीं दी। कोलकाता पुलिस का कहना था कि विक्टोरिया हाउस हैवी ट्रैफिक वाली जगह है, ऐसे में रैली की इजाजत देने से लोगों को परेशानी होगी। मजे की बात देखिए कि तृणमूल कांग्रेस 21 जुलाई को ठीक इसी जगह पर पार्टी कार्यकर्ताओं की सालाना सभा का आयोजन कर चुकी थी। साफ है कि यह एक अहंकारी और अलोकतांत्रिक ज़िद थी। अंततः न्यायालय ने ममता को पीछे हटने को मजबूर कर दिया। कोलकाता उच्च न्यायालय ने ममता सरकार के रवैये की आलोचना करते हुए भाजपा को विस्टोरिया हाउस के सामने स्प्लैनेड स्क्वेयर में अमित शाह की रैली की सशर्त अनुमति दे दी। सरकार द्वारा सांप्रदायिक तनाव भड़काने सहित कई प्रकार की साजिश की आशंका के जवाब में उच्च न्यायायलय ने कहा कि ठीक है हम  रैली पर नजर रखने के लिए 3 सदस्यीय टीम बना देते हैं और बना दिया।

यहां प्रश्न भाजपा का नहीं था। आप किसी पार्टी को पसंद न करें, या आपका उससे विरोध है, इसलिए उसे प्रचार प्रसार की अनुमति नहीं देंगे तो लोकतंत्र का क्या होगा? अगर ममता बनर्जी को लगता है कि केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार सीबीआई को हथियार बनाकर उनके नेताओं को निशाना बन रही है तो इसके लिए राजनीतिक एवं कानूनी दोनों स्तरों पर संघर्ष के रास्ते हैं। वास्तव में सारधा चीट फंड घोटाले में उनके सांसदों के खिलाफ जैसे-जैसे सीबीआई का ंिशकंजा कसा है ममता का तेवर उग्र हुआ है। उन्होंने सड़कों पर उतरकर स्वयं मार्च किया और धर्मतल्ला में सभा को संबोधित किया। हालांकि शारधा चीटफंड घोटाले की जांच की आग उड़ीसा से लेकर असम तक पहुंच चुकी है। उड़ीसा में नवीन पटनायक के करीबी नेता भी इसकी जद में आ गए हैं, पर पटनायक ने ऐसा रवैया नहीं आया। कांग्रेस में नरसिंह राव सरकार में गृह राज्यमंत्री रहे असम निवासी मतंग सिंह एवं उनकी पूर्व पत्नी मनोरंजना सिंह से भी पूछताछ हुई है। कांग्रेस ने ऐसा तेवर नहीं अपनाया जैसा ममता ने अपनाया है। ममता कह रहीं हैं कि केंद्र सरकार जांच एजेंसियों का गलत इस्तेमाल कर रही है। हमारे नेताओं और सांसदों पर फर्जी आरोप लगाए जा रहे हैं। ताकत की यह लड़ाई नहीं थमी तो तृणमूल दिल्ली तक जाएगी और वहां प्रदर्शन करेगी। सीबीआई की जांच उच्चतम न्यायायल की मौनिटरिंग मंें चल रही है। ममता को अगर समस्या है तो न्यायालय में जाना चाहिए। वे भाजपा के खिलाफ राजनीतिक अभियान भी चलायें, लेकिन वे उसी तरह भाजपा पर टूट पड़ीं हैं जैसे कभी वामदलों विशेषकर माकपा पर टूटतीं थी। हालांकि इस मामले में उनको प्रदेश की किसी पार्टी का साथ नहीं मिलने वाला। माकपा का तो अधिकृत बयान है कि ममता सीबीआई जांच मंे बाधा डालने की कोशिश कर रहीं हैं।

उनके ही राज्यसभा सांसद कुणाल घोष, जो इस समय सारधा घोटाले में जेल में बंद हैं, ने जेल में आत्महत्या करने की कोशिश की एवं आत्महत्या नोट में ममता बनर्जी का नाम लिखा है। इसमें केन्द्र सरकार क्या कर सकती है? कुणाल ने पहले ही चेतावनी दी थी कि अगर इसके असली दोषी को जेल में नहीं डाला गया तो वे आत्महत्या कर लेंगे और उनने ऐसा करने की कोशिश की। यह न केन्द्र सरकार ने करवाया न सीबीआई ने। इस भ्रष्टाचार के दाग ने ममता के सफेद चादर पर कालिमा जड़ दिया है। ममता की मूल शक्ति उनकी ईमानदारी और सादगी है। इस पर यदि प्रश्न खड़ा होता है तो उन्हंे गुस्सा आना स्वाभाविक है। पर वे क्यों भूल रहीं है कि यह घोटाला वर्तमान सरकार के आने के पूर्व सामने आया एवं जांच पहले से चल रही है। यह साफ हो गया कि लोगों का पैसा लेकर कंपनी ने गलत तरीके से खर्च किया, ऐसे चैनल चलाए गए एवं अखबार निकाले गए जिनसे वामपंथ के विरुद्ध एवं ममता बनर्जी के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश हुई। कुणाल घोष को ममता ने इसी का इनाम सांसद बनाकर दिया। हां, इसमें ममता शामिल हैं, इस पर दो राय हो सकती है, लेकिन यदि आपके नेतृत्व में काम करने वाले ऐसा कर रहे थे, जिन्हें आप पुरस्कार दे रहीं है तो आप पर प्रश्न उठेगा। पर सीबीआई ने न तो उनसे पूछताछ की कोई बात की है न उनके खिलाफ किसी प्रकार की कार्रवाई का संकेत ही दिया है। बावजूद ममता बनर्जी कह रहीं है कि हिम्मत हो तो मोदी सरकार व सीबीआइ मुझे गिरफ्तार करके दिखाए। क्यों? साफ है कि वो अपनी एवं पार्टी की गिरती छवि से परेशान हैं।

एक बड़ी वजह भाजपा का प्रदेश में उभार है। जिले जिले में पूर्व माकपा या दूसरी वामपंथी पार्टियों के सदस्य भाजपा में शामिल हो रहे हैं, कुुछ कांग्रेस के लोग भी आ रहे हैं और उनका टकराव तृणमूल से उसी तरह हो रहा है जैसे कभी वामदलों विशेषकर माकपा के साथ तृणमूल का होता था। हालांकि यह पश्चिम बंगाल की राजनीति में एक नये दौर की शुरुआत है जिसे हम अपने नजरिये से विश्लेषित कर सकते हैं। किंतु यह सच है कि भाजपा तृणमूल के समानांतर एक बड़ी ताकत के रुप में उभर रही है। अमित शाह की रैली में उमड़ी भीड़ इसका प्रमाण था। भाजपा आज माकपा का स्थानापन्न कर रही है तथा दोनों पार्टियों में हिसंक टकराव बढ़ रहा है। इस स्थिति का जितनी जल्दी अतं हो उतना ही अच्छा। ममता मुख्यमंत्री के नाते यह समझें कि राजनीतिक विरोध एवं निरंकुश निर्णय में अंतर होता है। वो भाजपा से वैचारिक स्तर पर लड़ें यह उनका अधिकार है। उसी तरह भाजपा को भी उनके खिलाफ अहिंसक संघर्ष का अधिकार है। सारधा घोटाला हुआ है तो उसकी जांच होगी और जो चपेटे में आयेंगे उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई होगी। इसका निदान उच्चतम न्यायालय कर सकता है, न कि हम किसी की सभा को रोकें ......उसको अनावश्यक चुनौतीं दें।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

उच्चतम न्यायालय द्वारा 2 जी मामले से रंजीत सिन्हा को हटाना

अवधेश कुमार

आजाद भारत में इसके पूर्व ऐसा कभी नहीं हुआ जब उच्चतम न्यायालय ने सीबीआई के निदेशक को कहा हो कि आपको किसी भ्रष्टाचार के जांच से अपने को अलग करना होगा। इसलिए यह असाधारण आदेश है। जरा सोचिए, 2 जी स्पेक्ट्रम मामले की जांच सीबीआई ने की और उच्चतम न्यायालय में वही आरोपियों के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ रही है। अगर उच्चतम न्यायालय ने कह दिया है कि सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा 2जी केस की जांच से खुद को अलग कर लें, इस मामले में दखल न दें तो यह केवल रंजीत सिन्हा नहीं समूचे संगठन की कार्यशैली पर प्रश्न चिन्ह है। हालांकि उच्चतम न्यायालय ने संगठन के ही किसी वरिष्ठ अधिकारी की नियुक्ति इस मामले में करने का आदेश दिया है जो सीबीआई निदेशक की भूमिका का निर्वहन कर सके। इसका अर्थ यह है कि उसने सीबीआई संस्था में अभी उस तरह अविश्वास व्यक्त नहीं किया है जिस तरह संप्रग सरकार के कार्यकाल में यह कहते हुए व्यक्त किया था कि यह सरकार का तोता बन गया है। यह गुलाम है और इसे मुक्त कराना होगा। बावजूद इसके यह हमें कई पहलुओं पर विचार करने को मजबूर करता है।
वैसे यह मानना उचित नहीं होगा कि केवल वकील प्रशांत भूषण द्वारा उच्चतम न्यायालय में उनकी विजिटिंग डायरी की प्रतिलिपि प्रस्तुत करने के कारण ऐसा हुआ है। निस्संदेह, आधार वही बना जिसमें रंजीत सिन्हा से मिलने वालों की सूची में 2 जी के आरोपियों के नाम और हस्ताक्षर मौजूद हैं। पूरा मामला वहीं से आरंभ हुआ और उच्चतम न्यायालय के सामने प्रश्न यह आया कि 2 जी मामले की जांच मेें रंजीत सिन्हा को रखा जाए या इससे उन्हें अलग कर दिया जाए। लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह है कि उच्चतम न्यायालय ने सिन्हा को जांच से अलग करने के आदेश के पीछे की वजह नहीं बताई है। उसनेे कहा है कि इस बारे में विस्तृत फैसला नहीं दिया जा रहा क्योंकि उससे एजेंसी की छवि प्रभावित होगी। ध्यान रखने की बात यह भी है कि सरकारी वकील आनंद ग्रोवर ने उच्चतम न्यायालय को बताया कि सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा 2जी मामले में जिस तरह हस्तक्षेप कर रहे हैं उसेे मान लिया जाता है तो 2जी मामला खत्म हो सकता है। यानी सरकार भी निदेशक के रवैये के विरुद्ध गई है।  
सरकार ने ऐसा क्यों कहा इसके कई उत्तर हो सकते हैं। मसलन, 2 जी के आरोपी यदि सीबीआई निदेशक के घर पर मिलने जाते रहे तो इससे संदेह की जो स्थिति बनती है सरकार ने उससे स्वयं को अलग रखने की नीति अपनाई है। सरकार यदि उनके बचाव में आ जाती तो उस पर विपक्षी टूट पड़ता कि देखों ये भी 2 जी के आरोपियों को बचाना चाहते हैं। आखिर भाजपा ने 2 जी को संसद से लेकर बाहर तक जितना बड़ा मुद्दा बनाया था यह आचरण उसके विपरीत होता। उसके दबाव में ही संयुक्त संसदीय समिति बनी और इसके लिए संसद का दां सत्र गतिरोध की भेंट चढ़ गया था।  इसलिए नरेन्द्र मोदी सरकार पर यह दायित्व भी है कि उससे संबंधित जांच और कानूनी प्रक्रिया पूरी तरह निष्पक्ष और पारदर्शी दिखे। भले उसके परिणाम जो आएं, पर उसकी ओर से ढिलाई का संकेत नहीं जाना चाहिए। सरकार ने केवल उनके साथ खड़े होने से ही अपने को अलग नहीं किया, उसने उनकी निष्पक्षता पर भी संदेह व्यक्त किया है। यह भी पहली बार है जब सरकार ने अपने सीबीआई निदेशक पर औपचारिक रुप से न्यायालय में संदेह व्यक्त किया है। तो क्या सरकार वाकई मानती है कि सीबीआई निदेशक 2 जी मामले को खत्म करने की दिशा में काम कर रहे थे? जब रणजीत सिन्हा की सीबीआई निदेशक के तौर पर नियुक्ति हुई थी तब भी भाजपा ने काफी विरोध किया था। संप्रग सरकार ने कलेजियम प्रणाली के अमल में आने के पूर्व ही केन्द्रीय सतर्कता आयोग की अनुशंसा को दरकिनार कर रंजीत सिन्हा को नियुक्त कर दिया था। उसका कहना था कि सीबीआई को इतने दिनों तक बिना निदेशक के नहीं रखा जा सकता है।
हालांकि निदेशक रंजीत सिन्हा के पक्ष में यह बात जाती है कि अगर उन्हें कुछ छिपाना होता तो मिलने वालों का नाम रजिस्टर में अंकित किए बगैर घर बुला सकते थे। वे गोपनीय तरीके से कहीं मिल सकते थे। वास्तव में किसी से मिलने मात्र से उसे दोषी या संदिग्ध नहीं माना जा सकता। पर न्यायालय में उन्होंने अपना पक्ष रखा था। जाहिर है, न्यायालय ने उसे स्वीकार नहीं किया है। यह उच्चतम न्यायालय के मख्य न्यायाधीश की पीठ का फैसला और मंतव्य है। बिना गहराई में गए ऐसा फैसला उच्चतम न्यायालय की पीठ वैसे भी नहीं दे सकती। उसे पता है कि इससे एक व्यक्ति के पूरे जीवन भर का कार्य कालिमा से भर जाएगा।
वैसे रंजीत सिन्हा का कार्यकाल 2 दिसंबर तक ही शेष है। इसलिए वे छुट्टी पर जायें या त्यागपत्र दें इससे बड़ा मुद्दा स्वयं सीबीआई संस्था का है। इतना साफ है कि सीबीआई के अंदर भयंकर गुटबंदी चल रही है। यह व्यक्तियों को लेकर भी है और मामलों को लेकर भी। रंजीत सिन्हा के वकील विकास सिंह ने न्यायालय में कहा था कि जांच एजेंसी के डीआईजी स्तर के अधिकारी संतोष रस्तोगी ने प्रशांत भूषण को दस्तावेज मुहैया कराए थे और  सीबीआई में वही भेदिया हैं। इस पर उच्चतम न्यायालय ने कहा कि कोई सबूत हो तभी सिन्हा आरोप लगाएं, अन्यथा नहीं। जरा उच्चतम न्यायलय की इस टिप्पणी पर गौर कीजिए, ‘आपको सीबीआई अधिकारी का नाम घर के भेदी के तौर पर नहीं लेना चाहिए था। उस अधिकारी की सेवा पर कोई दाग लगाने की अनुमति नहीं होगी और हम इस मामले पर विचार करेंगे।’ न्यायालय ने आगे टिप्पणी की कि ऐसा लगता है कि सब ठीक नहीं है और इसे अलग से देखना होगा।
इससे साफ है कि सीबीआई के अंदर गुटबंदी अब उच्चतम न्यायालय के सज्ञान मेें है। इस पर वह आगे क्या कार्रवाई करती है देखना होगा। हालांकि सीबीआई के अंदर रंजीत सिन्हा के समर्थकों की संख्या भी बहुत बड़ी है। तभी तो सुनवाई के दिन काफी संख्या में सीबीआई के अधिकारी न्यायालय मेें मौजूद थे। उच्चतम न्यायालय ने उनको फटकार लगाते हुए कहा कि आप यहां से जाएं व कार्यालय में अपना काम करें। यह उच्चतम न्यायालय ही है जिसकी तीखी टिप्पणियों और निर्देशों के बाद पिछली सरकार ने सीबीआई निदेशक की नियुक्ति से लेकर उसके वित्तीय अधिकार यानी स्वायत्तता की दिशा में बड़े कदम उठाए थे। शायद इसके बाद सीबीआई के अंदर की गुटबाजी पर भी वह कोई निर्देश दे। यह सोचने वाली बात है कि अगर देश की शीर्ष जांच एजेंसी में ही इस तरह की स्थिति है तो इसका असर निश्चय ही मामलों की जांच पर पड़ता होगा। यह तो साफ है कि वर्तमान निदेशक के रवैये से नाखुश लोगों ने उनके खिलाफ काम किया है। बिना अंदर के किसी व्यक्ति के विजिटिंग रजिस्टर की कॉपी मिल ही नहीं सकती। पर अगर निदेशक महोदय उन आरोपियों से घर पर मिलते ही नही तो फिर यह तथ्य किसी के हाथ आता तो कैसे?
तो कुल मिलाकर निष्कर्ष चिंताजनक है। भले रंजीत सिन्हा अब काम पर वापस न आएं लेकिन इस संस्था की जो स्थिति है उसे दुरुस्त किये जाने की आवश्यकता है। पिछले तीन वर्षों में सीबीआई के अधिकारियों के भ्रष्टाचार में संलिप्त होने के प्रमाण देखे हैं। आईबी और सीबीआई के बीच आतंकवादी की सूचना पर द्वंद्व देखा है। अब इसके अंदर भयानक गुटबंदी की बात भी साबित हो चुकी है। इस स्थिति का हर हाल में अंत करना होगा। यह केवल न्यायालय की नहीं, सरकार की भी जिम्मेवारी है कि एक बार इसका विरेचन कर सम्पूर्ण रुप से स्वच्छ बनाए। इसमें प्रतिनियुक्ति वैसे ही अधिकारियों की हो, जिनका चरित्र और कार्य शत-प्रतिशत संदेहों से परे रहा है। ऐसा करने के पहले यह जानना भी आवश्यक हो गया है कि आखिर प्रशांत भूषण को विजिटिंग रजिस्टर मुहैया किसने कराया? न्यायालय चाहे तो इसे गुप्त रख सकती है, पर उस व्यक्ति से और भी कई जानकारियां सामने आ सकतीं है। उसका इरादा पता चल सकता है। यह भी संभव है कि 2 जी मामले के ही किसी दूसरे गुट ने उस पर नजर रखी और यह काम करा दिया हो। इसकी सम्पूर्ण सफाई करनी है तो फिर यह जानकारी भी चाहिए।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

