शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

तेल मूल्य पर राजनीति करना देशहित में नहीं

 

अवधेश कुमार

अर्थशास्त्र पर जब राजनीति हाबी हो जाए तो परिणाम हमेशा विघातक होता है। पेट्रोल, डीजल और बिना सब्सिडी वाले रसोई गैस की कीमतों पर यही हो रहा है। इसके पूर्व किसी पार्टी ने तेल मूल्यों में बढ़ोत्तरी भारत बंद आयोजित नहीं किया था। राजनीति के कारण यह बड़ा मुद्दा बन चुका है। सरकार दबाव में है। मीडिया में गाड़ियों का उपयोग करने वालों की बड़ी संख्या है इसलिए मुद्दा ज्यादा तूल पकड़ रहा है। तेल महंगा होने का असर चतुर्दिक होता है। महंगाई पर इसका असर होता है। हममें से हर कोई चाहता है कि कीमतें कम हों। किंतु क्या यह संभव है? जिन्हें तेल का अर्थशास्त्र एवं देश की आर्थिक और वित्तीय स्थिति से उसके जुड़ाव का पता है वे जानते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय मूल्य तय करना भारत के हाथ में नहीं है और अगर केन्द्र ने उत्पाद शुल्क तथा राज्यों ने वैट में थोड़ी कमी की भी तो मूल्यों पर इसका हल्का असर होगा लेकिन केन्द्र एवं राज्य दोनों की वित्तीय स्थिति पर प्रतिकूल असर होगा। यहां यह बताना आवश्यक है कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए शासन के अंतर्गत पेट्रो पदार्थों के मूल्यों में रिकॉर्ड बढ़ोत्तरी हुई। 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार जाने के दिन दिल्ली मेें पेट्रोल 31 रुपए तथा डीजल 21 रुपए प्रति लीटर था। मई 2014 तक यह 71 रुपए और 55 रुपए हो गया। 20 मई 2004 से 16 मई 2014 के काल में पेट्रोल की कीमत 75.8 प्रतिशत तथा डीजल की 83.7 प्रतिशत बढ़ी था। भाजपा नीत राजग सरकार में पेट्रौल के मूल्य में 13 प्रतिशत था एवं डीजल में 28 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।

इन आंकड़ों को देने का अर्थ केवल यह बताना है कि विपक्ष का तूफान केवल राजनीति है। उस समय भी अर्थशास्त्रियों का मत था कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ते मूल्य के सामने हम लाचार हैं। बीच-बीच में केन्द्र एवं कुछ राज्यों ने कर घटाए लेकिन इससे ज्यादा अंतर नहीं आ सकता था। वही स्थिति अभी भी है। निस्संदेह, मूल्यों में केन्द्र के उत्पाद कर एवं राज्यों के वैट की बड़ी भूमिका है। एक सच यह भी है कि अनेक राज्यों में वैट केन्द्र के उत्पाद शुल्क से ज्यादा है और वो पार्टियां भी सरकार आग उगल रहीं हैं। 10 सितंबर 2018 को इंडियन बास्केट के कच्चे तेल की कीमत 4,883 रुपये प्रति बैरल थी। एक बैरल में 159 लीटर होता है, इसलिए प्रति लीटर कच्चे तेल का मूल्य हुआ, 30 रुपए 71 पैसे। आयातित तेल को शोधक कारखानों में भेजने और पेट्रोल पंपों तक पहुंचाने के खर्च को भी समझना होगा। एंट्री कर से लेकर शोधन प्रक्रिया, उतारने में खर्च एवं तेल कंपनियों का मार्जिन, डीलर का अंश सहित अन्य कई खर्च आते हैं। एंट्री, शोधन और उतारने में पेट्रोल पर 3.68 रुपये तथा डीजल पर 6.37 रुपये प्रति लीटर खर्च आता है। इस तरह पेट्रोल 34.39 रुपये, जबकि डीजल की कीमत 37.08 रुपये हो गई। पेट्रोल पर 3.31 रुपये और डीजल पर 2.55 रुपये प्रति लीटर तेल कंपनियों की मार्जिन, ढुलाई और फ्र्रंट का खर्च आता है। इसके बाद मूल्य हुआ पेट्रोल 37.70 रुपये तथा डीजल 39.63 रुपये हुआ। इस पर केंद्र का उत्पाद कर प्रति लीटर पेट्रोल 19.48 रुपये और डीजल पर 15.33 रुपये लगता है। इनको जोड़कर कीमत हो गई, पेट्रोल 57.18 रुपये तथा डीजल 54.96 रुपये प्रति लीटर। पेट्रोल पंप डीलरों का कमीशन पेट्रोल पर 3.59 रुपये प्रति लीटर तथा डीजल पर 2.53 रुपये है। इस तरह पेट्रोल का मूल्य हुआ 60.77 रुपये प्रति लीटर और डीजल का 57.49 रुपया। इस पर राज्य सरकारें अलग-अलग वैट और प्रदूषण अधिभार लेती है। यानी इसके बाद का जो मूल्य है वो राज्यों के कर का है।

