बुधवार, 28 जुलाई 2021

पेगासस जासूसी कांड को कैसे देखें

अवधेश कुमार

पेगासस जासूसी को लेकर भारत सहित विश्व भर में मचा हंगामा स्वाभाविक है। हमको आपको अचानक पता चले कि हमारे मोबाइल में घुसपैठ कर जासूसी हो रही है तो गुस्सा आएगा। वैसे पेगासस जासूसी का मामला  2019 में ही सामने आ गया था। व्हाट्सएप ने अमेरिका के कैलिफोर्निया के एक न्यायालय में इस सॉफ्टवेयर को बनाने वाली इजरायली कंपनी एनएसओ के खिलाफ मुकदमा दायर किया था। आपको यह भी याद होगा कि तत्कालीन सूचना तकनीक मंत्री रविशंकर प्रसाद ने अक्टूबर 2019 में ही बाजाब्ता ट्विटर पर व्हाट्सएप से इसके बारे में जानकारी मांगी थी। यह अलग बात है कि उसके बाद आगे इस पर काम नहीं हुआ। यह कोई छिपा तथ्य नहीं है कि इजरायली कंपनी एनएसओ के पेगासस नाम के इस हथियार का दुनिया की अनेक सरकारें उपयोग करती हैं। पेगासस का कहना है कि वह केवल सरकारी एजेंसियों, सशस्त्र बल को ही प्पेगासस बेचती है। यह सच है तो जहां भी जासूसी हुई उसके पीछे सरकारी एजेंसियों की ही भूमिका होगी। फ्रांस में इस भंडाफोड़ के बाद जांच भी आरंभ हो गया है। हालांकि द गार्जियन और वाशिंगटन पोस्ट सहित विश्व की 16 मीडिया समूहों के इस दावे पर प्रश्न खड़ा हो गया है कि उन्होंने संयुक्त जांच में पेगासस सॉफ्टवेयर से जासूसी कराए जाने वाले सूचना का पर्दाफाश किया है। मानवाधिकार की अंतरराष्ट्रीय संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल इसकी अगुआ थी। पहले एमनेस्टी की ओर से दावा किया गया था  कि एनएसओ के फोन रिकॉर्ड का सबूत उनके हाथ लगा है, जिसे उन्होंने भारत समेत दुनियाभर के कई मीडिया संगठनों के साथ साझा किया था।  स्वयं को नॉन प्रॉफिट संस्थान बताने वाली फ्रांस की फॉरबिडेन स्टोरीज और एमनेस्टी इंटरनेशनल ने दावा किया था कि वह मानवीय स्वतंत्रता और नागरिक समाज की मदद के लिए गंभीर खतरों का पता लगाने की कोशिश करता है और उनके जवाब ढूंढता है। इस वजह से उसने पेगासस के स्पायवेयर का फॉरेंसिक विश्लेषण किया।

एमनेस्टी  का बयान था कि उसकी सिक्योरिटी लैब ने दुनिया भर के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के कई मोबाइल उपकरणों का गहन फॉरेंसिक विश्लेषण किया है। उसके इस शोध में यह पाया गया कि एनएसओ ग्रुप ने पेगासस स्पाईवेयर के जरिए मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों की व्यापक, लगातार और गैरकानूनी तरीके से निगरानी की है। फॉरबिडेन स्टोरीज और एमनेस्टी इंटरनेशनल को एनएसओ के फोन रिकॉर्ड का सबूत हाथ लगा है, जिसे उन्होंने भारत समेत दुनियाभर के कई मीडिया संगठनों के साथ साझा किया है।अब मीडिया में उसका बयान आया है जिसमें कहा है कि  उसने कभी ये दावा किया ही नहीं कि यह सूची एनएसओ से संबंधित थी। इसके अनुसार एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कभी भी इस सूचि को एनएसओ पेगासस स्पाईवेयर सूची के तौर पर प्रस्तुत नहीं किया है। विश्व के कुछ मीडिया संस्थानों ने ऐसा किया होगा। यह सूची कंपनी के ग्राहकों के हितों की सूचक है। सूची में वो लोग शामिल हैं, जिनकी जासूसी करने में एनएसओ के ग्राहक रुचि रखते हैं। यह सूची उन लोगों की नहीं थी, जिनकी जासूसी की गई। इसमें कहा गया है कि जिन खोजी पत्रकारों और मीडिया आउटलेट्स के साथ वे कार्य करते हैं, उन्होंने शुरू से ही बहुत स्पष्ट भाषा में साफ कर दिया है कि यह एनएसओ की सूचि ग्राहकों के हितों में है। सीधे अर्थों में इसका मतलब उन लोगों से है, जो एनएसओ ग्राहक हो सकते हैं और जिन्हें जासूसी करना पसंद है। 

इसके बाद निश्चित रूप से केवल भारत नहीं पूरी दुनिया को यह विचार करना होगा कि हम एमनेस्टी इंटरनेशनल के पहले के बयान को सच माने या अब वह कह रहा है सच्चाई उसमें है? जासूसी हमेशा से गूढ़ रहस्य वाली विधा रही है। अब तो एमनेस्टी इंटरनेशनल और फोरबिडेन स्टोरीज पर केंद्रित जांच होनी चाहिए कि उसने पहले किस कारण से वह बयान दिया और अब किन कारणों से उसने अपना बयान बदला है? वैसे एनएसओ ने इसे एक अंतरराष्ट्रीय साजिश कह दिया है। भारत सरकार या भारत सरकार से जुड़ी किसी अन्य संस्था द्वारा उसके सॉफ्टवेयर की खरीदी संबंधी प्रश्न पर एनएसओ का जवाब है कि हम किसी भी कस्टमर का जिक्र नहीं कर सकते। जिन देशों को हम पेगासस बेचते हैं, उनकी सूची  गोपनीय जानकारी है। हम विशिष्ट ग्राहकों के बारे में नहीं बोल सकते लेकिन इस पूरे मामले में जारी देशों की सूची पूरी तरह से गलत है। एनएसओ कह रही है कि इस सूची में से कुछ तो हमारे ग्राहक भी नहीं हैं। हम केवल सरकारों और सरकार के कानून प्रवर्तन और खुफिया संगठनों को बेचते हैं।  हम बिक्री से पहले और बाद में संयुक्त राष्ट्र के सभी सिद्धांतों की सदस्यता लेते हैं। किसी भी अंतरराष्ट्रीय प्रणाली का कोई दुरुपयोग नहीं होता है। उसका यह भी कहना है की उसके सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल कभी भी किसी के फोन की बातें सुनने, उसे मॉनिटर करने, ट्रैक करने और डाटा इकट्ठा करने में नहीं होता है। अगर पेगासस स्पाइवेयर का इस्तेमाल फोन की बात सुनने मॉनिटर कर नेट पैक करने या डाटा इकट्ठा करने में होता ही नहीं है तो फिर मोबाइलों की जासूसी कैसे संभव हुई? 

भारत में तो 300 सत्यापित मोबाइल नंबरों की जासूसी होने का दावा किया गया है। इनमें नेताओं ,सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश ,वहां के पूर्व कर्मचारी के साथ 40 पत्रकारों के नंबर भी शामिल हैं। विचित्र बात यह है कि इसमें मोदी सरकार के मंत्री का भी नंबर है। कोई सरकार अपने ही मंत्री का जासूसी कर आएगी? पेगासस का उपयोग दुनिया भर की सरकारें करती हैं तभी तो 2013 में सालाना 4 करोड़ डॉलर कमाने वाली इस कंपनी की कमाई 2015 तक 15.5 करोड़ डॉलर हो गई। सॉफ्टवेयर काफी महंगा माना जाता है, इसलिए सामान्य संगठन और संस्थान इसे खरीद नहीं पाते। कंपनी के दावों के विपरीत 2016 में पहली बार अरब देशों में काम कर रहे कार्यकर्ताओं के आईफोन में इसके इस्तेमाल की बात सामने आई। बचाव के लिए एपल ने आईओएस अपडेट कर सुरक्षा खामियां दूर कीं। एक साल बाद एंड्रॉयड में भी पेगासस से जासूसी के मामले बताये जाने लगे। जैसा हमने ऊपर कहा कैलिफोर्निया के मामले में व्हाट्सएप के साथ फेसबुक ,माइक्रोसॉफ्ट और गूगल भी न्यायालय गई थी । उस समय व्हाट्सएप ने भारत में अनेक एक्टिविस्टों और पत्रकारों के फोन में इसके उपयोग की बात कही। अगर पेगासस मोबाइल की जासूसी करता ही नहीं है तो ये कंपनियां उसके खिलाफ न्यायालय क्यों गई ?  

