शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2018

वर्तमान फैसले से अयोध्या विवाद के शीघ्र निपटारे का रास्ता बना

 

अवधेश कुमार

उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि मस्जिद नमाज अदा करने के लिए जरूरी नहीं है। न्यायलय के लिए इसे स्पष्ट करना इसलिए आवश्यक था क्योंकि इसके बाद ही मुख्य मामला आगे बढ़ता। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति अशोक भूषण तथा न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर की पीठ ने 2-1 के बहुमत के फैसले में कहा है कि मस्जिद ही इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है। जम इस्लाम का ही अभिन्न अंग नहीं है को नमाज अदा करने के लिए भी जरुरी नहीं है। न्यायमूर्ति नजीर ने अलग राय व्यक्त की लेकिन बहुमत का फैसला ही मान्य होता है। यह बहुत बड़ा फैसला है। हालांकि 1994 में उच्चतम न्यायालय का पांच सदस्यीय संविधान पीठ इस पर फैसला दे चुका था लेकिन चूंकि इसे फिर से उठा दिया गया इसलिए इसका दोबारा निर्णय करना आवश्यक हो गया था। अगर उच्चतम न्यायालय का निर्णय इसके विपरीत आता यानी वह कहता कि इस्लाम का मस्जिद से रिश्ता अटूट है और नमाज पढ़ने के लिए यह जरुरी है तो एक बड़ा बवंडर खड़ा हो जाता। अयोध्या विवाद के बाबरी पक्ष ने 24 वर्ष पहले यह मामला उठाया ही इसलिए था ताकि हिन्दू जिस तरह विवादित स्थल पर पूजा करते हैं उसी तरह उन्हें भी नमाज अदा करने की इजाजत मिल जाए। न्यायालय ने तब भी इसकी गहन सुनवाई की और इस्लाम की मजहबी पुस्तकों एवं विद्वानों को उद्धृत करते हुए साफ कर दिया कि नमाज पढ़ने के लिए मस्जिद आवश्यक नहीं है। प्रश्न है कि फिर इसे क्यों उठाया गया?

दरअसल, एक पक्ष मामले को लंबा खींचना चाहता है। उसके लिए इसे कानूनी दांव-पेच में उलझाना जरुरी है। 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद पर फैसला सुनाया था। अपने आदेश में बेंच ने 2.77 एकड़ की विवादित भूमि को तीन बराबर हिस्सों में बांटा था। राम मूर्ति वाले पहले हिस्से में राम लला को विराजमान कर दिया। राम चबूतरा और सीता रसोई वाले दूसरे हिस्से को निर्मोही अखाड़े को दिया और बाकी बचे हुए हिस्से को सुन्नी वक्फ बोर्ड को। इस फैसले को सभी पक्षकारों ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। इनको स्वीकार करते हुए उच्चतम न्यायालय ने 9 मई 2011 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगाकर यथास्थिति बहाल कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने साफ कहा कि मामले का फैसला आस्था के अनुसार नहीं बल्कि तथ्यों के आधार पर होगा। बाबरी पक्ष के लोग यह तर्क तो देते हैं कि उच्चतम न्यायालय ने इसे दीवानी मामला माना है और यह सही है लेकिन वे इस आस्था का प्रश्न भी बना देते हैं। नमाज और मस्जिद का रिश्ता वाला पेच ऐसा ही था।

5 दिसंबर 2017 को अयोध्या मामले की सुनवाई शुरू हुई थी। बाबरी पक्षकार की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने कहा कि नमाज अदा करना धार्मिक कर्मकांड है और मुसलमानों को इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। यह इस्लाम का अभिन्न अंग है। उन्होंने ही प्रश्न उठाया कि क्या मुस्लिम के लिए मस्जिद में नमाज पढ़ना जरूरी नहीं है? इसका जवाब यह कहते हुए दिया कि उच्चतम न्ययालय ने 1994 में दिए फैसले में कहा था कि मस्जिद में नमाज पढ़ना इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है। उनके अनुसार नमाज पढ़ना इस्लाम का अभिन्न अंग है और यह जरुरी धार्मिक गतिविधि है तो 1994 के फैसले पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। उनका कहना था कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला भी 1994 के फैसले के आलोक में था। मामले को फिर से संविधान पीठ के पास भेजने की मांग की गई। इससे मुख्य मामले की सुनवाई रुक गई। इसके साथ उस फैसले के खिलाफ 13 याचिकाएं न्यायालय के समक्ष डालीं गईं। कोई भी समझ सकता है कि इसके पीछे मामले में शीघ्र न्याय के रास्ते डालने की ही रणनीति मुख्य थी। पीठ द्वारा यह कहने के बाद कि इसे संविधान पीठ को सौंपने की आवश्यकता नहीं है यह अध्याय समाप्त हो गया है।