16 जून, 2017 से पेट्रोल-डीजल के मूल्य अंतर्राष्ट्रीय बाजार के अनुसार प्रतिदिन निर्धारित करने (डेली डाइनैमिक प्राइसिंग) का नियम हो गया है। हालांकि इसके पहले भी तेल कंपनियां हर 15 दिन पर मूल्य की समीक्षा करतीं थीं। तो अंतर इतना ही आया है। इसे यह कहते हुए लागू किया गया था कि अंतर्राष्ट्रीय मूल्योें के अनुसार मूल्य निर्धारित होगा। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मूल्य घटने के अनुरुप ग्राहकों को उसका पूरा लाभ नहीं मिला। यह सच है कि केंद्र सरकार ने नवंबर 2014 से जनवरी 2016 के बीच नौ बार में पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क 11.77 रुपये तथा डीजल पर 13.47 रुपये प्रति लीटर बढ़ाया। यह तेल के अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों में गिरावट का दौर था। जब मूल्य बढ़ने लगे तो सिर्फ एक बार अक्टूबर 2017 में उत्पाद शुल्क 2 रुपये प्रति लीटर की दर से घटाई थी।

किंतु यहां यह बताना आवश्यक है कि अंतर्राष्ट्ीय मूल्य जितना बढ़ रहा है राज्य उसके अनुसार ज्यादा कमा रहे हैैं। उनका प्रतिशत के हिंसाब से वैट और पर्यावरण अधिभार बढ़ता है तथा केन्द्रीय कर से भी उनको 42 प्रतिशत हिस्सेदारी मिलती है। वर्ष 2014-15 से वर्ष 2017-18 तक वैट, पर्यावरण अधिभार एवं केंद्रीय कर के हिस्से से राज्यों ने 9 लाख 45 हजार 258 करोड़ रुपये कमाए हैं। इसके अनुपात में केंद्र की आय 7 लाख 49 हजार 485 करोड़ रुपये हुई जिसमें से 42 प्रतिशत यानी 3 लाख 14 हजार 784 करोड़ रुपये राज्यों को मिले। दिल्ली के उदाहरण से इसे समझ सकते हैं। दिल्ली में इस समय पेट्रोल की कीमत 80 रुपए के आसापास है। दिल्ली को 40.45 रुपये प्रति लीटर की दर से पेट्रोल दिया गया है। इस पर केन्द्र का उत्पाद कर करीब 19.48 रुपया लगा जिसमें से 42 प्रतिशत यानी 8.18 रुपया केंद्र से दिल्ली को मिला। दिल्ली सरकार प्रति लीटर करीब 17.20 रुपये वैट ले रही है। अगर इनको मिला दे ंतो कर के रुप में प्राप्त 36.64 रुपये में 25.40 रुपये दिल्ली को मिलता है जबकि केन्द्र के हिस्से केवल 11.24 रुपया। दिल्ली सरकार पेट्रोल पर 27 प्रतिशत तथा डीजल पर 17.24 प्रतिशत वैट वसूलती है। यह केन्द्र के उत्पाद शुल्क से ज्यादा है।

इसके बाद आसानी से समझा जा सकता है कि देश में तेल मूल्यों पर जो हंगामा मचा है उसमें पाखंड कितना है। अगर कर ही कम करना है तो राज्यों की भूमिका ज्यादा होनी चाहिए। अभी राजस्थान एवं आंध्रप्रदेश में ने थोड़ी कमी की है लेकिन अन्य राज्य इसके लिए तैयार नहीं हैं। वे केवल केन्द्र को दोषी ठहराने में लगे हैं। ज्यादातर आम लोगों को तेल के इस वित्तशास्त्र की जानकारी नहीं होती, इसलिए वे भी केन्द्र को ही दोषी मान रहे हैं। हालांकि जैसा हमने देखा पिछले समय में केन्द्र ने भी कमाई की है, लेकिन राज्यों ने उससे ज्यादा किया है। उदाहरण के लिए वर्ष 2015-16 में अंतरराष्ट्रीय बाजार से भारत ने औसतन 46 डॉलर प्रति बैरल की दर से कच्चा तेल खरीदा था। राज्यों ने वैट से 1 लाख 42 हजार 848 करोड़ रुपये प्राप्त किए। केंद्र को उत्पाद शुल्क मिला,1,78,591 करोड़ रुपये जिसमंे से 42 प्रतिशत तो राज्यों को चला गया। इस तरह राज्यों को कुल 2,17,856 करोड़ रुपये प्राप्त हुए। वर्ष 2017-18 में अंतरराष्ट्रीय बाजार से कच्चा तेल औसतन 56 डॉलर प्रति बैरल की दर से खरीदा गया। राज्यों की राशि बढ़ कर 2 लाख 80 हजार 278 करोड़ रुपये हो गई।