शनिवार, 22 नवंबर 2014

भारत के नजवागरण की हुंकार

अवधेश कुमार

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से घृणा और आत्यंतिक विरोध रखने वालों की हमारे देश में अब भी कमी नहीं है। वे उनके काम को निष्पक्ष नजरिये से देख नहीं सकते, अन्यथा विदेश की धरती से भारत गर्जना का जो कूटनीति में उन्होंने प्रखर अभियान चलाया है उससे भारतवंशी चाहे वह देश में हो या विदेश में उत्साहित और रोमांचित अनुभव कर रहा है। जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सिडनी के ऑलफोंस अरीना में लोगों से यह पूछा कि क्या आपको विश्वास है कि भारत फिर से उठकर खड़ा होगा? मैं आपसे पूछ रहा हूं कि क्या यह देश फिर से उठेगा? क्या यह विश्व की सेवा कर पायेगा? क्या यह  विश्व को संकटों से मुक्त कर पाएगा? और अंदर उपस्थित 16 हजार तथा स्टेडियम के बाहर कम से कम 10 हजार भारतवंशियों ने जब हां में आवाज लगाई तो ऐसा लगा मानो भारत का नये सिरे से पुनर्जागरण हो रहा है। इसके बाद उन्होंने कहा कि सामान्य मानवी की बात ईश्वर की बात होती है तो होगा। उन्होंने यह कहा कि कोई कारण नहीं लगता कि हमारा देश पीछे रह जाएगा, नियति ने उसका आगे जाना तय कर लिया है तो उसमें जो आत्मविश्वास था वही सबसे ज्यादा प्रभाव डालने वाला है। इसके पहले किस प्रधानमंत्री ने विदेश की भूमि से इस प्रकार भारत को विश्व का रास्ता दिखाने वाले देश के रुप में खड़ा करने का संकल्प व्यक्त किया था?
28 सितंबर को मोदी ने अमेरिका के मेडिसन स्क्वायर से ऐसे ही कहा कि आप सबके परिश्रम और योगदान की बदौलत भारत को विश्व गुरु बनना निश्चित है। 125 करोड़ भारतवासियों के कर्मों से अब भारत विश्व को रास्ता दिखाने वाला देश बनने की ओर बढ़ गया है और कोई ताकत इसे रोक नहीं सकती। कुछ लोग इसे भावुकता के प्रकटीकरण तक सीमित कर सकते हैं। कारण, उनकी नजर में भारत की वह कल्पना नहीं जो हमारे मनीषियों ने आजादी के पूर्व की थी या जैसा गुलामी के पूर्व इस राष्ट्र की सोच और शैली थी। आखिर प्रधानमंत्री ने विवेकानंद की ही बातों का तो उल्लेख किया। पहलेे उन्होेेंने स्वामी विवेकानंद को आजादी के 50 वर्ष पूर्व की आजाद होने की भविष्यवाणी का उल्लेख किया फिर उनके दूसरे सपने की चर्चा की। उनने कहा कि स्वामी विवेकानंद ने दूसरा सपना देखा था। वह था कि मैं मेरे आंख के सामने भारत मां का वह रुप देख रहा हूं। फिर मेरी भारत माता विश्व गुरु के स्थान पर विराजमान होगी, वह विश्व की आशा आकांक्षा को पूरा करने वाला समक्ष देश बनेगा। मोदी ने अगर कहा कि जिस तरह उनकी 50 वर्ष पहले की भविष्यवाणी सही साबित हुई उसी तरह उनका यह सपना भी पूरा होगा तो यह विश्वास पैदा करने के लिए। उनके अनुसार मेरा स्वामी विवेकानंद के विश्वास पर महान आस्था है। असीम उर्जा से भरा हुआ मेर देश है। इसे कोई रोक नहीं सकता।’ यानी अगर विवेकानंद जी की एक भविष्यवाणी सही हुई तो दूसरी भी होगी। यह थीम उनका था। आप गांधी जी सहित जितने मनीषिेयों कीे आजादी के पूर्व या आजादी के तुरत बाद के वक्तव्यों को देख लीजिए, चाहे महर्षि अरविन्द हों, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद हो, यहां तक कि सुभाषचन्द्र बोस भी .....भारत की कल्पना एक ऐसे ही राष्ट्र के रुप में किया था जो अंततः पूरे विश्व के लिए आदर्श और प्रेरक देश बनेगा। आज मोदी वही बात दुनिया के प्रमुख देशों में जाकर कह रहे हैं, तो समूची दुनिया में भारतवासी उससे रोमांचित क्यों नहीं होंगे? और विश्व शक्तियों के अंदर भी इस कूटनीति की प्रतिध्वनि अपने तरीके से गंूजित हो रही है।
यह सच है कि अपने देश में भी राष्ट्रीय नेताओं से देशभक्ति से ओतप्रोत आलोड़ित करने वाले विचारों के लिए हमारे कान तरस गए थे। उसमें भी इतना आत्मविश्वास कि हम विश्व को रास्ता दिखाने वाले, विश्व की सेवा करने वाले बनेंगे ऐसा आज के हमारे नेता सोचते भी नही ंतो बोलेंगे कहां से। मोदी के इस बात का भी समर्थन करना होगा कि ये जो नजारा सिडनी में दिख रहा है ये पूरे हिन्दुस्तान को आंदोलित कर रहा है। छः महीने में अभी बहुत ठोस काम धरातल पर भले न दिखे पर माहौल, सोच, बदल रहा है। कह सकते हैं कि उनके भाषण के सारतत्व वही थे जो हमने न्यूयॉर्क के मेडिसन स्क्वायर मंें सुना। तो इसमें समस्या क्या है? भारत के पुनर्जागरण के लिए, उसका आत्मविश्वास जगाने के लिए, इस अभियान को विदेश नीति का अभिन्न अंग बनाकर दुनिया भर में फैले भारतवंशियों को देश के साथ भावनात्मक व व्यवहारिक रुप से योगदान करने की तैयारी के रुप में जोड़ने का ही तो लक्ष्य है। वह जिस भाषण, जिस तथ्य और जिस तरीके से हासिल होगा वह अपनाया जाना चाहिए।
मोदी से कई बिन्दुओं पर, या उनकी राजनीतिक शैली से हमारा मतभेद हो सकता है, पर यह दायित्व वे बखूबी निभा रहे हैं। सिडनी और मेडिसन स्क्वायर दोनों जगह उन्होंने वहां रहने वाले भारतवंशियों के कर्म की, वहां भारत का और अपना सम्म्मान बढ़ाने की प्रशंसा की, अभिनंदन किया ...... इसके बाद उनसे अपनी जन्मभूमि भारत माता के लिए भी कुछ करने की अपील की। जब माहौल चुम्बकीय हो, संवेग को उफान पर पहुंचा दिया गया हो तो उसका असर भी होता है। सिडनी में जब उन्होंने स्वच्छता और शौचालय योजना की बात की तो वहां उपस्थित सबसे अपील किया कि आप जिस स्थिति में हैं, जहां से जिस गांव से आये हैं वहां आकर इस काम में हमारी मदद करिए मैं आपको निमंत्रण देता हूं तो उसका असर हुआ। लोग चैनलों पर कह रहे थे कि हम अपने गांव में करेंगे।
मोदी इन सबके लिए बड़े ही व्यवस्थित और सुचिंतित शब्दों और विचारों को क्रमबद्ध तरीके से पेश कर रहे हैं। मसलन, वे कहते हैं कि हम आजादी के लिए संघर्ष न कर सके, क्योंकि बाद में पैदा हुए तो हमको अपने जिम्मेवारी का अहसास तो होता है।  जरा उनके कथन देखिए,‘ हमें आजादी के संघर्ष में, हमें मां भारती के सम्मान और गौरव के लिए जेल की सलाखों के पीछे अपनी जवानी को खपाने का सौभाग्य नहीं मिला है। इसके लिए हमें कसक होनी चाहिए कि हम आजादी के जंग में नहीं थे। लेकिन हम आजादी के लिए बलिदान न दे सके तो आजादी देश के लिए जी तो सकते हैं। यानी जो करेंगेे करेंगे देश के लिए। यदि यह भाव सवा सौ करोड़ भारतवासियों के दिल में पैदा हो गया तो फिर देश में क्या होगा!’ फिर वे भारत मंें विश्वास पैदा करते हैं। मसलन, विश्व लोकतांत्रिक शक्तियों को आज गौरव के भाव से देख्ता हैं और भारत के दिव्यद्रष्टाओं ने लोकतंत्र की मजबूत नींव डाली.......लोकतंत्र की ताकत देखिए..... अगर लोकतंत्र की उंचाई न होती तो क्या मैं यहां होता? भारत के लोकतंत्र की इस ताकत को हम पहचाने जहां सामान्य से सामान्य इन्सान भी अगर सच्ची निष्ठा के साथ देश के लिए जीना तय करता है तो देश भी उसके लिए जीना तय करता है। .....
क्या इससे देश की अंतःशक्ति में विश्वास पैदा नहीं होता? यकीनन हमारी व्यवस्था में दोष हैं, हम उसकी आलोचना करते हैं, करेंगे, उसे बदलने के लिए भी काम करेंगे, पर जहां तक मोदी का प्रश्न है इस व्यवस्था के तहत वे भारत को महिमामंडित करने की कल्पना करते हैं और इसे एक आंदोलन की तरह भारत और बाहर के भारतवंशियों के बीच ले जा रहे हैं तो इससे देश को लाभ ही होगा। हमारे देश की समस्या यह रही है कि हम अपने राष्ट्र लक्ष्य को भूल चुके हैं, और इस कारण हम सामूहिक तौर पर एक भटके हुए भ्रमित राष्ट्र हैं। इसलिए जो इस देश को करना चाहिए वह नहीं कर पा रहा है। जब इसे अपना लक्ष्य ही नहीं मालूम, दुनिया भर के भारतवंशियों को यही नहीं बताया गया कि आप क्या हैं और आपको भारतीय होने के नाते कैसी भूमिका निभानी है तो फिर सब दिशाहीन होकर अपने तरीके से जी रहे हैं। इसलिए जब वे कहते हैं कि भारत मां के पास 250 करोड़ भुजायें हैं और उसमें भी 200 करोड़ भुजाये ंतो 35 साल से कम आयु की है... हिन्दुस्तान नवजवान है... दुनिया में तेजी से दौड़ने वाले देश बुढ़े हैं और हमारी युवा आबादी एक मजबूत शक्ति है तो युवाओं को भी लगता है कि वाकई हम तो दुनिया से ज्यादा शक्तिशाली हैं। फिर क्यों न कुछ करा जाए। इसका वे यह कहकर विश्वास भी दिला देते हैं कि छः महीने में जो अनुभव मेरा आया है उसके आधार पर कह सकता हूं कि देश के सामान्य मानवी ने जो सपने देखे हैं उसका आशीर्वाद भारत मां दे रही है। वे जन धन योजना की सफलता का उदाहरण देकर समझाते देते हैं कि इन्हीं लोगों ने, इसी व्यवस्था के अंतर्गत यह करके दिखा दिया। यानी जो हम सोचते हैं वह संभव है। हम इसके गुण दोष में यहां नहीं जायें। आखिर यही तो एक नेता को करना है। नेता स्वयं सारा काम नहीं कर सकता, वह दिशा दे सकता है, प्रेरणा दे सकता है, विश्वास जगा सकता है, अपने तंत्र से काम कराकर उसे पुष्ट कर सकता है.....मोदी अपने तरीके से तमाम कमियों के बावजूद यही कर रहे हैं।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः11009, दूर.ः01122483408, 09811027208

