रविवार, 18 जुलाई 2021

आधुनिक राजनीति में अंबेडकरवाद की अवधारणा

बसंत कुमार

भारतवर्ष की राजनीति में आज के युग में चाहे कोई भी दल हो सभी डॉ. अंबेडकर की स्तुति करते हैं, जहां अपनी जमीन तलाश रही कांग्रेस अपने आपको सच्चा अंबेडकरवादी कहती है। जबकि कांग्रेस ने बाबा साहब डॉ. अंबेडकर को न उनके जीते जी और न उनके मरने के पश्चात कभी भी उनको उचित सम्मान दे सकी, यहां तक कि आजादी के 42 वर्षों के पश्चात भी बाबा साहब डॉ. अंबेडकर को देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न न दिया गया और न ही संसद के केंद्रीय कक्ष में ही उनका तैल चित्र लगा। कांग्रेस के समान वामपंथी दल भी आजकल कुछ तथाकथित स्वयं को अंबेडकरवादी कहने वाले लोग नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सात वर्षों से देश में सुशासन चला रही बहुमत की सरकार को हटाने के लिए अंबेडकरवाद का राग अलापते रहते हैं। वह जेएनयू के देशद्रोहियों और शाहीनबाग के उपद्रवियों के कारनामों को सही सिद्ध करने के लिए अंबेडकरवाद का सहारा लेते हैं। कुछ राजनीतिक संगठन जो पंडित नेहरू की जिद के कारण संविधान में अनुच्छेद 370 जोड़ी गई उस धारा को आजादी के 72 वर्ष के पश्चात श्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की दृढ़ इच्छाशक्ति से हटाई जा सकी, को पुन लाने के लिए पाकिस्तान से भी सहयोग लेने में गुरेज नहीं करना चाहते वह भी अपने आपको अंबेडकरवादी कहते हैं। आलम यह है कि हर राजनैतिक दल या समूह अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए अपने-अपने तरीके से अंबेडकरवाद को परिभाषित करते हैं। अब यह आवश्यक हो गया है कि स्वयं बाबा साहब अंबेडकर इन राजनैतिक दलों या समूहों के विषय में क्या विचार रखते थे। प्राय कांग्रेस गैर-कांग्रेसी सरकारों पर यह आरोप लगाती रही है कि बाबा साहब के संविधान को नष्ट किया जा रहा है जबकि कांग्रेस ने संविधान के 42वें संशोधन के जरिये संविधान की मूल भावना को ही नष्ट करने का प्रयास किया और कांग्रेस की यूपीए सरकार ने वर्ष 2004 में यह प्रयास किया था कि धर्मांतरण करके ईसाई व मुस्लिम बने लोगों को दलित सिद्ध करके अनुसूचित जाति में शामिल कर लिया जाए जबकि डॉ. अंबेडकर इस प्रकार के धर्मांतरण के बिल्कुल विरुद्ध थे। 

डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा में धर्मांतरित ईसाइयों व मुसलमानों की ओर से सैकड़ों प्रश्नों का सामना करते हुए अनेक कुतर्कों का जवाब देते हुए धर्मांतरित ईसाइयों और मुसलमानों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की मांग को बड़ी कठोरता के साथ अस्वीकार कर दिया था। वास्तव में बाबा साहब डॉ. अंबेडकर एक सुधारवादी हिन्दू थे, इसीलिए उन्होंने हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाया जो भारत में पल्लवित और पुष्पित हुआ। उन्होंने वही धर्म अपनाया जिसके मूल में हिन्दू संस्कृति बसती है। डॉ. अंबेडकर ने यह स्पष्ट कर दिया था कि ईसाइयत या इस्लाम के छलावे में न आकर दलित समाज को यदि हिन्दू धर्म को छोड़ना है तो बौद्ध धर्म अपनाएं (बाबा साहब व्यक्ति और विचार डॉ. कृष्ण गोपाल पृ. 253) और बाबा साहब ने 1936 में जिन 429 जातियों को शामिल कर अनुसूचित जाति की सूची बनाई गई उसी पर अडिग रहे।

वर्ष 2019 में जब केंद्र सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 पारित किया तब से सीएए, एनआरसी के विरोध में, सपा-बसपा जैसी पार्टियां लामबंद हो रही हैं। इनका यह स्टैंड इसलिए समझ में आता है कि कांग्रेस सहित इन सभी पार्टियों का वोट बैंक दलित व मुस्लिम रहा है परन्तु एक बात जो बिल्कुल हैरान करती है वह यह है कि सारे वामपंथी संविधान सुरक्षा के नाम पर बाबा साहब द्वारा रचित संविधान और बाबा साहब का फोटो हाथ में लिए सीएए/एनआरसी के विरोध में खड़े पाए गए। वहीं बाबा साहब डॉ. अंबेडकर ने यह बात भलीभांति समझ ली थी ]िक भारत में रहकर भारत की सभ्यता, भारत की संस्कृति का विरोध करना इन वामपंथियों का चरित्र रहा है। आइए यह जानने का प्रयास करते हैं कि वह कौन-से पहलू थे कि डॉ. अंबेडकर सदैव वामपंथ का विरोध करते रहे, वह अपनी संपूर्ण शक्ति से भारत के दलित समाज को वामपंथियों के प्रभाव से बचाते रहे। इसका उत्तर स्वयं बाबा साहब ने कुछ इस प्रकार दियाöवामपंथ अर्थात मार्क्सवाद धर्म को अफीम मानता है। संक्षेप में धर्म वामपंथियों के अनुसार दुख की एक खान है, वहीं बाबा साहब डॉ. अंबेडकर कहते हैं कि धर्म अफीम नहीं हैं जो कुछ अच्छी बातें मेरे में हैं अथवा समाज को मेरी शिक्षा-दीक्षा से जो कुछ भी लाभ हो रहे हैं, वह मेरे अंदर की धार्मिक भावना के कारण सफल हुए हैं। मैं धर्म चाहता हूं परन्तु धर्म के नाम पर किसी भी प्रकार का पाखंड या ढोंग नहीं। (लाइफ एंड मिशन पृ. 305) वामपंथ पर प्रहार करते हुए डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि कुछ लोगों का कहना है कि धर्म समाज के लिए आवश्यक नहीं है। मैं इस दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करता। मैं धर्म की आधारशिला को जीवन और समाज के व्यवहारों के लिए आवश्यक मानता हूं। (डॉ. अंबेडकर का धर्म दशर्न पृ. 70)