प्रश्न है कि क्या तेल मूल्य घटाने का कोई रास्ता है? हम अपनी आवश्यकता का 80 प्रतिशत आयात करते हैं। वित्त वर्ष के आरंभ में 108 अरब डॉलर (7.02 लाख करोड़ रुपये) का कच्चा तेल आयात किए जाने का अनुमान था। तब कच्चे तेल की औसत कीमत 65 डॉलर प्रति बैरल तथा एक डॉलर की 65 रुपये कीमत आंकी गई थी। आज कच्चे तेल के दाम बढ़ गए तथा रुपया और नीचे आ गया। रास्ता एक ही बचता है, कर कम करने का। यानी केन्द्र और राज्यों को प्राप्त करों की स्थिति देखने के बाद केन्द्र से ज्यादा जिम्मेवारी राज्यों की दिखती है। किंतु राज्यों के खर्च का ढांचा भी इस पर इतना टिक गया है कि इसे ज्यादा कम करते ही उनकी कठिनाइयां बढ़ जाएंगी। केन्द्र का राजकोषीय घाटा बढ़ जाएगा। जिन कल्याण कार्यक्रमों पर राशि खर्च होती हैउनके लिए अलग से धन जुटाना होगा। जीएसटी में लाने का तर्क सुनने में अच्छा है लेकिन राज्य ही इसके लिए तैयार नहीं हैं। निष्कर्ष यह कि विपक्षी दल इसे राजनीतिक मुद्दा बनाकर देश को संकट में न डालें। जब तक ओपेक देश तेल उत्पादन नहीं बढ़ाते, ईरान पर प्रतिबंध जारी रहेगा तथा वेनेजुएला का राजनीतिक संकट खत्म नहीं होगा अंतर्राष्ट्रीय मूल्य बढ़ते रहेंगे। ऐसे में हमारे पास बढ़े मूल्य को झेलना ही एकमात्र विकल्प है। जो राजनीतिक दल इसमें विरोध का नायक बनने की कोशिश कर रहे हैं वे गलत ही नहीं पाखंडी भी हैं।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

शनिवार, 22 सितंबर 2018

यही संघ का हिन्दुत्व व हिन्दू राष्ट्र है

 

अवधेश कुमार

संघ ने जितनी व्यापक तैयारी से तीन दिन का राष्ट्रीय समागम आयोजित कर अपने से जुड़े जितने विषय है, जिन-जिन मुद्दों पर आलोचना होती है सब पर विस्तार से बातें रखीं, उपस्थित मुद्दों पर भी मत रखा और अगर कुछ कमी रह गई तो उसे प्रश्नों के द्वारा पूरा किया उसके बाद दुराग्रहरहित व्यक्तियों का मन साफ हो जाना चाहिए। यह भारत में किसी संगठन द्वारा अपनी विचारधारा और मत को इतने व्यापक पैमाने पर और विस्तार से रखने वाला पहला कार्यक्रम था। संघ ने अपने विरोधी राजनीतिक दलों और कुछ बुद्धिजीवियों को भी निमंत्रण दिया था। संघ द्वारा विरोधियों के साथ संवाद करने की एक लोकतांत्रिक पहल थी जिसे ठुकराना किसी दृष्टि से उचित नहीं था। संवाद लोकतंत्र का प्राणतत्व है। यह अत्यंत ही गैर लोकतांत्रिक आचरण था। आप देश के सबसे बड़े संगठन परिवार के मातृसंगठन को अछूत बनाकर कब तक रख सकते हैं?