शनिवार, 8 नवंबर 2014

दिल्ली की इस हालत के लिए कौन जिम्मेवार

अवधेश कुमार

उच्च्तम न्यायालय द्वारा 30 अक्टूबर को यह कहने के बाद कि अल्पमत सरकारें पहले भी बनी है, कुछ मिनट के लिए ऐसा लगा था मानों उप राज्यपाल नजीब जंग दिल्ली को चुनाव में पुनः ले जाने की बजाय संभवतः सरकार गठन की सोच से पार्टियों से बातें करें। हालांकि यहां पर राज्यपाल की भूमिका को लेकर संविधान मौन है। पर लोकतांत्रिक मूल्यों का एक तकाजा यह भी है कि अगर चुनाव हो चुका है, कोई एक सरकार मात्र 49 दिनों में त्यागपत्र देकर चली गई है तो पहले जितना संभव हो दूसरी सरकार गठन की पारदर्शी कोशिशें हों। चुनाव इस स्थिति में अंतिम विकल्प होना चाहिए। आम आदमी पार्टी त्यागपत्र देकर गई थी, कांग्रेस के पास केवल 8 विधायक थे। तो बचती थी भाजपा जिसके पास 29 विधायक बचे थे। जाहिर है, वह 70 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत से 7 की संख्या दूर थी। दो विधायकों का उसे समर्थन था। अगर वह तीनों उपचुनाव में विजीत हो जाती तो भी वह बहुमत की संख्या तक नहीं पहुंच सकती थी। ऐसे में उसने अपने हाथ खड़े कर दिए। लेकिन यहां कुछ प्रश्न अवश्य उठते हैं। मसलन, जब चुनाव में ही जाना था फिर इतनी देरी क्यों? क्या दिल्ली के उप राज्यपाल इसके लिए दोषी माने जाएंगे जैसा आप आरोप लगाती रही है? क्या केन्द्र सरकार ने जानबूझकर इतना समय खींचा? या फिर इसके परे कुछ बातें हैं? और सबसे बड़ा प्रश्न कि आखिर इस स्थिति का मुख्य दोष किसके सिर आएगा?
इनका उत्तर देने के पहले यह समझना ज्यादा जरुरी है कि अगर भाजपा ने सरकार बना लिया होता तो उसे बहुमत भी मिल जाता। कारण, ज्यादातर विधायक चुनाव नहीं चाहते थे। दिल्ली की राजनीति पर नजर रखने वाले जानते थे कि ऐसी कोशिशें हुईं और उसमें भाजपा को सफलता भी मिल गई थी। चार विधायक कांग्रेस के एवं 10 से ज्यादा विधायक आप के सरकार का समर्थन करने को तैयार थे। मंत्री पद पर बात नहीे बनी।  आप विधायकों के सामने सरेआम दल बदल कानून की तलवार लटक रही थी। इसका रास्ता यह निकाला गया कि वे त्यागपत्र दे देंगे एवं भाजपा उन्हें दोबारा लड़ाकर वापस ले आए। पर कुल मिलाकर भाजपा के नेताओं को यही लगा कि इससे उसकी छवि पर असर पड़ सकता है, इसलिए अंततः नरेन्द्र मोदी एवं अमित शाह ने सरकार बनाने के विकल्प को खारिज कर दिया। मान लेते हैं कि भाजपा ने सरकार बनाएं या न बनाएं के उहापोह में समय खंीचा, पर यह इसका एक पहलू है।
वस्तुतः इस पूरी स्थिति को आप गहराई से विश्लेषित करेंगे तो आपको चुनाव के लिए आप की उत्कंठा का कारण समझ में आ जाएगा। आप की सबसे बड़ी चिंता अपने विधायकों को एक रखना था। अरविन्द केजरीवाल द्वारा निरर्थक त्यागपत्र को हीरोनमा इवेंट में बदलने की कोशिशों के आरंभिक कुछ दिनों तक तो सब कुछ ठीक रहा। आप ने अपनी इवेंट प्रबंधन कला से ऐसा माहौल बना दिया था मानो देश स्तर पर नरेन्द्र मोदी के मुकाबले वहीं खड़े हैं। पर समय के साथ पार्टी के अंदर नेतृत्व के ऐसे व्यवहार को लेकर विरोध, असंतोष एवं निराशा बढ़ने लगी। इसका परिणाम लोकसभा चुनाव के दौरान हुए कई उम्मीदवारों एवं नेताओं के विद्रोहों के रुप में सामने आया। लोकसभा चुनाव में पंजाब छोड़कर पूरे देश में मिली असफलताओं ने तो पार्टी की अंदर से चूलें हिला दीं।
इनमें यहां विस्तार से जाने की आवश्यकता नहीं, पर अनावश्यक रुप से सरकार छोड़कर जाने वाली पार्टी की सोच और रणनीति के अनुसार तो सब कुछ नहीं हो सकता। उप राज्यपाल का पद संवैधानिक गरिमा का पद है। अगर राज्यपाल जानबूझकर किसी प्रकार का राजनैतिक पक्षपात कर रहे हों तो उनकी आलोचना हो सकती है, पर आप जिस तरह पहले उनको कांग्रेस का एजेंट, फिर भाजपा का एजेंट करार देती रही वह दुर्भाग्यपूर्ण था। उप राज्यपाल ने वही किया जो संविधान कहता है। अगर सरकार गिरी तो तत्काल 17 फरबरी को राष्ट्रपति शासन लगाना स्वाभाविक कदम था। यह न भूलें कि तब केन्द्र में कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार थी। कम से कम 16 मई के चुनाव परिणाम तक तो वह फैसला कर ही सकती थी। पर उसने नहीं किया। सारी पार्टियां लोकसभा चुनाव में लग गई। स्वयं आम आदमी पार्टी तर्क देती थी कि वह संसद में जाना चाहती है ताकि जनलोकपाल के लिए वातावरण बनाए, विधायी प्रक्रिया में इस तरह परिवर्तन लायंे ताकि यह कानून बन सके और जो लोकपाल कानून बना है वह खत्म हो। उस समय केजरीवाल एवं उनके साथियों की दिल्ली चिंता कहां थी? केजरीवाल गुजरात में मोदी का मुकाबला करने चले गए, बिना समय लिए मुख्यमंत्री निवास तक अपने समूह के साथ पहुंचे और मीडिया की सुर्खियां बटोरते रहे। जब लोकसभा परिणाम ने उनकी अतिवादी उम्मीदों को ध्वस्त कर दिया तो फिर वे दिल्ली पर आ गए। यहां तक कि हरियाणा एवं महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भी पार्टी ने शिरकत नहीं कि यह कहते हुए कि पूरा फोकस दिल्ली पर करना है। तब से वे चुनाव राग अलापते रहे।
यह भी न भूलिए कि एक ओर उच्चतम न्यायालय मंें उनकी पार्टी की ओर से प्रशांत भूषण चुनाव कराने के लिए आदेश देने की याचिका पर बहस करते रहे और केजरीवाल एवं मनीष सिसोदिया ने अपना रुख पलटकर उप राज्यपाल को यह पत्र दे आए कि अगर आप विधानसभा भंग करने पर विचार कर रहे हैं तो कृपया एक सप्ताह के लिए इसे रोक दें, क्योंकि हम जनता से इस पर राय ले रहे हैं कि क्या हमें फिर सरकार बनानी चाहिए। यह पत्र उप राज्यपाल के यहां से सार्वजनिक हो गया, अन्यथा दोनों ने बयान दिया था कि उनकी तो बस शिष्टाचार मुलाकात थी। आप सोचिए यह जुलाई महीने की बात थी। उसके बाद वे जनता के बीच गए भी। आज वे कह रहे हैं कि हम तो त्यागपत्र देने के दिन से ही विधानसभा भंग करने की मांग कर रहे हैं।
यहां यह ध्यान रखना जरुरी है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) कानून की धारा 9 (2) के तहत गोपनीय मतदान से मुख्यमंत्री चुना जा सकता है। इसमें पार्टियां व्हिप जारी नहीं कर सकतीं। यदि एलजी ने इस धारा के तहत काम किया होता तो गोपनीय मतदान में भाजपा की सरकार को बहुमत मिलना तय था। इसलिए आरोप लगाने वाले पहले इस तथ्य का अवश्य ध्यान रखें। भाजपा द्वारा पर्दे के पीछे सरकार बनाने का प्रयास एक बात है लेकिन उसमें उप राज्यपाल को लपेटे में लेना उचित नहीं। एक दिन उच्चतम न्यायालय ने उप राज्यपाल एवं केन्द्र सरकार के विरुद्ध टिप्पणी की और उसके बाद जब यह तथ्य रखा गया कि दिल्ली में एक वर्ष तक राष्ट्रपति शासन लागू रह सकता है, सरकार बनाने की संभावना तलाशने की प्रक्रिया चल रही है तो उसी उच्चतम न्यायायल ने उप राज्यपाल की प्रशंसा कर दी और प्रयास करने को समर्थन किया। उप राज्यपाल ने 4 सितंबर को राष्ट्रपति से सरकार गठन की संभावना तलाशने की अनुमति मांगी। राष्ट्रपति की ओर से उन्हें जैसे ही अनुमति मिली उनने प्रक्रिया आरंभ कर दी। सभी पार्टियों को पत्र लिखा और जवाब आने के बाद साफ कर दिया।
लेकिन जरा सोचिए, अगर आप के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने अपनी झनक में त्यागपत्र नहीं दिया होता तो क्या दिल्ली के सामने ऐसी नौबत आती? न तो कांग्रेस ने समर्थन वापस लिया था, न ही भाजपा न ऐसी स्थिति पैदा कर दी थी जिससे सरकार चलाना मुश्किल हो गया था। एक प्रक्रिया के तहत कोई भी विधेयक दिल्ली में उप राज्यपाल की अनुमति से पेश हो सकती है। इसका पालन करने को वे तैयार नहीं थे। सीधे जनलोकपाल विधेयक प्रस्तुत करना चाहते थे जो कि असंवैधानिक होता, इसका विरोध कांग्रेस भाजपा दोनों ने किया। इसका यह अर्थ नहीं था कि दोनांे पाटियां मिल गईं थीं। आज भी वह प्रश्न कायम है। केजरीवाल कह रहे हैं कि अब हम कभी त्यागपत्र देकर नहीं भागेंगे। त्यागपत्र के लिए उनने क्षमा भी मांगी है। पर प्रश्न तो वही है। क्या वे जनलोकपाल की जिद छोड़ देंगे? अगर नही ंतो फिर उसी घटना की पुनरावत्ति होगी। जन लोकपाल केन्द्र द्वारा बनाए गए लोकपाल कानून के साथ सुसंगत नहीं है, उसे प्रस्तुत करने की अनुमति मिल नहीं सकती, वे अगर सीधे पेश करना चाहेंगे तो फिर वही हालात पैदा होंगे। इसलिए आम आदमी पार्टी एवं अरविन्द केजरीवाल जब तक इस पर अपनी स्थिति साफ नहीं करते तब तक यही माना जाएगा कि अगर वे सरकार मेें आए तो फिर उसी स्थिति की पुनरावृत्ति होगी। हां, यह स्थिति तब आयेगी जब उन्हें बहुमत मिलेगा। लोकसभा चुनाव परिणाम इसके संकेत नहीं दे रहे। फिर भी वे बहुमत के लिए मैदान में उतर रहे हैं तो उन्हें स्पष्टीकरण देना चाहिए।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2014