वास्तव में 6 दिसंबर 1992 को विवादास्पद ढांच ध्वस्त किए जाने के बाद केन्द्र सरकार ने कानून बनाकर उस जगह का अधिग्रहण कर लिया था। हालांकि अधिग्रहण के बावजूद हिन्दुओं के पूजा पाठ पर कोई रोक नहीं लगाई गई। इसी के खिलाफ याचिका डाली गई कि मस्जिद का अधिग्रहण किया ही नहीं जा सकता। यह मुसलमानों के धार्मिक अधिकारों पर कुठाराघात है, क्योंकि इससे हमारा नमाज पढ़ने का हक खत्म हो जाता है। यह अलग बात है कि वहां नमाज कब पढ़ा गया इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जबकि लगातार पूजा पाठ के साक्षात प्रमाण हैं। उस समय उच्चतम न्यायालय ने न केवल अयोध्या विवाद, रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद के महत्व, मस्जिदों के निर्माण के इतिहास, इस्लाम के इतिहास, नमाज के नियम, उन पर कुरान शरीफ सहित अलग-अलग पुस्तकों की राय आदि का अध्ययन कर निष्कर्ष दिया कि नमाज के लिए कहीं भी मस्जिद अनिवार्य नहीं किया गया है। यही सच भी है मस्जिद निर्माण बहुत बाद में आरंभ हुआ। पांच वक्त नमाज अदा करने वाले हर समय मस्जिद जाते नहीं। हां, जमात के साथ नमाज अदा करने के लिए कोई एक जगह चाहिए, उसमें वजु करने यानी अपने को पवित्र करने आदि की व्यवस्था चाहिए इसलिए मस्जिदों का निर्माण हुआ। किंतु मस्जिद केवल एक भवन ही है। हिन्दू मन्दिरों की तरह किसी मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा नहीं होती कि उनकी पूजा वहीं की जाए। वैसे हिन्दू धर्म में भी सामान्य पूजा के लिए मंदिर आवश्यक नहीं है। किंतु जैसे द्वादश ज्योर्तिलिंग हैं, 52 शक्तिपीठ हैं, वैसे ही कुछ दूसरे धार्मिक महत्व के स्थापित मंदिर हैं। उनकी पूजा वहीं हो सकती है। नमाज के लिए ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने उसी फैसले को फिर से स्पष्ट किया है। इसमें कहा है कि सरकार के पास किसी भी धार्मिक स्थल के अधिग्रहण करने का अधिकार है, वह मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा कुछ भी हो सकता है। हां, यदि वह स्थान किसी विशिष्ट महत्व का हो, जिसके अधिग्रहण से उस विशेष धर्म की धार्मिक गतिविधियों का लोपन होता हो तो इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती। पीठ ने कहा कि तब संविधान पीठ के सामने ऐसा कोई पहलू नहीं आया जिससे साबित हो कि रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद का मस्जिद किसी विशेष महत्व का है, जिसके अधिग्रहण से धार्मिक गतिविधि खत्म हो जाएगी, इसलिए न्यायालय का निष्कर्ष यह है कि इसके अधिग्रहण से संविधान की धारा 25 और 26 में मिले अधिकार का कहीं से उल्लंघन नहीं होता है। न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि संविधान की टिप्पणी अयोध्या कानून 1993 के तहत कुछ निश्चित क्षेत्र के अधिग्रहण के संदर्भ में थी। इसका अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि मस्जिद को इस्लाम के धार्मिक व्यवहार का अंग कभी भी माना ही नहीं जाएगा।

न्यायालय की इन टिप्पणियों का पहला निष्कर्ष तो यही है कि अब अयोध्या विवाद को किसी कानूनी पेच में फंसाने की संभावना लगभग खत्म हो गई है। इसका महत्व यह है कि अब न्यायालय 29 अक्टूबर से प्रतिदिन मामले की सुनवाई करके यह निर्णय कर सकेगा कि विवादास्पद स्थान पर किसका कानूनी हक बनता है। बाबरी पक्ष भले उपर से जो कहे लेकिन वे इस फैसले से नाखुश हैं। अधिवक्ता राजीव धवन ने तो फैसले को ही गलत बता दिया। असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि इसे संविधान पीठ के पास भेजा जाना चाहिए था। ये विचित्र और दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणियां हैं। वैसे यह तर्क गलत था कि 30 सितंबर 2010 का इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला 1994 के उच्चतम न्यायालय के फैसले के आलोक में था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला काफी विस्तृत फैसला था। इसमें ऐतिहासिक, खुदाई से प्राप्त पुरातात्विक, धार्मिक आदि सारे सबूतों का विवरण है। हां, उसमें 1994 के फैसले का उद्धरण भी है, पर यह आधार कतई नहीं है। उच्चतम न्यायालय चाहता तो इस दलील को एकबारगी खारिज भी कर सकता था। किंतु ऐसा करने से फिर इनको बाहर प्रश्न उठाने का बहाना मिल जाता। प्रश्न तो आगे भी उठाएंगे किंतु यह किसी भी निष्पक्ष व्यक्ति के गले नहीं उतरेगा। बाबरी पक्ष को भय यही है कि अगर उस स्थान को मुसलमानों के लिए विशेष महत्व का माना ही नहीं गया तो फिर मुख्य फैसला में भी यह पहलू आ सकता है। यह भय उनके अंदर 1994 से ही बना हुआ है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के बाद उनका यह भय और बढ़ा है। वैसे सच तो यही है कि रामजन्मभूमि हिन्दुओं के लिए जितने गहरे धार्मिक महत्व का विषय है, उतना बाबरी इस्लाम की दृष्टि से किसी महत्व का स्थान नहीं हो सकता। बहरहाल, इस बड़े पेच से निकलने के बाद अयोध्या विवाद के फैसले की ऐतिहासिक घड़ी आ रही है।   

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

 

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