अनेक विशेषज्ञ कह रहे हैं कि यह मोबाइल उपयोगकर्ता के मैसेज पढ़ता है, फोन कॉल ट्रैक करता है, विभिन्न एप और उनमें उपयोग हुई जानकारी चुराता है। लोकेशन डाटा, वीडियो कैमरे का इस्तेमाल व फोन के साथ इस्तेमाल माइक्रोफोन से आवाज रिकॉर्ड करता है। एंटीवायरस बनाने वाली कंपनी कैस्परस्की का बयान है कि पेगासस एसएमएस, ब्राउजिंग हिस्ट्री, कांटैक्ट और ई-मेल तो देखता ही है फोन से स्क्रीनशॉट भी लेता है। यह गलत फोन में इंस्टॉल हो जाए तो खुद को नष्ट करने की क्षमता भी रखता है। विशेषज्ञों के अनुसार इसे स्मार्ट स्पाइवेयर भी कहा गया है क्योंकि यह स्थिति के अनुसार जासूसी के लिए नए तरीके अपनाता है। 

निश्चित रूप से दावे, प्रतिदावे ,खंडन आदि के बीच हमारे आपके जैसे आम व्यक्ति के लिए सच समझना कठिन है, बल्कि असंभव है। भारत सरकार ने अभी तक इस बात का खंडन नहीं किया है कि वह पेगासस स्पाइवेयर का उपयोग करती है। इसका मतलब है कि पेगासस स्पाइवेयर भारत सरकार के कुछ या सभी एजेंसियों के पास हैं। देश की सुरक्षा ,आतंकवाद आर्थिक अपराध आदि के संदर्भ में जासूसी विश्व में मान्य है और इसमें कोई समस्या नहीं है। यह अलग बात है कि निजी स्वतंत्रता के नाम पर अनेक कानूनी और राजनीतिक लड़ाइयां लड़ी गई। भारत में ही न्यायालयों के कई फैसले आए। किंतु मोटे  इस पर सहमति है कि देश की सुरक्षा का ध्यान रखते हुए किसी पर नजर रखना ,उसके बारे में जानकारियां जुटाना आदि आवश्यक है। दुर्भाग्य है कि कई बार एजेंसियों के बड़े-बड़े अधिकारी राजनीतिक नेतृत्व के समक्ष सुर्खरू कहलाने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर ऐसे लोगों को भी दायरे में ले लेते हैं जो राजनीतिक और वैचारिक स्तर पर सरकार के विरोधी हैं। अगर कंपनी के दावे के विपरीत वाकई मोबाइल पर बातें सुनना, मैसेज पढ़ना, ट्रैक करना, वहां से डाटा निकालना आदि कइस स्पाइवेयर से संभव है तो हुआ होगा। लेकिन अगर इसके द्वारा देश की दृष्टि से काफी संवेदनशील जानकारियां इकट्ठी की गई हैं तो फिर इसको सार्वजनिक करने के लिए दबाव बढ़ाना किसी के हित में नहीं होगा। इसमें ऐसा क्या रास्ता हो सकता है जिससे कम से कम भारत में जो तूफान खड़ा हुआ है वह शांत हो तथा अपनी जासूसी किए जाने की जानकारी पर क्षुब्ध लोग संतुष्ट हो सकें? इस पर विचार करना चाहिए। साथ ही फोरबिडेन स्टोरीज और एमनेस्टी इंटरनेशनल के चरित्र और आचरण को भी ध्यान रखना होगा। अवधेश कुमार, ई-30 ,गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स ,दिल्ली-110092, मोबाइल 9821027208



रविवार, 18 जुलाई 2021

आधुनिक राजनीति में अंबेडकरवाद की अवधारणा

बसंत कुमार

भारतवर्ष की राजनीति में आज के युग में चाहे कोई भी दल हो सभी डॉ. अंबेडकर की स्तुति करते हैं, जहां अपनी जमीन तलाश रही कांग्रेस अपने आपको सच्चा अंबेडकरवादी कहती है। जबकि कांग्रेस ने बाबा साहब डॉ. अंबेडकर को न उनके जीते जी और न उनके मरने के पश्चात कभी भी उनको उचित सम्मान दे सकी, यहां तक कि आजादी के 42 वर्षों के पश्चात भी बाबा साहब डॉ. अंबेडकर को देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न न दिया गया और न ही संसद के केंद्रीय कक्ष में ही उनका तैल चित्र लगा। कांग्रेस के समान वामपंथी दल भी आजकल कुछ तथाकथित स्वयं को अंबेडकरवादी कहने वाले लोग नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सात वर्षों से देश में सुशासन चला रही बहुमत की सरकार को हटाने के लिए अंबेडकरवाद का राग अलापते रहते हैं। वह जेएनयू के देशद्रोहियों और शाहीनबाग के उपद्रवियों के कारनामों को सही सिद्ध करने के लिए अंबेडकरवाद का सहारा लेते हैं। कुछ राजनीतिक संगठन जो पंडित नेहरू की जिद के कारण संविधान में अनुच्छेद 370 जोड़ी गई उस धारा को आजादी के 72 वर्ष के पश्चात श्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की दृढ़ इच्छाशक्ति से हटाई जा सकी, को पुन लाने के लिए पाकिस्तान से भी सहयोग लेने में गुरेज नहीं करना चाहते वह भी अपने आपको अंबेडकरवादी कहते हैं। आलम यह है कि हर राजनैतिक दल या समूह अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए अपने-अपने तरीके से अंबेडकरवाद को परिभाषित करते हैं। अब यह आवश्यक हो गया है कि स्वयं बाबा साहब अंबेडकर इन राजनैतिक दलों या समूहों के विषय में क्या विचार रखते थे। प्राय कांग्रेस गैर-कांग्रेसी सरकारों पर यह आरोप लगाती रही है कि बाबा साहब के संविधान को नष्ट किया जा रहा है जबकि कांग्रेस ने संविधान के 42वें संशोधन के जरिये संविधान की मूल भावना को ही नष्ट करने का प्रयास किया और कांग्रेस की यूपीए सरकार ने वर्ष 2004 में यह प्रयास किया था कि धर्मांतरण करके ईसाई व मुस्लिम बने लोगों को दलित सिद्ध करके अनुसूचित जाति में शामिल कर लिया जाए जबकि डॉ. अंबेडकर इस प्रकार के धर्मांतरण के बिल्कुल विरुद्ध थे। 

डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा में धर्मांतरित ईसाइयों व मुसलमानों की ओर से सैकड़ों प्रश्नों का सामना करते हुए अनेक कुतर्कों का जवाब देते हुए धर्मांतरित ईसाइयों और मुसलमानों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की मांग को बड़ी कठोरता के साथ अस्वीकार कर दिया था। वास्तव में बाबा साहब डॉ. अंबेडकर एक सुधारवादी हिन्दू थे, इसीलिए उन्होंने हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाया जो भारत में पल्लवित और पुष्पित हुआ। उन्होंने वही धर्म अपनाया जिसके मूल में हिन्दू संस्कृति बसती है। डॉ. अंबेडकर ने यह स्पष्ट कर दिया था कि ईसाइयत या इस्लाम के छलावे में न आकर दलित समाज को यदि हिन्दू धर्म को छोड़ना है तो बौद्ध धर्म अपनाएं (बाबा साहब व्यक्ति और विचार डॉ. कृष्ण गोपाल पृ. 253) और बाबा साहब ने 1936 में जिन 429 जातियों को शामिल कर अनुसूचित जाति की सूची बनाई गई उसी पर अडिग रहे।

वर्ष 2019 में जब केंद्र सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 पारित किया तब से सीएए, एनआरसी के विरोध में, सपा-बसपा जैसी पार्टियां लामबंद हो रही हैं। इनका यह स्टैंड इसलिए समझ में आता है कि कांग्रेस सहित इन सभी पार्टियों का वोट बैंक दलित व मुस्लिम रहा है परन्तु एक बात जो बिल्कुल हैरान करती है वह यह है कि सारे वामपंथी संविधान सुरक्षा के नाम पर बाबा साहब द्वारा रचित संविधान और बाबा साहब का फोटो हाथ में लिए सीएए/एनआरसी के विरोध में खड़े पाए गए। वहीं बाबा साहब डॉ. अंबेडकर ने यह बात भलीभांति समझ ली थी ]िक भारत में रहकर भारत की सभ्यता, भारत की संस्कृति का विरोध करना इन वामपंथियों का चरित्र रहा है। आइए यह जानने का प्रयास करते हैं कि वह कौन-से पहलू थे कि डॉ. अंबेडकर सदैव वामपंथ का विरोध करते रहे, वह अपनी संपूर्ण शक्ति से भारत के दलित समाज को वामपंथियों के प्रभाव से बचाते रहे। इसका उत्तर स्वयं बाबा साहब ने कुछ इस प्रकार दियाöवामपंथ अर्थात मार्क्सवाद धर्म को अफीम मानता है। संक्षेप में धर्म वामपंथियों के अनुसार दुख की एक खान है, वहीं बाबा साहब डॉ. अंबेडकर कहते हैं कि धर्म अफीम नहीं हैं जो कुछ अच्छी बातें मेरे में हैं अथवा समाज को मेरी शिक्षा-दीक्षा से जो कुछ भी लाभ हो रहे हैं, वह मेरे अंदर की धार्मिक भावना के कारण सफल हुए हैं। मैं धर्म चाहता हूं परन्तु धर्म के नाम पर किसी भी प्रकार का पाखंड या ढोंग नहीं। (लाइफ एंड मिशन पृ. 305) वामपंथ पर प्रहार करते हुए डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि कुछ लोगों का कहना है कि धर्म समाज के लिए आवश्यक नहीं है। मैं इस दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करता। मैं धर्म की आधारशिला को जीवन और समाज के व्यवहारों के लिए आवश्यक मानता हूं। (डॉ. अंबेडकर का धर्म दशर्न पृ. 70)

