बसंत कुमार
इधर
लगातार चुनाव हारती हुई कांग्रेस ने यह कहना शुरू कर दिया है कि बसपा चुनावों में भाजपा
की जीत सुनिश्चित करने के लिए सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर रही है और वह
भाजपा की बी टीम के रूप में काम कर रही है। अभी हाल ही में संपन्न हुए दिल्ली विधानसभा
चुनावों में बेशक कांग्रेस को एक भी सीट न मिली हो पर पर उनके वोट शेयर में मामूली
इजाफा होने के कारण उत्साहित कांग्रेस ने वर्ष 2027 में होने वाले उत्तर
प्रदेश विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए प्रदेश में दलितों को जोड़ने की
कवायत शुरू कर दी है और इसी को ध्यान में राहुल गांधी ने कह दिया कि वर्ष, 2024 के लोकसभा चुनाव में हम चाहते थे कि मायावती जी हमारे साथ मिलकर चुनाव लड़ें
और यदि मायावती जी की पार्टी बसपा इंडिया गठबंधन का हिस्सा बन जाती तो चुनाव में भाजपा
को हराया जा सकता था। उन्होंने कहा कांग्रेस, सपा और बसपा चुनाव में एक साथ आ
जाते तो चुनाव का परिणाम कुछ और होता, कांग्रेस के इस कथन के जवाब में
बसपा सुप्रीमो मायावती ने कहा कि जिन राज्यो में कांग्रेस की सरकार है वहां बसपा व
उनके अनुयायियों के साथ द्वेषपूर्ण, जातिवादी रवैया अपनाया जाता है
और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य जहां कांग्रेस अपने अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर
रही है वहां बसपा के साथ गठबंधन करना कांग्रेस का दोहरा चरित्र नहीं तो और क्या है?
राहुल गांधी
की परेशानी को उत्तर प्रदेश में वर्ष 2024 के नतीजों से समझा जा सकता है, इन
चुनावों में सपा 37
सीटें जीतकर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और उसका वोट शेयर
33.8% रहा और कांग्रेस 9.5%
वोट शेयर के साथ 6 सीटें जीतने में कामयाब रही
अर्थात दोनों दलों का वोट शेयर 43.3% रहा। बसपा ने कुल 79 सीटों
पर चुनाव लड़ा और कांग्रेस के बराबर 9.5% वोट शेयर प्राप्त किये। यदि
बसपा का वोट शेयर इंडिया गठबंधन के सहयोगियों के साथ ट्रांसफर हो गया होता तो
गठबंधन का वोट शेयर 52%
के करीब हो गया होता और गठबंधन की सीटें और बढ़ गई होती।
मायावती जी को लेकर राहुल गांधी की टीस के पीछे दो प्रमुख कारण समझे जा सकते हैं।
एक यह कि बसपा को गठबंधन में शामिल करने की पहल कांग्रेस ने सपा की नाराजगी के
बावजूद की थी, जिसमे गांधी परिवार ऐक्टिव था और प्रियंका गांधी ने गठबंधन को लेकर मायावती जी
से बात की थी। तब इंडिया ब्लॉक की बैठक में बसपा को लेकर स्टैंड क्लीयर करने की
मांग करते हुए अखिलेश यादव ने गठबंधन से निकलने की धमकी तक दे दी थी। इस कारण बसपा
के अलग उम्मीदवार उतारने से लगभग 16 सीटों का नुकसान भी हुआ। उत्तर
प्रदेश में जिन 33
सीटों पर भाजपा जीती थी उनमे से 16 सीटों
पर बसपा को इंडिया गठबंधन के उम्मीदवार के हार के अंतर से ज्यादा वोट मिले थे
अर्थात यदि बसपा गठबंधन का हिस्सा होती तो ये 16 सीटें भाजपा के बजाय इंडिया
गठबंधन को जाती।
अभी
मायावती जी और राहुल गांधी के बीच बयानों का बवाल खत्म हुआ ही नहीं था कि कांग्रेस
नेता उदित राजा द्वारा मायावती जी का गला घोटने जैसे गैर जिम्मेदाराना बयान और गंभीर
बवाल खड़ा हो गया,
जबकि उदित राज की राजनीतिक यात्रा पर नजर डाली जाए तो पता
लग जायेगा कि उन्होंने सदैव दलित/बहुजन वोटरों को बसपा खेमे में जाने से रोका, वे रामराज
के नाम से जेएनयू के छात्र रहे और और इसी नाम से भारतीय राजस्व सेवा में नियुक्त
हुए और सरकारी सेवा से त्याग पत्र देकर अपना नाम उदित राज रखा। बौद्ध धर्म ग्रहण किया और इंडियन जस्टिस पार्टी बनाई। वर्ष 2014 में भाजपा
अध्यक्ष राजनाथ सिंह अपनी रणनीति के अनुसार जाटव (चमार) वोट, जो
बसपा के पारम्परिक वोट बैंक माने जाते थे, को नजर अंदाज करते हुए अन्य
दलित जातियों- खटीक,
पासी, बाल्मीकि को भाजपा से जोड़ने का अभियान
चलाया और इसी रणानिति के तहत खटीक जाति से सम्बंध रखने वाले उदित राज को भाजपा
जॉइन कराई और दिल्ली की करोलबाग सीट से टिकट दे दिया और वे सांसद बन गए। पर मंत्री