विदेशी बैंकों में खातों पर सरकार एवं उच्चतम न्यायालय, सरकार ने यह क्या किया

अवधेश कुमार

यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है कि भारत सरकार ऐसी संधियों से बंधी हैं, जिसमें अभियोजन के बिना विदेशी बैंकों के किसी खातेदार के नाम का खुलासा उसकी शर्तों का उल्लंघन होगा। इसके साथ यह भी सच है कि कि आगे कुछ संधियां होने वाली हैं उन पर असर होगा, एवं हम और जो नाम चाह रहे हैं, या जिन नामों के लिए जांच में सहयोग चाहते हैं वह भी प्रभावित होगा। यहां तक सरकार का तर्क गले उतर रहा था। लेकिन किसी की समझ में ये नहीं आ रहा कि आखिर बंद लिफाफे में उच्चतम न्यायालय में इन नामों की सूची और कार्रवाई रपट तथा संधियों के दस्तावेज पहले देने में क्या समस्या थी? जो कुछ सरकार ने 29 अक्टूबर को किया वह पहले भी कर सकती थी। इतने हील हुज्जत की जरुरत क्या थी? उच्चतम न्यायालय के पास इतना विवेक इतनी समझ है कि वह उस सूची का क्या करे। उसने अंततः उस लिफाफे को बिना पढ़े विशेष जांच दल या सिट को सौंप ही दिया।

सरकार की एक ही दलील थी कि हम संधियों के कारण अभी नामों का खुलासा नहीं कर सकते। उच्चतम न्यायालय नामों के खुलासे की तो बात कर नहीं रहा था वह तो कह रहा था कि जो भी जानकारी आपके पास है वह पूरी दीजिए। सरकार और न्यायालय दोनांें का इस मामले में एक ही लक्ष्य होना चाहिए-  छानबीन कर चोरी से विदेशों में धन जमा करने वालों को सामने लाना, उनसे करों की वसूली करना तथा उनको सजा देना। तो फिर आमने-सामने की स्थिति इसमें पैदा होनी ही नहीं चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के नेताओं ने जिस तरह विदेशी बैंकों में काला धन को चुनाव का बड़ा मु्द्दा बनाया था उसके बाद उनका दायित्व है कि देश के सामने दूध का दूध और पानी का पानी हो। सरकार ने सिट के गठन और उसे व्यापक अधिकार देकर आरंभ में अपने इरादे का प्रमाण भी दिया। सरकार को यकीनन अभी समय कम मिला है, इसके द्वारा गठित सिट जांच कर रही है, लेकिन एप्रोच में मौलिक अंतर नहीं दिख रहा है। एकदम सामान्य सी बात थी कि जब आपने फ्रांस से प्राप्त जिनीवा स्थित एचएसबीसी बैंक 627 खातेदोरों की सूची सिट को पहले से सौंपी हुई है तो फिर उच्चतम न्यायालय को सौंपने में कोई हर्ज नहीं होनी चाहिए थी।

यह ठीक है कि उच्चतम नयायालय में आने के बाद कोई अंतर नहीं आया। सरकार ने उस सूची के साथ अब तक की कार्रवाई कार्रवाई रपट और संधियों के दस्तावेज न्यायालय को सौंपे है। निस्संदेह, इसका उद्देश्य यह साबित करना है कि हम जो बता रहे है। वे सच हैं, संधियो में हमारी प्रतिबद्धतायें हैं और हम बैठे नहीं हैं कार्रवाई कर रहे हैं। चूंकि वह भी सिट के पास आ गया इसलिए उसका दायित्व है कि उससे संबंधित रिपोर्ट उच्चतम न्यायालय को दे। इसके लिए उसके पास मार्च 2015 की समयसीमा भी है। हालांकि कुल मिलाकर उन नामों के आने के बावजूद हमारे पास वही 25 नाम हैं जिसे दो दिनों पहले सरकार ने न्यायालय को सौंपा था। लेकिन साफ है कि वित्त मंत्र अरुण जेटली के व्यवहार से 10 दिनों में सरकार की आम जनता की नजर में जैसी छवि बनी है, उससे बचा जा सकता था। उच्चतम न्यायालय ने इतनी कड़ी टिप्पणी सरकार के विरुद्ध कर दी। एक प्रकार से उस पर अविश्वास व्यक्त किया कि ऐसे अगर काम हुआ तो मेरी जिन्दगी में सच सामने नहीं आएगा। मोदी सरकार के विरुद्ध यह सामान्य टिप्पणी नहीं है। वित्त मंत्री पहले ही उच्चतम न्यायालय के निर्देश का पालन करते हुए सूची सौंप देते तो यह नौबत नहीं आती और सरकार का सिर उंचा रहता। आज सरकार कुछ भी कहे उसके इस रवैये से आम जनता के बीच भाव यह बना है कि सरकार उच्चतम न्यायालय में अगर सूची नहीं दे रही थी तो कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है। यानी आपकी भूमिका प्रश्नों के घेरे में आ गई। विपक्ष को हमला करने का अवसर मिल गया।  
हालांकि कांग्रेस जिस तरह सिना तानकर बातें कर रहीे हैं, वह केवल अपने पाप को छिपाना है। उच्चतम न्यायालय ने आदेश 2011 में ही दिया था। फ्रांस से सूची उन्हें ही मिली थी। न्यायालय बार-बार सरकार को कहती रही, डांटती रही, लेकिन सरकार ने अपने तरीके से ही काम किया। वैसे उस सरकार ने भी विदेशों में काला धन पर काम किया, पर वैसा नहीं जैसा हो सकता था। लेकिन नरेन्द्र मोदी सरकार ने तो ऐसी उम्मीद पैदा की थी जिसमे उसका व्यवहार पूर्व सरकार से अलग दिखना चाहिए था। सरकार की ओर से यह घोषणा हो चुकी थी कि 136 नामों की सूची वह सौंपने वाली है। उसी आधार पर यह मान लिया गया कि 136 की सूची दी गई है जिसमेे से 8 का खुलासा हुआ है, लेकिन बाद में शपथ पत्र से पता चला कि 136 की सूची दी ही नहीं गई। इसका सहमतिजनक कारण तलाशना कठिन है।  
वैसे इस मामले में कई प्रकार के दुष्प्रचार हो रहे हैं एवं गलतफहमियां पैदा की जा रहीं हैं। मसलन, भाजपा ने विदेशों से काला धन लाने की कोई समय सीमा दी थी। नरेन्द्र मोदी ने कभी नहीं कहा या भाजपा के घोषणापत्र में भी 100 दिन में कालाधन वापस लाने का वायदा नहीं किया गया। यह सफेद झूठ है।  इसी तरह हर व्यक्ति को 15 लाख देने की बात मैंने मोदी के या भाजपा के किसा शीर्ष नेता के मुंह से नहीं सुनी। कल्पित आंकडे देकर यह जरूर बता रहे थे कि विदेशों में काला धन आने पर हर व्यक्ति के हिस्से कितना आयेगा। लेकिन बांटने की बात आज उपहास के रूप में कह जा  रही है। समानांतर कुछ लोग दुष्प्रचार कर रहे हैं कि उच्चतम न्यायालय की पीठ में 10 जनपथ यानी सोनिया गांधी से जुड़े न्यायाधीश हैं, जो मोदी सकरार की छवि खराब कर रहे हैं। यह घटिया दर्जे का आरोप है। इसमें 10 जनपथ की किसी भूमिका को खोचने से ओछी बात कुछ नहीं हो सकती। अगर आज भी 10 जनपथ का इतना प्रभाव है तो इस सरकार को शासन में रहने का अधिकार ही नहीं है। सोशल मीडिया पर उच्चतम न्यायालय के खिलाफ दुष्प्रचार में कहा जा रहा है कि अगर उसे नामों का खुलासा करना ही नहीं था तो फिर उसने नाम लिया क्यों? अगर सिट के पास नाम था ही तो दुबारा ऐसा करने का मतलब क्या है? यह सब बाल की खाल निकालना है। उच्चतम न्यायालय यदि नामो ंका खुलासा नहीं कर रहा है तो यही उसकी परिपक्वता का परिचायक है। कुछ लोग दोहरे कराधान संधि को इस मामले में अप्रासंगिक बता रहे हैं। वे यह भूल रहे हैं विदेशों में कालाधन की पूरी जांच कर चोरी पर टिकी है। यानी आपने कर न देने के इरादे से अपना धन विदेश में छिपा दिया। दूसरे देशों की आपत्ति यही है कि अगर किसी का हमारे देश में खाता है और वह वैध है तो उसकी निजता का हनन नहीं होना चाहिए।

वास्तव में विदेशांे में कालाधन के मामले में आरंभ से ही अतिवादी विचार प्रस्तुत किये जाते रहे हैं। पहले न जाने कितने लोग आंकड़े लेकर आते थे और यह साबित करने की कोशिश करते थे कि विदेशों में इतना काला धन भारत का जमा है कि वह आया नहीं कि हम अमीर देश हुए। इसमें कुछ विदेशी संस्थान भी शामिल हैं। उनमें ज्यादातर आंकड़े काल्पनिक गणनाओं पर आधारित रहे हैं। भाजपा ने ही अपना एक टास्क फोर्स बनाया था जिसने भी ऐसे ही बड़े आंकड़े दिए थे। स्वामी रामदेव का आंकड़ा भी ऐसा ही था। एक स्विस बैंक एसोसिएशन की 2006 की रिपोर्ट के हवाले आंकड़े सामने लाए गए, जिसका कहीं कोई आधार आज तक नहीं मिला। दुनिया के किसी देश में किसी का खाता है तो वह अवैध नहीं हो सकता, यदि उसने बाजाब्ता इसकी सूचना यहां अपने आयकर विवरण में दिया हुआ है। जिन्हें टैक्स हेवेन देश कहा जाता है वहां खाते खुलवाने आसान रहे हैं, लेकिन वहां भी इतनी अधिक राशि की बिल्कुल संभावना नहीं है।

इसकी जटिलताओं को भी समझना होगा। आज के एप्रोच में आपको कोई देश केवल उन्हीं खातों से संबंधित जानकारी देगा जिसमें आपके कर विभाग ने कर चोरी की जांच की हो और कुछ ठोस प्रमाण हासिल किए हों। ऐसे में अगर सरकार इसी रास्ते विदेशों के कालाधन की जांच करती रहीं तो बहुत कुछ हासिल नहीं होगा। हालांकि जो नाम हैं उनमें दोषियों की जानकारी हमारे पास आएगी यह निश्चित है, पर शेष नाम कैसे आयेंगे? यह तो हमें बिना परिश्रम के मिले हुए नाम हैं। इसलिए सरकार को गंभीरता से विचार कर अपना एप्रोच बदलना होगा। सिट अभी तक इसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंच सका है कि हम किस तरीके से इसका पता लगाएं, देशों से किन आधारों पर भारतीय खातेदारों की सूची मांगे और किस तरह उसे काला धन साबित करें...आदि आदि। यहां सरकार के इरादे पर प्रश्न नहीं है लेकिन इस तरीके से तो बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती। वित्त मंत्रालय और महाधिवक्ता ने न्यायालय में जो रुख अपनाया वह एप्रोच अस्वीकार्य है।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208
    

शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2014

पाक संसद का रवैया खतरनाक संकेत है

अवधेश कुमार

पाकिस्तान की संसद ने एक स्वर में भारत के खिलाफ निंदा प्रस्ताव अगर पारित कर दिया तो उससे हमारे लिए क्या अंतर आता है कि हम उस पर छाती पीटें। वहां की संसद ने इसके पूर्व पिछले अगस्त माह में भी एक सप्ताह के अंदर दो बार लगभग ऐसा ही प्रस्ताव पारित किया था। वह ऐसा समय था जिसे हमारी सेना ने 1971 के बाद की सबसे ज्यादा गोलीबारी वाला समय करार दिया था। वस्तुतः पाकिस्तान शांति के लिए ईमानदार प्रयासों के अलावा भारत के विरोध में जो चाहे करे, हमारी अपनी तैयारी और प्रत्युत्तर भारत के अनुरुप ही होगी। भारत यानी एक ऐसा परिपक्व देश, जिसके बारे में दुनिया मानती है कि यह अनावश्यक रुप से अपने पड़ोसी के शरीर में कांटे नहीं चुभाता, मुकाबले में सशक्त होते हुए भी किसी प्रकार की उत्तेजना या अतिवादी कदम से बचता है, जो लंबे समय से एक ओर पाकिस्तान प्रायोजित और फिर बाद में उसके चाहे अनचाहे सीमा पार आतंकवाद से ग्रस्त है, लेकिन कभी जवाब में आतंकवाद का नासूर पैदा नहीं करता......। क्या पाकिस्तान ने निंदा प्रस्ताव पारित करके वास्तविक नियंत्रण रेखा एवं अंतरराष्ट्रीय सीमा पर चल रही गोलीबारी के लिए पूरी तरह से भारत को जिम्मेदार ठहराया दिया यानी भारत को हमलावर देश साबित करने की कोशिश की है तो दुनिया उसे स्वीकार कर लेगी? क्या वह भारत पर उसके अंदरुनी मामलों में दखल देने का आरोप लगा रहा है तो उससे विश्व समुदाय भारत को दोषी मान लेगा? इसका उत्तर दुनिया पाकिस्तान को पहले ही दे चुकी है। इसलिए हमें उत्तर तलाशने के लिए किसी माथापच्ची की आवश्यकता नहीं।

यह प्रस्ताव भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सियाचिन एवं कश्मीर घाटी के दौरे के साथ पारित किया गया है। इसलिए हम प्रस्ताव को इससे भी जोड़कर देख सकते हैं। पाकिस्तान सियाचिन दौरे को भड़काउ कार्रवाई के रुप में पेश करने की कोशिश कर रहा है। पर यदि मोदी वहां दौरे पर न जाते तो वह प्रस्ताव पारित नहीं करता यह मानने का कोई कारण नहीं है। ध्यान रखिए प्रस्ताव में विश्व समुदाय से इस मामले में दखल देने का अनुरोध किया गया है। तो लक्ष्य वही है, किसी तरह कश्मीर मामले को अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय बनाना। हालांकि इसे एक विडम्बना ही कहेंगे कि वह लगातार अपनी इस दुष्प्रयास में विफल हो रहा है, सभ्य भाषा में झिड़की भी सुन रहा है, पर हर कदम के बाद कोई न कोई तरीका फिर निकाल लेता है विश्व समुदाय से आग्रह का। पिछला तरीका संयुक्त राष्ट्रसंघ को बाजाब्ता पत्र लिखकर आग्रह करना था ताकि विश्व संस्था कुछ न कुछ लिखित उत्तर देने को विवश हो जाए। लेकिन उत्तर यह मिला कि आप भारत के साथ ही इसे निपटाइए। क्या पाकिस्तान मानता है कि इसके बाद विश्व संस्था अपने रुख से पलट जाएगा?

हालांकि उस समय लगा कि पाकिस्तान का यह अंतिम पैंतरा है। कारण इसके पूर्व वह संयुक्त राष्ट्र भारत पाक सैन्य आयोग के पास नियंत्रण रेखा पर हो रही गोलीबारी की रोकथाम के लिए आगे आने का लिखित आवेदन कर चुका था। वहां से उसे कोई प्रत्युत्तर न मिला न मिलना था, क्योंकि भारत ने उस आयोग को कब का खारिज कर दिया है। स्वयं पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने इससे पहले संयुक्त राष्ट्रसंघ महासभा के अधिवेशन में इसे अपना मुख्य फोकस बनाया एवं उसे साढ़े छः दशक पूर्व पारित जनमत संग्रह प्रस्ताव को साकार करने के लिए आगे की अपील की थी। किसी ने उसका कोई उत्तर नहीं दिया, बल्कि इसके परिणाम में उनकी कूटनीति भारतीय कूटनीति के सामने इस तरह विफल हो गई कि शरीफ चाहकर भी अमेरिका के राष्ट्रपति से न मिल सके, एवं पूरा  अमेरिकी प्रशासन भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदीे की यथोचित आवभगत में लग गया। इसके आगे के कदम के रुप में पाकिस्तान के राजदूत ने भी संयुक्त राष्ट्र में अपने प्रधानमंत्री के वक्तव्य को आगे बढ़ाने की कोशिश की, पर परिणाम वही....शून्य।
इसलिए हम इस मामले में निश्चिंत हो सकते हैं कि विश्व समुदाय हमारी सोच के विरुद्ध पाकिस्तान के साथ कश्मीर मामले पर आगे नहीं आने वाला। चीन भी नहीं जिसे वह अपना शायद सबसे विश्वसनीय मित्र मानता है। कारण, अब चीन ने भी भारत के साथ अपने संयुक्त वक्तव्य में अफगानिस्तान में भारत की भूमिका को स्वीकार कर लिया है और अमेरिका ने भी। इन सबके बावजूद यदि पाकिस्तान किसी न किसी तरह ऐसा कर रहा है तो यह हमारे लिए चिंता का विषय जरुर है। यह पाकिस्तान की उस खतरनाक स्थिति को दर्शा रहा है जहां से तत्काल उसके पीछे लौटने का संकेत नहीं। पाकिस्तान की संसद का अर्थ है, वहां की ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों की आवाज। पाकिस्तान की परेशानी कुछ हद तक समझ में आने वाली है। मसलन, लंबे समय बाद उसे लगातार करारा प्रत्युत्तर मिला है। उसकी ओर के हमलों के जवाब में सीमा सुरक्षा बल ने सरकार से कार्रवाई की आजादी हासिल करने के बाद उस पार भी तबाही मचाई है। हमारे यहां जितने लोग मारे गए हैं उनसे तीन गुणा के करीब उधर मारे गए हैं। कई दर्जन उनके बैंकर तथा आतंकवादियों के शिविर नष्ट किये है। कई किलोमीटर तक पाकिस्तान को अपना क्षेत्र खाली करना पड़ा है। इससे उसका परेशान होना स्वाभाविक है। पर इसका निदान तो बड़ा सीधा है, वह अनावश्यक गोलीबारी बंद करे, आतंकवादियों की घुसपैठ की अपनी सैन्य रणनीति पर पूर्ण विराम लगाए। अगर वह यह करने को तैयार नही तो जाहिर है, वह खतरनाक दिशा में आगे बढ़ चुका है। यहां यह भी उल्लेख करना जरुरी है कि निंदा प्रस्ताव में भारत से पाकिस्तान के साथ नाभिकीय शक्ति संपन्न देश की तरह व्यवहार करने को कहा गया है। इसका क्या अर्थ है? क्या हम इसे नाभिकीय धमकी मान लें? इसका अर्थ जो भी लगाया जाए कम से कम तत्काल एक उद्धत देश का प्रमाण तो इसे मानना ही होगा।

अगर कोई देश उद्धतवाद की मानसिकता में पहुंच चुका है तो फिर उससे ज्यादा सचेत होकर रहने और किसी भी हालात से निपटने के लिए तैयार रहना होगा। यह हमारे साथ दुनिया भर की चिंता का कारण होना चाहिए। नाभिकीय अस्त्र से लैश देश यदि इस तरह अनावश्यक औपचारिक रुप से इसकी धौंस दिखाता है तो इसे अवश्य विश्व समुदाय को गंभीरता से लेना चाहिए। पता नहीं पाकिस्तान यह कैसे भूल जाता है कि भारत भी नाभिकीय हथियार संपन्न देश है। लेकिन भारत का व्यवहार उद्धत देश की तरह न था न हो सकता है। कुल मिलाकर पाकिस्तान खतरनाक दिशा में जा रहा है। इसके कारणों की कई बार विवेचना की जा चुकी है। संसद के पास से कादरी साहब का घेराव हट गया, पर इमरन खान अभी वापस नहीं गए हैं। वहां जिस नेता को देखिए उसके मुंह से ही कश्मीर की जहर निकल रही है। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के युवा नेता और उनकी आशा के केन्द्र बिलावल भुट्टो कहते हैं कि मैं जब कश्मीर का नाम लेता हूं तो पूरा भारत चीखने लगता है।

बेचारे भुट्टो भूल गए कि उन्हीं के नाना ने हाथ जोड़कर 33 वर्ष पूर्व शिमला समझौता किया था, अन्यथा भारत को कोई आवश्यकता नहीं थी। वे यह भी भूल गए कि पिछले वर्ष के चुनाव में उनको अपनी पार्टी का चुनाव प्रचार छोड़कर सुरक्षा के लिए विदेश भागकर रहना पड़ा। तो भैया, अपने देश को ठीक करने की जगह यदि आप कश्मीर का आग उगलोगे तो यह तुम्हें एक दिन भस्म कर देगा। आखिर आतंकवाद पैदा किया तुम्हारा ही था जिसकी शिकार तुम्हारी मां हुई और पिछला चुनाव। बेचारे मुशर्रफ जो अपने कार्यकाल में भारत के साथ संबंध सुधारने की पहल कर रहे थे वे कह रहे हैं कि लाखों लोग तैयार बैठे हैं कश्मीर मे लड़ने के लिए केवल उन्हें भड़काने की आवश्यकता है। सेना का एक धड़ा तो खैर कट्टरवाद की गिरफ्त में है ही। इसमें नवाज सरकार भी पूरी तरह दबाव में है। ऐसे हालत में फंसा देश कोई भी विनाशकारी कदम उठा सकता है। 

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


गुरुवार, 16 अक्टूबर 2014

भाषा का यह घिनौना प्रयोग क्या कहता है

अवधेश कुमार

विधानसभा चुनाव संपन्न हो गया, लेकिन शिवसेना के मुखपत्र सामना में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए लेखन में जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया है वह राजनीति एवं पत्रकारिता दोनों की दुनिया में किसी भी दृष्टि से स्वीकार्य नहीं किया सकता। इसमें लिखा गया है कि शिवसेना न होती तो मोदी के बाप दामोदर दास मोदी भी भाजपा को बहुमत नहीं दिलवा पाते। वैसे तो इसमें और भी कई बातें आपत्तिजनक हैं , पर यह तो ऐसी पंक्ति है जिसकी हम दुःस्वप्नांे में भी कल्पना नहीं कर सकते थे। क्या अब आपसी मतभेद में राजनीतिक नेतागण एक दूसरे के मां, बाप का नाम लेकर हमला करेंगे? क्या पत्रकारिता में इस तरह की भाषा का प्रयोग करना कहीं से भी वांछनीय है? वास्तव में भारतीय राजनीति और पत्रकारिता के इतिहास की संभवतः यह पहला ही वाकया होगा जब प्रधानमंत्री ही नहीं किसी नेता के लिए लेखन में इस तरह की घिनौनी भाषा का प्रयोग किया गया है। कहा जा सकता है कि सामना ऐसी शब्दावलियों व भाषा के प्रयोग के लिए पहले से कुख्यात है। हां, है तब भी इसका संज्ञान लेकर निंदा तो करनी ही होगी, अन्यथा इससे शर्मनाक प्रवृत्ति को स्वीकृत करने का संदेश निकलेगा। 

वैसे सामना ने भी पहले प्रधानमंत्री के लिए ऐसे शब्द प्रयोग किए हैं, इसके उदाहरण शायद ही हो। कभी मोदी को पितृपक्ष को कौआ कहा गया तो कभी अफजल खां जिसने शिवाजी को छल से मारने की कोशिश की गई। मजे की बात देखिए कि इसके संपादक अपने स्वभाव के अनुरुप कहते रहे कि इसमें गलत क्या है, जो कुछ हमने लिखा सही लिखा। यह हठधर्मिता के सिवा कुछ नहीं है। संसदीय लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियां प्रतिस्पर्धी होतीं हैं, एक दूसरे की आलोचना कर सकतीं हैं, लेकिन शब्दों की मर्यादा वहां हर हाल में कायम रहनी चाहिए। यहां तक कि पार्टी के मुखपत्रों में भी सामान्यतः इसका ध्यान रखा जाता है। कांग्रेस की केन्द्रीय स्तर की पत्रिका है, प्रदेशों के स्तर पर है, भाजपा का है, कम्युनिस्ट पार्टियों की है.........सबमें विरोधी पार्टियों की आलोचना होती है, पर इस तरह बाप को उकेड़ने का काम किसी ने नहीं किया। जाहिर है, शिवसेना के संपादक प्रेम शुक्ला ने शब्दों की मर्यादा अत्यंत ही असभ्य तरीके से तोड़ी है। फिर इसके दूसरे पक्ष भी हैं। एक महीना पहले तक तो दोनों पार्टियां 25 वर्षों की पुरानी साथी रहीं हैं। इसी सामना में नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा में न जाने कितने लेख लिखे गए थे। आज उसकी ऐसी भाषा आखिर किन बातों के द्योतक हैं?