कुछ वामपंथी व कथित अंबेडकरवादी बाबा साहब एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में परस्पर विरोध की बात करते हैं जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जो प्रात स्मरण प्रार्थना के रूप में उनका नाम लिया जाता है। उस प्रार्थना में जिन महापुरुषों का नाम लिया जाता है उनमें रविन्द्रनाथ टैगोर, डॉ. अंबेडकर सहित अनेक महापुरुष हैं। जब डॉ. अंबेडकर ने लोकसभा का चुनाव ल़ड़ा और कांग्रेस ने उनका विरोध किया तो आरएसएस के प्रचारक और श्रमिकों के कल्याण में अहम भूमिका निभाने वाले दत्तो पंतजी ठेंगड़ी ने उनके चुनाव में, उनके चुनाव एजेंट के रूप में चुनाव संचालन किया। जब अनुच्छेद 370 देश में लागू हुआ तो डॉ. अंबेडकर ने उसका विरोध किया था यद्यपि उनके विरोध के बावजूद यह बहुमत के आधार पर लागू हो गया परन्तु यह शब्द लिख दिया गया कि अनुच्छेद 370 अस्थायी होगा।

संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ. अंबेडकर व जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी बेशक आर्थिक व सामाजिक मसलों पर अलग-अलग विचारधाराएं रखते थे परन्तु राष्ट्रीय एकता व अखंडता के मामले में दोनों ही एक ही विचारधारा के थे, जहां डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अनुच्छेद 370 के विरोध में अपने प्राणों की आहुति दे दी, वहीं बाबा साहब ने अनुच्छेद 370 के विरोध में व समान आचार संहिता हिन्दू कोड बिल पर अपनी बात न माने जाने पर नेहरू मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया, इसके साथ-साथ जिस बात पर डॉ. अंबेडकर सर्वाधिक खिन्न थे वह थाöहिन्दू कोड बिल। नेहरू सरकार ने इस पर 1951 तक चर्चा नहीं की और इस पर बाबा साहब का धैर्य समाप्त हो गया और नेहरू मंत्रिमंडल छोड़ दिया। संविधान निर्माता डॉ. अंबेडकर कानून के ज्ञाता के साथ-साथ पक्के राष्ट्रवादी थे। प्रसिद्ध इतिहासकार श्री दुर्गादास ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया फ्रॉम नेहरू टू कर्जन एंड आफ्टर’ (पृष्ठ 236) में लिखा है ‘ही वाज नेशनलिस्ट टू द कोर’। उनकी सबसे बड़ी चिन्ता भी भारत के दलितों और अछूतों को न्याय दिलाना था। इस विषय पर उन्होंने कभी समझौता नहीं किया पर हिन्दू समाज को कभी बंटने नहीं दिया।

डॉ. अंबेडकर के विचार वास्तविक रूप से उस राष्ट्रवाद से जुड़े हैं जिसमें व्यक्ति और व्यक्तियों के बीच जातियों, वर्णों, वर्गों, धर्मों में किसी तरह का कोई भेद नहीं है। देश का हर नागरिक सिद्धांतत समान है। समान व्यवस्था सामाजिक सोच के अंतर्गत हम सभी में समरसता है। देश का हर नागरिक सिद्धांतत समान है और इसी से हमारा राष्ट्र अनेकता में एकता का उत्कृष्ट उदाहरण है और बाबा साहब ने भारतीय संविधान के उद्देशिका में समस्त नागरिकों के लिए समता और बंधुता की बात कही थी। बाबा साहब ने संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण में प्रत्यक्ष सामाजिक जीवन की विसंगतियों का उल्लेख करते हुए जो समानता की बात कही उसी आधार पर संविधान में अनेक संशोधन किए गए जिनकी भूमिका सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, समरसता प्रस्थापित करने की है। भारतीय संविधान के शिल्पी के बतौर डॉ. अंबेडकर ने फ्रेंच रिवोल्यूशन से तीन शब्द लिए लिबर्टी, इक्वलिटी और फ्रैटर्निटी और संविधान के मूल में इन सामाजिक जीवन दर्शन को गहराई से प्रभावित किया है और यही अंबेडकरवाद की अवधारणा है।

आज हर राजनैतिक दल या समूह अपने-अपने स्वार्थ के अनुसार बाबा साहब के नाम पर अंबेडकरवाद को परिभाषित कर रहा है जबकि बाबा साहब के अनुसार देश उनकी पहली प्राथमिकता है उनके शब्दों में ‘हम भारतीय हैं सबसे पहले और अंत में, समय और परिस्थितियों को देखते हुए सूरज के नीचे कोई भी इस देश को सुपर पॉवर बनने से नहीं रोक सकेगा।’ इसके साथ वह दलित व वंचित समाज को समाज की मुख्यधारा में विकास के जरिये लाना चाहते थे और यही अंबेडकरवाद का मुख्य सार है।

(लेखक भारत सरकार के पूर्व उपसचिव हैं।)

क्या दलित हिन्दू हैं डॉ. अंबेडकर व महात्मा गांधी के दृष्टिकोण

बसंत कुमार

यदि किसी से पूछ लिया जाए कि आपके गांव में कितने हिन्दू, कितने मुसलमान या अन्य धर्मों के लोग हैं, प्राय यह जवाब होता है कि मेरे यहां इतने प्रतिशत हिन्दू हैं, इतने प्रतिशत मुस्लिम हैं, इतने प्रतिशत ईसाई हैं और इतने प्रतिशत दलित हैं। यानि व्यवहारिक रूप में सनातनी हिन्दू दलितों को हिन्दू नहीं मानते, जबकि देश की अधिकांश राजनीतिक पार्टियां, जो दलित हिन्दू ने धर्म छोड़कर अन्य धर्मों में धर्मांतरण कर लिया है, उन्हें संविधान में अनुसूचित जातियों के आरक्षण का लाभ नहीं देना चाहती। भाजपा के वरिष्ठ नेता एवं राज्यसभा सांसद श्री दुष्यंत गौतम ने एक मुलाकात के दौरान मुझसे एक प्रश्न किया, ‘जो हिन्दुओं ने दलितों के साथ अत्याचार किए उसकी जानकारी हर दलित को है पर दलितों के हित के लिए जो काम नरेंद्र मोदी सरकार कर रही है उसकी जानकारी दलितों तक नहीं पहुंच पाती।’ इन परस्पर विरोधी धारणाओं के निराकरण हेतु ‘क्या दलित हिन्दू हैं’ के विषय में देश के दो सर्वमान्य समाज सुधारकों डॉ. अंबेडकर और महात्मा गांधी के दृष्टिकोण को जानना आवश्यक है।

गांधी जी की विचारधारा एक सनातनी हिन्दू ढांचे में विकसित हुई थी उनके मन में किसी के प्रति द्वेष या घृणाभाव नहीं था वहीं डॉ. अंबेडकर के मन में अपने कटु अनुभवों के कारण हिन्दू धर्म की सामाजिक व्यवस्था व रूढ़िवादिता के प्रति रोष अवश्य था, उनके कठोर और उग्र विचारों के कारण कांग्रेसजन उनसे दूरी बनाकर रखते थे। वे ज्योतिबा फुले, गोविंद राना डे और गोपाल गणेश आगरकर के विचारों से प्रभावित थे और दलितों-वंचितों पर हो रहे अन्याय के विरुद्ध खड़ा होने के लिए प्रतिबद्ध थे। गांधी जी जाति प्रथा और छुआछूत के प्रश्न पर इतने प्रखर तो नहीं थे परन्तु उनके चिन्तन में जाति के आधार विषमता तथा शोषण का निरंतर विरोध झलकता है। उन्होंने यंग इंडिया के नवम्बर 1920 के अंक में ‘ब्राह्मण और ब्राह्मणेत्तर’ नामक निबंध में अपने विचार स्पष्ट करते हुए कहा कि अंग्रेजों ने स्वतंत्रता आंदोलन कमजोर करने के लिए ब्राह्मण और ब्राह्मणेत्तर के प्रश्न को राजनीतिक रंग दे दिया। डॉ. अंबेडकर गांधी जी के विचारों से पूरी तरह से असहमत थे और उनको पूर्ण विश्वास था कि गांधी जी का दलित प्रेम एक ढोंग है। अवसरवादी फिरंगी सरकार ने गांधी जी और डॉ. अंबेडकर के विचारों की भिन्नता का पूरा फायदा उठाया और वर्ष 1932 में मुसलमानों एवं अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के लिए विधानमंडल में कुछ सीटें आरक्षित कर दीं। इस नए कानून से दलित वर्ग को भी अल्पसंख्यक का दर्जा देकर उन्हें हिन्दू धर्म से अलग करने की तैयारी शुरू हुई। यरवदा जेल में बंद गांधी जी ने खबर पाते ही इस कानून का विरोध किया। उनका यह मत था कि यह भारतीय स्वाधीन आंदोलन पर सीधा हमला है और यह दलितों को धर्म परिवर्तन की ओर धकेलने का सीधा षड्यंत्र है।

