रविवार, 18 जुलाई 2021

क्या दलित हिन्दू हैं डॉ. अंबेडकर व महात्मा गांधी के दृष्टिकोण

बसंत कुमार

यदि किसी से पूछ लिया जाए कि आपके गांव में कितने हिन्दू, कितने मुसलमान या अन्य धर्मों के लोग हैं, प्राय यह जवाब होता है कि मेरे यहां इतने प्रतिशत हिन्दू हैं, इतने प्रतिशत मुस्लिम हैं, इतने प्रतिशत ईसाई हैं और इतने प्रतिशत दलित हैं। यानि व्यवहारिक रूप में सनातनी हिन्दू दलितों को हिन्दू नहीं मानते, जबकि देश की अधिकांश राजनीतिक पार्टियां, जो दलित हिन्दू ने धर्म छोड़कर अन्य धर्मों में धर्मांतरण कर लिया है, उन्हें संविधान में अनुसूचित जातियों के आरक्षण का लाभ नहीं देना चाहती। भाजपा के वरिष्ठ नेता एवं राज्यसभा सांसद श्री दुष्यंत गौतम ने एक मुलाकात के दौरान मुझसे एक प्रश्न किया, ‘जो हिन्दुओं ने दलितों के साथ अत्याचार किए उसकी जानकारी हर दलित को है पर दलितों के हित के लिए जो काम नरेंद्र मोदी सरकार कर रही है उसकी जानकारी दलितों तक नहीं पहुंच पाती।’ इन परस्पर विरोधी धारणाओं के निराकरण हेतु ‘क्या दलित हिन्दू हैं’ के विषय में देश के दो सर्वमान्य समाज सुधारकों डॉ. अंबेडकर और महात्मा गांधी के दृष्टिकोण को जानना आवश्यक है।

गांधी जी की विचारधारा एक सनातनी हिन्दू ढांचे में विकसित हुई थी उनके मन में किसी के प्रति द्वेष या घृणाभाव नहीं था वहीं डॉ. अंबेडकर के मन में अपने कटु अनुभवों के कारण हिन्दू धर्म की सामाजिक व्यवस्था व रूढ़िवादिता के प्रति रोष अवश्य था, उनके कठोर और उग्र विचारों के कारण कांग्रेसजन उनसे दूरी बनाकर रखते थे। वे ज्योतिबा फुले, गोविंद राना डे और गोपाल गणेश आगरकर के विचारों से प्रभावित थे और दलितों-वंचितों पर हो रहे अन्याय के विरुद्ध खड़ा होने के लिए प्रतिबद्ध थे। गांधी जी जाति प्रथा और छुआछूत के प्रश्न पर इतने प्रखर तो नहीं थे परन्तु उनके चिन्तन में जाति के आधार विषमता तथा शोषण का निरंतर विरोध झलकता है। उन्होंने यंग इंडिया के नवम्बर 1920 के अंक में ‘ब्राह्मण और ब्राह्मणेत्तर’ नामक निबंध में अपने विचार स्पष्ट करते हुए कहा कि अंग्रेजों ने स्वतंत्रता आंदोलन कमजोर करने के लिए ब्राह्मण और ब्राह्मणेत्तर के प्रश्न को राजनीतिक रंग दे दिया। डॉ. अंबेडकर गांधी जी के विचारों से पूरी तरह से असहमत थे और उनको पूर्ण विश्वास था कि गांधी जी का दलित प्रेम एक ढोंग है। अवसरवादी फिरंगी सरकार ने गांधी जी और डॉ. अंबेडकर के विचारों की भिन्नता का पूरा फायदा उठाया और वर्ष 1932 में मुसलमानों एवं अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के लिए विधानमंडल में कुछ सीटें आरक्षित कर दीं। इस नए कानून से दलित वर्ग को भी अल्पसंख्यक का दर्जा देकर उन्हें हिन्दू धर्म से अलग करने की तैयारी शुरू हुई। यरवदा जेल में बंद गांधी जी ने खबर पाते ही इस कानून का विरोध किया। उनका यह मत था कि यह भारतीय स्वाधीन आंदोलन पर सीधा हमला है और यह दलितों को धर्म परिवर्तन की ओर धकेलने का सीधा षड्यंत्र है।