हालांकि उन्होंने ऐसा न लिखा होता तो चुनाव के एक दिन पूर्व इस तरह शिवसेना और वे चर्चा में नहीं आते। हमारे यहां आप जितनी नकारात्मक टिप्पणियां और कार्य करते हैं, सुर्खियां उतनी ही पाते हैं। यह एक चिंताजनक प्रवृति है जिसक लाभ इस समय शिवेसना ने उठाया है। कहा जा रहा है कि मोदी की सभाओं में भीड़ और लोगों के आकर्षण से शिवसेना को पराजय की आशंका सता रही है और उसी हताशा भाव में उसकी ओर से ऐसे शब्द प्रयोग किए गए हैं। लेकिन यह प्रश्न यहां गौण है। पार्टी की हार या जीत की संभावना हर चुनाव में रहती है। जीत हार भी होती है, पर क्या उसमें इस तरह नंगा होकर हम भाषा का प्रयोग करेंगे? इसके बाद क्या होगा? क्या हम आमने सामने सभाओं में गाली गलौज करेंगे? सामना के संपादक प्रेम शुक्ला पार्टी के नेता के साथ पत्रकार भी हैं, एक पढ़े लिखे व्यक्ति हैं, समझ भी है, अगर आलोचना करनी ही थी तो दूसरे शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है। यह मुहल्ले के दो लोगों के बीच गाली गलौज हो गया जिसके लिए राजनीति या सार्वजनिक जीवन में जगह होनी ही नहीं चाहिए। इससे अपमानजनक संबोधन किसी के लिए क्या हो सकता है।

भाजपा ने गठबंधन टूटने के बाद भी कहा कि वह चुनाव अलग लड़़ेगी लेकिन शिवसेना की आलोचना नहीं करेगी। हम भाजपा के समर्थक हों या विरोधी यह मानना होगा कि इसका पालन भाजपा के नेताओं ने किया।  हालांकि अनिल देसाई जैसे शिवसेना के नेता इस भाषा से असहमति प्रकट कर रहे हैं, पर पार्टी ने मूलतः इस पर खामोशी ही बरती है। तथ्यों पर जाने वाले यह कह सकते हैं कि भाजपा शिवसेना के गठबंधन ने लोकसभा चुनाव मेें मिलकर ही वैसी विजय हासिल की। किंतु इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि आखिर ऐसी विजय पहले क्यों नहीं मिली? लोकसभा चुनाव में तो बाला साहब ठाकरे भी नहीं थे। जाहिर है, राजनीतिक विश्लेषक एवं महाराष्ट्र में धरातल पर काम करने वाले जानते हैं कि नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व ने आकर्षण का ऐसा आलोड़न पैदा कर दिया था जैसा पहले किसी नेता के समय नही हुआ। इसलिए तथ्यतः भी यह कहना सही नहीं होगा कि शिवसेना के कारण ही विजय मिली। यह सच है कि दोनों पार्टियों का गठजोड़ जमीन तक पहुंचा था, इसका असर था और विजय में शिवेसना का योगदान था। किंतु यह भी सच है कि लोकसभा चुनाव के पहले शिवसेना के सांसद तक पार्टी छोड़कर जा रहे थे। ऐसा लग रहा था कि कहीं पार्टी ही खत्म न हो जाए। मोदी के आविर्भाव ने शिवसेना पार्टी को बचाया और विजय भी दिलाई।

विधानसभा चुनाव में सीटों पर बातचीत में दोनों दलों के रवैये पर अलग-अलग मत हो सकता है। हालांकि खबरों और दोनों पक्षों के नेताओं के बयानों से कोई भी समझ सकता था कि शिवसेना अपने रुख से हटने को तैयार नहीं थी। वह बदले वातावरण में भाजपा की बढ़ी हुई शक्ति को स्वीकार नहीं कर पा रही थी। दोनों गठबंधन तोड़ना नहीं चाहते थे, पर टूट गया। टूटने के बाद पार्टियों के बीच तीखापन आता है। कांग्रेस और राकांपा के बीच भी गठबंधन खत्म होने के बाद तीखापन दिखा है। दोनों पार्टियों ने एक दूसरे की आलोनायें की, इसमें नेताओं की निजी आलोचनायें भी हुईं, पर इनमें से किसी ने इस तरह भाषा की मार्यादा नहीं लांघी। यही व्यवहार की सीमा रेखा होनी चाहिए। हम जानते हैं कि राजनीति में आज का गठजोड़ किसी सिद्धांत या आदर्श के लिए नहीं होते। उनका एकमात्र उद्देश्य सत्ता के अंकगणित में किसी तरह अपनी संख्या बल बढ़ाना होता है। यही भाजपा शिवसेना के बीच था और कांग्रेस राकांपा के बीच। इस सोच के कारण  नेताओं के आपसी संबंधों में भी विश्वसनीयता या वास्तविक सम्मान की स्थापना नहीं हो पाती। पर इस गिरावट के दौर में भी हम ऐसी भाषा प्रयोग को राजनीति और पत्रकारिता दोनों के लिए शर्म का अध्याय ही कहेंगे। ऐसी अपमानजनक और गंदी भाषा का प्रयोग आगे सार्वजनिक जीवन में नहीं हो इसके लिए आवश्यक है कि इसकी पुरजोर निंदा की जाए, अन्यथा चतुर्दिक क्षरण एवं आदर्श व्यवहारों के घटते प्रेरणा के माहौल में इसके परिणाम संघातक होंगें। कोई इससे आगे बढ़कर ऐसे शब्द प्रयोग कर सकता है जिसे हम सामान्यतः सुनना भी न चाहते हों। इसलिए इसे यही रोका जाना जरुरी है।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2014

अगर मंत्री नक्सली संगठन के मुखिया तो फिर कैसे होगा इनका अंत

अवधेश कुमार

यह पहली बार है जब किसी प्रदेश के मंत्री पर माओवादी या नक्सल संगठन चलाने, उससे जबरन वसूली से लेकर अनेक प्रकार के अपराध को अंजाम दिलवाने का आरोप लगा, त्यागपत्र देना पड़ा एवं अंततः गिरफ्तारी हुई। भारत में यह आरोप तो लगता रहा है कि राजनीतिक नेताओं के नक्सलियों से संबंध हैं, पर अभी तक किसी को इस आधार पर गिरफ्तार नहीं किया गया वह मंत्री होते हुए स्वयं नक्सल संगठनों का प्रमुख है। इस नाते यह असाधारण और हिला देने वाली घटना है। जी हां, झारखंड के पूर्व कृषि मंत्री योगेंद्र साव को दिल्ली पुलिस ने झारखंड पुलिस के साथ मिलकर एक साझा ऑपरेशन में जब गिरफ्तार किया तब यह खबर पूरे देश को पता चली। हालांकि झारखंड में यह खबर पहले से फैल चुकी थी, उन पर मुकदमा हो चुका था तथ इन कारणों से साव को मंत्रीपद से भी इस्तीफा देना पड़ा था। लेकिन वे पुलिस की गिरफ्तारी से बचने के लिए छिपते फिर रहे थे।

साव इस समय मंत्री भले न हों, पर वे विधायक हैं। अभी हम एकदम से अंतिम निष्कर्ष नहीं दे सकते कि उन पर जो आरोप हैं, वे शत-प्रतिशत सच ही है, पर पुलिस ने जिस तरह का मामला बनाया है, जो साक्ष्य सार्वजनिक किए हैं वे तो इसे पूरी तरह पुष्ट करते हैं। पुलिस का साफ कहना है कि झारखंड टाइगर्स ग्रुप और झारखंड बचाओ आंदोलन नामक दो नक्सली संगठनों का संचालन मंत्री महोदय ही कर रहे थे और जब हमारे पास पुख्ता सबूत मिल गए तो हमने उनके खिलाफ कार्रवाई की। पुलिस ने उनको आत्मसमर्पण करने का वक्त दिया और जब उन्होंने ऐसा नहीं किया तो फिर हजारीबाग की स्थानीय अदालत ने उनके खिलाफ वारंट जारी किया।
बहरहाल, पूरे देश को इंतजार होगा कि योगेन्द्र साव पूछताछ में क्या बताते हैं, उनसे और क्या राज हमें पता चलता है। दरअसल, पुलिस इसलिए उनकी संलिप्तता को लेकर आश्वस्त है, क्योंकि उसने उग्रवादी संगठन झारखंड टाइगर ग्रुप के प्रमुख के रुप में राजकुमार गुप्ता समेत चार उग्रवादियों को पिछले सितंबर माह में गिरफ्तार किया। कड़ाई से पूछताछ में उसी ने यह रहस्योद्घाटन किया था कि यह संगठन दरअसल मंत्री योगेन्द्र साव का है। उन्हीं के कहने पर  इसका गठन हुआ, हथियार और सारे संसाधन वे ही मुहैया कराते रहे हैं, मंत्री के कहने पर ही दहशत पैदा करने का काम हुआ, लेवी वसूली गयी और अन्य उग्रवादी घटनाओं को अंजाम दिया गया था। यह खबर पहली नजर में ही सनसनी पैदा करने वाली थी। आखिर कोई यह कल्पना भी कैसे कर सकता था कि संविधान की शपथ लेकर कृषि मंत्री के पद पर बैठा कोई नेता नक्सल है। झारखंड की हर सरकार नक्सलियों से संघर्ष करने का संकल्प व्यक्त करती है और उसके आस्तीन में ही कोई ऐसा सांप हो, यह किसी के दुःस्वप्नों में भी नहीं आ सकता है। एक बार जब पुलिस को थोड़ा सुराग मिला तो पुलिस ने राजकुमार गुप्ता को रिमांड पर लेकर उससे लंबत पूछताछ की। इसके बाद पता चला कि  झारखंड बचाओ आंदोलन भी उसीका बनाया हुआ संगठन है। पुलिस ने अपराध संहिता 164 के तहत न्यायिक दंडाधिकारी के सामने राजकुमार गुप्ता का बयान कराया और तब इस मामले में आगे बढ़ी। वास्तव में इस मामले में फिर एक- एक करके कई नाम जुड़ते चले गए और गिरफ्तारी भी होती चली गयी। सब में मंत्री महोदय के खिलाफ साक्ष्य पुख्ता होता गया। इसमें सिम और मोबाइल से एक- दूसरे से लंबी बातचीत, एसएमएस आदि भी है।

अगर कोई विधायक या मंत्री है तो वह जहां रहता है, उसके पास सरकारी भवनों के उपयोग के जो अधिकार हैं, उन सबसे ऐसी गतिविधियों को वह  सरकारी संरक्षण में अंजाम दे सकता है। पुलिस की सूचना के अनुसार यही योगेन्द्र साव करते रहे हैं। इसके अनुसार उनके सरकारी आवास, परिसदनों और उनकी गाड़ियों तक का भी इस्तेमाल नक्सली गतिविधियों के लिए किया गया। सरकारी गाड़ी से माओवादी कारनामा, परिसदन से माओवादी कारनामा, सरकारी आवास से माओवादी कारनामा..........सामान्यतः किसी को भी सन्न कर सकता है। यह तो रक्षक के ही भक्षक हो जाने की कहावत को चरितार्थ करने वाला प्रकरण है। माना जाता है कि केरेडारी में योगेन्द्र साव की अवैध सॉफ्ट कोक प्लांट है जिसमें कोई पुलिस अंदर जा ही नहीं सकता था। इसलिए इसके समूह के लोग वहां आराम से रहते और योजना बनाते थे। कोयले के अवैध कारोबार से लेकर भयादोहन, फिरौती जैसे अन्य अपराधिक मामले आराम से अंजाम दिये जाते थे।

यह एक साथ राजनीति और भयानक अपराध के डरावने रिश्ते को फिर उजागर तो करता ही है साथ ही हमें नये सिरे से सोचने को विवश करता है कि आखिर माओवादी हिंसक आंदोलन की आड़ में कैसे रसूख वाले लोग धन और प्रभाव के लिए छद्म संगठन चला रहे हैं और हमारे सामने हमारे भाग्यविधाता भी बने हैं। योगेन्द्र साव का रिकॉर्ड भी ऐसा नहीं था कि उसे मंत्री बनाया जाना चाहिए। एक दबंग के रुप में साव की कुख्याति तो सबके सामने थी। पत्थर खनन जैसे धंधे में आने के साथ ही उसने दबंगई आरंभ कर दिया था। विरोध करने वालों की पिटायी, उसके लिए गिरोहबाजी आदि से स्थानीय लोग वाकिफ रहे हैं।  1995 में माओवादियों के एक संगठन नारी मुक्ति संघ से जुड़कर वह उसका कर्ताधर्ता बन गया। इस दौरान दूसरे जिलों और झुमरा में उग्रवादी कैंपों में भी उसकी भागीदारी रही। दस वर्षों में हत्या, मारपीट समेत कई गंभीर आरोप में उसपर प्राथमिकी दर्ज हुई। अकेले केरेडारी थाने में सात मामले वन अधिनियम 45/94 और 41/94, मारपीट के मामले 60/03, एनटीपीसी के अधिकारी से मारपीट 55/10, बीडीओ के साथ मारपीट 4/11, हत्या के मामले 83/90 तथा मारपीट के मामले 33/12 उसपर दर्ज हुए।
ये मामले और उसकी छवि ही उसे राजनीति से बाहर रखने के लिए पर्याप्त होने चाहिए थे। पर झारखंड राज्य बनने के बाद से वहां की राजनीति का जैसा भयानक व शर्मनाक रुप आया है उसमें साव ऐसे अकेले नहीं थे सच तो यह है कि पूरा झारखंड नेताओं के लूट का अड्डा बना हुआ है.....सब एक दूसरे को जानते हैं.....पुलिस भी जानती है और उनमें से भी ज्यादातर की इसमें संलिप्तता है.......। लेकिन कोई सीधे माओवादी या नक्सली संगठन बनाकर पर्दें के पीछे उसे अंजाम दे रहा हो और सामने चुनाव मंे विजीत होकर मंत्री बन बैठा हो यह कल्पना किसी को नहीं थी। अगर साव सामने आया है तो साफ है कि वह अकेले नहीं होगा। चूंकि पुराने नक्सलवाद के नये रुप नव माओवाद का विस्तार एक साथ कई राज्यों में है, इसलिए इस दृष्टिकोण से अब इसे देखे जाने की जरुरत है। अगर नीति-निर्माताओं के बीच ही माओवादी बैठे हैं तो फिर सुरक्षा बलों को विजय कहां से मिलेगी। वे तो बलि चढेंगे, क्योंकि इनके लोग हर कार्रवाई की सूचना दे देंगे।