 प्रश्न उठता है कि संघ को आज इसकी आवश्यकता महसूस क्यों हुई? जिस ढंग से संघ पर अनेक आरोप लगाए जाते है, उसके विचारों की मनमानी व्याख्या होती है, हर बात में राजनीतिक दल तथा बुद्धिजीवियों का एक वर्ग संघ को घसीटता है, उसके सारे कार्यो को केवल सत्ता पाकर विचार लादने के लक्ष्य के रुप में वर्णित किया जाता है, बहुत सारे लोग संघ या उसके दूसरे संगठनों के साथ मिलकर काम करना चाहते हैं उनके मन में भी भ्रांतियां पैदा हो जातीं हैं....तो इन सब पर एक बार समागम करके विस्तार से अपना पक्ष रख दिया जाए। पिछले कुछ वर्षों में हिन्दुत्व के नाम पर जगह-जगह उच्छृंखल तत्व जिस तरह का व्यवहार कर रहे हैं, सोशल मीडिया पर हिन्दुत्व के नाम पर जैसी अनर्गल बातें की जा रहीं हैं....उनको भी संदेश देना जरुरी था कि संघ का हिन्दुत्व दर्शन क्या है। संघ परिवार के भीतर भी ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो अपनी विचारधारा के बारे में भ्रमित रहते हैं। इसीलिए संघ ने उसे सोशल मीडिया पर भी लाइव प्रसारित किया था ताकि देश विदेश में जहां भी लोग चाहें वे सुन सकते हैं।

इसके बाद यह प्रश्न उठता है कि मोहन भागवत द्वारा इतनी विस्तृत व्याख्या और स्पष्टीकरण के बाद क्या वाकई संघ का नया चेहरा आएगा? भागवत की बातों के पहला निष्कर्ष यह है कि डॉ. हेडगेवार ने जो कुछ सूत्र रुप में दिया संघ उसी को आगे विस्तृत कर रहा है। यह मान लेना कि संघ ने बदलाव नहीं किया है गलत होगा। पहले कु. सी. सुदर्शन तथा अब भागवत ने अपने नेतृत्व में विचार और व्यवहार के स्तर पर संघ को बदला है। संघ ने सीधे किसी आंदोलन में भाग न लेकर सिर्फ देशभक्त, निर्भीक और संमर्पित स्वयंसेवकों के निर्माण का दायित्व अपने उपर लिया था। स्वयंसेवक किसी आंदोलन में भाग ले सकता था, किसी संगठन का सदस्य भी बन सकता है। भागवत ने यहां तक कह दिया कि स्वयंसेवक चाहे तो किसी राजनीतिक दल का भी सदस्य बन सकता है। विरोधी आज भी 1966 की बंच ऑफ थॉट या विचार नवनीत को गलत उद्धृत करके संघ को कठघरे में खड़ा करते है। भागवत ने साफ किया कि वो बातें उस समय की परिस्थितियों में कही गई। हम बंद संगठन नहीं है। उनकी बातों से स्पष्ट है कि हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्र की मूल अवधारणा पर तो कायम है, किंतु इसकी व्याख्या धीरे-धीरे ज्यादा उदार, स्पष्ट और मान्य हुई है। किसी भी संगठन का क्रमिक विकास होता है। स्वामी दयानंद द्वारा स्थापित आर्य समाज, स्वामी विवेकानंद का रामकृष्ण मिशन सिमटते हुए संप्रदाय जैसे रह गए हैं, जबकि संघ न संप्रदाय बना न सिमटा, इसका सतत विस्तार हुआ है। यह बताता है कि देश, काल, परिस्थिति के अनुसार मूल हिन्दुत्व पर टिके हुए ही उसकी व्याख्या को धीरे-धीरे ज्यादा स्वीकार्य बनाया है।

संघ की सबसे ज्यादा आलोचना हिन्दुत्व को लेकर ही होती है। हिन्दुत्व कोई मजहब, कोई पूजा की पद्धति नहीं है। यह जीवन दर्शन है जो विविधाताओं से परिपूर्ण है।  भागवत ने कहा कि हिन्दुत्व ऐसा नहीं है जिसमें दूसरे मजहब न समा सकें। यदि मुसलमान इसमें नहीं आ सकते तो यह हिन्दुत्व होगा ही नहीं। यह उन लोगों के लिए संदेश है जो हिन्दुत्व के नाम विकृत तरीके की सोच और व्यवहार के शिकार हैं। भागवत ने कहा कि विविधता हिन्दू संस्कृति की शक्ति है इसे विश्व में हिंदुत्व की स्वीकार्यता बढ़ रही है। पर भारत में पिछले ढेड़ से दो हजार सालों में धर्म के नाम पर अधर्म बढ़ा, रूढ़ियां बढ़ीं इसलिए भारत में हिंदुत्व के नाम पर रोष होता है। धर्म के नाम बहुत अधर्म का काम हुआ है। इसलिए अपने व्यवहार को ठीक करके हिंदुत्व के सच्चे विचार पर चलना चाहिए। उनसे पूछा गया कि हिंदुत्व, हिंदुनेस और हिंदुइज्म क्या तीनों एक ही है?उन्होंने उत्तर दिया--नहीं, इज्म यानी वाद एक बंद चीज मानी जाती है, उसमें विकास के लिए खुली राह नहीं होती है। हिंदुत्व एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। हिंदुत्व अन्य मतावलंबियों के साथ तालमेल कर चल सकने वाली एकमात्र विचारधारा है। भारत में रहने वाले सभी अपने हैं।