कुछ वामपंथी व कथित अंबेडकरवादी बाबा साहब एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में परस्पर विरोध की बात करते हैं जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जो प्रात स्मरण प्रार्थना के रूप में उनका नाम लिया जाता है। उस प्रार्थना में जिन महापुरुषों का नाम लिया जाता है उनमें रविन्द्रनाथ टैगोर, डॉ. अंबेडकर सहित अनेक महापुरुष हैं। जब डॉ. अंबेडकर ने लोकसभा का चुनाव ल़ड़ा और कांग्रेस ने उनका विरोध किया तो आरएसएस के प्रचारक और श्रमिकों के कल्याण में अहम भूमिका निभाने वाले दत्तो पंतजी ठेंगड़ी ने उनके चुनाव में, उनके चुनाव एजेंट के रूप में चुनाव संचालन किया। जब अनुच्छेद 370 देश में लागू हुआ तो डॉ. अंबेडकर ने उसका विरोध किया था यद्यपि उनके विरोध के बावजूद यह बहुमत के आधार पर लागू हो गया परन्तु यह शब्द लिख दिया गया कि अनुच्छेद 370 अस्थायी होगा।

संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ. अंबेडकर व जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी बेशक आर्थिक व सामाजिक मसलों पर अलग-अलग विचारधाराएं रखते थे परन्तु राष्ट्रीय एकता व अखंडता के मामले में दोनों ही एक ही विचारधारा के थे, जहां डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अनुच्छेद 370 के विरोध में अपने प्राणों की आहुति दे दी, वहीं बाबा साहब ने अनुच्छेद 370 के विरोध में व समान आचार संहिता हिन्दू कोड बिल पर अपनी बात न माने जाने पर नेहरू मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया, इसके साथ-साथ जिस बात पर डॉ. अंबेडकर सर्वाधिक खिन्न थे वह थाöहिन्दू कोड बिल। नेहरू सरकार ने इस पर 1951 तक चर्चा नहीं की और इस पर बाबा साहब का धैर्य समाप्त हो गया और नेहरू मंत्रिमंडल छोड़ दिया। संविधान निर्माता डॉ. अंबेडकर कानून के ज्ञाता के साथ-साथ पक्के राष्ट्रवादी थे। प्रसिद्ध इतिहासकार श्री दुर्गादास ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया फ्रॉम नेहरू टू कर्जन एंड आफ्टर’ (पृष्ठ 236) में लिखा है ‘ही वाज नेशनलिस्ट टू द कोर’। उनकी सबसे बड़ी चिन्ता भी भारत के दलितों और अछूतों को न्याय दिलाना था। इस विषय पर उन्होंने कभी समझौता नहीं किया पर हिन्दू समाज को कभी बंटने नहीं दिया।

डॉ. अंबेडकर के विचार वास्तविक रूप से उस राष्ट्रवाद से जुड़े हैं जिसमें व्यक्ति और व्यक्तियों के बीच जातियों, वर्णों, वर्गों, धर्मों में किसी तरह का कोई भेद नहीं है। देश का हर नागरिक सिद्धांतत समान है। समान व्यवस्था सामाजिक सोच के अंतर्गत हम सभी में समरसता है। देश का हर नागरिक सिद्धांतत समान है और इसी से हमारा राष्ट्र अनेकता में एकता का उत्कृष्ट उदाहरण है और बाबा साहब ने भारतीय संविधान के उद्देशिका में समस्त नागरिकों के लिए समता और बंधुता की बात कही थी। बाबा साहब ने संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण में प्रत्यक्ष सामाजिक जीवन की विसंगतियों का उल्लेख करते हुए जो समानता की बात कही उसी आधार पर संविधान में अनेक संशोधन किए गए जिनकी भूमिका सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, समरसता प्रस्थापित करने की है। भारतीय संविधान के शिल्पी के बतौर डॉ. अंबेडकर ने फ्रेंच रिवोल्यूशन से तीन शब्द लिए लिबर्टी, इक्वलिटी और फ्रैटर्निटी और संविधान के मूल में इन सामाजिक जीवन दर्शन को गहराई से प्रभावित किया है और यही अंबेडकरवाद की अवधारणा है।

आज हर राजनैतिक दल या समूह अपने-अपने स्वार्थ के अनुसार बाबा साहब के नाम पर अंबेडकरवाद को परिभाषित कर रहा है जबकि बाबा साहब के अनुसार देश उनकी पहली प्राथमिकता है उनके शब्दों में ‘हम भारतीय हैं सबसे पहले और अंत में, समय और परिस्थितियों को देखते हुए सूरज के नीचे कोई भी इस देश को सुपर पॉवर बनने से नहीं रोक सकेगा।’ इसके साथ वह दलित व वंचित समाज को समाज की मुख्यधारा में विकास के जरिये लाना चाहते थे और यही अंबेडकरवाद का मुख्य सार है।

(लेखक भारत सरकार के पूर्व उपसचिव हैं।)

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