अभी इस घटना के एक दिन पहले झारखंड के  ही लोहरदगा जिले से गिरफ्तार नाबालिग लड़क ने पुलिस के सामने स्वीकार किया कि माओवादी नेता दीपक कुमार खेरवार से उसके अंतरंग संबंध रहे हैं। लड़की के मुताबिक दीपक उसे हर माह पांच हजार रुपए देता है, जिसके बदले वह हर वक्त बुलाए गए स्थान पर मिलने के लिए जाती है और अन्य सहयोगियों से तालमेल कर शीर्ष माओवादियों तक सूचनाएं पहुंचाती है। उसके साथ दो और गिरफ्तार हुए। पुलिस के अनुसार ये माओवादियों के शीर्ष से संपर्क में रहते थे और जिला मुख्यालय से लेकर अन्य जगहों से पुलिस गतिविधियों की हर सूचना उन्हें देते थे। जरा देखिए ये कैसे काम करते हैं। पुलिस 28 सितंबर को चौनपुर गांव में कैंप लगाने पहुंची। उसे आश्चर्य हुआ जिन ग्रामीणों की ओर से इसकी मांग की गई थी उसी की ओर से इसका विरोध हो रहा है और सामने महिलायें व बच्चे ज्यादा हैं।  विरोध की छानबीन से खुलासा हुआ कि माओवादियों ने सहयोगियों के माध्यम से ग्रामीणों को विरोध के लिए बाध्य किया था। वहां के पुलिस अधीक्षक का कहना है कि किस पुलिस वाहन में पेट्रोल भराया जा रहा है इसकी भी सूचना माओवादियों तक पहुंच रही है। चौनपुर में कैंप लगने की बात दो दिन पहले ही माओवादियों तक पहुंच गई थी जबकि इसे गोपनीय रखने की बात कही गई थी।
तो एक ओर नेता माओवादी और दूसरी ओर सामान्य गांव की लड़की तक उनके सूचना सूत्र .....ऐसे में इस नव माओवाद के खतरे से लड़ना कितना कठिन है इसका अनुमान हम सहज लगा सकते हैं।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408,09811027208

शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2014

मोदी की अमेरिका यात्रा को सफल मानना ही होगा

अवधेश कुमार
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के एक साथ होेने की जितनी भी तस्वीरें या विजुअल्स हैं उनमें प्रत्येक में स्वाभाविक गर्मजोशी, आपसी बातचीत की सहजता तथा एक दूसरे के प्रति सम्मान का भाव देखा जा सकता है। कूटनीति में चेहरे के हाव भाव सब कुछ बयान कर देते हैं। सच कहें तो पांच दिनों के अमेरिकी प्रवास, जिनमें दो दिनों की अमेरिका की राजकीय यात्रा शामिल थी, में ऐसा कोई क्षण नहीं होगा जिसे हम यह कह सकें कि यह ठीक नहीं था। प्रधानमंत्री का पूरा कार्यक्रम जितना सोचा गया होगा उससे कई मायनों में बेहतर ही हुआ। न्यूयॉर्क हवाई अड्डे पर उतरने से लेकर संयुक्त राष्ट्संघ का भाषण, युवाओं के कर्न्स्ट में भाषण, मेडिसन स्क्वायर का सबसे प्रचारित और प्रभावी कार्यक्रम....नेताओं और प्रमुख कारोबारियों से मुलाकात......सब एकदम सहज सामान्य रुप से पूरे होते गए। प्रवासी भारतीयों में जिस तरह का उत्साह देखा गया वैसा इसके पहले कभी नहीं हुआ। उनलोंगों ने जहां जहां मोदी गए एक प्रकार के उत्सव जैसे माहौल में परिणत कर दिया। निश्चय ही इसका असर अमेरिकी नागरिकों, वहां के रणनीतिकारों पर पड़ा होगा। आप अपने लोगों के बीच कितने लोकप्रिय हैं, वे आपको लेकर कितने उत्साहित हैं, इसका मनोवैज्ञानिक असर कूटनीति और द्विपक्षीय संबंधों पर पड़ता ही है।
यहां हम मुख्यतया प्रधानमंत्री की अधिकृत दो दिवसीय अमेरिका की राजकीय यात्रा पर केन्द्रित करेंगे। शुरुआत करते हैं मार्टिन लूथर किंग जूनियर के स्मारक पर मोदी एवं ओबामा के एक साथ जाने से। वह एक असाधारण और अस्वाभाविक दृश्य था। दोनों के बीच जिस तरह सामान्य बातचीत देखी गई वह उत्साहवर्धक था। अमेरिकी राष्ट्पति ओबामा का स्वयं मोदी के साथ वहां तक जाना एवं उनके साथ अकेले समय बिताना असाधारण है। यह पहली बार हुआ कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने किसी भारतीय नेता को स्वयं एस्कोर्ट किया। दोनों जिस तरह बातचीत कर रहे थे उनके शरीर के हाव भाव एकदम सामान्य एवं हसंमुख चेहरे अपने आप बहुत कुछ संदेश दे रहे थे। लगता था कि दोनों के मानसिक वेब लेंथ मिल रहे हैं। साथ में कोई अनुवादक नहीं।  ओबामा ज्यादा से ज्यादा समय मोदी के साथ बिता रहे थे और खूब बातचीत कर रहे थे। ओबामा भी मुस्करा रहे थे, सामान्य थे, मोदी भी मुस्करा रहे थे सामान्य थे। मोदी उनसे पूछ रहे थे और ओबामा उन्हें जानकारियां दे रहे थे। यह इस बात का द्योतक है कि संबंधों के रास्ते जमी हुई बर्फ पिघली है। दोनांे नेताओं के बीच इस तरह का व्यवहार यह साबित करता है कि आगे भी उनके बीच संवाद होता रहेगा।
पूर्व कार्यक्रम के अनुसार मोदी को किंग के स्मारक पर सुबह आना था, लेकिन बाद में यह बदल गया। ओबामा ने ही हस्तक्षेप करके इसे बदलवाया ताकि वो भी रह सकें। ओबामा संबंधों पर पड़े हुए बर्फ पिघलाने में माहिर हैं और मोदी ने कूटनीति की ऐसी शैली विकसित की है, जिसमें पुरानी औपचारिकतायें, शब्दावलियां हाव-भाव सब बदल रहे हैै। ओबामा को बातचीत के बाद उन्हें लगा कि यह आदमी खरी-खरी मुद्दों पर बात करता है, इसलिए इसके साथ कार्य व्यवहार किया जा सकता है। दोनों नेताओं की संयुक्त पत्रकार वार्ता की यकीन मानिए पूरी दुनिया के सभी प्रमुख देशों को प्रतीक्षा रही होगी।  संयुक्त पत्रकार वार्ता बिल्कुल समानता का परिचय दे रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे विश्व की दो बड़ी शक्तियां आपसी द्विपक्षीय संबंधांे के साथ पूरी दुनिया की समस्याओं पर विचार कर रहीं हैं एवं एक दूसरे का सहयोग करने को तत्पर हैं। मोदी ने अपने बयान में दक्षिण एशिया से लेकर, एशिया प्रशांत, पश्चिम एशिया, अफ्रिका, संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधार, वैश्विक आतंकवाद एवं उसके विरुद्ध युद्ध, विश्व व्यापार संगठन...सहित सारे मुद्दों की चर्चा की। इस प्रकार की बातचीत दो महाशक्तियों के बीच होती थी। यानी ओबामा से बातचीत में मोदी ने जता दिया कि भारत अब अपने साथ-साथ फिर से वैश्विक सोच की ओर अग्रसर हो चुका है। अमेरिकी विश्लेषक टेलीविजन चैनल पर कह रहे हैं कि मोदी एक वरदानसंपन्न राजनेता हैं। वे कह रहे हैं कि मोदी ने अमेरिकी लोगों, यहां की मीडिया, अकादमिशियन, राजनयिक, नेताओं, कारोबारियों....सब पर गहरा प्रभाव छोड़ा है।
लंबे समय बाद ऐसा हुआ है जब एक-एक विषय पर खुलकर बातचीत हुई। जो साझा वक्तव्य जारी हुआ, दोनों नेताओं ने अखबार यानी वाशिंगटन पोस्ट में संयुक्त लेख लिखने का जो ऐतिहासिक कार्य किया, और बाद में जो सुयक्त पत्रकार वार्ता हुई उन सबसे यह साफ हो गया कि संबंधों का पूरा रोड मैप यानी आगे का नक्शा तैयार हो चुका है, विन्दु सारे उतने स्पष्ट हो चुके हैं जो पहले नहीं थे और आगे इस पर काम करना है। यह गंभीर संबंधों के लिए बातचीत की गंभीरता को दर्शाता है। मोदी ने कहा कि  ओबामा से हुई बातचीत से विश्वास दृढ हो गया है कि दोनों देशाों के बीच सामरिक साझेदारी स्वाभाविक है जो हमारे हितों, साझा मूल्यों पर आधारित हैं। इसमें रक्षा संबंध, आतंकवाद, अफगानिस्तान, नागरिक नाभिकीय साझेदारी, व्यापार, विश्व व्यापार संगठन, जलवायु परिवर्तन....इबोला संकट.....आदि एक-एक पहलू पर बात हुई।
ओबामा ने अपनी चिंता जताई कि भारत से उनको कहां कहां समस्या है तो मोदी ने उसका संज्ञान लेते हुए उसे दूर करने का वचन दिया लेकिन साथ में अपनी चिंता भी जता दी। मसलन, ओबामा ने कहा कि हम भारत से व्यापार को आसान बनाने की उम्मीद करते हैं तथा विश्व व्यापार संगठन में रुख के बदलाव की भी तो मोदी ने कहा कि व्यापार को आसान करने पर हम सहमत हें, जो भी बाधा डालने वाले नियम कानून हैं उसे बदलेंगे, क्योंकि आर्थिक विकास के लिए यह आवश्यक है, लेकिन अमेरिका को भी हमारी चिताओं को समझना होगा। तो कैान सी चिंता? हमारे यहां खाद्य सुरक्षा की समस्या का हल निकालना होगा, अन्यथा विश्व व्यापार संगठन में कृषि मुद्दे पर हम साथ नहीं दे पाएंगे। एकदम दो टूक कि आप खाद्य सुरक्षा की समस्या का हल कर दीजिए हम उसे स्वीकार करने को तैयार हैं। तो इस तरह गेंद अमेरिका के पाले में डाल दिया है। दूसरे, मोदी ने कहा कि अमेरिका भी ऐसे कदम उठाए जिससे हमारे देश की सेवा देने वाली कंपनियोें के लिए यहां काम करना आसान हो जाए।
मोदी ने लूक ईस्ट एवं लिंक वेस्ट को भारत की विदेश नीति का अभिन्न अंग बताकर यह संदेश दिया कि वह एशिया की ओर देखने की नीति पर चलने के साथ पश्चिम को जोड़ने या एशिया और पश्चिम के बीच पुल का काम करने की भूमिका निभाना चाहते हैं। हम जानते हैं कि मोदी का मुख्य मिशन निवेश के लिए अमेरिकी कंपनियों को आमंत्रित करना था, उन्होंने किया, रक्षा कंपनियों को भारत में आकर कारखाने लगाने का आमंत्रण दिया और उसके रास्ते की बाधाओं को खत्म करने का आश्वासन। वैसे भी मोदी अमेरिका जाने के पहले अपना मेक इन इंडिया कार्यक्रम का उद्घाटन करके गये थे ताकि निवेशकों को यह विश्वास हो कि भारत के व्यवहार में अब व्यवसाय आ गया है।
इन सबके परिणाम क्या होंगे यह आने वाले दिनों में ही पता चलेगा, लेकिन अमेरिकी कंपनियों की दिलचस्पी बढ़ी है यह साफ है। ध्यान रखिए कि अमेरिका आज भी हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। करीब 100 अरब डॉलर का व्यापार हमारा है और यह चीन से भारी घाटे के विपरीत भारत के पक्ष में हैं। अमेरिका को संदेह की दृष्टि से देखने वाले इस पक्ष की अनदेखी करते हैं। मोदी ने स्वयं विदेश नीति परिषद के भाषण में कहा कि व्यापार का जो मसला है वह लाभ हानि पर चलता है। आपको लाभ होगा आप व्यापार करेंगे, हमें लाभ दिखेगा तो हम करेंगे। यानी उनके दिमाग में यह बात साफ है कि कोई भी निवेशक यहां सेवा करने नहीं आएगा, वह व्यापार करने और मुनाफा कमाने आएगा, लेकिन हमारा हित उसी में है कि हमारे यहां रोजगार मिले, वस्तुओं का उत्पादन हो जिससे खजाने में कर बढ़े, बैंक गतिशील हों....यही तो बाजार पूंजीवाद में विकास का चक्र है।
वैसे रक्षा संबंधों को 10 वर्ष आगे बढ़ना स्वाभाविक था। आखिर 30 सितंबर को ही तो भारत अमेरिकी सैन्य अभ्यास खत्म हुआ। लेकिन इसमें मूल बात तकनीकों के हस्तातरण तथा रक्षा अभ्यास को और व्यापक करने का है। भारत की नीति अब रक्षा खरीद के साथ तकनीके लेना भी है जिससे अमेरिका बचता है। मोदी के साफ करने के बाद शायद अंतर आए। इसी तरह आतंकवाद के मामले पर हमने साथ देने का वायदा किया है, पर युद्ध में कूदने का नहीं, अफगानिस्तान में भी सुरक्षा से ज्यादा विकास केन्द्रित सहयोग की बात मोदी ने रखी जिसे अमेरिका ने स्वीकार किया है। यहां इन सबमें विस्तार से जाना संभव नहीं है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह कि नरेन्द्र मोदी की अमेरिकी कूटनीति, जापान, ब्रिक्स, नेपाल और भूटान की तरह ही सफल मानी जाएगी। ओबामा के सामने मोदी जब भी हैं एकदम आंखों में आखें मिलाते एवं मुस्कराते हुए। नेता की यह भंगिमा सामने वाले को प्रभावित करती है। जाहिर है, अमेरिका के साथ संबंधों में हम एक नए दौर की उम्मीद कर सकते हैं।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