हिन्दुत्व की इससे बढ़िया व्याख्या नहीं हो सकती। कहा गया है- यस्तु सर्वाणि भूतानि, सर्वभूतेषु च आत्मनः। यानी सभी में एक ही तत्व है। सब मुझमे हैं और मैं सबमे हूं। इसमें किसी के प्रति भेदभाव की गुंजाइश कहां है। एक उदाहरण अथर्ववेद के पृथिवी सुक्त का दिया जा सकता है। इसमें ऋषि से श्ष्यि प्रश्न करते हैं। ‘‘ऋषिवर! हमारी इस धरती के निवासियों का सृजनात्मक स्वरूप क्या हैं?’’ऋषि उत्तर देते हैं-‘‘नाना जातिः नाना धर्माः नाना वर्णाः,नाना वर्चस यथोकसम्’’। अर्थात् हमारी इस धरती पर विविध जातियों, विविध धर्मों, विविध वर्णों और विविध भाषा-भाषियों का निवास है। शिष्य फिर प्रश्न करते हैं-‘‘यदि हमारी इस भूमि के निवासियों में इतनी विविधता है,तब यहां एकता कैसे संभव होगी?’’ऋषि उत्तर देते हैं-‘‘ यदि इस एक सिद्धान्त पर लोग आचरण करें कि माताः भूमिः पुत्रोअहम् पृथ्व्यिा अर्थात् यह भूमि माता-पिता की, इस पृथिवी की हम संतान हैं, तो सहजभाव से सब परस्पर भाई-भाई बन जाते हैं और तब सरलता से विविधता में एकता हो सकती है।’’शिष्य फिर पूछते हैं-‘‘ क्या एकता के लिए इतना यथेष्ट है?’’ऋषि उत्तर देते हैं-‘‘ नहीं, उन्हें एक बात और करनी होगी, और वह यह कि -वाचः मधु- अर्थात् जब परस्पर बात करें, वाणी में मिठास हो, कटुता या हिंसा न हो।’’

मोहन भागवत ने हिन्दुत्व के इसी व्यापक स्वरुप को संघ का सिद्धांत बताया है। हिन्दू राष्ट्र का यह अर्थ नहीं कि हम संविधान नहीं मानते और जबरन परिवर्तन कर अन्य मजहबों के अधिकार छीन लेंगे। दूसरे, इसे हम हिन्दू राष्ट्र मानते हैं,बनाने की आवश्यकता ही नही। उन्होंने गोरक्षा से लेकर जनसंख्या नीति, भाषा, शिक्षा नीति, जातिभेद और छुआछूत, अंतर्जातीय एवं अंतधर्मीय विवाह, महिलाओं के सशक्तीकरण, यहां तक की समलैंगिकता पर भी विचार प्रकट किए और सबमें बनाई गई छवि के विपरीत प्रगतिशील और उदार विचार। गोरक्षा के नाम पर हिंसा के संदर्भ में कहा कि कानून हाथ में लेने वालों पर कार्रवाई होनी चाहिए। गोरक्षा करने वाले गाय को घर पर रखें, उसे खुला छोड़ेंगे तो आस्था पर सवाल उठेगा। इसलिए गो संवर्धन पर विचार होना चाहिए। अच्छी गौशाला चलाने वाले कई मुसलमान भी हैं। भाषा के बारे में उन्होंने कहा भारत की सभी भाषाएं हमारी अपनी है। किसी भाषा से शत्रुता करने की जरूरत नहीं है। अंग्रेजी का हौवा जो हमारे मन में है उसको निकालना चाहिए। देश का काम अपनी भाषा में हो इसकी आवश्यकता है। हिंदी की बात पुराने समय से चली है अधिक लोग इसे बोलते हैं इसीलिए चली है। लेकिन इसका मन बनाना पड़ेगा, कानून बनाने से काम नहीं चलेगा। उन्होंने जाति व्यवस्था को जाति अव्यवस्था कहा, अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहित करने की बात की। आरक्षण को अभी आवश्यक बताया लेकिन कहा कि समस्या आरक्षण की राजनीति है।  