बनने की महत्वाकांक्षा के कारण भाजपा में रहते हुए भाजपा नेतृत्व को कोसने लगे और
उनका टिकट कट गया और वे 2019 में कांग्रेस में चले गए और कांग्रेस नेतृत्व को खुश करने के लिए सुश्री
मायावती जी का गला घोटने की बात कर रहे हैं।
यह
निर्विवाद सत्य है कि बसपा सुप्रीमो सुश्री मायावती ने पिछले कुछ वर्षों से अपनी
अस्थिर स्टैंड के चलते बहुजन समाज पार्टी को वोट कटुआ पार्टी के रूप में बना दिया
है। जिस बसपा के 2019 में दस सांसद जीतकर लोकसभा में आये थे, वर्ष 2024 में एक
भी सांसद जीत कर नहीं आया। उसी तरह 400 सीटों वाली उत्तर प्रदेश विधानसभा
में उस दल का एक ही विधायक रह गया है और बसपा का कोर वोटर अब प्रधानमंत्री की सबको
आवास और घर-घर शौचालय आदि योजनाओं के चलते भाजपा से जुड़ रहा है। पर इस बात से
इनकार नहीं किया जा सकता मान्यवर कांशीराम के सानिध्य में मायावती ने बसपा के झंडे
के नीचे बहुजनों/दलितों का एक ऐसा समूह तैयार कर लिया था जो किसी से टकराने को
तैयार दिखता था उनमे यह आत्मविश्वास कांग्रेस के पांच दशक के शासन में उनके साथ
जुड़ने में नहीं देखा गया,
यही कारण था कि भाजपा जैसे सशक्त दल को भी चुनावों में गैर
जाटव और गैर यादव रणनीति अपनानी पड़ी।
पिछले
कुछ वर्षों से जब मायावती जी की पार्टी कमजोर पड़ गई है तब से कांग्रेस अपने से
बिछड़ गए बसपा के मुख्य वोटरों दलितों विशेषकर जाटवों को अपने खेमे में लाने की
कोशिश में लगी हुई है और कभी गांधी परिवार मायावती को अपनी ओर लाने की कोशिश करता
है और कभी उदित राज मायावती जी का गला घोटने की बात करते हैं। मायावती जी की पार्टी का कमजोर होने का एक और कारण उनका भ्रष्ट चाटुकार नेताओं
से घिरा होना और जो लोग बसपा से जुड़ना चाहते हैं उनसे मायावती जी से मात्र
मिलवाने के लिए लाखों रुपए का चढ़ावा मांगा जाता है। इसी कारण दलित वर्ग के
शिक्षित और सक्षम लोग बसपा में आने से कतरा रहे हैं।
यह बात
ध्यान देने योग्य है कि जब इंडिया गठबंधन में बसपा को शामिल करने के लिए राहुल गांधी
और प्रियंका गांधी पुरजोर कोशिश कर रहे थे उस समय अखिलेश यादव इसका विरोध कर रहे
थे आखिर इस विरोध का कारण क्या था। राजनीति के जानकार यह भलीभाँति जानते है कि सपा
का कोर वोटर यादव कभी भी दलित विशेषकर जाटवों को पसंद नहीं करता और न उनके साथ
उठना बैठना पसंद करता है। समाज में भी यादवों ने दलितों का शोषण भाजपा समर्थक
सवर्ण सनातनियों से अधिक किया है। अखिलेश यादव के पिता श्री मुलायम सिंह यादव ने
संसद में एससी/एसटी के प्रमोशन में आरक्षण का विरोध करते हुए कहा था कि यदि
प्रमोशन में आरक्षण दिया गया तो भविष्य में काबिल सेक्रेटरी और कैबिनेट सेक्रेटरी
मिलने बंद हो जाएंगे और उत्तर प्रदेश में सपा सरकार के कार्यकाल में उन शिक्षकों
को डिमोट कर दिया गया जिन्हें आरक्षण में प्रमोशन मिला था। सपा और राष्ट्रीय जनता
दल जैसी पार्टी में पीडीए का नारा सिर्फ वोट लेने के लिए होता है और इसके अनुसार
सत्ता प्राप्त करने के बाद दलित तो पिछड़े वर्ग (यादव व कुर्मी) को अपना नेता
स्वीकार कर लेते हैं पर ये पिछड़े वर्ग के नेता दलित को अपना नेता स्वीकार नहीं करते।
यही कारण था कि मायावती ने इंडिया गठबंधन में मिलना स्वीकार नहीं किया।
भाजपा
को दलित विरोधी कहने वाली कांग्रेस को यह पता होना चाहिए कि भाजपा ने उत्तर प्रदेश
में पहले दलित मुख्यमंत्री के रूप में एक बार नहीं तीन-तीन बार सुश्री मायावती को मुख्यमंत्री
बनाने में निर्णायक भूमिका निभाई। वही दलितों के कल्याण का दंभ भरने वाली कांग्रेस
न 1980 में जब बाबू जगजीवन राम के रूप में देश को पहला दलित प्रधानमंत्री मिलने वाला
था तो इंदिरा गांधी न नीलम संजीव रेड्डी से साठगांठ करके उनको मौका देने के बजाय
संसद भंग करवा दी। यदि बाबू जगजीवन राम देश के प्रधानमंत्री बन गए होते तो देश में
सदियों से वंचित और शोषित दलितों में विश्वास जागता और वे राष्ट्र की मुख्यधारा
में शामिल हो जाते और यही आधुनिक भारत की जरूरत है।
(लेखक एक पहल एनजीओ के
राष्ट्रीय महासचिव और भारत सरकार के पूर्व उपसचिव है।)
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