महाराष्ट्र में राजनीतिक तलाक के बाद

अवधेश कुमार

फेसबुक ने फ्रेन्ड अन्फ्रेन्ड शब्द को आम बना दिया। महाराष्ट्र की चुनाव पूर्व राजनीति ने भी एक ही दिन अन्फ्रेंड को इतना ज्यादा सुर्खियों में लाया कि फेसबुक उसके सामने छोटा पड़ गया। जो टिप्पणीकार यह मान रहे थे कि गठबंधन की इतनी लंबी जीवन यात्रा के बाद मन का मिलन इतना सघन है कि तलाक संभव नहीं वे सही साबित नहीं हुए। हालांकि यह कल्पना किसी को भी नहीं थी कि वाकई इनके इतने पुराने और राजनीतिक रुप से सघन रिश्ते का इस तरह ऐन चुनाव पूर्व अंत हो जाएगा। सच कहा जाए तो भारतीय राजनीति में यह दुर्भाग्यपूर्ण सच एक बार फिर साबित हुआ है कि यहां गठबंधन केवल सत्ता संबंधी राजनीतिक हितों के कारण होतीं हैं और हितों पर थोड़ी भी आंच आने की संभावना हुई नहीं कि बस तलाक। आखिर  शिवसेना और भाजपा की 25 साल पुरानी दोस्ती के बीच तलाक कोई सामान्य स्थिति नहीं है। कांग्रेस और राकांपा के बीच 15 साल की दोस्ती भाजपा शिवसेना की श्रेणी की नहीं थी, फिर भी उनके बीच गठबंधन धरातल तक बन चुका था।

लेकिन अगर हम यह कल्पना करें कि इस असाधारण राजनीतिक घटनाक्रम के परिणाम भी असाधारण हो जाएंगे तो यह हमारी भूल होगी। इससे चुनाव परिणाम पर असर होगा, पर उसके बाद सरकार गठन के समय फिर से समीकरण बनेंगे और उनकी तस्वीर ऐसी ही हो सकती हैं जैसी आज हैं। हां, इससे तत्काल महाराष्ट्र की राजनीति का पूरा वर्णक्रम अवश्य बदल गया है। महाराष्ट्र के मतदाताओं को कुल मिलाकर दो गठबंधनों में से एक को चुनने का विकल्प रहता था जो खत्म हुआ है। राकांपा भी कांग्रेस की ही भाग थी, जो सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे को लेकर 1999 में शरद पवार, तारिक अनवर और पी. ए. संगमा के विद्रोह से उत्पन्न हुई। करीब दो दशक से दो ध्रुवों पर टिकी राजनीति इस समय चार ध्रुवों में बदली है और एक थोड़ा छोटा पर परिणामों पर असर डालने वाला पांचवां धु्रव महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना है। भाजपा, शिव सेना, कांग्रेस और एनसीपी अलग-अलग मैदान में उतर रहे हैं। इस टूट का कोई वैचारिक कारण हो ही नहीं सकता। चारों पार्टियां अधिक से अधिक सीटें चाहतीं थीं, और मुख्यमंत्री पद को लेकर मतभेद थे। भाजपा का प्रस्ताव था कि जिसे अधिक सीटें आएं मुख्यमंत्री उसका हो, पर शिवसेना अपने मुख्यमंत्री पर अड़ी। उसी तरह राकांपा ने सत्ता में आने पर ढाई-ढाई वर्ष के मुख्यमंत्री का प्रस्ताव रखा जो कांग्रेस ने स्वीकार नहीं किया। रकांपा 288 में से आधी सीटों पर लड़ना चाहती थी जबकि कांग्रेस पिछले विधानसभा चुनाव के अनुसार उसे 114 या उससे कुछ ज्यादा देने पर अड़ी थी। उसने उन स्थानों पर भी उम्मीदवार खड़े कर दिए जिन पर राकांपा बातचती कर रही थी। इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि संभवतः कांग्रेस विधानसभा चुनाव में राकांपा से अलग होकर लड़ने का मन बना चुकी थी। मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण की छवि ईमानदार नेता की है, इसलिए इसमें आश्चर्य नहीं कि वे राकांपा से अलग होकर चुनाव लड़ना चाह रहे हों ताकि सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप कम हो सके, अन्यथा वे सरकार गिराने की सीमा तक नहीं जाते। ध्यान रखिए कि भ्रष्टाचार के ज्यादा आरोप राकांपा के नेताओं पर हैं।

यही बात शिवसेना भाजपा के साथ नहीं थी। कोई गठबंधन का अंत नहीं चाहता था। शिवसेना ने बदले हुए माहौल का अपने अनुसार मूल्यांकन कर भाजपा को समान दर्जा देने से इन्कार किया। लगातार बातचीत होती रही, पर शिवसेना पुराने सूत्र को पूरी तरह बदलने को तैयार नहीं थी। आखिरी प्रस्ताव में शिवसेना ने अन्य घटक दलों के लिए महज 7 सीटें दीं थीं। यानी अगर गठबंधन को बनाए रखना है तो महायुति के अन्य दलों को भाजपा अपने खाते से सीटें दे। शिव सेना की ओर से हर बार लगभग एक ही प्रस्ताव सामने आता था। यदि धरातली वस्तुस्थिति के अनुसार विचार करेंगे तो भाजपा एवं रकांपा का तर्क गलत नहीं था। महाराष्ट्र की 288 विधानसभा सीटों में से अब तक शिवसेना 171 एवं भाजपा 117 सीटों पर चुनाव लड़ती आई हैं। इस बार भाजपा ने कहा कि शिवसेना द्वारा कभी न जीती गई 59 एवं भाजपा द्वारा कभी न जीती गई 19 सीटों पर पुनर्विचार कर उन्हें फिर से शिवसेना-भाजपा एवं साथी दलों के बीच बांटा जाना चाहिए। लेकिन शिवसेना को यह स्वीकार नहीं था। उसने कहा कि उसका मिशन 150 है जिसमंे भाजपा सहयोग करे। राकांपा का तर्क था कि लोकसभा चुनाव में राकांपा का प्रदर्शन कांग्रेस से बेहतर रहा, इसलिए वह आधी सीटें हमें दे। आधी से थोड़े कम पर बात बन जाती, पर कांग्रेस ने भी सच्चाई को स्वीकार नहीं किया। आखिर 2009 के लोकसभा चुनाव में राकांपा की सीटें कम आने के बाद कांग्रेस ने उसे 2004 के विधानसभा चुनाव में दी गईं 124 सीटों को घटाकर 114 कर दिया था।

बहरहाल, भाजपा अकेले नहीं है। किसानों में पैठ रखनेवाले स्वाभिमानी शेतकरी संगठन, धनगर समाज की पार्टी राष्ट्रीय समाज पक्ष एवं मराठा समाज के संगठन शिव संग्राम सेना अब भाजपा के साथ रहेंगे। रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया भी भाजपा के साथ ही रहेगी। पिछले लोकसभा चुनाव से पहले दिवंगत गोपीनाथ मुंडे ने इन चार में से तीन दलों को शिवसेना-भाजपा के साथ जोड़कर दो दलों के गठबंधन को महागठबंधन में बदला था। रिपब्लिकन पार्टी (आठवले) ने 2009 के विधानसभा चुनाव के बाद शिवसेना से हाथ मिलाया था लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले इसके नेता रामदास आठवले को राज्यसभा में भाजपा ने भेजा। यदि ये चारों दल भाजपा के साथ हैं तो उसे इनके सम्मिलित 14 प्रतिशत मतों का लाभ मिल सकता है। हां, शिवसेना के साथ न होने की क्षति होगी। भाजपा ने कहा कि हम चुनाव के दौरान शिव सेना के खिलाफ कोई टीका टिप्पणी नहीं करेंगे, उम्मीद है शिव सेना भी ऐसा ही करेगी, पर शिवसेना ने भाजपा के खिलाफ टिप्पणी करना आरंभ कर दिया।

शिवसेना को ज्यादा क्षति होने की संभावना है। पता नहीं उद्धव ठाकरे कैसे भूल गए कि लोकसभा चुनाव के पूर्व उनके सांसद तक पार्टी छोड़ रहे थे और यदि मोदी लहर तथा भाजपा से गठबंधन न होता तो शिवसेना बिखर जाती। लोकसभा चुनाव में वोट मोदी के नाम पर मिला था, इसे शिवसेना स्वीकार नहीं कर पा रही। उसके पास मुख्य वोट आधार मराठी हैं। अकेले लड़ने से ये वोट भाजपा-राकांपा-मनसे और शिवसेना के बीच बंट जाएगा। उसके कार्यकर्ता नेताओं का एक वर्ग मनसे में जा सकता है।  उद्धव बाला साहब ठाकरे नहीं हैं जिनके करिश्मे ने शिवसेना को बचाए रखा। कांग्रेस और राकांपा विरोधी यदि यह देखेंगे कि शिवसेना नहीं जीतने वाली तो यकीनन भाजपा की महायुति को वोट देंगे या फिर आक्रामक मराठावाद के समर्थक मनसे को। इसलिए इस समय के आंकड़े में गठबंधन टूटने की सबसे ज्यादा क्षति किसी को हो सकती है तो वह है, शिवसेना। मनसे यह प्रचार करेगी कि जब भाजपा और शेष महायुति के दल ही उसके साथ नहीं तो फिर शिवसेना को मत क्योें दोगे और इसका असर हो सकता है। उद्धव ठाकरे प्रभावी वक्ता भी नहीं हैं। दूसरी ओर भाजपा के पास प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जैसा आकर्षक भाषण देने वाला नेता तो है ही, प्रदेश स्तर पर भी जनता के बीच आकर्षण वाले नेता हैं। इसमें उसके लिए कठिनाई ज्यादा हैं।  इस समय यह साफ दिख रहा है कि भाजपा एवं महायुति भले बहुमत न ला पाए पर उसको बहुत ज्यादा क्षति नहीं होगी। कांग्रेस को भी 15 वर्ष की सत्ता विरोधी रुझान की क्षति होनी है। राकांपा अकेले दम पर बहुत दमदार प्रदर्शन कर पाएगी ऐसी संभावना कम है, पर आश्चर्य नहीं हो यदि वह कांग्रेस से बेहतर प्रदर्शन कर ले।  मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ईमानदार हो सकते हैं, पर वे ऐसे नेता नहीं हैं जो जनता के बीच जाकर उसे अपने भाषणों से प्रभावित कर सकें और मत खींच सकें। इसके विपरीत राकांपा के पास ऐसे कई नेता हैं। शरद पवार ही अपने क्षेत्र में लोकप्रिय एवं जनाकर्षक व्यक्तित्व रखते हैं। सत्ता के गणित मंे भी राकांपा के पास किसी के साथ जाने का विकल्प खुला है, जबकि कांग्रेस के पास केवल राकांपा ही विकल्प है।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

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