गांधी जी इसके विरोध में 20 सितम्बर 1932 को आमरण अनशन पर बैठ गए। कई राजनीतिक दलों ने इसे गांधी जी का राजनीतिक स्टंट कहकर विरोध किया। परन्तु डा. अंबेडकर ने भारी दबाव के आगे इस विषय पर गांधी जी का साथ दिया, यदि डॉ. अंबेडकर ने गांधी जी का साथ नहीं दिया होता तो भारत के धर्म के आधार पर भारत-पाकिस्तान विभाजन ही नहीं बल्कि दलितों के लिए एक अलग देश पर भारत-पाकिस्तान विभाजन होता। पर महान राष्ट्रवादी डॉ. अंबेडकर ने गांधी जी का साथ दिया और पूना पैक्ट के तहत दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल का विचार त्याग कर उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई। डॉ. अंबेडकर ने अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से उच्च शिक्षा प्राप्त की थी तथा अमेरिकी नस्लवाद, अलगाववाद से भलीभांति परिचित थे। फ्रेंच रिवोल्यूशन का उन पर गहरा प्रभाव था, इसलिए वे समानता, बंधुता और अधिकारों की लड़ाई लड़ते रहे। यद्यपि अंग्रेज दलित वर्ग को गले लगाता था, बराबर बिठाता था, छुआछूत नहीं मानता था पर इस उदारता के पीछे की छिपी नीयत को बाबा साहब जानते थे और कहते थे कि अछूतों का भला ईसाई धर्म को स्वीकार करने में नहीं हो सकता, उनका भला तो हिन्दू समाज में व्याप्त छुआछूत को समाप्त करके ही हो सकता है। वे प्राय कहते थे कि यदि हिन्दू धर्म को बचाना है तो ब्राह्मणवाद को समाप्त करना होगा। बाबा साहब कहते हैं कि ‘मुझे अच्छा नहीं लगता जब कुछ लोग कहते हैं कि हम पहले भारतीय हैं और बाद में हिन्दू और मुसलमान हैं। धर्म, भाषा संस्कृति आदि की प्रतिस्पर्धी निष्ठा के रहते हुए भारतीयता के प्रति निष्ठा नहीं पनप सकती। मैं चाहता हूं लोग पहले भी भारतीय हों और अंत तक भारतीय रहें, भारतीय के अलावा कुछ नहीं।’ (बाबा साहब अंबेडकर: राइटिंग्स एंड स्पीचेज ख. 2 पृ. 195)

डॉ. अंबेडकर समझ गए थे कि दलितों की स्थिति में परिवर्तन समता मूल्क समाज की स्थापना के लिए आवश्यक है। यही कारण है कि वे अर्थशास्त्र के साथ-साथ जाति प्रथा के उद्गम विकास, प्रभाव पर निरंतर कार्य करते रहे। वे हिन्दू विधि व्यवस्था के प्रेणता, मनुस्मृति के निर्माता मनुमहाराज को जाति प्रणाली का निर्माता नहीं मानते थे क्योंकि वे यह मानते थे कि जाति मनु से पहले अस्तित्व में थी। इसलिए यह कहना भूल होगी कि जाति श्रेणियों का निर्माण शास्त्राsं और स्मृतियों ने किया। इन शास्त्राsं और स्मृतियों ने ब्राह्मणों की शक्ति पाकर जाति प्रथा को धार्मिक व सामाजिक आधार प्रदान किया। बाबा साहब आगे कहते हैं, ‘वंश की दृष्टि से सभी लोग संकर हैं, सांस्कृतिक एकता उनकी एकरूपता के कारण हैं। इस बात को मानकर चलते हुए मैं यह कहने का साहस कर सकता हूं कि संकर रचना के बावजूद सांस्कृतिक एकता में कोई भी देश भारत का मुकाबला नहीं कर सकता। इसमें न केवल भौगोलिक एकता है उसमें ज्यादा गहरी और मूलभूत एकता है। सांस्कृतिक एकता तो एक छोर से दूसरे छोर तक सारे देश में व्याप्त है, लेकिन इस सांस्कृतिक एकरूपता के कारण ही जाति की गुत्थी को सुलझाना अत्यंत कठिन हो जाता है।’ (डॉ. अंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज ख. 2 पृ. 22)

गांधी जहां एक ओर वर्ण व्यवस्था का समर्थन करते हैं वहीं अंबेडकर उसे पूरी तरह से अस्वीकार करते हैं, इस बिन्दु पर दोनों के विचारों में अंतर रहा और दोनों में कभी भी समझौता नहीं हो पाया। इसी कारण डॉ. अंबेडकर ने मनुस्मृति जलाई तथा एक वर्ग समाज की स्थापना पर अटल रहे। उनका विश्वास था कि जाति प्रथा के धार्मिक सिद्धांतों की जड़ों में मट्ठा डाले बिना जाति प्रथा से मुक्ति असंभव है। दलितों को धार्मिक अनुशासन में घेर कर उच्च शिक्षा, संस्कृति व दर्शन से वंचित रखा गया, फलत वे आशक्त हो गए और विदेशी आक्रांताओं से रौंदे जाते रहे। हमारी पराजय के मूल में जाति प्रथा, वर्ण व्यवस्था की गहरी भूमिका रही।

गांधी जी हिन्दू धर्म के माथे पर कलंक (गोधरा 5/11/1917) में अपने आलेख में यह अफसोस जाहिर करते हैं कि ‘वर्ण की मेरी व्याख्या के हिसाब से तो आज हिन्दू धर्म में वर्ण धर्म का अमल होता ही नहीं। ब्राह्मण नाम रखने वाले क्या पढ़ाना छोड़ बैठे हैं और अन्य धंधे में लगे हैं। यही बात थोड़ी बहुत अन्य वर्गों के विषय में सच है।’ वास्तव में जाति प्रथा खत्म करने की बेचैनी उतनी गांधी जी को नहीं थी जितनी डॉ. अंबेडकर को थी। एक बार गांधी जी ने कहा था ‘मैं दलित वर्ग का किसी अन्य वर्ग की कीमत पर स्वराज नहीं चाहता, यह मेरे विचार से स्वराज होगा ही नहीं होगा। मेरा विचार है कि जिस समय भारत अंत शुद्धि कर लेगा, वह तभी आजाद होगा उससे पहले नहीं।’ (द कलेक्टेड वर्कस ऑफ महात्मा गांधी ख. 14, पृ. 15) इसके उलट डॉ. अंबेडकर का दृष्टिकोण एकदम साफ था कि जाति प्रथा को एकदम नष्ट किए बिना इस देश से अस्पृश्यता को समाप्त नहीं किया जा सकता। इसी कारण वे अंग्रेजी राज्य को सच्चा शैतान मानने के बजाय जाति प्रथा को देश का सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं।

गोलमेज कांफ्रेंस में भी गांधी जी और डॉ. अंबेडकर के बीच वैचारिक मतभेद उभरे पर डॉ. अंबेडकर अपनी बात पर अड़े रहे। गांधी जी ने कहा ‘पृथक मतदाता सूची और आरक्षण उस कलंक को नहीं धो सकते जो दलित जातियों का नहीं सनातनी हिन्दुओं का कलंक है।’

गांधी जी कहते थे ‘मेरे मत से हमारी दुर्गति का कारण जाति प्रथा नहीं है, हमारी गुलामी का कारण हमारा लोभ और अनिवार्य गुणों के प्रति हमारी उपेक्षा है। मेरा विश्वास है कि जाति प्रथा ने हिन्दू धर्म को विघटन से बचाया है।’ (दि कलेक्टेड वर्कस ऑफ महात्मा गांधी पृ. 83) इसके विपरीत डॉ. अंबेडकर भारत के पतन और गुलामी का कारण जाति प्रथा को मानते थे। गांधी जी गीता के चातुर्वर्ण्य विभाजन को ठीक मानकर उसका समर्थन करते थे और गांधी जी का यह समर्थन डॉ. अंबेडकर को मंजूर नहीं था इसलिए वे एक दिन के हिन्दू धर्म से नाता तोड़कर भारत में ही पल्लवित व पुष्पित बौद्ध धर्म की शरण में चले गए।