गांधी जी इसके विरोध में 20 सितम्बर 1932 को आमरण अनशन पर बैठ गए। कई राजनीतिक दलों ने इसे गांधी जी का राजनीतिक स्टंट कहकर विरोध किया। परन्तु डा. अंबेडकर ने भारी दबाव के आगे इस विषय पर गांधी जी का साथ दिया, यदि डॉ. अंबेडकर ने गांधी जी का साथ नहीं दिया होता तो भारत के धर्म के आधार पर भारत-पाकिस्तान विभाजन ही नहीं बल्कि दलितों के लिए एक अलग देश पर भारत-पाकिस्तान विभाजन होता। पर महान राष्ट्रवादी डॉ. अंबेडकर ने गांधी जी का साथ दिया और पूना पैक्ट के तहत दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल का विचार त्याग कर उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई। डॉ. अंबेडकर ने अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से उच्च शिक्षा प्राप्त की थी तथा अमेरिकी नस्लवाद, अलगाववाद से भलीभांति परिचित थे। फ्रेंच रिवोल्यूशन का उन पर गहरा प्रभाव था, इसलिए वे समानता, बंधुता और अधिकारों की लड़ाई लड़ते रहे। यद्यपि अंग्रेज दलित वर्ग को गले लगाता था, बराबर बिठाता था, छुआछूत नहीं मानता था पर इस उदारता के पीछे की छिपी नीयत को बाबा साहब जानते थे और कहते थे कि अछूतों का भला ईसाई धर्म को स्वीकार करने में नहीं हो सकता, उनका भला तो हिन्दू समाज में व्याप्त छुआछूत को समाप्त करके ही हो सकता है। वे प्राय कहते थे कि यदि हिन्दू धर्म को बचाना है तो ब्राह्मणवाद को समाप्त करना होगा। बाबा साहब कहते हैं कि ‘मुझे अच्छा नहीं लगता जब कुछ लोग कहते हैं कि हम पहले भारतीय हैं और बाद में हिन्दू और मुसलमान हैं। धर्म, भाषा संस्कृति आदि की प्रतिस्पर्धी निष्ठा के रहते हुए भारतीयता के प्रति निष्ठा नहीं पनप सकती। मैं चाहता हूं लोग पहले भी भारतीय हों और अंत तक भारतीय रहें, भारतीय के अलावा कुछ नहीं।’ (बाबा साहब अंबेडकर: राइटिंग्स एंड स्पीचेज ख. 2 पृ. 195)

डॉ. अंबेडकर समझ गए थे कि दलितों की स्थिति में परिवर्तन समता मूल्क समाज की स्थापना के लिए आवश्यक है। यही कारण है कि वे अर्थशास्त्र के साथ-साथ जाति प्रथा के उद्गम विकास, प्रभाव पर निरंतर कार्य करते रहे। वे हिन्दू विधि व्यवस्था के प्रेणता, मनुस्मृति के निर्माता मनुमहाराज को जाति प्रणाली का निर्माता नहीं मानते थे क्योंकि वे यह मानते थे कि जाति मनु से पहले अस्तित्व में थी। इसलिए यह कहना भूल होगी कि जाति श्रेणियों का निर्माण शास्त्राsं और स्मृतियों ने किया। इन शास्त्राsं और स्मृतियों ने ब्राह्मणों की शक्ति पाकर जाति प्रथा को धार्मिक व सामाजिक आधार प्रदान किया। बाबा साहब आगे कहते हैं, ‘वंश की दृष्टि से सभी लोग संकर हैं, सांस्कृतिक एकता उनकी एकरूपता के कारण हैं। इस बात को मानकर चलते हुए मैं यह कहने का साहस कर सकता हूं कि संकर रचना के बावजूद सांस्कृतिक एकता में कोई भी देश भारत का मुकाबला नहीं कर सकता। इसमें न केवल भौगोलिक एकता है उसमें ज्यादा गहरी और मूलभूत एकता है। सांस्कृतिक एकता तो एक छोर से दूसरे छोर तक सारे देश में व्याप्त है, लेकिन इस सांस्कृतिक एकरूपता के कारण ही जाति की गुत्थी को सुलझाना अत्यंत कठिन हो जाता है।’ (डॉ. अंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज ख. 2 पृ. 22)

गांधी जहां एक ओर वर्ण व्यवस्था का समर्थन करते हैं वहीं अंबेडकर उसे पूरी तरह से अस्वीकार करते हैं, इस बिन्दु पर दोनों के विचारों में अंतर रहा और दोनों में कभी भी समझौता नहीं हो पाया। इसी कारण डॉ. अंबेडकर ने मनुस्मृति जलाई तथा एक वर्ग समाज की स्थापना पर अटल रहे। उनका विश्वास था कि जाति प्रथा के धार्मिक सिद्धांतों की जड़ों में मट्ठा डाले बिना जाति प्रथा से मुक्ति असंभव है। दलितों को धार्मिक अनुशासन में घेर कर उच्च शिक्षा, संस्कृति व दर्शन से वंचित रखा गया, फलत वे आशक्त हो गए और विदेशी आक्रांताओं से रौंदे जाते रहे। हमारी पराजय के मूल में जाति प्रथा, वर्ण व्यवस्था की गहरी भूमिका रही।