इस प्रकार देखें तो संघ ने अपने को पूरी तरह खोलकर देश के सामने रख दिया है। थोड़े शब्दों में कहें तो उन्होंने. चारित्र्य संपन्न देश़ जिसके नागरिक सुशील हों, ज्ञान संपन्न देश, संगठित समरस,. समतायुक्त, शोषणमुक्त समाज को भविष्य का भारत बताया है। उन्होंने एक ऐसे आदर्श देश का लक्ष्य पेश किया है जो दुनिया के गरीब, वंचित और पिछडे देशों की प्रगति के लिए सक्रिय रहने के साथ विश्व कल्याण के लिए काम करे। हमारे महापुरूषों ने ऐसे ही भारत की कल्पना की थी। विरोधी कुछ भी कहें संघ ने व्यापक पैमाने पर संदेश दिया है और चूंकि यह सबके समझने लायक है, सकारात्मक है इसलिए इसका असर होगा। नए समर्थक पैदा होंगे। हां, इससे हिन्दुत्व के नाम पर दूसरे मजहब से नफरत करने वाले, उन पर वैचारिक हमला करने वाले निराश और क्षुब्ध होंगे। किंतु काम करने वालों को बिल्कुल स्पष्ट दिशा मिल गई है कि संघ क्या है, क्या चाहता है और कैसे काम करना चाहता है। भागवत ने नए दौर की शुरुआत की है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 09811027208

 

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शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

गति पकड़ चुकी है अर्थव्यवस्था

अवधेश कुमार

जिस तरह का राजनीतिक विमर्श में देश में चल रहा है उसे स्वीकार कर लिया जाए तो आम जनता के मानस पटल पर यही अंकित होगा कि भारत हर मामले में अंधकार की गर्त में जा रहा है। वास्तव में देश की असली तस्वीर राजनीतिक वाद-प्रतिवाद से परे है। अगर दुनिया के प्रमुख संस्थानों के आकलनों को आधार बनाएं तो भारत का आर्थिक आधार इतना मजबूत हो रहा है कि वह कुछ दशकों में महाशक्ति की कतार मेें आ सकता है। हालांकि हम वर्तमान अंतर्राष्टीय आर्थिक और वित्तीय ढांचे को अंतिम रुप में विश्व के लिए कल्याणकारी नहीं मानते। भारत ने उसी ढांचे के साथ समायोजन करने की दिशा में जुलाई 1991 से कदम बढ़ाया और यह प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। इसलिए हमें मूल्यांकन इसी ढांचे के अंतर्गत करना होगा। जो राजनीतिक दल यह माहौल बना रहे हैं कि भारत तो विकास में पिछड़ गया, हर ओर हाहाकार है, अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गया.....वे शत-प्रतिशत निराधार है। ध्यान रखिए, वो सब इस ढांचे से बाहर की बात नहीं कर रहे हैं। आज कोई भी राजनीतिक दल बाजार आधारित वैश्विक अर्थव्यस्था से अलग सोच रखती ही नहीं। हम यह तो कह सकते हैं कि जहां हमें होना चाहिए वहां हम नहीं हैं, किंतु सच यह है कि अर्थव्यवस्था के किसी मानक पर इस समय भारत की स्थिति निराशाजनक नही है। 

 इस समय वर्तमान वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल से जून) का जो आर्थिक आंकड़ा है वह हर किसी की अपेक्षा से ज्यादा बेहतर है। सरकार भी शायद यह उम्मीद नहीं कर रही थी कि देश का सकल घरेलू उत्पाद 8.2 प्रतिशत की दर से बढ़ सकता है। रॉयटर्स के अर्थशास्त्रियों ने इस तिमाही 7.6 प्रतिशत सकल घरेलू उत्पाद का अनुमान व्यक्त किया था। यह पिछले 2 साल में सबसे ऊंची विकास दर है। इससे पहले 2015-16 की जनवरी-मार्च तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद में सर्वाधिक तेज वृद्धि हुई थी। उस दौरान विकास दर 9.3 प्रतिशत रही थी। पिछले वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही मंे तो विकास दर 5.59 प्रतिशत तक गिर गई थी। यह भी ध्यान रखिए कि विकास दर लगातार चौथी तिमाही में बढ़ी है। पिछली तिमाही यानी जनवरी से मार्च में विकास 7.7 प्रतिशत रही थी। अक्टूबर से दिसंबर 2017   में 7 प्रतिशत, जुलाईसे सितंबर 2017 में   6.3 प्रतिशत थी। इससे तुलना करिए कि और फिर निष्कर्ष निकालिए हम आगे बढ़ रहे हैं या पीछे खिसक रहे हैं।