बाबा साहब ने कहा ‘हमारे देश ने बार-बार स्वतंत्रता क्यों खोई, आए दिन हम विदेशी हुकूमत में क्यों जकड़े गए। क्योंकि यह देश कभी एकत्रित होकर शत्रु के समक्ष खड़ा नहीं हुआ। समाज का एक छोटा वर्ग ही सामने आया और उसे जिसने पराजित किया वही विजेता बन गया, इसका प्रमुख कारण है हिन्दुओं की विनाशकारी जाति व्यवस्था। इसी विरोधी विचारधारा के कारण गांधी जी और डॉ. अंबेडकर कभी एक न हो सके। 1936 में अंबेडकर के ‘भाषण प्रथा उन्मूलन’ पर गांधी जी ने कहा कि वर्ण व्यवस्था हमें सिखाती है कि हम सब अपने बाप-दादा के पेशे को अपनाते हुए अपनी जीविका चलाएं, यह हमारे अधिकारों का नहीं अपितु हमारे कर्तव्यों का निर्धारण करती है। किन्तु गांधी की इस टिप्पणी पर बाबा साहब डॉ. अंबेडकर निरंतर असहज होते रहे। यद्यपि दोनों ने विदेशों में आधुनिक शिक्षा ग्रहण की थी परन्तु दोनों की सोच में जमीन-आसमान का अंतर था। जहां गांधी जी पारंपरिक सनातनी विचारधारा का समर्थन करते थे वहीं डॉ. अंबेडकर आधुनिक विकासवादी विचारधारा का समर्थन करते थे।

यह सच है कि गांधी जी और डॉ. अंबेडकर के हिन्दू समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था को लेकर अपने-अपने विचार थे पर वे दोनों ही दलितों या अछूतों को हिन्दू धर्म से अलग नहीं मानते थे पर कुछ अज्ञानी हिन्दू मठाधीश दलितों को हिन्दू धर्म का हिस्सा नहीं मानते और उनकी इसी अज्ञानता के कारण सनातनी हिन्दू संस्कृति का पतन होता रहा है।

 (लेखक भारत सरकार के पूर्व उपसचिव एवं कई पुस्तकों के लेखक हैं।)



हर युग में डॉ. अंबेडकर की सार्थकता

बसंत कुमार

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक पूज्य मोहन जी भागवत ने डॉ. भीमराव अंबेडकर के विषय में एक बार कहा था कि यदि डॉ. अंबेडकर राजनेता होते तो वह उच्च कोटि के राजनेता होते, यदि वह एक अर्थशास्त्राr होते तो वह अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के अर्थशास्त्राr होते और यदि वह एक समाज सुधारक होते तो उच्च कोटि के समाज सुधारक होते। एक कानूनविद् के रूप में उनके ज्ञान के कारण ही उन्हें संविधान सभा की प्रारूप समिति का चेयरमैन बनाया गया और उनके प्रयास से देश को एक खूबसूरत संविधान मिला। अब 21वीं सदी में पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन हुए पर आज बाबा साहब व उनके सिद्धांत पूर्ण रूप से सार्थक हैं।

कुछ ही दिनों में देश में अंबेडकर जयंती मनाई जाने वाली है और सभी दल चाहे वह वामपंथी हों, दक्षिणपंथी हों या वह मध्यमार्गी हों सभी यह दर्शाने का प्रयास करेंगे कि वह बाबा साहब डॉ. अंबेडकर को अपना आदर्श मानते हैं पर क्या कोई दल अंबेडकर के आदर्शों को मानता है। पर उन्होंने संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन के रूप में जो संविधान देश को दिया उसने पूरे देश को तमाम विविधताओं के बावजूद एक में बांधकर रखा है। अपने खुद के जीवन में कितनी उपेक्षाओं, कितने तिरस्कार, कितने अपमान उन्होंने झेले परन्तु उन्होंने आहत मन की तनिक भी आहट संविधान निर्माण में नहीं आने दी। विदेशों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद उन्होंने यही कहा कि मैं भारत में ही रहूंगा और भारत को एक सशक्त राष्ट्र बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करूंगा।

संविधान निर्माण में उन्होंने कितना दुष्कर कार्य किया इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि संविधान निर्माण में 7435 प्रस्ताव आए जिनमें से 4100 से अधिक प्रस्तावों को अलग किया गया और बाद में 2431 प्रस्तावों को स्वीकृत करने में कामयाबी हासिल की। भारत के हर नागरिक के ससम्मान जीवन के लिए उन्होंने भारतीय संविधान में मूलभूत अधिकारों की व्यवस्था दी जिसके अंतर्गत अनुच्छेद 14, 15, 16, 17 और 18 के माध्यम से समता का अधिकार, अनुच्छेद 19, 20, 21 एवं 22 में स्वतंत्रता का अधिकार, अनुच्छेद 23 व 24 में शोषण के विरुद्ध अधिकार दिया। बाबा साहब यह भलीभांति जानते थे कि भारत विभिन्न धर्मों एवं धार्मिक आस्थाओं का देश है इसी कारण उन्होंने संविधान में अनुच्छेद 25, 26, 27 एवं 28 में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की व्यवस्था की। इन मूल अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए अनुच्छेद 32 की व्यवस्था की गई, जिसके अंतर्गत मूल अधिकारों का हनन होने पर कोई भी नागरिक सीधे सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर सकता है। अनुच्छेद 29 और 30 के अंतर्गत अल्पसंख्यकों को अपनी स्वेच्छा से अपने सामाजिक और शैक्षणिक अधिकार के अंतर्गत अपनी शैक्षणिक संस्थाएं खड़ी करने का अधिकार है।

एक अर्थशास्त्री और एक विजनरी के रूप में भी बाबा साहब का योगदान अद्वितीय है। श्रमिकों के कल्याण हेतु और श्रमिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए विधि मंत्री के रूप में अनेक कानून बनाए। मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी, मजदूरों की भविष्य निधि के लिए व्यवस्था दी और मजदूर और मालिक के बीच बेहतर संवाद पर बल दिया। उन्होंने देश के संविधान के साथ-साथ एक आर्थिक ढांचे का निर्माण किया। सेंट्रल वॉटरवेज इरिगेशन एंड नेविगेशन कमीशन को स्थापित करने की योजना एवं दामोदर वैली प्रोजेक्ट, हीरा कुंड प्रोजेक्ट तथा पानी और सिंचाई से संबंधित कई प्रोजेक्ट बाबा साहब के मस्तिष्क की उपज थे। भारत में रिजर्व बैंक की स्थापना के समय हिल्टन यंग कमीशन ने डॉ. अंबेडकर के दिए गए सुझावों को आधार बनाया। कोलंबिया यूनिवर्सिटी में उन्होंने रिसर्च के दौरान एक थिसिस लिखीö‘नेशनल डिवीडेंट ऑफ इंडिया’ जो 1924 में प्रकाशित हुई जिसमें उन्होंने फाइनेंस कमीशन का कंसेप्ट दिया और उसी कंसेप्ट के आधार पर भारत में फाइनेंस कमीशन की स्थापना भी हुई। आज से सात दशक पूर्व उन्होंने महिला सशक्तिकरण की बात की और उन्होंने राइट टू एडॉप्शन और सम्पत्ति का अधिकार देकर महिलाओं को सुरक्षा दी।

देश में एकता और समरसता के बाबा साहब प्रबल पक्षधर थे इसीलिए जब संविधान में अनुच्छेद 370 जोड़ने के लिए शेख अब्दुल्ला ने पंडित जवाहर लाल नेहरू से कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग को तो पंडित नेहरू ने प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. अंबेडकर के पास शेख अब्दुल्ला को भेजा, पर डॉक्टर अंबेडकर ने इसे मना कर दिया क्योंकि वह अनुच्छेद 370 के प्रबल विरोधी थे परन्तु नेहरू जी की जिद के कारण बहुमत के आधार पर अनुच्छेद 370 लागू हुआ। परन्तु डॉ. अंबेडकर के कारण संविधान में यह लिख दिया गया कि यह अनुच्छेद अस्थायी होगा और प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के साहसिक फैसले से अगस्त 2019 में अंतत इस विभाजनकारी प्रोविजन को समाप्त कर दिया गया।

