अवधेश कुमार
उत्तर प्रदेश के इटावा का कथावाचक कांड सामाजिक और राष्ट्रीय एकता की कामना करने वाले हर व्यक्ति को डराने वाली है। जिस तरह पूरा प्रकरण यादव बनाम ब्राह्मण और उससे आगे बढ़कर पिछड़े ,दलित बनाम अगड़े में बदला जा रहा है वह बताता है कि हमारी राजनीतिक, सामाजिक चेतना सीमा से अधिक विकृत अवस्था में पहुंची हुई है। किसी भी ऐसे कांड पर नेताओं और प्रबुद्ध वर्ग की भूमिका सच्चाई तक जाकर दोनों पक्षों के बीच तथ्यों और भावनाओं के आधार पर मेलजोल कराना तथा मामले को शांत करना होना चाहिए। उत्तर प्रदेश में सक्रिय प्रबुद्ध वर्गों के एक समूह ने आग में घी तो डाला और समाजवादी पार्टी ने अपनी भूमिका से इसमें पेट्रोल डालकर राज्यव्यापी ताप फैलाने की राजनीति की है। यह दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है कि हमारे समाज में आज भी ऊंचा - नीच के आधार पर एक बड़े वर्ग की जातीय सोच और व्यवहार निर्धारित होती है। यह केवल कुछ सवर्ण कहे जाने वाले जातियों में ही नहीं है। स्वयं को पिछड़ा और दलित मानने वाले जातियों के अंदर भी एक दूसरे को लेकर यही व्यवहार और सोच है। नेताओं, समाज विरोधियों तथा अज्ञानी समाजकर्मियों ने इसे और हवा दी।
ऐसी किसी घटना में हमारा समाज पुलिस प्रशासन और नेताओं की दृष्टि से ही विचार करने लगता है। इसलिए कौन गलत कौन सही के आधार पर हम अपना निष्कर्ष निकालते हैं। इस घटना में भी यही हो रहा है। अभी तक की जानकारी के अनुसार कथावाचक मुकुटमणि सिंह यादव और उनके सहयोगी आचार्य संत सिंह यादव इटावा के एक गांव दांदरपुर में श्रीमद्भागवत की कथा कह रहे थे। ब्राह्मण बहुल गांव में उनके व्यास पीठ को सभी प्रणाम करते थे। कथा वाचक के प्रति सम्मान और श्रद्धा व्यक्त की जाती है वही स्थिति थी। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया? दूसरी तरफ की प्राथमिकी के अनुसार गांव के जयप्रकाश तिवारी और उनकी पत्नी रेणु तिवारी ने दोनों को खाने पर बुलाया। इनके अनुसार उन्होंने कहा कि पत्नी अपने हाथों से खाना खिलाएगी। रेणु तिवारी का कहना है कि एक ने मेरा अंगुली पकड़ लिया। उसके बाद इनका विरोध शुरू हुआ। बाहर से कथा वाचन करने गए लोगों की गांव में क्या स्थिति हुई होगी इसकी कल्पना की जा सकती है। उसमें यदि उनको महिला का पैर छूकर क्षमा मांगनी पड़ी हो तो आश्चार्य नहीं। कहा गया है कि उस दौरान उनके पास से दो आधार कार्ड गिरे जिसमें अलग-अलग नाम थे। गलत नाम से आधार कार्ड धोखाधड़ी का मामला बनता है। किंतु यह कानूनी विषय है। मूल बात यह है कि गांव के लोगों ने इन्हें झूठा या चरित्रहीन मानकर दुर्व्यवहार किया या फिर यादव होने के कारण? मुकुटमणि यादव के अनुसार वह 15 वर्षों से कथा कह रहे हैं और गुरु से उन्होंने इसकी शिक्षा ली है। संत यादव संस्कृत पढ़ाते थे और उनका विद्यालय बंद होने के बाद उनके साथ जुड़ गए। दोनों संस्कृत का श्लोक वांचते हैं।
ध्यान रखिए, इस समय भी देश कई नामी कथा वाचकों में उन जातियों के लोग हैं जिन्हें पिछड़ी या दलित जाति कहा जाता है। यहां किसी के नाम का उल्लेख करना उचित नहीं। भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय और सम्मान प्राप्त योग गुरु ही अगड़ी जाति के नहीं है। तो यह स्थिति आज भी है। इसलिए यह निष्कर्ष निकाल लेना कि तथाकथित ऊंची जाति के लोग पिछड़े याद दलित की भक्ति या कथा वाचन को स्वीकार नहीं करते पूरी तरह सही नहीं हो सकता। हां, गर्व से कहो हिंदू हैं, सनातनी हैं का अभियान चलाने वालों के लिए भी यह स्थिति चिंता का विषय होना चाहिए कि जाति को केंद्र बनाकर पूरे मामले को इस सीमा तक पहुंचा दिया गया। वैसे हिंदू अपनी पहचान दिखाएं इसका तात्पर्य क्या हो सकता है ? प्राथमिक और सर्वसाधारण भाव यही है कि शिखा रखें , ललाट पर चंदन करें आदि आदि । फिर इसके आगे हिंदू या सनातन धर्म के अनुसार जीवन शैली और आचरण की बात आती है। इस दृष्टि से भी देखें तो किसी परिस्थिति में कथा वाचकों का शिखा काटना केवल कानूनी अपराध नहीं धार्मिक दृष्टि से भी महाअपराध और महापाप है। वर्तमान राजव्यवस्था में सजा देने का कार्य न्यायालय का है और इसके लिए छानबीन और कार्रवाई पुलिस का दायित्व