इस विकास दर का महत्व यह है कि दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्था का भारत का जो पद हासिल था वह बिल्कुल सुरक्षित हो गया है। भारत के बाद चीन का स्थान है। चीन ने दूसरी तिमाही में 6.7 प्रतिशत की विकास दर हासिल की है। चीन और भारत मेें अंतर यह है कि वहां जनवरी से दिसंबर का वित्तीय कैलेंडर लागू है, जबकि भारत में अप्रैल से मार्च का वित्तीय कैलेंडर चलता है। अभी भी चीन की अर्थव्यवस्था का आकार हमसे बहुत ज्यादा है जहां तक पहुंचने में हमें काफी पसीना बहाना होगा। यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि अर्थशास्त्रियांे के सुझाव पर मोदी सरकार ने 2015 में सकल घरेलू उत्पाद की गणना के लिए आधार वर्ष 2004-05 से बदलकर 2011-12 कर दिया था। तो आलोचक कहेंगे कि उस आधार वर्ष से विकास दर इतना हुआ नहीं। किंतु दुनिया इस बदलाव को स्वीकार कर चुकी है। हर देश में ऐसा होता है जब अर्थव्यवस्था के मापन का आधार वर्ष कुछ अंतराल पर बदला जाता है। हमारी अर्थव्यस्था का आकार 2011-12 की स्थिर कीमतों के आधार पर 2018-19 की पहली तिमाही में करीब 33.74 लाख करोड़ रुपये है। यह पिछले साल की पहली तिमाही में 31.18 लाख करोड़ रुपये थी। यही 8.2 प्रतिशत की विकास दर दर्ज होने का कारण है। वर्तमान वित्त वर्ष की पहली तिमाही में ग्रॉस वेल्यू एडेड (जीवीए) यानी सकल मूल्य सवंर्धित विकास दर 8 प्रतिशत रही है। सकल घरेलू उत्पाद के माध्यम से उपभोक्ताओं और मांग के दृष्टिकोण से किसी देश की आर्थिक गतिविधियों की तस्वीर बनती है जबकि इसके उलट जीवीए के जरिए निर्माताओं या आपूर्ति के लिहाज से आर्थिक गतिविधियों की तस्वीर।

 अब यह समझें कि इस विकास दर के पीछे किन-किन क्षेत्रों का योगदान है। यह जानना इसलिए जरुरी है कि विकास दर अर्थव्यस्था की समस्त गतिविधियों को समेटे होता है। वर्तमान वित्त वर्ष की पहली तिमाही में 7 प्रतिशत से ज्यादा की विकास दर देने वालों में विनिर्माण, निर्माण, बिजली, गैस, जल आपूर्ति, रक्षा, अन्य उपयोगी सेवाएं आदि क्षेत्र शामिल हैं। विनिर्माण में सबसे ज्यादा 13.5 प्रतिशत की विकास दर रही। निर्माण में 8.7 प्रतिशत की विकास रही। ये दोनों आंकड़े पिछले सारे अनुमानों से बहुत ज्यादा हैं। विनिर्माण की विकास दर पिछले साल 1.8 प्रतिशत रही। हां, खनन क्षेत्र में 0.1 प्रतिशत की ही बढ़ोत्तरी हुई। किंतु भारत की अर्थव्यवस्था में सबसे ज्यादा लोगों का पालन करने वाली कृषि में 5.3 प्रतिशत विकास दर्ज की गई। यह बहुत बड़ी बात है। पिछले साल इस अवधि में कृषि विकास दर 03 प्रतिशत तक सिमटी थी। वित्तीय क्षेत्र 6.5 प्रतिशत की दर से बढ़ा। विनिर्माण क्षेत्र का मतलब अर्थशास्त्री वेहतर समझते हैं। इसक मतलब अर्थव्यवस्था के वर्तमान ढांचे के कई महत्वपूर्ण अंगों का आगे बढ़ने की दिशा में गतिशील होना है। बुनियादी उद्योगों का का विकास दर 6. 6 प्रतिशत रहा है। इसमें कोयला, सीमेंट, रिफायनरी उत्पाद और उर्वरकों का योगदान है। पिछले साल जुलाई में बुनियादी उद्योगों की वृद्धि दर 2.9 प्रतिशत थी।