बाबा साहब के आर्थिक दृष्टिकोण को मूर्तरूप देने के लिए प्रधानमंत्री बनने के पश्चात श्री नरेंद्र मोदी ने अपने प्रशासन का मूल मंत्र ‘सबका साथ-सबका विकास’ निर्धारित किया। गरीब व वंचित लोगों को देश की बैंकिंग प्रणाली से जोड़ने के लिए जनधन योजना प्रारंभ की जिससे देश के करोड़ों लोग बैंकों में खाता खोलकर देश की बैंकिंग व्यवस्था से जुड़े। बाबा साहब की 125वीं जयंती मनाने के लिए संसद में विशेष सत्र का आयोजन किया गया। इस अवसर पर संसद में बोलते हुए प्रधानमंत्री जी ने कहा कि जन सामान्य की गरिमा और देश की अखंडता के लिए बाबा साहब की भूमिका को हम नकार नहीं सकते। प्रारूप समिति के अध्यक्ष के नाते डॉ. अंबेडकर ने अनुच्छेद 368 के विषय में कहा था ‘संविधान एक आधारभूत दस्तावेज है जो राज्य के तीनों अंगोंöकार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका की स्थिति और शक्तियों को परिभाषित करता है। यह कार्यपालिका की शक्तियों और विधायिका की शक्तियों को नागरिकों के प्रति भी परिभाषित करता है जैसे कि हमारे मौलिक अधिकारों के विषय में किया है। वस्तुत संविधान का उद्देश्य राज्यों के अंगों का सृजन करना मात्र नहीं है बल्कि उसके अधिकार को सीमित करना है क्योंकि यदि उसके अधिकार में कोई सीमा नहीं लगाई गई तो वह पूर्ण निरंकुशता होगी। विधायिका किसी भी कानून को बनाने में स्वतंत्र हो, कार्यपालिका कोई भी निर्णय लेने में स्वतंत्र हो तो इसकी परिणिति अराजकता में होगी।’

बाबा साहब धर्मविरोधी व अधार्मिक दृष्टिकोण से कतई सहमत नहीं थे और उनके अनुसार धर्म मनुष्य के सामाजिक जीवन का अंग है तथा व्यक्ति की धरोहर है। धर्म की सामाजिक शक्ति में बाबा साहब का दृढ़ विश्वास था। इसी कारण वामपंथियों के भौतिकवाद से सदैव असहमत रहते थे। वामपंथियों के भौतिकवादी सिद्धांतों की जड़ों पर प्रहार करते हुए डॉ. अंबेडकर कहते हैं कि कुछ लोगों का सोचना है कि धर्म समाज के लिए आवश्यक नहीं है, मैं इस दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करता, मैं धर्म की आधारशिला को जीवन और समाज के व्यवहारों के लिए आवश्यक मानता हूं। डॉ. अंबेडकर का धर्म दर्शन (पृष्ठ 70) वहीं लाइन एंड मिशन (पृष्ठ 305) पर वह कहते हैं कि मैं धर्म चाहता हूं परन्तु धर्म के नाम पर किसी भी प्रकार का पाखंड या ढोंग नहीं चाहता।

बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर की महत्ता का पता इसी बात से लगता है कि अगर किसी को सरकार पर प्रहार करना है तो कोटेशन बाबा साहब का देता है और अगर किसी को अपना बचाव करना होता है तो कोटेशन बाबा साहब का काम आता है। मतलब उनमें कितनी दूरदृष्टि थी, कितना विजन था कि आज भी विरोध करने के लिए वह मार्गदर्शक हैं, शासन चलाने के लिए वह मार्गदर्शक हैं और जो न्यूट्रल हैं उनके लिए भी मार्गदर्शक हैं। बाबा साहब के विचार हर पीढ़ी के लिए, हर कालखंड के लिए, हर तबके के लिए उपकारक हैं। उनके विचारों में एक ताकत थी जो राष्ट्र के लिए समर्पित थी और उसमें वह सामर्थ्य था जो 100 वर्ष बाद भी देश कैसा होगा यह देख सकता थे। परन्तु यह देश का दुर्भाग्य था कि निजी स्वार्थ की राजनीति के कारण देश का सर्वोच्च सम्मान 42 वर्षों के बाद मिला और विभिन्न राजनीतिक दल अपने-अपने ढंग और मतलब से उनको प्रस्तुत करते रहे और एक महान राष्ट्र निर्माता को मात्र दलित आइकॉन के रूप में प्रस्तुत करते रहे।

(लेखक भारत सरकार के पूर्व उपसचिव हैं।)

 

शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

उत्तर प्रदेश जनसंख्या नीति का विरोध औचित्यहीन

अवधेश कुमार

उत्तर प्रदेश की नई जनसंख्या नीति पर कई हलकों से आ रही नकारात्मक प्रतिक्रियाएं दुखद अवश्य हैं परअनपेक्षित नहीं। भारत में जनसंख्या नियंत्रण और इससे संबंधित नीति पर जब भी बहस होती है तस्वीर ऐसी ही उभरती है। हालांकि सलमान खुर्शीद जैसे वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री का बयान दुर्भाग्यपूर्ण कहा जाएगा। वे कह रहे हैं कि पहले नेता, मंत्री और विधायक बताएं कि उनके कितने बच्चे हैं और उनमें कितने अवैध हैं। इस तरह की उदंड प्रतिक्रियाओं की ऐसे वरिष्ठ नेता से उम्मीद नहीं की जा सकती। सपा सांसद सफीकुर्रहमान बर्क यदि कह रहे हैं कि कोई कानून बना लीजिए बच्चे पैदा होने हैं वे होंगे, अल्लाह ने जितनी रूहें पैदा कीं हैं वे सब धरती पर आएंगे तो किसी को हैरत नहीं होगी। बर्क ऐसे ही मजहबी और सांप्रदायिक बयानों के लिए जाने जाते हैं। किंतु खुर्शीद कांग्रेस के सेकुलर सभ्य शालीन चेहरा है। लंबे समय से देश में सोचने समझने वालों का बड़ा तबका आबादी को नियंत्रण में रखने के लिए किसी न किसी तरह की नीति लागू करने की आवाज उठाता रहा है। पिछले वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को लाल किले से दिए जाने वाले भाषण के लिए आम लोगों से सुझाव मांगे तो उसमें सबसे ज्यादा संख्या में जनसंख्या नियंत्रण कानून का सुझाव आया था। तो इसके पक्ष में व्यापक जन भावना है और अर्थशास्त्रियों समाजशास्त्रीय द्वारा लगातार बढ़ती आबादी पर चिंता प्रकट की गई है। प्रश्न है कि जनसंख्या नियंत्रण नीति में ऐसा क्या है जिसके विरूध्द तीखी प्रतिक्रिया होनी चाहिए? क्या वाकई यह एक मजहब यानी मुसलमानों के खिलाफ है जैसा आरोप लगाया जा रहा है?

उत्तर प्रदेश विधि आयोग ने जब जनसंख्या नियंत्रण नीति का दस्तावेज जारी किया था तभी सूक्ष्मदर्शी यंत्रों से दोष निकालने वालों ने एक-एक शब्द छान मारा। उसमें किसी तरह के मजहब का कोई जिक्र नहीं था और योगी आदित्यनाथ द्वारा जार नीति वही है। इसमें दो से ज्यादा बच्चा पैदा करने पर सरकारी नौकरियों में आवेदन करने का निषेध या सरकारी सुविधाओं से वंचित करने या फिर राशन कार्ड में चार से अधिक नाम नहीं होने का बिंदु सभी मजहबों पर समान रूप से लागू होगा। इसमें कहीं नहीं लिखा है कि केवल मुसलमानों पर लागू होगा। आबादी मान्य सीमा से न बढ़े, उम्र, लिंग और मजहब के स्तर पर संतुलन कायम रहे यह जिम्मेवारी भारत के हर नागरिक की है। विरोध का तार्किक आधार हो तो विचार किया जा सकता है। लेकिन इसे मुसलमानों को लक्षित नीति कहना निराधार है। नीति में वर्ष 2026 तक जन्मदर को प्रति हजार आबादी पर 2.1 तथा वर्ष 2030 तक 1.9 लाने का लक्ष्य रखा गया है। क्या यह एक मजहब से पूरा हो जाएगा? जनसंख्या नियंत्रण के लिए हतोत्साहन और प्रोत्साहन दोनों प्रकार की नीतियां या कानून की मांग की जाती रही है। इसमें दो से अधिक बच्चों को कई सुविधाओं और लाभों से वंचित किया गया है तो उसकी सीमा में रहने वाले, दो से कम बच्चा पैदा करने वाले या दो बच्चा के साथ नसबंदी कराने वालों के लिए कई प्रकार के लाभ और सुविधाओं की बातें हैं। अपनी आबादी के जीवन गुणवत्ता तथा क्षमता विकास किसी सरकार का उद्देश्य होना चाहिए। इसमें बच्चों और किशोरों के सुंदर स्वास्थ्य उनके शिक्षा के लिए भी कदम हैं। मसलन 11 से 19 वर्ष के किशोरों के पोषण, शिक्षा व स्वास्थ्य के बेहतर प्रबंधन के अलावा, बुजुर्गों की देखभाल के लिए व्यापक व्यवस्था भी की जाएगी। नई नीति में आबादी स्थिरीकरण के लिए स्कूलों में हेल्थ क्लब बनाये जाने का प्रस्ताव भी है। साथ ही डिजिटल हेल्थ मिशन की भावनाओं के अनुरूप प्रदेश में अब नवजातों, किशोरों व बुजुर्गों की डिजिटल ट्रैकिंग भी कराने की योजना है। जनसंख्या नियंत्रण केवल कानून का नहीं सामाजिक जागरूकता का भी विषय है और इस पहलू पर फोकस किया गया है। मुख्यमंत्री ने इसकी घोषणा करते हुए कहा कि सामाजिक जागरूकता के लगातार अभियान चलाए जाएंगे और इसकी शुरुआत भी कर दी।