है। समाज में किसी से गलती हो जाने के बाद आज भी थाने जाने की आम मानसिकता नहीं है। विशेषकर अगर महिलाओं के साथ छेड़छाड़ जैसे विषय हों तो परिवार और समाज भी पुलिस, कचहरी से आज भी बचता है। बाल मुंडन करना, शिखा उतार देना, थूक फेंक कर चटवाना जैसे दंड ही समाज की ओर से आता था। दंड देने वालों में परिवार के लोग भी शामिल होते थे। वहां भी कुछ लोगों ने पुलिस बुलाने या थाने ले जाने का सुझाव दिया होगा। यह स्वीकार नहीं हुआ तथा दोनों को अपने अनुसार सजा देकर मुक्त कर दिया गया। वर्तमान व्यवस्था में यह कानून हाथ में लेना है तो न्यायालय इसके लिए दंड दे सकता है। बावजूद स्वीकारने में समस्या नहीं है कि यह भारतीय समाज के परंपरागत व्यवहार का ही प्रकटीकरण है।
इससे बाहर निकाल कर व्यापक दृष्टि से विचार करें तो इसका मूल जाति व्यवस्था के संबंध में धारणा ही है। भारत में जाट के बारे में अंग्रेजों और बाद में उनकी सोच की तहत हमारे अपने समाज शास्त्रियों आदि ने काफी झूठ और विकृत धारणाएं पैदा की और स्वतंत्र भारत में राजनीति ने वोट के लिए विभाजन को और तीखा तथा गहरा किया। वर्ण व्यवस्था के आगे जाति काम के आधार पर बनते गए और इसमें कोई ऊंचा - नीच या छोटा बड़ा नहीं था। सभी के कार्य या उत्तरदायित्व बंटे थे और यही हमारे भारत के स्वावलंबी होने और विश्व में आर्थिक - सामाजिक -आध्यात्मिक दृष्टि से शीर्ष राष्ट्र होने का एक मुख्य कारण था। कालांतर में काम को छोटा बड़ा , उसके आधार पर जाति को छोटा - बड़ा, छुआछूत भेदभाव जिन परिस्थितियों में उत्पन्न हुए वे दुर्भाग्यपूर्ण थे। वह सनातनी व्यवस्था नहीं रही है। इन में भी बहुत सारे झूठ जोड़े गए। उदाहरण के लिए आज पिछड़े और दलित कहलन वाली जातियों के भी राज थे। यादव, गुर्जर, प्रतिहार , जाट सबके राजवंशों के विवरण है और अनेक मुस्लिम आक्रमण के बावजूद कुछ अंग्रेज कल तक भी काम रहे। स्वतंत्रता के बाद जिन 539 रियासतों का विलय हुआ उनमें तब भी पिछड़ी माने जाने वाली जातियों के राजा थे। हमारे यहां अनेक ऐसे पूजा के विधान है जिनमें उन जातियों और उनके औजारों की पूजा के विधान हैं जिन्हें पिछड़े और दलित माना गया है। कुछ पूजा का विशेषाधिकार भी इन्हें ही दिया गया था। बाबा साहब अंबेदकर ने अपनी पुस्तक हु वाज शुद्राज के छठे अध्याय में बताया है कि वैदिक या महाभारत काल के शुद्र या दास आज के दलित नहीं थे। उनके अनुसार उस समय उन्हें अनेक अधिकार प्राप्त थे।
दुर्भाग्य से भारत की जाति व्यवस्था को न समझने वाले अंग्रेजों द्वारा अगड़े, पिछले, दलित, आदिवासी के बोए गए विष के वृक्ष को विस्तृत करते रहे तथा अकादमी, राजनीति और सत्ता में इनकी इतनी हैसियत कायम रही कि सच सामने लाकर भेद खत्म किए जाने का आधार तीरोहित हो गया। आखिर जहां 18 पुराणों और महाभारत के रचयिता शुद्र मां के पुत्र व्यास पूजनीय हों , वाल्मीकि के रामायण सबके लिए श्रद्धा तथा स्वयं ऋषि के रूप में उनकी मान्यता हो वहां इस तरह जाति-व्यवस्था में छूत - अछूत, ऊंच- नीच कैसे पैदा हुआ यह गहराई से विचार करने का विषय है।
जैसा पहले कहा गया आज भी कथा वाचकों में गैर ब्राह्मणों-क्षत्रियों की बड़ी संख्या है। किसी साधु - संन्यासी या कथा शवाचक के साथ जाति के आधार पर हर जगह व्यवहार होता हो यह आम स्थिति नहीं है। इटावा वैसे भी अखिलेश यादव परिवार का घर है और वहां उनकी जाति के लोग संपन्न और प्रभावी हैं। जिस परिवार में कथा वाचक और उनके सहयोगी भोजन कर रहे थे वो दंपति हरिद्वार में प्राइवेट नौकरी करते हैं और कथा के कारण ही गांव आए थे। पुलिस जांच कर रही है और सच्चाई सामने आएगी। इस समय जो कुछ बताया जा रहा है केवल उतना ही और वही सच होगा ऐसा मत मान लीजिए। बावजूद यह स्थिति भयभीत करने वाली है। ऐसी घटना और इसके राजनीतिक - सामाजिक दुरुपयोग और जातीय युद्ध पैदा करने की कोशिश है जो निस्संदेह भयभीत करने वाली है। इसलिए सभी जातियों के प्रबुद्ध लोगों का दायित्व है कि सामने आकर इसका सकारात्मक, संतुलित सामना करें ताकि तत्काल किसी तरह का सामाजिक तनाव आगे न बढ़े व भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो।
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