गांधी जी हिन्दू धर्म के माथे पर कलंक (गोधरा 5/11/1917) में अपने आलेख में यह अफसोस जाहिर करते हैं कि ‘वर्ण की मेरी व्याख्या के हिसाब से तो आज हिन्दू धर्म में वर्ण धर्म का अमल होता ही नहीं। ब्राह्मण नाम रखने वाले क्या पढ़ाना छोड़ बैठे हैं और अन्य धंधे में लगे हैं। यही बात थोड़ी बहुत अन्य वर्गों के विषय में सच है।’ वास्तव में जाति प्रथा खत्म करने की बेचैनी उतनी गांधी जी को नहीं थी जितनी डॉ. अंबेडकर को थी। एक बार गांधी जी ने कहा था ‘मैं दलित वर्ग का किसी अन्य वर्ग की कीमत पर स्वराज नहीं चाहता, यह मेरे विचार से स्वराज होगा ही नहीं होगा। मेरा विचार है कि जिस समय भारत अंत शुद्धि कर लेगा, वह तभी आजाद होगा उससे पहले नहीं।’ (द कलेक्टेड वर्कस ऑफ महात्मा गांधी ख. 14, पृ. 15) इसके उलट डॉ. अंबेडकर का दृष्टिकोण एकदम साफ था कि जाति प्रथा को एकदम नष्ट किए बिना इस देश से अस्पृश्यता को समाप्त नहीं किया जा सकता। इसी कारण वे अंग्रेजी राज्य को सच्चा शैतान मानने के बजाय जाति प्रथा को देश का सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं।

गोलमेज कांफ्रेंस में भी गांधी जी और डॉ. अंबेडकर के बीच वैचारिक मतभेद उभरे पर डॉ. अंबेडकर अपनी बात पर अड़े रहे। गांधी जी ने कहा ‘पृथक मतदाता सूची और आरक्षण उस कलंक को नहीं धो सकते जो दलित जातियों का नहीं सनातनी हिन्दुओं का कलंक है।’

गांधी जी कहते थे ‘मेरे मत से हमारी दुर्गति का कारण जाति प्रथा नहीं है, हमारी गुलामी का कारण हमारा लोभ और अनिवार्य गुणों के प्रति हमारी उपेक्षा है। मेरा विश्वास है कि जाति प्रथा ने हिन्दू धर्म को विघटन से बचाया है।’ (दि कलेक्टेड वर्कस ऑफ महात्मा गांधी पृ. 83) इसके विपरीत डॉ. अंबेडकर भारत के पतन और गुलामी का कारण जाति प्रथा को मानते थे। गांधी जी गीता के चातुर्वर्ण्य विभाजन को ठीक मानकर उसका समर्थन करते थे और गांधी जी का यह समर्थन डॉ. अंबेडकर को मंजूर नहीं था इसलिए वे एक दिन के हिन्दू धर्म से नाता तोड़कर भारत में ही पल्लवित व पुष्पित बौद्ध धर्म की शरण में चले गए।

बाबा साहब ने कहा ‘हमारे देश ने बार-बार स्वतंत्रता क्यों खोई, आए दिन हम विदेशी हुकूमत में क्यों जकड़े गए। क्योंकि यह देश कभी एकत्रित होकर शत्रु के समक्ष खड़ा नहीं हुआ। समाज का एक छोटा वर्ग ही सामने आया और उसे जिसने पराजित किया वही विजेता बन गया, इसका प्रमुख कारण है हिन्दुओं की विनाशकारी जाति व्यवस्था। इसी विरोधी विचारधारा के कारण गांधी जी और डॉ. अंबेडकर कभी एक न हो सके। 1936 में अंबेडकर के ‘भाषण प्रथा उन्मूलन’ पर गांधी जी ने कहा कि वर्ण व्यवस्था हमें सिखाती है कि हम सब अपने बाप-दादा के पेशे को अपनाते हुए अपनी जीविका चलाएं, यह हमारे अधिकारों का नहीं अपितु हमारे कर्तव्यों का निर्धारण करती है। किन्तु गांधी की इस टिप्पणी पर बाबा साहब डॉ. अंबेडकर निरंतर असहज होते रहे। यद्यपि दोनों ने विदेशों में आधुनिक शिक्षा ग्रहण की थी परन्तु दोनों की सोच में जमीन-आसमान का अंतर था। जहां गांधी जी पारंपरिक सनातनी विचारधारा का समर्थन करते थे वहीं डॉ. अंबेडकर आधुनिक विकासवादी विचारधारा का समर्थन करते थे।

यह सच है कि गांधी जी और डॉ. अंबेडकर के हिन्दू समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था को लेकर अपने-अपने विचार थे पर वे दोनों ही दलितों या अछूतों को हिन्दू धर्म से अलग नहीं मानते थे पर कुछ अज्ञानी हिन्दू मठाधीश दलितों को हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं मानते और उनकी इसी अज्ञानता के कारण सनातनी हिन्दू संस्कृति का पतन होता रहा है।

 (लेखक भारत सरकार के पूर्व उपसचिव एवं कई पुस्तकों के लेखक हैं।)



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