उत्तर प्रदेश की जनसंख्या वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से लगातार ज्यादा रहा है। वर्ष 2001-2011 के दौरान प्रदेश की जनसंख्या वृद्धि दर 20.23ः रही, जो राष्ट्रीय औसत वृद्धि दर17.7ः से अधिक है। इसे अगर राष्ट्रीय औसत के आसपास लाना है तो किसी न किसी प्रकार के कानून की आवश्यकता है। यह कानून इसी आवश्यकता की पूर्ति करता है। हालांकि वर्तमान अंतरराष्ट्रीय प्रवृत्ति जनसंख्या बढ़ाने की है। एक बच्चा कानून कठोरता से लागू करने वाले चीन को तीन बच्चे पैदा करने की छूट देनी पड़ी है क्योंकि इस कारण वहां आबादी में युवाओं की संख्या घटी है जबकि बुजुर्गों की बढ़ रही है। अनेक विकसित देश इसी असंतुलन के भयानक शिकार हो गए हैं। युवाओं की संख्या घटने का अर्थ काम करने वाले हाथों का कम होना है, जिसका देश की आर्थिक- सामाजिक प्रगति पर विपरीत असर पड़ता है। दूसरी ओर बुजुर्गों की बढ़ती आबादी का मतलब देश पर बोझ बढ़ना है। इसलिए अनेक देश ज्यादा बच्चा पैदा करने के लिए प्रोत्साहनों की घोषणा कर रहे हैं। भारत में भी इस पहलू का विचार अवश्य किया जाना चाहिए। हम अगर भविष्य की आर्थिक महाशक्ति माने जा रहे हैं तो इसका एक बड़ा कारण हमारे यहां युवाओं की अत्यधिक संख्या यानी काम के हाथ ज्यादा होना है। जनसंख्या नियंत्रण की सख्ती से इस पर असर पड़ेगा और भारत की विकास छलांग पर ग्रहण लग सकता है। किंतु यह भी सही है कि तत्काल कुछ समय के लिए जनसंख्या वृद्धि कम करने का लक्ष्य पाया जाए और उसके बाद भविष्य में ढील दी जाए। चीन ने कहा भी है कि एक बच्चे की नीति से उसने 46 करोड़ बच्चे का जन्म रोकने में सफलता पाई।

यह सच है कि भारत में हिंदू, जैन, सिख और बौद्ध की आबादी वृद्धि दर लगातार नीचे आई है तो मुसलमानों की और कहीं-कहीं ईसाइयों की वृद्धि दर बढी है। इसमें यह सलाह भी दी जाती रही है कि चूंकी भारत में जनसंख्या नियंत्रण की कठोर नीति लागू करना संभव नहीं, इसलिए हिंदुओं, सिखों, बौद्धों और जैनियों ज्यादा बच्चा पैदा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। इन्हें तीन बच्चे पैदा करने की प्रेरणा देने के लिए अभियान चलाने की भी सलाह दी जाती रही है। उत्तर प्रदेश में भी हिंदुओं, सिखों, बौद्धों और जैनियों की आबादी विस्तार की गति 2011 की जनगणना के 10 साल में घटी तो मुस्लिमों व ईसाइयों की बढ़ी। वर्ष 2001-11 के 10 साल में हिंदुओं की आबादी में बढ़ोतरी की रफ्तार 0.88 प्रतिशत घटी। 2001 की जनगणना में प्रदेश में 80.61 प्रतिशत हिंदू थे, जबकि 2011 की जनगणना में इनकी संख्या 79.73 प्रतिशत रह गई। इसी तरह सिखों व बौद्धों की आबादी .08-08 प्रतिशत तथा जैनियों की आबादी में .25 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। इसके विपरीत मुस्लिमों की आबादी 0.77 प्रतिशत बढ़ी। वर्ष 2001 की जनगणना में मुस्लिम आबादी 18.49 प्रतिशत थी जो 2011 में 19.26 प्रतिशत हो गई। दस साल पहले जहां ईसाई कुल जनसंख्या के 0.12 प्रतिशत थे वे 0.17 प्रतिशत हो गए। हम चाहे जो भी तर्क दें गैर मुस्लिमों में उनकी आबादी वृद्धि को लेकर व्यापक चिंता है। जिस देश का मुस्लिम मजहब के आधार पर विभाजन हो चुका है वहां इस तरह का भय आधारहीन नहीं माना जा सकता। कुछ कट्टर मजहबी व राजनीतिक नेता आबादी वृद्धि को संसदीय लोकतंत्र में अपनी ताकत का आधार बनाकर उकसाते हैं। शफीकुर्रहमान अकेले नहीं हैं। इनकी आपत्ति का संज्ञान लेना आत्मघाती होगा। ये अपने समाज के ही दुश्मन हैं। वस्तुतः इसका विरोध करने, इस पर प्रश्न उठाने की जगह इसकी आम स्वीकृति का अभियान चलाना हर मजहब के प्रमुख लोगों का दायित्व है। सच कहें तो उत्तर प्रदेश सरकार ने साहसी फैसला किया है। इसका समर्थन किया जाना चाहिए ताकि दूसरे राज्य भी प्रेरित होकर आगे आएं। हालांकि आबादी में उम्र संतुलन के प्रति लगातार सतर्क रहना होगा ताकि युवाओं की आबादी और उद्यमों हाथों में विश्व के नंबर एक का स्थान हमसे न छीन जाए।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कौम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, मोबाइलः9811027208

शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

चुनाव परिणाम के संदेश स्पष्ट हैं

अवधेश कुमार

उत्तर प्रदेश जिला पंचायत चुनाव परिणामों ने उन सबको चौंकाया है जो पिछले ग्राम पंचायत चुनाव के आधार पर मान चुके थे कि भाजपा के लिए अत्यन्त कठिन राजनीतिक चुनौती की स्थिति पैदा हो चुकी है। कुल 75 में से 67 स्थानों पर भाजपा के अध्यक्षों का निर्वाचन निश्चित रूप से कई संकेत देने वाला है। चूंकी इस समय प्रदेश में समस्त राजनीतिक कवायद, बयानबाजी, विश्लेषण  आदि अगले वर्ष आरंभ में होने वाले विधानसभा चुनाव की दृष्टि से सामने आ रहे हैं इसलिए कई बार हमारे सामने भी जमीनी सच्चाई नहीं आ पाती। ठीक है कि जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव को हम विधानसभा चुनाव का ट्रेलर नहीं मान सकते। लेकिन इससे प्रदेश की राजनीति के कई पहलुओं की झलक अवश्य मिलती है। वैसे ग्राम पंचायतों के चुनाव को भी हम आगामी चुनाव का पूर्व दर्शन नहीं मान सकते थे लेकिन उस समय के बयानों और विश्लेषणों को देख लीजिए। बहरहाल, पंचायत चुनावों के राजनीतिक पहलुओं को समझने के पहले यह ध्यान रखना जरूरी है बसपा इन चुनावों से अपने को दूर रखती है और कांग्रेस प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य में कहीं है नहीं। जाहिर है ,मुकाबला भाजपा और सपा के बीच ही था। तो इस समय हमारे सामने इन दो पार्टियों की  ही तस्वीर है।