अर्थव्यवस्था के इतने महत्वपूर्ण क्षेत्र यदि गतिशील हैंं तो इसका अर्थ यह है कि देश में व्यापक पैमाने पर रोजगार सृजन भी हुआ है। विनिर्माण और निर्माण दोनों मिलाकर संगठित क्षेत्र में सबसे ज्यादा रोजगार देते हैं। बिना व्यक्तियों के काम किए तो इसकी वृद्धि हुई नहीं होगी। इसके साथ देश की कर आय भी जुड़ी है। कृषि का तो रोजगार से सीधा लेना-देना है। बुनियादी क्षेत्र तभी गतिशील होता है जब उसकी मांग बढ़ती है। और मांग का मतलब है अन्य क्षेत्रों का तेज विकास। कहने का अर्थ यह अर्थव्यवस्था की तस्वीर हाहाकार और छाती पीट से बिल्कुल अलग है।

ऐसा नहीं है कि दुनिया हमें स्वीकार नहीं रही। दो उदाहरण देखिए। पिछले 11 जुलाई को विश्व बैंक ने यह रिपोर्ट दिया कि भारत फ्रांस को पीछे छोड़कर दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। फ्रांस की अर्थव्यवस्था 2017 में 2.58 खरब डॉलर (177 लाख करोड़ रुपए) थी। भारत की अर्थव्यवस्था इससे ज्यादा 2.59 खरब डॉलर (178 लाख करोड़ रुपए) रही। यह पिछले साल की बात है जब नोटबंदी और जीएसटी के आरंभिक चोट से देश धीरे-धीरे उबर रहा था। वर्ल्ड बैंक ग्लोबल इकोनॉमिक्स प्रॉस्पेक्टस रिपोर्ट यानी विश्व बैंक वैश्विक आर्थिक संभावनाएं रिपोर्ट के अनुसार नोटबंदी और फिर जीएसटी के बाद आई मंदी से भारत की अर्थव्यवस्था उबर रही है। जाहिर है, इस वर्ष के अंत तक हमारी अर्थव्यवस्था का आकार और बढ़ेगा। हालांकि भारत की आबादी 134 करोड़ और फ्रांस की 6.7 करोड़ है। विश्व बैंक ने कहा है कि आबादी के कारण भारत के मुकाबले फ्रांस में प्रति व्यक्ति आमदनी 20 गुना ज्यादा है। विश्व बैंक ने यह भी कहा है कि भारत 2032 तक दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है। रिपोर्ट तैयार करने वाले विश्व बैंक के निदेशक अहयान कोसे के अनुसार भारत की अर्थव्यवस्था मजबूत है और इसमें टिकाऊ विकास देने की क्षमता है। अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी और निवेश बढ़ने से भारत का सकल घरेलू उत्पाद मजबूत हुआ है। एक अन्य रिपोर्ट वर्ल्ड पावर्टी क्लॉक औफ ब्रुकिंग्स की आई है। इसमें विश्व भर की गरीबी का आकलन है। इसमें कहा गया है कि अब भारत दुनिया में सबसे ज्यादा गरीब जनसंख्या वाला देश नहीं है। भारत में जहां 7 करोड़ आबादी बेहद गरीब में है, वहीं नाईजीरिया में 8.7 करोड़ लोग बेहद गरीब हैं। नाईजीरिया में जहां हर एक मिनट में छह लोग गरीबी में धकेले जा रहे हैं, वहीं भारत में हर मिनट में 44 लोग गरीबी से बाहर आ रहे हैं। ऐसी और भी कई रिपोर्टें हम यहां उद्वृत कर सकते हैं।

तो यह है मान्य वैश्विक रिपोर्टो में भारत की अर्थव्यवस्था एवं इसकी क्षमता की वर्तमान एवं भविष्य का आकलन जो बताता है कि हम सतत सोपानों को लांघते हुए आगे बढ़ रहे हैं। निस्संदेह, कई क्षेत्रों पर फोकस करके काम करने की आवश्यकता है। यूपीए के अंतिम पांच सालांे में जर्जर हो चुकी बैंकिंग व्यवस्था को संभालना है, जीएसटी व्यवस्था को और स्थायित्व देना है। रुपया जैसे दुनिया के अनेक महत्वपूर्ण करेंसियों के मुकाबले मजबूत है उसी तरह अमेरिकी डॉलर के साथ भी उसे मजबूती से सामना करने योग्य बनाना है। किंतु सारे तथ्यों का तटस्थ अवलोकन यही निष्कर्ष देता है कि भारत की अर्थव्यवस्था मजबूत आधार बनाती हुई आगे दौड़ने की पटरी पर आकर गति पकड़ चुकी है। कामना करिए कि रास्ते में कोई बड़ा अवराध न आए, कोई दुर्घटना न हो।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्पलेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

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