तो सबसे पहले सपा। सपा ने पूरे चुनाव पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया है। उसने पुलिस, प्रशासन व चुनाव अधिकारियों पर धांधली के आरोप लगाए हैं तथा इनके विरुद्ध का आयोग में लिखित शिकायत भी की है। अखिलेश यादव अपने बयान में इसे लोकतंत्र का ही अपहरण बता रहे हैं। हम आप इसे जिस तरह लें लेकिन न कोई निष्पक्ष विश्लेषक इसे न स्वीकार करेगा और न आम जनता के गले ही उतरेगा कि अधिकारियों ने धांधली करके भाजपा उम्मीदवारों को जीता दिया है। हम पिछले लंबे समय से भारतीय राजनीति का यह हास्यास्पद दृश्य देख रहे हैं कि जब भाजपा के पक्ष में परिणाम आता है तो विपक्ष ईवीएम का सवाल जरूर उठाता है। इसके विपरीत जहां विपक्ष की विजय होती है वहां ईवीएम पर कोई प्रश्न नहीं उठता यानी वह बिल्कुल सही काम कर रहा होता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि हमारी राजनीति में जमीनी वास्तविकता से कटने के कारण शीर्ष स्तर से लेकर नीचे के नेताओं को पता ही नहीं रहता कि आखिर जन समर्थन की दिशा क्या है। चूंकी राजनीतिक दल अपना जनाधार खोने को स्वीकार न कर दोष भाजपा, चुनाव आयोग , ईवीएम के सिर डालते हैं इसलिए वे ईमानदार विश्लेषण नहीं कर पाते और जब विश्लेषण ही नहीं होगा तो फिर जनाधार दुरुस्त करने के कदम भी नहीं उठाए जाते।

वास्तव में इस परिणाम के बाद अखिलेश यादव के साथ सपा के शीर्ष नेताओं को जिले से प्राप्त रिपोर्टों के आधार पर आपस में बैठकर विश्लेषण करना चाहिए था। इससे उनको वस्तुस्थिति का आभास हो जाता। अभी विधानसभा चुनाव में सात आठ महीने का समय है। इसका उपयोग कर  सांगठनिक और वैचारिक रूप से अपनी पार्टी को चुनाव के लिए बेहतर तरीके से तैयार करने की कोशिश कर सकते थे। जब आप मानेंगे ही नहीं कि समस्या आपकी पार्टी और आपके जनाधार में है तो आपको सच्चाई नहीं  दिख सकती। मीडिया में ऐसे दृश्य सामने आए जब सपा के वरिष्ठ नेता जिला पंचायत चुनाव में अपने ही नेताओं से गिड़गिड़ा रहे थे। क्यों? इसलिए कि वे स्वयं सपा के लिए काम करने को तैयार नहीं थे। कई जगह तो निर्धारित सपा उम्मीदवारों ने नामांकन के समय ही मुंह फेर लिया। अखिलेश यादव को इनके विरुद्ध कार्रवाई तक करनी पड़ी। आखिर यह कैसे संभव हुआ की 21 जिला पंचायतों में भाजपा के अध्यक्ष निर्विरोध निर्वाचित हो गए? केवल इटावा में ही सपा उम्मीदवार निर्विरोध निर्वाचित हो सके। अगर सपा के उम्मीदवार सामने खड़े हो जाते तो कम से कम निर्विरोध निर्वाचन नहीं होता। जब आपकी पार्टी की ही आंतरिक दशा ऐसी है तो कैसे मान लिया जाए कि धांधली से सपा की पराजय हो गई है? अगर सपा सच्चाई को स्वीकार कर नए सिरे से चुनाव के लिए पार्टी एवं जनता के स्तर पर कमर कसने का अभियान नहीं चलाती तो उसके चुनावी भविष्य को लेकर सकारात्मक भविष्यवाणी करनी कठिन होगी।

निश्चित रूप से भाजपा के लिए यह परिणाम आत्मविश्वास बढाने वाला है। खासकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता को लेकर प्रदेश में पार्टी के अंदर या बाहर जो नकारात्मक धारणा निर्मित हुई या कराई गई थी उस पर जबरदस्त चोट पड़ा है। वैसे तो केंद्र ने पहले ही साफ कर दिया था कि योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में ही विधानसभा चुनाव लड़ा जाएगा। बावजूद सत्य से निराभासी लोगों द्वारा कुछ किंतु परंतु लगाया जा रहा था। इस चुनाव परिणाम के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस भाषा में विजय की बधाई दी है उसने इस पर स्थाई विराम लगा दिया है। उन्होंने कार्यकर्ताओं के साथ इसे योगी के नेतृत्व की विजय करार दिया है। अगर चुनाव में इतना शानदार प्रदर्शन नहीं होता तो योगी का नेतृत्व भले कायम रहता, न केंद्रीय नेतृत्व इस तरह बधाई देता न उनका स्वयं का आत्मविश्वास बढ़ता और न कार्यकर्ताओं में उत्साह पैदा होता। तो जिला पंचायत चुनाव को भले हम आप विधानसभा चुनाव की पूर्वपीठिका नहीं माने लेकिन आत्मविश्वास का यह माहौल योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा को पूरे उत्साह से विधानसभा चुनाव में काम करने को प्रेरित करेगा। किसी भी संघर्ष में चाहे वह चुनावी हो या फिर युद्ध का मैदान आत्मविश्वास और उत्साह की परिणाम निर्धारित करने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह स्थिति भविष्य की दृष्टि से भाजपा के पक्ष में जाता है और स्वभाविक ही विपक्ष के विरुद्ध।

यहां से अगर कुछ अप्रत्याशित नकारात्मक स्थिति पैदा नहीं हुई तो हम चुनाव तक भाजपा को गतिशील और आक्रामक तेवर में देख सकते हैं जो उसकी स्वाभाविकता है। पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद यह गुम दिख रहा था। भाजपा की दृष्टि से इस समय उत्तर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य देखिए।  योगी के नेतृत्व में प्रदेश पार्टी ईकाई को एकजुट किया जा चुका है, केन्द्रीय नेतृत्व काफी पहले से चुनाव की दृष्टि से सक्रिय है,नेताओं के अलावा पूरे प्रदेश के जिम्मेवार कार्यकर्ताओं से संपर्क-संवाद का एक चरण पूरा हो गया है, विधायकों के प्रदर्शन तथा जनाधार का सर्वेक्षण आधारित अध्ययन भी आ चुका है। विपक्ष इस मामले में काफी पीछे है। विपक्ष के बीच जब एकजुटता नहीं होती तथा वे अपने चुनावी भविष्य को लेकर अनिश्चय में होते हैं तो इसका लाभ सामान्य सत्तारूढ़ पार्टी को मिलता है। उत्तर प्रदेश में अभी सपा, बसपा और कांग्रेस के बयानों को देखें। वे भाजपा के साथ स्वयं भी एक दूसरे को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। जिला पंचायत चुनाव के बाद समय को भांपते हुए जिस तरह का संयम ,धैर्य और बुद्धि चातुर्य का इन्हें परिचय देना चाहिए इनका आचरण उसके विपरीत है। बसपा कह रही है कि कांग्रेस ,भाजपा और सपा के शासन में कभी निष्पक्ष चुनाव हो ही नहीं सकता जबकि बसपा के काल में होता है। कांग्रेस कह रही है कि बसपा भाजपा की बी टीम है। जवाब में बसपा कह रही है कि कांग्रेस के सी का मतलब कनिंग है। 2014 से 2019 तक के चुनाव परिणामों ने साबित किया कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में भाजपा शीर्षतम बिंदु पर है और शेष दल इतने नीचे हैं कि सामान्य अवस्था में उनके वहां तक पहुंचने की कल्पना नहीं हो सकती । पिछले तीन दशकों में कोई भी पार्टी चुनाव परिणामों में भाजपा की तरह सशक्त होकर नहीं बढ़ी। जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव परिणामों ने यही संदेश दिया है कि कम से कम अभी उसके बड़े पराभव के दौर की शुरुआत नहीं हुई है। विपक्षी दलों ने इन सात वर्षों में वैचारिकता, संगठन और राजनीतिक संघर्ष व अभियानों के स्तर पर संदेश तक नहीं दिया कि वे प्रदेश की राजनीति में भाजपा के वर्चस्व को तसशक्त चुनौती देने से संकल्पित भी हैं। चुनाव के पूर्व कुछ दलों से गठबंधन, जातीय एवं सांप्रदायिक समीकरणों को साधने आदि नुस्खे विफल साबित हो रहे हैं। जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव परिणामों के बाद भी विपक्ष की ओर से किसी तरह की राजनीतिक प्रखरता और ओजस्विता नहीं प्रदर्शित हो रही, मिलजुल कर मुकाबला करने का संकेत तक नहीं मिल रहा। इसमें यह मान लेना कठिन है कि जिला पंचायत अध्यक्षों का चुनाव परिणाम विधानसभा तक विस्तारित नहीं होगा। हां अगर इस चुनाव परिणाम से चौकन्ना होकर सपा,  बसपा जैसी पार्टियां कमर कसकर अभी से प्रखर राजनीतिक अभियान चलाने,मुद्दों पर संघर्ष करने का माद्दा दिखाती तो हल्की उम्मीद पैदा हो सकती थी। जब ऐसा है ही नहीं तो फिर इनके पक्ष में परिणाम आने की कल्पना इस समय नहीं की जा सकती।

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